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देवी भागवत महापुराण ( देवी भागवत)

Devi Bhagwat Purana (Devi Bhagwat Katha)

स्कन्ध 4, अध्याय 11 - Skand 4, Adhyay 11

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मन्त्रविद्याकी प्राप्तिके लिये शुक्राचार्यका तपस्यारत होना, देवताओंद्वारा दैत्योंपर आक्रमण, शुक्राचार्यकी माताद्वारा दैत्योंकी रक्षा और इन्द्र तथा विष्णुको संज्ञाशून्य कर देना, विष्णुद्वारा शुक्रमाताका वध

व्यासजी बोले- तत्पश्चात् देवताओंके चले जानेपर शुक्राचार्यने उन दैत्योंसे कहा- हे श्रेष्ठ दानवो! पूर्वकालमें ब्रह्माजीने मुझसे जो कहा था, उसे तुमलोग सुनो। दैत्योंके वधके लिये भगवान् विष्णु सदा प्रयत्नरत रहते हैं, वे दैत्योंका वध अवश्य करेंगे। जैसे वाराहका रूप धारण करके उन्होंने हिरण्याक्षका वध किया और नृसिंहरूपसे हिरण्यकशिपुको मारा, उसी प्रकार उत्साहसम्पन्न होकर वे सब दैत्योंका संहार करेंगे इसमें सन्देह नहीं है ॥ 1-3 ॥

मुझे जान पड़ता है कि वैसा समुचित मन्त्रबल अभी मेरे पास नहीं है, जिससे मेरे द्वारा सुरक्षित होकर तुमलोग इन्द्र तथा देवताओंको जीतनेमें समर्थ हो सको अतः हे श्रेष्ठ दानवगण! तुमलोग कुछ समयतक प्रतीक्षा करो। मैं मन्त्रसिद्धिके लिये आज ही भगवान् शिवके पास जा रहा हूँ। हे श्रेष्ठ दानवो! महादेवजीसे मन्त्र लेकर मैं तत्काल आऊँगा और यथावत् रूपमें तुमलोगोंको सिखा दूँगा ॥ 46 ॥

दैत्योंने कहा- हे मुनिश्रेष्ठ! देवताओंसे पराजित होकर हमलोग अत्यन्त निर्बल हो गये हैं, अत: उतने समयतक प्रतीक्षा करनेके लिये हम पृथ्वीपर रहनेमें कैसे समर्थ हो सकते हैं ? सभी पराक्रमी दानव मारे जा चुके हैं और जो शेष बचे हुए हैं, सुखको इच्छा करनेवाले वे अब युद्धमें ठहरनेमें समर्थ नहीं हैं ॥ 7-8 ॥

शुक्राचार्य बोले- जबतक मैं शिवजीसे मन्त्रविद्या लेकर नहीं आता हूँ, तबतक तुमलोग शान्ति और तपस्यासे युक्त होकर यहाँ रुके रहो ॥ 9 ॥

विद्वानोंने कहा है कि समयानुसार साम, दान आदिका प्रयोग करना चाहिये। बुद्धिमान् तथा वीर पुरुष देश, काल, बल, शक्ति और सेनाको जानकारी करके ही अपना सामर्थ्य दिखाते हैं ॥ 10 ॥बुद्धिमान् पुरुषोंको चाहिये कि अपने कल्याणकी इच्छासे समयपर शत्रुओंकी भी सेवा करे और अपनी शक्तिका संचय हो जानेपर उन्हें मार डाले ॥ 11 ॥ अतः देवताओंकी विनती करके छलपूर्वक सामनीतिका प्रयोग करते हुए मेरे लौटनेकी प्रतीक्षाके साथ अपने-अपने घरोंमें रहो ॥ 12 ॥

हे दानवो। महादेवजीसे मन्त्र प्राप्त करके मैं आऊँगा और तब उसी मन्त्रबलका आश्रय लेकर हमलोग देवताओंसे युद्ध करेंगे ॥ 13 ॥

हे महाराज! उन दानवोंसे ऐसा कहकर दृढ़ संकल्पवाले मुनिश्रेष्ठ शुक्राचार्य मन्त्रप्राप्तिके लिये शिवजीके पास चले गये ॥ 14 ॥

तदनन्तर दैत्योंने सत्यवादी, धैर्यवान् तथा देवताओंक विश्वासपात्र प्रह्लादको देवताओंके पास भेजा 15 असुरोंके साथ वहाँ जाकर राजा प्रह्लाद विनय सम्पन्न होकर देवताओंसे नम्रतायुक्त वचन बोले । हे देवताओ! हम सभी लोगोंने शस्त्र रख दिये हैं और कवचका त्याग कर दिया है। अब हम वल्कल धारण करके तपस्या करेंगे ॥ 16-17 ॥

प्रह्लादका वचन सुनकर देवताओंने उसे सत्य मान लिया और इसके बाद वे निश्चिन्त होकर प्रसन्नतापूर्वक वहाँसे लौट गये ॥ 18 ॥

तब दैत्योंके शस्त्र त्याग देनेपर देवता युद्धसे विरत हो गये और चिन्तारहित होकर अपने-अपने घर जाकर स्वस्थचित्त हो क्रीडाविलासमें संलग्न हो गये ।। 19 ।।

उस समय दैत्यगण पाखण्डका सहारा लेकर तपस्वीके रूपमें तपस्यारत होकर शुक्राचार्यके आगमनकी प्रतीक्षा करते हुए कश्यपमुनिके आश्रम में रहने लगे ॥ 20 ॥

उधर, मुनि शुक्राचार्यने कैलासपर्वतपर पहुँचकर शंकरजीको प्रणाम किया। भगवान् शिवके पूछने पर कि 'आपका क्या कार्य है ? - उन्होंने कहा- हे देव! मैं देवताओंकी पराजय और असुरोंकी विजयके लिये उन मन्त्रोंको चाहता हूँ, जो बृहस्पतिके भी पास न हों ॥। 21-22 ॥व्यासजी बोले- उनका वचन सुनकर सर्वज्ञ और कल्याणकारी भगवान् शिव मनमें सोचने लगे कि अब मुझे क्या करना चाहिये? ये दैत्यगुरु शुक्राचार्य देवताओंके प्रति द्रोह बुद्धिसे युक्त होकर उन दैत्योंकी विजयके लिये मन्त्रहेतु इस समय यहाँ आये हैं, अतः मुझे देवताओंकी रक्षा करनी चाहिये ऐसा सोचकर शिवाजीने उन्हें यह अत्यन्त कठोर और दुष्कर व्रत करनेको कहा- पूरे एक हजार वर्षोंतक यदि आप सिर नीचे करके कणधूम (भूसीके धुएँ) का पान करेंगे, तभी आपका कल्याण होगा और आप मन्त्र प्राप्त कर सकेंगे ॥ 23-26 ॥

शिवजीके ऐसा कहनेपर उन्होंने महेश्वरको प्रणाम करके यह वचन कहा- 'बहुत अच्छा', हे देव! हे सुरेश्वर। आपने मुझे जो आदेश दिया है, मैं उस व्रतका पालन करूँगा ॥ 27 ॥

व्यासजी बोले- शिवजीसे ऐसा कहकर मन्त्रप्राप्तिके लिये दृढ़संकल्प शुक्राचार्यजी शान्त होकर धुएँका सेवन करते हुए कठोर व्रत करने लगे ॥ 28 ॥

तब उस समय शुक्राचार्यको व्रतमें संलग्न तथा दैत्योंको [ तपस्वी बनकर पाखण्ड में निरत देखकर देवता लोग आपसमें मन्त्रणा करने लगे ॥ 29 ॥

हे राजन्! भलीभाँति विचार करके सभी | देवता संग्रामके लिये उद्यत हो गये और शस्त्रास्त्र धारणकर वहाँ पहुँच गये, जहाँ वे बड़े-बड़े दानव विद्यमान थे ॥ 30 ॥

तदनन्तर दैत्यगण उन आये हुए देवताओंको आयुधोंसे सज्जित और कवच धारण किये तथा अपनेको उनसे सब ओरसे घिरा देखकर भयसे व्याकुल हो उठे ॥ 31 ॥

वे भयातुर दानव तुरंत उठकर खड़े हो गये और युद्धके लिये उद्यत बलाभिमानी देवताओंसे सारगर्भित वचन कहने लगे-हमने शस्त्र रख दिये हैं, हम भयभीत हैं और हमारे आचार्य इस समय व्रतमें संलग्न हैं। हे देवताओ! पहले अभयदान देकर भी आप लोग हमें मारनेकी इच्छासे आ गये। हेदेवगण! आप लोगोंका सत्य और श्रुतिसम्मत वह धर्म कहाँ चला गया कि 'जो शस्त्र रख चुके हों, भयभीत हों और शरणागत हो गये हों, उन्हें नहीं मारना चाहिये'॥ 32-34 ॥

देवता बोले- आप लोगोंने छलसे शुक्राचार्यको मन्त्र प्राप्त करनेके लिये भेजा है। हम आपलोगोंके तपको जान गये हैं, इसीलिये हमलोग युद्ध करनेके लिये उद्यत हुए हैं ॥ 35 ॥ हैं।

अब क्षुब्ध हुए आपलोग भी हाथोंमें शस्त्र धारणकर युद्धके लिये तैयार हो जाइये। यह सनातन सिद्धान्त है कि जब शत्रु दुर्बल हो, तभी उसे मार | डालना चाहिये ॥ 36 ॥

व्यासजी बोले- उनका वचन सुनकर सभी दैत्य आपसमें विचार करके भागने के लिये तत्पर हो गये और भयसे व्याकुल होकर वहाँसे निकल भागे ॥ 37 ॥

वे भयभीत दैत्य शुक्राचार्यकी माताकी शरणमें गये। उन दैत्योंको बहुत सन्तप्त देखकर उन्होंने अभय प्रदान कर दिया ॥ 38 ॥ शुक्राचार्यकी माताने कहा- हे दानवगण!
डरो मत, डरो मतः तुम लोग भय छोड़ दो। मेरे पास रहनेवालोंको भय हो ही नहीं सकता ॥ 39 ॥ यह वचन सुनकर दैत्योंकी व्यथा दूर हो गयी और वे शस्त्रास्त्र त्यागकर पूर्ण रूपसे निश्चिन्त हो वहींपर उनके उत्तम आश्रममें रहने लगे ll 40 ll

तब दैत्योंको पलायित देखकर वे देवता उनके पैरोंके चिह्नोंके पीछे-पीछे जाते हुए उनके बलाबलका बिना विचार किये हठात् उनके पास पहुँच गये ॥ 41 ॥ यहाँपर आये हुए सभी देवता आश्रममें रहनेवाले दैत्योंका वध करनेको उद्यत हो गये और शुक्राचार्यकी माताके रोकनेपर भी उन दैत्योंको मारने लगे 42 ॥

इस प्रकार देवताओंके द्वारा उन्हें मारे जाते हुए देखकर शुक्राचार्यकी माता बहुत काँपने लगों और बोली- मैं अभी समस्त देवताओंको अपने तपके प्रभावसे निद्राग्रस्त कर दे रही हूँ ॥ 43 ॥ऐसा कहकर उन्होंने निद्राको प्रेरित किया। उस निद्राने देवताओंके पास आकर उनपर अपना प्रभाव डाल दिया, जिससे इन्द्रसहित सभी देवता निद्राके वशीभूत हो गये और गूँगेकी भाँति पड़े रहे ॥ 44 ॥

इन्द्रको निद्राके द्वारा नियन्त्रित तथा दीन देखकर भगवान् विष्णुने कहा- हे देवश्रेष्ठ ! तुम मुझमें प्रविष्ट हो जाओ, तुम्हारा कल्याण हो, मैं तुम्हें अन्यत्र पहुँचाता हूँ ।। 45 ।।

विष्णुके इस प्रकार कहनेपर इन्द्र उनमें प्रवेश कर गये और उन श्रीहरिसे रक्षित होकर वे निर्भय तथा निद्रारहित हो गये ॥ 46 ॥

तब भगवान् विष्णुके द्वारा रक्षित इन्द्रको व्यथाशून्य देखकर शुक्राचार्यकी माता कुपित हो उठीं और यह वचन बोलीं- हे इन्द्र ! सभी देवताओंक देखते-देखते मैं अपने तपोबलसे विष्णुसहित तुम्हें खा जाऊँगी; ऐसा मेरा तपोबल है । 47-48 ।।

व्यासजी बोले- ऐसा कहकर उन्होंने अपनी योगविद्याके द्वारा इन्द्र तथा विष्णुको आक्रान्त कर दिया और वे दोनों महात्मा स्तब्ध हो गये ॥ 49 ॥ उन दोनोंको बहुत बड़े संकटमें पड़ा देखकर देवताओंको महान् आश्चर्य हुआ और वे दुःखीचित्त हो जोर-जोरसे चीखने-चिल्लाने लगे ॥ 50 ॥

देवताओंको चीखते-चिल्लाते देखकर इन्द्रने विष्णुसे कहा- हे मधुसूदन ! मैं [इस समय ] आपकी अपेक्षा अधिक आक्रान्त हूँ । अतः हे विष्णो! हे प्रभो! यह हमें जबतक भस्म न कर दे, आप तपस्याके अभिमानमें चूर इस दुष्टाको शीघ्रतापूर्वक मार डालिये। हे माधव! अब आप सोच-विचार न करें ।। 51-52 ॥

कीर्तिमान् इन्द्रके ऐसा कहनेपर लक्ष्मीपति भगवान् विष्णुने दया छोड़कर तत्काल सुदर्शन चक्रका स्मरण किया। विष्णुके वशमें रहनेवाला वह चक्र | उनके स्मरण करते ही आ पहुँचा और इन्द्रसे प्रेरित होकर उन्होंने कुपित हो उसके वधके लिये चक्रको अपने हाथमें ले लिया ।। 53-54 ॥उस चक्रको हाथमें लेकर भगवान् विष्णुने बड़े वेगसे उसका सिर काट दिया। तब उसे मृत देखकर इन्द्र हर्षित हो उठे। सभी देवता भी अत्यन्त सन्तुष्ट होकर विष्णुकी जयकार करने लगे। वे प्रसन्न होकर उनकी स्तुति करने लगे और सन्तापरहित हो गये । 55-56 ॥

स्त्रीवधसे [होनेवाले पाप] तथा भृगुमुनिके भीषण शापकी शंका करते हुए वे भगवान् विष्णु तथा इन्द्र उसी समयसे दुःखीचित्त रहने लगे ॥ 57 ॥

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देवी भागवत महापुराण
Index


  1. [अध्याय 1] वसुदेव, देवकी आदिके कष्टोंके कारणके सम्बन्धमें जनमेजयका प्रश्न
  2. [अध्याय 2] व्यासजीका जनमेजयको कर्मकी प्रधानता समझाना
  3. [अध्याय 3] वसुदेव और देवकीके पूर्वजन्मकी कथा
  4. [अध्याय 4] व्यासजीद्वारा जनमेजयको मायाकी प्रबलता समझाना
  5. [अध्याय 5] नर-नारायणकी तपस्यासे चिन्तित होकर इन्द्रका उनके पास जाना और मोहिनी माया प्रकट करना तथा उससे भी अप्रभावित रहनेपर कामदेव, वसन्त और अप्सराओंको भेजना
  6. [अध्याय 6] कामदेवद्वारा नर-नारायणके समीप वसन्त ऋतुकी सृष्टि, नारायणद्वारा उर्वशीकी उत्पत्ति, अप्सराओंद्वारा नारायणसे स्वयंको अंगीकार करनेकी प्रार्थना
  7. [अध्याय 7] अप्सराओंके प्रस्तावसे नारायणके मनमें ऊहापोह और नरका उन्हें समझाना तथा अहंकारके कारण प्रह्लादके साथ हुए युद्धका स्मरण कराना
  8. [अध्याय 8] व्यासजीद्वारा राजा जनमेजयको प्रह्लादकी कथा सुनाना इस प्रसंग में च्यवनॠषिके पाताललोक जानेका वर्णन
  9. [अध्याय 9] प्रह्लादजीका तीर्थयात्राके क्रममें नैमिषारण्य पहुँचना और वहाँ नर-नारायणसे उनका घोर युद्ध, भगवान् विष्णुका आगमन और उनके द्वारा प्रह्लादको नर-नारायणका परिचय देना
  10. [अध्याय 10] राजा जनमेजयद्वारा प्रह्लादके साथ नर-नारायणके बुद्धका कारण पूछना, व्यासजीद्वारा उत्तरमें संसारके मूल कारण अहंकारका निरूपण करना तथा महर्षि भृगुद्वारा भगवान् विष्णुको शाप देनेकी कथा
  11. [अध्याय 11] मन्त्रविद्याकी प्राप्तिके लिये शुक्राचार्यका तपस्यारत होना, देवताओंद्वारा दैत्योंपर आक्रमण, शुक्राचार्यकी माताद्वारा दैत्योंकी रक्षा और इन्द्र तथा विष्णुको संज्ञाशून्य कर देना, विष्णुद्वारा शुक्रमाताका वध
  12. [अध्याय 12] महात्मा भृगुद्वारा विष्णुको मानवयोनिमें जन्म लेनेका शाप देना, इन्द्रद्वारा अपनी पुत्री जयन्तीको शुक्राचार्यके लिये अर्पित करना, देवगुरु बृहस्पतिद्वारा शुक्राचार्यका रूप धारणकर दैत्योंका पुरोहित बनना
  13. [अध्याय 13] शुक्राचार्यरूपधारी बृहस्पतिका दैत्योंको उपदेश देना
  14. [अध्याय 14] शुक्राचार्यद्वारा दैत्योंको बृहस्पतिका पाखण्डपूर्ण कृत्य बताना, बृहस्पतिकी मायासे मोहित दैत्योंका उन्हें फटकारना, क्रुद्ध शुक्राचार्यका दैत्योंको शाप देना, बृहस्पतिका अन्तर्धान हो जाना, प्रह्लादका शुक्राचार्यजीसे क्षमा माँगना और शुक्राचार्यका उन्हें प्रारब्धकी बलवत्ता समझाना
  15. [अध्याय 15] देवता और दैत्योंके युद्धमें दैत्योंकी विजय, इन्द्रद्वारा भगवतीकी स्तुति, भगवतीका प्रकट होकर दैत्योंके पास जाना, प्रह्लादद्वारा भगवतीकी स्तुति, देवीके आदेशसे दैत्योंका पातालगमन
  16. [अध्याय 16] भगवान् श्रीहरिके विविध अवतारोंका संक्षिप्त वर्णन
  17. [अध्याय 17] श्रीनारायणद्वारा अप्सराओंको वरदान देना, राजा जनमेजयद्वारा व्यासजीसे श्रीकृष्णावतारका चरित सुनानेका निवेदन करना
  18. [अध्याय 18] पापभारसे व्यथित पृथ्वीका देवलोक जाना, इन्द्रका देवताओं और पृथ्वीके साथ ब्रह्मलोक जाना, ब्रह्माजीका पृथ्वी तथा इन्द्रादि देवताओंसहित विष्णुलोक जाकर विष्णुकी स्तुति करना, विष्णुद्वारा अपनेको भगवतीके अधीन बताना
  19. [अध्याय 19] देवताओं द्वारा भगवतीका स्तवन, भगवतीद्वारा श्रीकृष्ण और अर्जुनको निमित्त बनाकर अपनी शक्तिसे पृथ्वीका भार दूर करनेका आश्वासन देना
  20. [अध्याय 20] व्यासजीद्वारा जनमेजयको भगवतीकी महिमा सुनाना तथा कृष्णावतारकी कथाका उपक्रम
  21. [अध्याय 21] देवकीके प्रथम पुत्रका जन्म, वसुदेवद्वारा प्रतिज्ञानुसार उसे कंसको अर्पित करना और कंसद्वारा उस नवजात शिशुका वध
  22. [अध्याय 22] देवकीके छः पुत्रोंके पूर्वजन्मकी कथा, सातवें पुत्रके रूपमें भगवान् संकर्षणका अवतार, देवताओं तथा दानवोंके अंशावतारोंका वर्णन
  23. [अध्याय 23] कंसके कारागारमें भगवान् श्रीकृष्णका अवतार, वसुदेवजीका उन्हें गोकुल पहुँचाना और वहाँसे योगमायास्वरूपा कन्याको लेकर आना, कंसद्वारा कन्याके वधका प्रयास, योगमायाद्वारा आकाशवाणी करनेपर कंसका अपने सेवकोंद्वारा नवजात शिशुओंका वध कराना
  24. [अध्याय 24] श्रीकृष्णावतारकी संक्षिप्त कथा, कृष्णपुत्रका प्रसूतिगृहसे हरण, कृष्णद्वारा भगवतीकी स्तुति, भगवती चण्डिकाद्वारा सोलह वर्षके बाद पुनः पुत्रप्राप्तिका वर देना
  25. [अध्याय 25] व्यासजीद्वारा शाम्भवी मायाकी बलवत्ताका वर्णन, श्रीकृष्णद्वारा शिवजीकी प्रसन्नताके लिये तप करना और शिवजीद्वारा उन्हें वरदान देना