View All Puran & Books

देवी भागवत महापुराण ( देवी भागवत)

Devi Bhagwat Purana (Devi Bhagwat Katha)

स्कन्ध 2, अध्याय 10 - Skand 2, Adhyay 10

Previous Page 35 of 326 Next

महाराज परीक्षित्को डँसनेके लिये तक्षकका प्रस्थान, मार्गमें मन्त्रवेत्ता कश्यपसे भेंट, तक्षकका एक वटवृक्षको हँसकर भस्म कर देना और कश्यपका उसे पुनः हरा-भरा कर देना, तक्षकद्वारा धन देकर कश्यपको वापस कर देना, सर्पदंशसे राजा परीक्षित्‌की मृत्यु

सूतजी बोले [हे मुनिवृन्द] उसी दिन तक्षक नामक नाग नृपश्रेष्ठ परीक्षितृको शापित जानकर एक उत्तम मनुष्यका रूप धारण करके अपने घरसे शीघ्र निकल पड़ा। वृद्ध ब्राह्मणके वेषमें रास्तेपर चलते हुए उस तक्षकने महाराज परीक्षित्के यहाँ जाते हुए कश्यपको देखा ll 1-2 ॥

उस नागने उन मन्त्रवेत्ता ब्राह्मणसे पूछा- आप इतनी शीघ्र गति से कहाँ चले जा रहे हैं और कौन सा कार्य करनेकी आपकी इच्छा है ? ॥ 3 ॥ कश्यपने कहा- महाराज परीक्षित्को तक्षकनाग सनेवाला है अतः मैं उन्हें विषमुक्त करनेके लिये शीघ्रतापूर्वक वहीं जा रहा हूँ॥4॥

हे विप्रेन्द्र मेरे पास प्रबल विषनाशक मन्त्र है, अतएव यदि उनकी आयु शेष होगी तो मैं उन्हें जीवित कर दूँगा ll 5 llतक्षकने कहा- हे ब्रह्मन् ! मैं ही वह तक्षकनाग हूँ और मैं ही महाराज परीक्षित्को काटूंगा। मेरे काट लेनेपर आप चिकित्सा करनेमें समर्थ नहीं हो सकेंगे; अतएव आप लौट जाइये ॥ 6 ॥

कश्यपने कहा- हे सर्प! ब्राह्मणके द्वारा शापित किये गये राजाको आपके काटनेके उपरान्त मैं उन्हें अपने मन्त्रबलसे निःसन्देह जीवित कर दूंगा ॥ 7॥

तक्षकने कहा- हे विप्र हे अनघ! यदि आप मेरे काटे हुए नृपश्रेष्ठ परीक्षितको जीवित करने के लिये जा रहे हैं तो आप अपनी मन्त्र शक्तिका प्रभाव दिखाइये। मैं इसी समय इस वटवृक्षको अपने विषैले दाँतोंसे हँसता हूँ ॥ 83 ॥

कश्यपने कहा- हे सर्वश्रेष्ठ आप इसे काट लें अथवा इसे जलाकर भस्म कर दें तो भी मैं इसे पुनः जीवित कर दूँगा ।। 9 ।।

सूतजी बोले- नागराज तक्षकने उस वृक्षको डँस लिया और उसे जलाकर भस्म कर दिया। तब उसने कश्यपसे कहा- 'हे द्विजश्रेष्ठ ! अब आप इसे पुनः जीवित कीजिये'10 तक्षकनागकी विषाग्निसे भस्म हुए वृक्षके सम्पूर्ण भस्मको एकत्र करके कश्यपने यह बात कही- हे महाविषधर नागराज! अब आप मेरे मन्त्रका प्रभाव देखिये। मैं आपके देखते-देखते इस वटवृक्षको जीवन प्रदान करता हूँ ॥ 11-12 ॥

ऐसा कहकर हाथमें जल लेकर मन्त्रविद् कश्यपने उस जलको अभिमन्त्रित किया और उसे भस्मराशिपर छिड़क दिया। जलके पड़ते ही वह वटवृक्ष पुनः पहलेकी भाँति सुन्दर हो गया। उस वृक्षको इस प्रकार जीवित देखकर तक्षकको बड़ा आश्चर्य हुआ । ll 13-14 ॥

उस नागराजने कश्यपसे कहा हे विप्र आप इतना परिश्रम किसलिये करेंगे ? आपकी वह कामना मैं ही पूर्ण कर दूँगा। कहिये, आप क्या चाहते हैं ? ।। 15 ।।

कश्यपने कहा- हे पन्नग। मैं धनका अभिलाषी है: नृपश्रेष्ठ परीक्षित्‌को शापित जानकर अपनी मन्त्रविद्यासे उनका उपकार करनेके लिये मैं अपने घरसे निकला हुआ हूँ ll 16 ॥तक्षकने कहा- हे विप्रवर! राजासे जितना धन आप चाहते हैं, उतना धन मुझसे अभी ले लें और अपने घर लौट जायें, जिससे मैं अपने कृत्यमें सफल हो सकूँ ॥ 17 ॥

सूतजी बोले- तक्षककी यह बात सुनकर परमार्थवेत्ता कश्यपजी मनमें बार-बार सोचने लगे कि अब मुझे क्या करना चाहिये ? यदि मैं धन लेकर अपने घर जाता हूँ तो धनलोलुप होनेके कारण संसारमें मेरी कीर्ति नहीं होगी। यदि राजा जीवित हो जाते हैं तो मेरी अचल कीर्ति होगी तथा धन प्राप्तिके साथ-साथ पुण्य भी प्राप्त होगा ।। 18-20 ॥

यश ही रक्षणीय है और बिना यशके धनको धिक्कार है; क्योंकि प्राचीन कालमें महाराज रघुने कीर्तिके लिये अपना सब कुछ ब्राह्मणको दे दिया था। सत्यवादी हरिश्चन्द्र तथा दानी कर्णने भी केवल कीर्तिके लिये बहुत कुछ किया था अतः विषकी अग्निसे जलते हुए राजा परीक्षित्की उपेक्षा मैं कैसे करूँ ? ।। 21-22 ।।

यदि मैं महाराजको जिला दूँ तो सब लोगोंको दू अत्यन्त सुख मिलेगा और यदि राजा मर गये तो अराजकताके कारण सारी प्रजा नष्ट हो जायगी, इसमें सन्देह नहीं है ॥ 23 ॥

राजाके मृत हो जाने पर मुझे प्रजानाशका पाप लगेगा तथा संसारमें धन-लोभके कारण मेरी अपकीर्ति भी होगी ॥ 24 ॥

मनमें ऐसा विचार करके परम बुद्धिमान् कश्यपने ध्यान करके जाना कि महाराज परीक्षित्की आयु अब समाप्त हो चुकी है ॥ 25 ॥

इस प्रकार ध्यान दृष्टिसे धर्मात्मा कश्यप राजाकी मृत्यु निकट जानकर तक्षकसे धन लेकर अपने घर लौट गये ।। 26 ।।

कश्यपको लौटाकर वह नाम सातवें दिन राजाको सनेकी इच्छासे शीघ्र हस्तिनापुर चला गया ॥ 27 ॥

नगरमें पहुँचते ही उसने सुना कि मणि, मन्त्र तथा औषधियोंसे भलीभाँति सावधानीपूर्वक सुरक्षित होकर राजा परीक्षित् अपने महलमें रह रहे हैं॥ 28 ॥[यह जानकर ] ब्राह्मणके शापसे भयभीत सर्पराज तक्षकको बड़ी चिन्ता हुई वह सोचने लगा कि अब मैं किस उपायसे इस राजभवनमें प्रवेश करूँ? और इस पापी, मूढ, विप्रको पीड़ित करनेवाले तथा मुनिके शापसे आहत इस दुष्ट राजाको मैं कैसे छलूं ? ll 29-30 ll

पाण्डववंशमें ऐसा कोई नहीं हुआ, जिसने इस प्रकार किसी तपस्वी ब्राह्मणके गलेमें मृत सर्प डाल दिया हो ॥ 31 ॥

ऐसा निन्दित कर्म करके कालचक्रको जानते हुए भी यह राजा भवनमें रक्षकोंकी नियुक्ति करके राज-भवनमें छिपकर मृत्युकी वंचना कर रहा है और निश्चिन्त होकर पड़ा है। विप्रके शापानुसार मैं उस राजाको कैसे डयूँ ? ।। 32-33 ॥

यह मन्दबुद्धि इतना भी नहीं जानता कि मृत्यु तो अनिवार्य है? इसी कारण यह रक्षकोंकी नियुक्ति करके स्वयं भवनपर चढ़कर आनन्द ले रहा है ll 34 ll

यदि अमित तेजवाले दैवने मृत्यु निश्चित कर दी है तो करोड़ों प्रकारके प्रयत्नोंसे भी उसे कैसे टाला जा सकता है ? ॥ 35 ॥

पाण्डववंशका उत्तराधिकारी यह राजा परीक्षित् अपनेको मृत्युके मुखमें गया हुआ जानते हुए भी जीवित रहनेकी अभिलाषा रखकर सुरक्षित स्थानमें निश्चिन्त होकर पड़ा हुआ है ll 36 ll

यह यदि चाहता तो अनेक प्रकारके दान पुण्य द्वारा अपनी आयु बढ़ा सकता था क्योंकि धर्माचरण से व्याधि नष्ट होती है और उससे आयु स्थिर होती है ॥ 37 ॥

यदि ऐसा सम्भव नहीं था तो मृत्युके समय सम्पन्न की जानेवाली स्नान, दान आदि क्रियाएँ करके मृत्युके अनन्तर स्वर्गयात्रा कर सकता था, अन्यथा इसे नरक जाना होगा ll 38 ll

मुनिको पीड़ा पहुँचानेका पाप इस राजाको था ही और ब्राह्मणका घोर शाप अलगसे है। अतः अब | इसकी मृत्यु सन्निकट है ।। 39 ।।इस समय ऐसा कोई ब्राह्मण भी इसके पास नहीं है, जो इसे यह बता सके कि विधाताके द्वारा निर्धारित मृत्यु सर्वथा अनिवार्य है ॥ 40 ॥

ऐसा विचारकर तक्षकनागने अपने निकटवर्ती श्रेष्ठ नागोंको तपस्वी ब्राह्मणोंका वेष धारण कराकर राजाके पास भेजा। वे राजाको देनेके लिये फल-मूल आदि लेकर तैयार हो गये और तक्षकनाग भी एक छोटे से कीटके रूपमें फलके बीचमें छिप गया ।। 41-42 ॥

तब वे नाग फल आदि लेकर शीघ्र ही निकल पड़े और राजभवनमें पहुँचकर महलके पास खड़े हो गये ॥ 43 ॥

इस प्रकार तपस्वियोंको खड़े देखकर रक्षकोंने उनसे पूछा कि आपलोगोंकी क्या इच्छा है? तब उन्होंने कहा- हमलोग महाराजको देखनेके लिये तपोवनसे आये हैं । 44 ।।

पाण्डवकुलके सूर्य, शुभदर्शन तथा पराक्रमी अभिमन्यु पुत्र परीक्षित्को अथर्ववेदोक्त मन्त्रोंसे आशीर्वाद देने हेतु हमलोग यहाँ आये हैं ll 45 ll

आप जाकर महाराजसे कहें कि कुछ मुनिजन उनसे मिलने आये हैं और वे महाराजका मन्त्राभिषेक करके उन्हें मधुर फल देकर लौट जायेंगे ॥ 46 ॥

भरतवंशी राजाओंके कुलमें कभी भी द्वाररक्षक नहीं देखे गये। ऐसा भी कहीं सुना नहीं गया कि तपस्वियोंको राजाका दर्शन न मिले। जहाँ महाराज परीक्षित् विराजमान हैं, वहाँ हमलोग जायेंगे और उन्हें अपने आशीर्वादसे दीर्घायुष्य बनाकर आज्ञा लेकर लौट जायँगे । 47-48 ।।

सूतजी बोले-उन तपस्वियोंका वचन सुनकर रक्षकोंने उन्हें ब्राह्मण समझकर महाराजका आदेश सुनाते हुए कहा- हे विप्रो! हमारे विचारमें आज आपलोगोंको राजाका दर्शन नहीं हो सकेगा। अतः आप समस्त तपस्वीजन राजभवनमें कल उपधारें ।। 49-50 ।।

हे मुनिश्रेष्ठो! विप्रशापसे भयभीत होकर राजाने अपने महलमें ब्राह्मणोंका प्रवेश वर्जित कर रखा है इसमें संशय नहीं है ॥ 51 ॥तब ब्राह्मणोंने उनसे कहा-हमलोगोंकी ओरसे ये फल मूल तथा जल आप रक्षकगण राजाको दे दें

और हमलोगोंका आशीर्वाद पहुँचा दें ॥ 52 ॥ उन्होंने राजाके पास जाकर तपस्वियोंके आगमनकी बात बता दी। इसपर राजाने आज्ञा दी कि वे लोग फल-मूल आदि जो कुछ दे रहे हैं, उन्हें यहाँ लाओ और उन तपस्वियोंके आनेका कारण पूछ लो और उन्हें पुनः कल प्रातः आनेको कह दो। साथ ही मेरी ओरसे उन्हें प्रणाम कहकर यह भी कह देना कि आज मेरा मिलना सम्भव नहीं है ।। 53-54 ॥

उन द्वारपालोंने तपस्वियोंके पास जाकर उनके दिये हुए फल मूल आदि लाकर आदरपूर्वक राजाको अर्पित कर दिये 55 ॥

उन विप्रवेषमें आये नागेोंक चले जानेपर महाराजने फलोंको लेकर मन्त्रियोंसे कहा- हे सचिवो! आपलोग भी इन फलोंका सम्यक् सेवन कीजिये। मैं तो तपस्वियोंद्वारा अर्पित यही एक बड़ा फल खाऊँगा ।। 56-57 ।।

ऐसा कहकर उत्तरासुत राजा परीक्षित्ने सव फल अपने सुहृद् सचिवोंमें बाँट दिये और एक सुन्दर पका फल हाथमें लेकर उसे स्वयं विदीर्ण किया ।। 58 ।। जिस फलको राजाने चीरा, उसमें ताम्र वर्णवाला तथा काले नेत्रवाला एक छोटा-सा कीट राजाको दिखायी दिया। उसे देखकर राजाने अपने आश्चर्यचकित मन्त्रियोंसे कहा- सूर्य अस्त हो रहे हैं, अतः अब मुझे विषका भय नहीं है। मैं ब्राह्मणके उस शापको अंगीकार करता हूँ कि यह कीट मुझे काट ले। ऐसा कहकर महाराज परीक्षितने उसे अपने गलेपर रख लिया। सूर्यके अस्त होते ही गलेपर स्थित वह कीट साक्षात् कालस्वरूप भयानक तक्षकके रूपमें परिणत हो गया ।। 59-62 ॥

उस नागने तत्काल राजाको लपेट लिया तथा उन्हें इस लिया। यह देखते ही सभी मन्त्री आश्चर्यमें पड़ गये और अत्यधिक दुःखित होकर विलाप करने लगे ॥ 63 ॥

भयंकर रूपवाले उस सर्पको देखकर सभी सचिवगण भयभीत होकर वहाँसे भागने लगे और सभी रक्षकगण चिल्लाने लगे। इस प्रकार वहाँ महान् हाहाकार मच गया ।। 64 ।।उस सर्पके शरीरसे बद्ध हो जानेके कारण राजाका महान् बल प्रभावहीन हो गया, जिससे वे उत्तरापुत्र परीक्षित् कुछ भी बोल पाने तथा हिल-डुल सकनेमें असमर्थ हो गये ॥ 65 ॥

तक्षकके मुखसे विषजनित भयंकर आगकी ज्वालाएँ उठने लगीं। उस भीषण ज्वालाने क्षणभरमें राजाको जला दिया और शीघ्र ही उन्हें निष्प्राण कर दिया ॥ 66 ॥

इस प्रकार क्षणमात्रमें ही राजाका प्राण हरकर वह तक्षकनाग आकाशमें चला गया। वहाँ लोगोंने संसारको भस्मसात् कर देनेकी सामर्थ्यवाले उस तक्षकको देखा ॥ 67 ॥

वे राजा परीक्षित् प्राणहीन होकर जले हुए वृक्षकी भाँति गिर पड़े और राजाको मृत देखकर सभी लोग विलाप करने लगे ।। 68 ।।

Previous Page 35 of 326 Next

देवी भागवत महापुराण
Index


  1. [अध्याय 1] ब्राह्मणके शापसे अद्रिका अप्सराका मछली होना और उससे राजा मत्स्य तथा मत्स्यगन्धाकी उत्पत्ति
  2. [अध्याय 2] व्यासजीकी उत्पत्ति और उनका तपस्याके लिये जाना
  3. [अध्याय 3] राजा शन्तनु, गंगा और भीष्मके पूर्वजन्मकी कथा
  4. [अध्याय 4] गंगाजीद्वारा राजा शन्तनुका पतिरूपमें वरण, सात पुत्रोंका जन्म तथा गंगाका उन्हें अपने जलमें प्रवाहित करना, आठवें पुत्रके रूपमें भीष्मका जन्म तथा उनकी शिक्षा-दीक्षा
  5. [अध्याय 5] मत्स्यगन्धा (सत्यवती) को देखकर राजा शन्तनुका मोहित होना, भीष्मद्वारा आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत धारण करनेकी प्रतिज्ञा करना और शन्तनुका सत्यवतीसे विवाह
  6. [अध्याय 6] दुर्वासाका कुन्तीको अमोघ कामद मन्त्र देना, मन्त्रके प्रभावसे कन्यावस्थामें ही कर्णका जन्म, कुन्तीका राजा पाण्डुसे विवाह, शापके कारण पाण्डुका सन्तानोत्पादनमें असमर्थ होना, मन्त्र-प्रयोगसे कुन्ती और माडीका पुत्रवती होना, पाण्डुकी मृत्यु और पाँचों पुत्रोंको लेकर कुन्तीका हस्तिनापुर आना
  7. [अध्याय 7] धृतराष्ट्रका युधिष्ठिरसे दुर्योधनके पिण्डदानहेतु धन मांगना, भीमसेनका प्रतिरोध; धृतराष्ट्र, गान्धारी, कुन्ती, विदुर और संजयका बनके लिये प्रस्थान, वनवासी धृतराष्ट्र तथा माता कुन्तीसे मिलनेके लिये युधिष्ठिरका भाइयोंके साथ वनगमन, विदुरका महाप्रयाण, धृतराष्ट्रसहित पाण्डवोंका व्यासजीके आश्रमपर आना,
  8. [अध्याय 8] धृतराष्ट्र आदिका दावाग्निमें जल जाना, प्रभासक्षेत्रमें यादवोंका परस्पर युद्ध और संहार, कृष्ण और बलरामका परमधामगमन, परीक्षित्‌को राजा बनाकर पाण्डवोंका हिमालय पर्वतपर जाना, परीक्षितको शापकी प्राप्ति, प्रमद्वरा और रुरुका वृत्तान्त
  9. [अध्याय 9] सर्पके काटनेसे प्रमद्वराकी मृत्यु, रुरुद्वारा अपनी आधी आयु देकर उसे जीवित कराना, मणि-मन्त्र- औषधिद्वारा सुरक्षित राजा परीक्षित्का सात तलवाले भवनमें निवास करना
  10. [अध्याय 10] महाराज परीक्षित्को डँसनेके लिये तक्षकका प्रस्थान, मार्गमें मन्त्रवेत्ता कश्यपसे भेंट, तक्षकका एक वटवृक्षको हँसकर भस्म कर देना और कश्यपका उसे पुनः हरा-भरा कर देना, तक्षकद्वारा धन देकर कश्यपको वापस कर देना, सर्पदंशसे राजा परीक्षित्‌की मृत्यु
  11. [अध्याय 11] जनमेजयका राजा बनना और उत्तंककी प्रेरणासे सर्प सत्र करना, आस्तीकके कहनेसे राजाद्वारा सर्प-सत्र रोकना
  12. [अध्याय 12] आस्तीकमुनिके जन्मकी कथा, कद्रू और विनताद्वारा सूर्यके घोड़ेके रंगके विषयमें शर्त लगाना और विनताको दासीभावकी प्राप्ति, कद्रुद्वारा अपने पुत्रोंको शाप