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देवी भागवत महापुराण ( देवी भागवत)

Devi Bhagwat Purana (Devi Bhagwat Katha)

स्कन्ध 5, अध्याय 2 - Skand 5, Adhyay 2

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महिषासुरके जन्म, तप और वरदान प्राप्तिकी कथा

राजा बोले- हे स्वामिन्! आपने भगवती योगेश्वरीका यह प्रभाव विस्तारपूर्वक कहा। अब | आप उन महामायाका चरित्र कहिये, उसे सुननेकी मेरी बड़ी उत्सुकता है। जो मनुष्य इस बातकी भलीभाँति जानता है कि यह स्थावर-जंगमात्मक संसार उन्हींसे उत्पन्न हुआ है, वह उन महादेवीके प्रभावको क्यों नहीं सुनना चाहेगा? ॥ 1-2 ॥

व्यासजी बोले- हे राजन्! सुनिये, मैं विस्तारके साथ वर्णन करूँगा। हे महामते! जो वक्ता श्रद्धालु एवं शान्तचित्त श्रोतासे भगवतीकी कथा नहीं कहता, वह तो मन्द बुद्धिका होता है ॥ 3 ॥हे राजन् प्राचीन कालकी बात है, जिस समय भूतलपर महिषासुर नामक राजा राज्य करता था, उस समय देवताओं और दैत्योंकी सेनाओंमें भीषण युद्ध छिड़ गया ॥ 4 ॥

हे राजेन्द्र ! उन्हीं दिनों सुमेरुपर्वतपर जाकर उस महिष नामक दानवने हृदयमें अपने इष्ट देवताका ध्यान करते हुए पूरे दस हजार वर्षोंतक देवताओंतकको चकित कर देनेवाला उत्तम तथा कठोर तप किया ॥ 5

हे महाराज ! उसकी तपस्यासे लोकपितामह ब्रह्माजी प्रसन्न हो गये, अतः हंसपर सवार होकर वे चतुर्मुख ब्रह्मा वहाँ प्रकट होकर उससे बोले - हे धर्मात्मन्! वर माँगो, मैं तुम्हारी अभिलाषा पूर्ण करूँगा ॥ 6-7 ॥

महिष बोला- हे देवदेव! हे ब्रह्मन्! हे प्रभो!Bमैं अमरत्व चाहता हूँ। हे पितामह! आप ऐसा वर दीजिये, जिससे मुझे मृत्युका भय न रहे ॥ 8 ॥

ब्रह्माजी बोले- इस जगत्में] उत्पन्न हुएका मरना और मरे हुएका जन्म लेना निश्चित है। समस्त जीवोंका जन्म और मरण अनिवार्यरूपसे होता रहता है। हे दैत्यप्रवर! समयानुसार सम्पूर्ण प्राणियोंका नाश हो जाता है, यहाँतक कि बड़े-बड़े पर्वतों एवं समुद्रोंका भी नाश हो जाता है ॥ 9-10 ॥

अतः हे राजन्! मृत्युसम्बन्धी अपनी यह धारणा छोड़कर हे साधो ! दूसरा जो भी वर तुम्हारे मनमें हो, वह माँग लो ॥ 11 ॥

महिष बोला- हे पितामह! देव, दानव और मानव- इनमें किसी भी पुरुषसे मेरी मृत्यु न हो। इस प्रकार जब पुरुषसे मेरी मृत्यु नहीं होगी, तब भला कौन-सी स्त्री मुझे मार सकेगी ? अतएव हे कमलयोने मेरी मृत्यु किसी स्त्रीके हाथ होनेका वरदान दीजिये क्योंकि कोई अवला भला मुझे | मारनेमें कैसे समर्थ हो सकेगी ? ।। 12-13 ।।

ब्रह्माने कहा- हे दानवेन्द्र! जब भी तुम्हारी मृत्यु होगी किसी स्त्रीसे ही होगी। हे महाभाग महिषासुर ! पुरुषसे तुम्हारी मृत्यु नहीं होंगी ॥ 14 ॥व्यासजी बोले- हे राजन्! इस प्रकार उसे वरदान देकर ब्रह्माजी अपने लोकको चले गये और वह दैत्यश्रेष्ठ महिषासुर भी प्रसन्न होकर अपने लौट गया ॥ 15 ॥

राजा बोले—वह महिषासुर किसका पुत्र था, वह महान् बलशाली कैसे हो गया था और उस महान् दैत्यको महिषका रूप कैसे मिला था ? ॥ 16 ॥

व्यासजी बोले- हे महाराज ! दनुके रम्भ और करम्भ - नामक दो पुत्र थे। वे दोनों दानवश्रेष्ठ भूमण्डलपर बहुत प्रसिद्ध थे ॥ 17 ॥

हे महाराज! वे दोनों सन्तानहीन थे, अतः वे पुत्र-प्राप्तिके लिये तपस्या करने लगे। उनमें करम्भने पवित्र पंचनदके जलमें डूबकर अनेक वर्षोंतक कठोर तप किया और रम्भ दूधवाले वटवृक्षके नीचे जाकर पंचाग्निका सेवन करने लगा ।। 18-19 ॥

बहुत कालतक जब रम्भ पंचाग्नि-साधना करता रह गया, तब यह जानकर इन्द्र बहुत चिन्तित हुए और वे उन दोनों दानवोंके पास पहुँच गये ॥ 20 ॥ पंचनदके जलमें प्रविष्ट होकर इन्द्रने ग्राहका रूप धारण कर लिया और उस करम्भको दोनों पैरोंसे पकड़ लिया। इस प्रकार वृत्रासुरका वध करनेवाले इन्द्रने उस करम्भको मार डाला ॥ 213 ॥

तब अपने भाईका वध सुनकर रम्भ अत्यधिक कुपित हुआ। उसने अपने हाथसे अपना सिर काटकर उसे अग्निमें होम कर देनेकी इच्छा की। तदुपरान्त वह तत्काल अत्यन्त क्रोधके साथ बायें हाथसे अपने केशपाश पकड़कर दाहिने हाथमें तीक्ष्ण तलवार लेकर जैसे ही अपना सिर काटनेको उद्यत हुआ, तभी अग्निदेव [ प्रकट होकर उसे समझाने लगे । ll 22 - 24 ॥

[अग्निदेव उससे] बोले- हे दैत्य ! तुम अपना ही सिर काटना चाहते हो; तुम तो बड़े मूर्ख हो | आत्महत्या अत्यन्त ही दुःसाध्य कर्म है। इसे करनेके लिये तुम कैसे तैयार हो गये ? ॥ 25 ॥

तुम्हारा कल्याण हो। तुम्हारे मनमें जो हो, वह वरदान माँग लो। मरो मत, मरनेसे तुम्हारा कौन-सा कार्य हो जायगा ? ॥ 26 ॥व्यासजी बोले- अग्निदेवका सुन्दर वचन सुनकर |रम्भने अपना केशपाश छोड़कर कहा- हे देवेश यदि आप मुझपर प्रसन्न हैं तो मुझे यही वांछित वरदान दीजिये कि मुझे तीनों लोकोंपर विजय प्राप्त करनेवाला तथा शत्रु सेनाका विनाश करनेवाला पुत्र प्राप्त हो । वह देवता, दानव तथा मनुष्य- इन सभीसे सर्वथा अजेय हो। वह महापराक्रमी, अपने इच्छानुसार कोई भी रूप धारण करनेमें समर्थ तथा सभी लोगोंके लिये वन्दनीय हो । ll 27 - 29 ॥

अग्निदेवने उससे कहा कि जैसी तुम्हारी अभिलाषा है, वैसा ही होगा। हे महाभाग ! तुम्हें वैसा ही पुत्र प्राप्त होगा, किंतु अब तुम मरनेका विचार छोड़ दो ॥ 30 ॥

हे महाभाग ! हे रम्भ ! जिस भी स्त्रीके प्रति तुम्हारे मनमें आसक्ति भाव आ जायगा, उसीसे तुम्हें वह महाबलशाली पुत्र उत्पन्न होगा ॥ 31 ॥ व्यासजी बोले- हे राजन् अग्निदेवने उससे ऐसा कहा। तब उनका मनमोहक वचन सुनकर दानवश्रेष्ठ रम्भ अग्निको प्रणाम करके वहाँसे चला गया और एक ऐसे स्थानपर जा पहुँचा जो रमणीक, समृद्धियोंसे सम्पन्न तथा यक्षोंसे घिरा हुआ था 323 ॥ वहाँ एक रूपवती तथा मदमत्त महिषीको | देखकर वह दानवश्रेष्ठ किसी अन्य स्त्रीको छोड़कर उसीपर आसक्त हो गया। वह महिषी भी उसे प्रसन्नतापूर्वक चाहती हुई तत्काल उसके साथ रमणके लिये तैयार हो गयी। होनहारसे प्रेरित होकर रम्भने उसके साथ समागम किया और उसके वीर्यसे वह महिषी गर्भवती हो गयी ।। 33-35 ॥

तत्पश्चात् उसे अपने साथ लेकर रम्भने मनोहर पाताललोकमें प्रवेश किया और वहाँपर महिषोंसे | अपने मनोनुकूल उस प्रियतमाकी रक्षा करता हुआ वह सुखपूर्वक रहने लगा ॥ 36 ॥

किसी दिन एक दूसरे महिषनेvकामासक होकर उस महिषीको दौड़ा लिया। यह देखकर दानव रम्भ स्वयं वहाँ आकर उसे मारने के लिये दौड़ा और उसके पास पहुँचकरअपनी रक्षाके लिये रम्भने उस महिषपर कठोर प्रहार किया। तब उस कामातुर महिषने भी अपनी सींगोंसे रम्भपर शीघ्रतासे प्रहार करना आरम्भ कर दिया ।। 37-38 ॥

उस महिषके द्वारा तीक्ष्ण सींगोंसे हृदयस्थल गहरी चोट पहुँचानेके कारण रम्भ शीघ्र ही मूर्च्छित होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा और मर गया ॥ 39 ॥

पतिके मर जानेपर अत्यन्त शोकाकुल तथा भयग्रस्त वह महिषी वहाँसे भाग चली। वेगपूर्वक भागती हुई वह एक वटवृक्षके नीचे पहुँचकर वहाँ रहनेवाले यक्षोंकी शरणमें जा पहुँची ॥ 40 ॥

वह कामार्त और बल तथा वीर्यसे मदोन्मत कामासक्त महिष भी उसकी कामना करता हुआ उसके पीछे-पीछे गया ।। 41 ।।

यक्षोंने उस महिषसे पीड़ित तथा भयभीत होकर रोती हुई उस महिषीको देख लिया और महिषको दौड़ता हुआ देखकर उस महिषीकी रक्षाके लिये वे यक्ष वहाँ आ गये । 42 ।।

अब उस महिषके साथ यक्षका विकराल युद्ध होने लगा और अन्तमें बाणसे आहत होकर वह महिष शीघ्र ही भूमिपर गिर पड़ा ॥ 43

तदनन्तर उन यक्षोंने परम प्रिय मृत रम्भको लाकर उसकी देह शुद्धिके लिये उसे चितापर रख दिया। तब उस महिषीने अपने पतिको चितापर रखा हुआ देखकर उसके साथ स्वयं भी अग्निमें प्रवेश करनेका निश्चय किया ।। 44-45 ।।

यक्षकि मना करनेपर भी अपने प्रिय पतिके साथ वह महिषी विकराल लपवाली अग्निमें प्रविष्ट हो गयी ।। 46॥

उसी समय एक महाबली महिष चिताके मध्यसे प्रकट हो गया तथा अन्य शरीर धारण करके वह पुत्रप्रेमी रम्भ भी चिताके मध्यभागसे निकल पड़ा। इस प्रकार रक्तबीज तथा महान् बलशाली महिषासुर उत्पन्न हुए। | तदनन्तर श्रेष्ठ दानवोंने उस महिषासुरका राज्याभिषेक कर दिया ।। 47-48 ॥

हे नृपश्रेष्ठ! इस प्रकार महिषासुर तथा पराक्रमी रक्तबीज उत्पन्न हुए। वह महिषासुर देवताओं, दानवों | तथा मनुष्योंसे अवध्य था ।। 49 ।।हे राजन्! इस प्रकार मैंने आपको उस महान् महिषासुरके जन्म तथा उससे सम्बन्धित वरदान - प्राप्तिका प्रसंग विस्तारपूर्वक बता दिया ॥ 50 ॥

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देवी भागवत महापुराण
Index


  1. [अध्याय 1] व्यासजीद्वारा त्रिदेवोंकी तुलनामें भगवतीकी उत्तमताका वर्णन
  2. [अध्याय 2] महिषासुरके जन्म, तप और वरदान प्राप्तिकी कथा
  3. [अध्याय 3] महिषासुरका दूत भेजकर इन्द्रको स्वर्ग खाली करनेका आदेश देना, दूतद्वारा इन्द्रका युद्धहेतु आमन्त्रण प्राप्तकर महिषासुरका दानववीरोंको युद्धके लिये सुसज्जित होनेका आदेश देना
  4. [अध्याय 4] इन्द्रका देवताओं तथा गुरु बृहस्पतिसे परामर्श करना तथा बृहस्पतिद्वारा जय-पराजयमें दैवकी प्रधानता बतलाना
  5. [अध्याय 5] इन्द्रका ब्रह्मा, शिव और विष्णुके पास जाना, तीनों देवताओंसहित इन्द्रका युद्धस्थलमें आना तथा चिक्षुर, बिडाल और ताम्रको पराजित करना
  6. [अध्याय 6] भगवान् विष्णु और शिवके साथ महिषासुरका भयानक युद्ध
  7. [अध्याय 7] महिषासुरको अवध्य जानकर त्रिदेवोंका अपने-अपने लोक लौट जाना, देवताओंकी पराजय तथा महिषासुरका स्वर्गपर आधिपत्य, इन्द्रका ब्रह्मा और शिवजीके साथ विष्णुलोकके लिये प्रस्थान
  8. [अध्याय 8] ब्रह्माप्रभृति समस्त देवताओंके शरीरसे तेज:पुंजका निकलना और उस तेजोराशिसे भगवतीका प्राकट्य
  9. [अध्याय 9] देवताओंद्वारा भगवतीको आयुध और आभूषण समर्पित करना तथा उनकी स्तुति करना, देवीका प्रचण्ड अट्टहास करना, जिसे सुनकर महिषासुरका उद्विग्न होकर अपने प्रधान अमात्यको देवीके पास भेजना
  10. [अध्याय 10] देवीद्वारा महिषासुरके अमात्यको अपना उद्देश्य बताना तथा अमात्यका वापस लौटकर देवीद्वारा कही गयी बातें महिषासुरको बताना
  11. [अध्याय 11] महिषासुरका अपने मन्त्रियोंसे विचार-विमर्श करना और ताम्रको भगवतीके पास भेजना
  12. [अध्याय 12] देवीके अट्टहाससे भयभीत होकर ताम्रका महिषासुरके पास भाग आना, महिषासुरका अपने मन्त्रियोंके साथ पुनः विचार-विमर्श तथा दुर्धर, दुर्मुख और बाष्कलकी गर्वोक्ति
  13. [अध्याय 13] बाष्कल और दुर्मुखका रणभूमिमें आना, देवीसे उनका वार्तालाप और युद्ध तथा देवीद्वारा उनका वध
  14. [अध्याय 14] चिक्षुर और ताम्रका रणभूमिमें आना, देवीसे उनका वार्तालाप और युद्ध तथा देवीद्वारा उनका वध
  15. [अध्याय 15] बिडालाख्य और असिलोमाका रणभूमिमें आना, देवीसे उनका वार्तालाप और युद्ध तथा देवीद्वारा उनका वध
  16. [अध्याय 16] महिषासुरका रणभूमिमें आना तथा देवीसे प्रणय-याचना करना
  17. [अध्याय 17] महिषासुरका देवीको मन्दोदरी नामक राजकुमारीका आख्यान सुनाना
  18. [अध्याय 18] दुर्धर, त्रिनेत्र, अन्धक और महिषासुरका वध
  19. [अध्याय 19] देवताओंद्वारा भगवतीकी स्तुति
  20. [अध्याय 20] देवीका मणिद्वीप पधारना तथा राजा शत्रुघ्नका भूमण्डलाधिपति बनना
  21. [अध्याय 21] शुम्भ और निशुम्भको ब्रह्माजीके द्वारा वरदान, देवताओंके साथ उनका युद्ध और देवताओंकी पराजय
  22. [अध्याय 22] देवताओंद्वारा भगवतीकी स्तुति और उनका प्राकट्य
  23. [अध्याय 23] भगवतीके श्रीविग्रहसे कौशिकीका प्राकट्य, देवीकी कालिकारूपमें परिणति, चण्ड-मुण्डसे देवीके अद्भुत सौन्दर्यको सुनकर शुम्भका सुग्रीवको दूत बनाकर भेजना, जगदम्बाका विवाहके विषयमें अपनी शर्त बताना
  24. [अध्याय 24] शुम्भका धूम्रलोचनको देवीके पास भेजना और धूम्रलोचनका देवीको समझानेका प्रयास करना
  25. [अध्याय 25] भगवती काली और धूम्रलोचनका संवाद, कालीके हुंकारसे धूम्रलोचनका भस्म होना तथा शुम्भका चण्ड-मुण्डको युद्धहेतु प्रस्थानका आदेश देना
  26. [अध्याय 26] भगवती अम्बिकासे चण्ड ड-मुण्डका संवाद और युद्ध, देवी सुखदानि च सेव्यानि शास्त्र कालिकाद्वारा चण्ड-मुण्डका वध
  27. [अध्याय 27] शुम्भका रक्तबीजको भगवती अम्बिकाके पास भेजना और उसका देवीसे वार्तालाप
  28. [अध्याय 28] देवीके साथ रक्तबीजका युद्ध, विभिन्न शक्तियोंके साथ भगवान् शिवका रणस्थलमें आना तथा भगवतीका उन्हें दूत बनाकर शुम्भके पास भेजना, भगवान् शिवके सन्देशसे दानवोंका क्रुद्ध होकर युद्धके लिये आना
  29. [अध्याय 29] रक्तबीजका वध और निशुम्भका युद्धक्षेत्रके लिये प्रस्थान
  30. [अध्याय 30] देवीद्वारा निशुम्भका वध
  31. [अध्याय 31] शुम्भका रणभूमिमें आना और देवीसे वार्तालाप करना, भगवती कालिकाद्वारा उसका वध, देवीके इस उत्तम चरित्रके पठन और श्रवणका फल
  32. [अध्याय 32] देवीमाहात्म्यके प्रसंगमें राजा सुरथ और समाधि वैश्यकी कथा
  33. [अध्याय 33] मुनि सुमेधाका सुरथ और समाधिको देवीकी महिमा बताना
  34. [अध्याय 34] मुनि सुमेधाद्वारा देवीकी पूजा-विधिका वर्णन
  35. [अध्याय 35] सुरथ और समाधिकी तपस्यासे प्रसन्न भगवतीका प्रकट होना और उन्हें इच्छित वरदान देना