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देवी भागवत महापुराण ( देवी भागवत)

Devi Bhagwat Purana (Devi Bhagwat Katha)

स्कन्ध 3, अध्याय 19 - Skand 3, Adhyay 19

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माताका शशिकलाको समझाना, शशिकलाका अपने निश्चयपर दृढ़ रहना, सुदर्शन तथा अन्य राजाओंका स्वयंवरमें आगमन, युधाजित्द्वारा सुदर्शनको मार डालनेकी बात कहनेपर केरलनरेशका उन्हें समझाना

व्यासजी बोले- पतिके ऐसा कहनेपर रानीने सुन्दर मुसकानवाली उस कन्याको अपनी गोदमें बैठाकर उसे आश्वासन दे करके यह मधुर वचन कहा- हे सुदति! तुम मुझसे ऐसी अप्रिय एवं निष्प्रयोजन बात क्यों कह रही हो ? हे सुव्रते ! इस कथनसे तुम्हारे पिता बहुत दुःखित हो रहे हैं ॥ 1-2 ॥वह सुदर्शन बड़ा ही अभागा, राजच्युत, आश्रयहीन और सेना तथा कोशसे विहीन है; बन्धु बान्धवोंने उसका परित्याग कर दिया है। वह अपनी माताके साथ वनमें रहकर फल-मूल खाता है और अत्यन्त दुर्बल है। इसलिये वह मन्दभाग्य एवं वनवासी बालक सर्वथा तुम्हारे योग्य वर नहीं है ॥ 3-4॥

हे पुत्रि! तुम्हारे योग्य अनेक राजकुमार यहाँ उपस्थित हैं; जो बुद्धिमान्, रूपवान्, सम्माननीय और राजचिह्नोंसे अलंकृत हैं। इसी सुदर्शनका एक कान्तिमान्, रूपसम्पन्न तथा सभी शुभ लक्षणोंसे युक्त भाई भी है, जो इस समय कोसलदेशमें राज्य करता है ॥ 5-6 ॥

हे सुभ्रु ! इसके अतिरिक्त मैंने एक और जो बात सुनी है, तुम उसे सुनो-राजा युधाजित् उस सुदर्शनका वध करनेके लिये सतत प्रयत्नशील रहता है ॥ 7 ॥

उसने घोर संग्राम करके [इसके नाना] राजा वीरसेनको मारकर पुनः मन्त्रियोंके साथ मन्त्रणा करके अपने दौहित्र शत्रुजित्को राज्यपर अभिषिक्त कर दिया है। इसके बाद भारद्वाजमुनिके आश्रम में शरणलिये उस सुदर्शनको मारनेकी इच्छासे वह वहाँ भी पहुँचा, किंतु मुनिके मना करनेपर अपने घर लौट गया ।। 8-9 ।।

शशिकला बोली- हे माता! मुझे तो वह वनवासी राजकुमार ही अत्यन्त अभीष्ट है। [ पूर्व कालमें] शर्यातिकी आज्ञासे ही उनकी पतिव्रता पुत्री सुकन्या च्यवनमुनिके पास जाकर उनकी सेवामें तत्पर हो गयी थी। उसी प्रकार मैं पतिसेवा करूंगी; पतिकी सेवा-शुश्रूषा स्त्रियोंके लिये स्वर्ग तथा मोक्ष प्रदान करनेवाली होती है। अपने पतिके लिये कपटरहित व्यवहार स्त्रियोंके लिये निश्चित रूपसे सुखदायक होता है ।। 10-113 ॥

स्वयं भगवती उस सर्वश्रेष्ठ वरका वरण करनेके लिये मुझे स्वप्नमें आज्ञा दे चुकी हैं। अतः उनको छोड़कर मैं किसी अन्य राजकुमारका वरण कैसे करूँ? स्वयं भगवतीने मेरे चित्तकी भित्तिपर सुदर्शनको ही अंकित कर दिया है। अतः उस प्रिय सुदर्शनको छोड़कर मैं किसी अन्य राजकुमारको पति नहीं बनाऊँगी ।। 12-133 ॥व्यासजी बोले- [हे राजन्!] उस समय उस शशिकलाने अनेक प्रमाणोंके द्वारा विदर्भराजकुमारी अपनी माताको समझा दिया। तत्पश्चात् पुत्रीके द्वारा कही गयी सभी बातोंको महारानीने अपने पतिये बताया ॥ 143 ॥

उधर शशिकलाने विवाहके कुछ दिनों पूर्व ही एक विश्वस्त तथा वेदनिष्ठ ब्राह्मणको शीघ्र ही वहाँ भेज दिया। [जाते समय उसने ब्राह्मणसे कहा कि आप सुदर्शनके पास इस प्रकार जायें, जिसे मेरे पिता न जान पायें ॥। 15-16 ॥

हे विभो। आप बहुत शीघ्र ही भारद्वाजके आश्रम पहुँचकर सुदर्शनको मेरी ओरसे कहिये कि मेरे पिताने मेरे विवाहार्थ एक स्वयंवर आयोजित किया है उसमें अनेक बलवान् राजा आयेंगे, किंतु मैं तो मनसे अत्यन्त प्रेमपूर्वक हर तरहसे आपका वरण कर चुकी हूँ। हे देवोपम राजकुमार! मुझे भगवतीने स्वप्न में आपको वरण करनेका आदेश दिया है। मैं विष खा लूँगी अथवा जलती हुई अग्निमें कूद पड़ेंगी, किंतु माता-पिताके द्वारा बहुत प्रेरित किये जानेपर भी मैं आपके अतिरिक्त किसी अन्यका वरण नहीं करूँगी; क्योंकि मैं मन, वचन तथा कर्मसे आपको अपना पति मान चुकी हैं। भगवतीकी कृपासे हम दोनोंका कल्याण होगा। प्रारब्धको प्रबल मानकर आप इस स्वयंवरमें अवश्य आयें। यह सम्पूर्ण चराचर जगत् जिनके अधीन है तथा शंकर आदि सभी | देवगण जिनके वशमें रहते हैं, उन भगवतीने जो आदेश दिया है, वह कभी भी असत्य नहीं होगा। हे ब्रह्मन्! आप उस राजकुमारसे यह सब एकान्तमें बताइयेगा। हे निष्पाप ! आप वही कीजियेगा, जिससे मेरा काम बन जाय ॥ 17- 233 ॥

ऐसा कहकर और दक्षिणा देकर शशिकलाने उस ब्राह्मणको भेज दिया। वह ब्राह्मण सुदर्शनसे सारी बातें कहकर शीघ्र ही वापस आ गया। उन बातों को | जानकर राजकुमार सुदर्शनने स्वयंवरमें जानेका निश्चय कर लिया; उन भारद्वाजमुनिने भी उसे आदरपूर्वक भेज दिया ।। 24-25 3 ।।व्यासजी बोले- तब अत्यधिक दुःखसे व्याकुल, काँपती हुई तथा भयभीत मनोरमा गमनके लिये तत्पर अपने पुत्र सुदर्शनसे आँखोंमें आँसू भरकर बोली- पुत्र! तुम इस समय राजाओंके उस समाजमें कहाँ जा रहे हो? तुम अकेले हो और तुमसे शत्रुता रखनेवाला राजा युधाजित् तुम्हें मारनेकी इच्छासे उस स्वयंवरमें अवश्य आयेगा, फिर तुम क्या सोचकर वहाँ जा रहे हो? तुम्हारा कोई सहायक भी नहीं है इसलिये हे पुत्र वहाँ मत जाओ तुम ही मेरे एकमात्र पुत्र हो और मैं अति दीन हूँ तथा मुझ आश्रयहीनके लिये तुम्हीं एकमात्र आधार हो हे महाभाग ! इस समय तुम मुझे निराश मत करो। जिसने मेरे पिताका वध कर दिया है, वह राजा युधाजित् भी वहाँ आयेगा और वहाँ तुझ अकेले गये हुएको मार डालेगा ॥ 26-303

सुदर्शन बोला- होनी तो होकर रहती है, इस विषयमें सन्देह नहीं करना चाहिये। हे कल्याणि ! जगजननीके आदेशसे मैं आज स्वयंवरमें जा रहा है। हे वरानने! तुम क्षत्राणी हो, अतः इस विषयमें चिन्ता मत करो। भगवतीकी सदा अपने ऊपर कृपा रहनेके कारण मैं किसीसे भी भयभीत नहीं होता ॥ 31-323 ॥

व्यासजी बोले- ऐसा कहकर रथपर आरूढ़ होकर स्वयंवरमें जानेके लिये उद्यत पुत्र सुदर्शनको देखकर मनोरमाने इन आशीर्वादोंसे उसका अनुमोदन किया- भगवती अम्बिका आगेसे, पार्वती पीछेसे (पार्वती दोनों पार्श्वभागमें तथा शिवा सर्वत्र तुम्हारी रक्षा करें।) विषम मार्गमें वाराही, किसी भी प्रकारके दुर्गम स्थानोंमें दुर्गा और भयानक संग्राममें परमेश्वरी कालिका तुम्हारी रक्षा करें। उस मण्डपमें देवी मातंगी, स्वयंवरमें भगवती सौम्या तथा भव-बन्धनसे मुक्त करनेवाली भवानी राजाओंके बीचमें तुम्हारी रक्षा करें। इसी प्रकार पर्वतीय दुर्गम स्थानोंमें गिरिजा, चौराहोंपर देवी चामुण्डा तथा वनोंमें सनातनी कामगादेवी तुम्हारी रक्षा करें। हे रघूद्वह। विवादमें भगवती वैष्णवी तुम्हारी रक्षा करें। हे सौम्य शत्रुओंके साथ युद्धमें भैरवी तुम्हारी रक्षा करें। जगत्‌को धारण करनेवाली सच्चिदानन्दस्वरूपिणी महामाया भुवनेश्वरी सभी स्थानोंपर सर्वदा तुम्हारी रक्षा करें ।। 33-39 ॥व्यासजी बोले- ऐसा कहकर भयसे व्याकुल तथा काँपती हुई उसकी माता मनोरमाने उससे कहा- मैं भी तुम्हारे साथ अवश्य चलूँगी। हे पुत्र! मैं तुम्हारे बिना आधे क्षण भी यहाँ नहीं रह सकती, अतएव तुम्हारी जहाँ जानेकी इच्छा है, वहीं मुझे भी अपने साथ ले चलो ॥ 40-41 ।।

तब ऐसा कहकर अपनी दासीको साथ लेकर माता मनोरमा चल पड़ीं। ब्राह्मणोंसे आशीर्वाद प्राप्त करके वे सभी प्रसन्नतापूर्वक चल पड़े। 42 ।।

इसके बाद वह रघुवंशी सुदर्शन एक रथपर आरूढ़ होकर वाराणसी पहुँचा। राजा सुबाहुको उसके आनेकी जानकारी होनेपर उन्होंने आदर सम्मान आदिके द्वारा उसका सत्कार किया। उन लोगोंके निवासके लिये भवन तथा अन्न-जल | आदिकी व्यवस्था कर दी तथा उनकी सेवा-शुश्रूषाहेतु सेवकको भी नियुक्त कर दिया ॥ 43-44

इसके बाद वहाँ अनेक देशोंके राजा-महाराजा एकत्र हुए। वहाँ अपने नातीको साथ लेकर युधाजित् भी आया ॥ 45 ॥ करूषाधिपति, मद्रदेशके महाराज बोर सिन्धुराज, युद्धकुशल माहिष्मतीनरेश, पंचालपति, पर्वतीय राजा, कामरूपदेशके अति पराक्रमी महाराज, कर्णाटकनरेश, चोलराज और महाबली विदर्भनरेश वहाँ आये थे ।। 46-47 ।।

उन राजाओंकी कुल मिलाकर तिरसठ अक्षौहिणी सेना भी वहाँ सर्वत्र स्थित उन सैनिकोंसे वह वाराणसी नगरी पूरी तरहसे घिर गयी ॥ 48 ॥

इनके अतिरिक्त अन्य बहुत-से राजा भी स्वयंवर देखनेकी इच्छासे बड़े-बड़े हाथियोंपर आरूढ़ होकर उस स्वयंवरमें सम्मिलित हुए॥ 49 ॥

उस समय सभी राजकुमार आपसमें मिलकर कहने लगे कि राजकुमार सुदर्शन भी निश्चिन्त होकर यहाँ आया है। वह महाबुद्धिमान् सूर्यवंशी सुदर्शन अपनी माताके साथ इस समय अकेला ही रथपर | चढ़कर विवाहके लिये यहाँ आ पहुँचा है। सैन्यशक्तिसे सम्पन्न तथा शस्त्रास्त्रसे सुसज्जित इन राजकुमारोंको छोड़कर क्या वह राजकुमारी बड़ी भुजाओंवाले इस सुदर्शनका वरण करेगी ?॥50-52 ॥इसके बाद राजा युधाजित्ने उन नरेशोंसे कहा- राजकुमारीको प्राप्त करनेके लिये मैं इसे मार डालूँगा, इसमें कोई संशय नहीं है 53 ॥

तब महान् नीतिज्ञ केरलनरेशने उस युधाजित्से कहा- हे राजन्! इच्छास्वयंवरमें युद्ध नहीं करना चाहिये। यह शुल्कस्वयंवर भी नहीं है, अतः कन्याका बलपूर्वक हरण भी नहीं किया जाना चाहिये। इसमें तो कन्याकी इच्छासे पति चुनना निर्धारित है; तो फिर इसमें विवाद कैसा ? ॥ 54-55 ।।

हे नृपश्रेष्ठ! आपने पहले तो इस सुदर्शनको अन्यायपूर्वक राज्यसे निकाल दिया और अपने दौहित्रको बलपूर्वक उस राज्यका स्वामी बना दिया ॥ 56 ॥

हे महाभाग ! यह सूर्यवंशी राजकुमार कोसल नरेशका सुपुत्र है। इस निरपराध राजकुमारका वध आप क्यों करेंगे ? ॥ 57 ॥

हे नृपोत्तम! आपको अन्यायका फल अवश्य ही मिलेगा। हे आयुष्मन् इस संसारपर शासन करनेवाला कोई और ही जगत्पति परमेश्वर है ॥ 58 धर्मकी जय होती है, अधर्मकी नहीं सत्यको जय होती है, असत्यकी नहीं। अतएव हे राजेन्द्र ! आप अन्याय न कीजिये और इस प्रकारके पापमय विचारका सर्वथा परित्याग कर दीजिये 59 ॥

आपका दौहित्र यहाँ आया ही है। वह भी अत्यन्त रूपवान् और राज्य तथा लक्ष्मीसे सम्पन्न है; तब भला कन्या उसका वरण क्यों नहीं करेगी ? ॥ 60 ॥ अन्य एकसे बढ़कर एक बलवान् राजकुमार आये हैं। इस स्वयंवरमें कन्या शशिकला किसी भी राजकुमारको अपनी इच्छासे चुन लेगी ॥ 61 ॥

हे राजागण! अब आप ही लोग बतायें कि इस प्रकारके विवाहमें विवाद ही क्या ? विवेकवान् पुरुषको इस विषयमें परस्पर विरोधभाव नहीं रखना चाहिये ।। 62 ।।

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देवी भागवत महापुराण
Index


  1. [अध्याय 1] राजा जनमेजयका ब्रह्माण्डोत्पत्तिविषयक प्रश्न तथा इसके उत्तरमें व्यासजीका पूर्वकालमें नारदजीके साथ हुआ संवाद सुनाना
  2. [अध्याय 2] भगवती आद्याशक्तिके प्रभावका वर्णन
  3. [अध्याय 3] ब्रह्मा, विष्णु और महेशका विभिन्न लोकोंमें जाना तथा अपने ही सदृश अन्य ब्रह्मा, विष्णु और महेशको देखकर आश्चर्यचकित होना, देवीलोकका दर्शन
  4. [अध्याय 4] भगवतीके चरणनखमें त्रिदेवोंको सम्पूर्ण ब्रह्माण्डका दर्शन होना, भगवान् विष्णुद्वारा देवीकी स्तुति करना
  5. [अध्याय 5] ब्रह्मा और शिवजीका भगवतीकी स्तुति करना
  6. [अध्याय 6] भगवती जगदम्बिकाद्वारा अपने स्वरूपका वर्णन तथा 'महासरस्वती', 'महालक्ष्मी' और 'महाकाली' नामक अपनी शक्तियोंको क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु और शिवको प्रदान करना
  7. [अध्याय 7] ब्रह्माजीके द्वारा परमात्माके स्थूल और सूक्ष्म स्वरूपका वर्णन; सात्त्विक, राजस और तामस शक्तिका वर्णन; पंचतन्मात्राओं, ज्ञानेन्द्रियों, कर्मेन्द्रियों तथा पंचीकरण क्रियाद्वारा सृष्टिकी उत्पत्तिका वर्णन
  8. [अध्याय 8] सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुणका वर्णन
  9. [अध्याय 9] गुणोंके परस्पर मिश्रीभावका वर्णन, देवीके बीजमन्त्रकी महिमा
  10. [अध्याय 10] देवीके बीजमन्त्रकी महिमाके प्रसंगमें सत्यव्रतका आख्यान
  11. [अध्याय 11] सत्यव्रतद्वारा बिन्दुरहित सारस्वत बीजमन्त्र 'ऐ-ऐ' का उच्चारण तथा उससे प्रसन्न होकर भगवतीका सत्यव्रतको समस्त विद्याएँ प्रदान करना
  12. [अध्याय 12] सात्त्विक, राजस और तामस यज्ञोंका वर्णन मानसयज्ञकी महिमा और व्यासजीद्वारा राजा जनमेजयको देवी यज्ञके लिये प्रेरित करना
  13. [अध्याय 13] देवीकी आधारशक्तिसे पृथ्वीका अचल होना तथा उसपर सुमेरु आदि पर्वतोंकी रचना, ब्रह्माजीद्वारा मरीचि आदिकी मानसी सृष्टि करना, काश्यपी सृष्टिका वर्णन, ब्रह्मलोक, वैकुण्ठ, कैलास और स्वर्ग आदिका निर्माण; भगवान् विष्णुद्वारा अम्बायज्ञ करना और प्रसन्न होकर भगवती आद्या शक्तिद्वारा आकाशवाणीके माध्यमसे उन्हें वरदान देना
  14. [अध्याय 14] देवीमाहात्म्यसे सम्बन्धित राजा ध्रुवसन्धिकी कथा, ध्रुवसन्धिकी मृत्युके बाद राजा युधाजित् और वीरसेनका अपने-अपने दौहित्रोंके पक्षमें विवाद
  15. [अध्याय 15] राजा युधाजित् और वीरसेनका युद्ध, वीरसेनकी मृत्यु, राजा ध्रुवसन्धिकी रानी मनोरमाका अपने पुत्र सुदर्शनको लेकर भारद्वाजमुनिके आश्रममें जाना तथा वहीं निवास करना
  16. [अध्याय 16] युधाजित्का भारद्वाजमुनिके आश्रमपर आना और उनसे मनोरमाको भेजनेका आग्रह करना, प्रत्युत्तरमें मुनिका 'शक्ति हो तो ले जाओ' ऐसा कहना
  17. [अध्याय 17] धाजित्का अपने प्रधान अमात्यसे परामर्श करना, प्रधान अमात्यका इस सन्दर्भमें वसिष्ठविश्वामित्र प्रसंग सुनाना और परामर्श मानकर युधाजित्‌का वापस लौट जाना, बालक सुदर्शनको दैवयोगसे कामराज नामक बीजमन्त्रकी प्राप्ति, भगवतीकी आराधनासे सुदर्शनको उनका प्रत्यक्ष दर्शन होना तथा काशिराजकी कन्या शशिकलाको स्वप्नमें भगवतीद्वारा सुदर्शनका वरण करनेका आदेश देना
  18. [अध्याय 18] राजकुमारी शशिकलाद्वारा मन-ही-मन सुदर्शनका वरण करना, काशिराजद्वारा स्वयंवरकी घोषणा, शशिकलाका सखीके माध्यमसे अपना निश्चय माताको बताना
  19. [अध्याय 19] माताका शशिकलाको समझाना, शशिकलाका अपने निश्चयपर दृढ़ रहना, सुदर्शन तथा अन्य राजाओंका स्वयंवरमें आगमन, युधाजित्द्वारा सुदर्शनको मार डालनेकी बात कहनेपर केरलनरेशका उन्हें समझाना
  20. [अध्याय 20] राजाओंका सुदर्शनसे स्वयंवरमें आनेका कारण पूछना और सुदर्शनका उन्हें स्वप्नमें भगवतीद्वारा दिया गया आदेश बताना, राजा सुबाहुका शशिकलाको समझाना, परंतु उसका अपने निश्चयपर दृढ़ रहना
  21. [अध्याय 21] राजा सुबाहुका राजाओंसे अपनी कन्याकी इच्छा बताना, युधाजित्‌का क्रोधित होकर सुबाहुको फटकारना तथा अपने दौहित्रसे शशिकलाका विवाह करनेको कहना, माताद्वारा शशिकलाको पुनः समझाना, किंतु शशिकलाका अपने निश्चयपर दृढ़ रहना
  22. [अध्याय 22] शशिकलाका गुप्त स्थानमें सुदर्शनके साथ विवाह, विवाहकी बात जानकर राजाओंका सुबाहुके प्रति क्रोध प्रकट करना तथा सुदर्शनका मार्ग रोकनेका निश्चय करना
  23. [अध्याय 23] सुदर्शनका शशिकलाके साथ भारद्वाज आश्रमके लिये प्रस्थान, युधाजित् तथा अन्य राजाओंसे सुदर्शनका घोर संग्राम, भगवती सिंहवाहिनी दुर्गाका प्राकट्य, भगवतीद्वारा युधाजित् और शत्रुजित्का वध, सुबाहुद्वारा भगवतीकी स्तुति
  24. [अध्याय 24] सुबाहुद्वारा भगवती दुर्गासे सदा काशीमें रहनेका वरदान माँगना तथा देवीका वरदान देना, सुदर्शनद्वारा देवीकी स्तुति तथा देवीका उसे अयोध्या जाकर राज्य करनेका आदेश देना, राजाओंका सुदर्शनसे अनुमति लेकर अपने-अपने राज्योंको प्रस्थान
  25. [अध्याय 25] सुदर्शनका शत्रुजित्की माताको सान्त्वना देना, सुदर्शनद्वारा अयोध्या में तथा राजा सुबाहुद्वारा काशीमें देवी दुर्गाकी स्थापना
  26. [अध्याय 26] नवरात्रव्रत विधान, कुमारीपूजामें प्रशस्त कन्याओंका वर्णन
  27. [अध्याय 27] कुमारीपूजामें निषिद्ध कन्याओंका वर्णन, नवरात्रव्रतके माहात्म्यके प्रसंग में सुशील नामक वणिक्की कथा
  28. [अध्याय 28] श्रीरामचरित्रवर्णन
  29. [अध्याय 29] सीताहरण, रामका शोक और लक्ष्मणद्वारा उन्हें सान्त्वना देना
  30. [अध्याय 30] श्रीराम और लक्ष्मणके पास नारदजीका आना और उन्हें नवरात्रव्रत करनेका परामर्श देना, श्रीरामके पूछनेपर नारदजीका उनसे देवीकी महिमा और नवरात्रव्रतकी विधि बतलाना, श्रीरामद्वारा देवीका पूजन और देवीद्वारा उन्हें विजयका वरदान देना