जनमेजय बोले- हे द्विजश्रेष्ठ ! पृथ्वीका भार उतारनेके लिये बलराम और श्रीकृष्णके अवतारकी बात आपने कही, किंतु मेरे मनमें एक संशय है ॥ 1 ॥ द्वापरयुगके अन्तमें अत्यन्त दीन तथा आतुर होकर भारी बोझसे दबी हुई पृथ्वी गौका रूप धारण करके ब्रह्माजीकी शरणमें गयी ॥ 2 ॥
तब ब्रह्माजीने लक्ष्मीपति भगवान् विष्णु प्रार्थना की- 'हे भगवन्! हे विभो ! हे जनार्दन! पृथ्वीका भार उतारनेके लिये और साधुजनोंकी रक्षाके लिये आप देवताओंके साथ भारतवर्षमें वसुदेवके घरमें शीघ्र ही अवतार लीजिये ' ॥ 3-4 ॥
ब्रह्माजीके द्वारा इस प्रकार प्रार्थना किये जानेपर भगवान् पृथ्वीका भार उतारनेके लिये बलरामके साथ देवकीके पुत्र हुए; तब उन्होंने अनेक दुष्टों तथा सभी दुराचारी और पापबुद्धि राजाओंको ज्ञात करके उन्हें मारकर पृथ्वीका कितना भार उतारा ? ॥ 5-6 ॥
भीष्म मारे गये, द्रोणाचार्य मारे गये इसी प्रकार विराट, द्रुपद, बाहीक सोमदन और सूर्यपुत्र कर्ण मारे गये। परंतु जिन्होंने कृष्णकी पत्नियोंका हरण किया और उनका सारा धन लूट लिया, उन दुष्टोंको तथा जो करोड़ों आभीर, शक, म्लेच्छ और निषाद पृथ्वीतलपर स्थित थे उन सबको उन्होंने नष्ट क्यों नहीं कर दिया? तब उन बुद्धिमान् श्रीकृष्णने पृथ्वीका कौन-सा भार उतार दिया! हे महाभाग ! मेरे चित्तसे यह सन्देह नहीं हटता है; इस कलियुगमें तो समस्त प्रजा पापपरायण ही दिखायी देती है ।। 7-10 ॥
व्यासजी बोले—हे राजन्! जैसा युग होता है, कालप्रभावसे प्रजा भी वैसी ही होती है, इसके विपरीत नहीं होता; इसमें युगधर्म ही कारण है ।। 11 । जो धर्मानुरागी जीव हैं, वे सत्ययुगमें हुए; धर्म और अर्थसे प्रेम रखनेवाले प्राणी हैं, वे प्रेतायुग जो हुए: धर्म, अर्थ और कामके रसिक प्राणी द्वापरयुगमें हुए और अर्थ तथा काममें आसक्ति रखनेवाले सभी प्राणी इस कलियुगमें होते हैं । 12-13 ॥हे राजेन्द्र । युगधर्मका प्रभाव विपरीत नहीं होता है; काल ही धर्म और अधर्मका कर्ता है ।। 14 ।।
राजा बोले- हे महाभाग ! सत्ययुगमें जो धर्मपरायण प्राणी हुए हैं, वे पुण्यशाली लोग इस समय कहाँ स्थित हैं ? हे पितामह। त्रेतायुग या द्वापरमें जो दान तथा व्रत करनेवाले श्रेष्ठ मुनि हुए हैं, वे अब कहाँ विद्यमान हैं; मुझे बतायें। इस कलियुगमें जो दुराचारी, निर्लज्ज, देवनिन्दक और पापी लोग विद्यमान हैं, वे सत्ययुगमें कहाँ जायँगे ? हे महामते ! यह सब विस्तारपूर्वक कहिये; मैं इस धर्मनिर्णयके विषयमें सब कुछ सुनना चाहता
हूँ । ll15-18 ॥
व्यासजी बोले- हे राजन्! जो मनुष्य सत्ययुगमें उत्पन्न होते हैं, वे अपने पुण्यकार्योंके कारण देवलोकको चले जाते हैं ॥ 19 ॥
हे नृपश्रेष्ठ! अपने-अपने वर्णाश्रमधर्मो में संलग्न रहनेवाले ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र अपने कर्मोंसे अर्जित लोकोंमें चले जाते हैं ॥ 20 ॥
सत्य, दया, दान, एकपत्नीव्रत, सभी प्राणियोंमें अद्रोहभाव तथा सभी जीवोंमें समभाव रखना यह सत्ययुगका साधारण धर्म है। सत्ययुगमें इसका धर्मपूर्वक पालन करके रजक आदि इतर वर्णके लोग भी स्वर्ग चले जाते हैं। हे राजन् ! त्रेता और द्वापरयुगमें यही स्थिति रहती है, किंतु इस कलियुगमें पापी मनुष्य नरक जाते हैं और वे वहाँ तबतक रहते हैं जबतक युगका परिवर्तन नहीं होता, उसके बाद मनुष्यके रूपमें पुनः पृथ्वीपर जन्म लेते हैं । ll21 - 24 ॥
हे राजन् ! जब कलियुगका अन्त और सत्ययुगका आरम्भ होता है, तब पुण्यशाली लोग स्वर्गसे पुनः मनुष्यके रूपमें जन्म लेते हैं ॥ 25 ॥
जब द्वापरका अन्त और कलियुगका प्रारम्भ होता है, तब नरकके सभी पापी पृथ्वीपर मनुष्यके रूपमें उत्पन्न होते हैं ॥ 26 ॥
इस प्रकार युगके अनुरूप ही आचार होता है, उसके विपरीत कभी नहीं। कलियुग असत् प्रधान होता है, इसलिये उसमें प्रजा भी वैसी ही होती है।दैवयोगसे कभी-कभी इन प्राणियोंके जन्म लेनेमें व्यतिक्रम भी हो जाता है। कलियुगमें कुछ जो साधुजन हैं, वे द्वापरके मनुष्य हैं। उसी प्रकार द्वापरके मनुष्य कभी-कभी त्रेतामें और त्रेताके मनुष्य सत्ययुग में जन्म लेते हैं। जो सत्ययुगमें दुराचारी मनुष्य होते हैं, वे कलियुगके हैं। वे अपने किये हुए कर्मके प्रभावसे दुःख पाते हैं और पुनः युगप्रभावसे वे वैसा ही कर्म करते हैं ।। 27-30 ॥
जनमेजय बोले- हे महाभाग ! आप समस्त युगधर्मोका पूर्णरूपसे वर्णन करें; जिस युगमें जैसा धर्म होता है, उसे मैं जानना चाहता हूँ ॥ 31 ॥
व्यासजी बोले—हे नृपशार्दूल! ध्यानपूर्वक सुनिये, इस सम्बन्धमें मैं एक दृष्टान्त कहता हूँ । साधुजनोंके मन भी युगधर्मसे प्रभावित होते हैं ॥ 32 ॥
हे राजेन्द्र ! आपके महात्मा और धर्मज्ञ पिताकी भी बुद्धि कलियुगने विप्रका अपमान करनेकी ओर प्रेरित कर दी थी; अन्यथा ययातिके कुलमें पैदा हुए क्षत्रिय राजा परीक्षित् एक तपस्वीके गलेमें मरा हुआ सर्प क्यों डालते ? ।। 33-34 ॥
हे राजन् विद्वान्को इसे युगका ही प्रभाव समझना चाहिये। इसलिये विशेषरूपसे धर्माचरण ही प्रयत्नपूर्वक करना चाहिये ll 35 ॥
हे राजन् ! सत्ययुगमें सभी ब्राह्मण वेदके ज्ञाता, पराशक्तिकी पूजामें तत्पर रहनेवाले, देवीदर्शनकी लालसासे युक्त, गायत्री और प्रणवमन्त्रमें अनुरक्त, गायत्रीका ध्यान करनेवाले, गायत्रीजपपरायण, एकमात्र मायाबीजमन्त्रका जप करनेवाले, प्रत्येक गाँवमें भगवती पराम्बाका मन्दिर बनानेके लिये उत्सुक रहनेवाले, अपने-अपने कर्मोंमें निरत रहनेवाले, सत्य-पवित्रता दयासे समन्वित, वेदत्रयी कर्ममें संलग्न रहनेवाले और तत्त्वज्ञानमें पूर्ण निष्णात होते थे। क्षत्रिय प्रजाओंके भरण-पोषण में संलग्न रहते थे। हे राजन् ! उस पुण्यमय सत्ययुगमें वैश्यलोग कृषि, व्यापार और गो-पालन करते थे तथा शूद्र सेवापरायण रहते थे । ll 36-40 ॥
उस सत्ययुगमें सभी वर्णोंके लोग भगवती पराम्बाके पूजनमें आसक्त रहते थे। उसके बाद | त्रेतायुगमें धर्मकी स्थिति कुछ कम हो गयी। सत्ययुगमेंजो धर्मकी स्थिति थी, वह द्वापरमें विशेषरूपसे कम हो गयी। हे राजन् ! पूर्वयुगों में जो राक्षस समझे जाते थे, वे ही कलियुगमें ब्राह्मण माने जाते हैं । 41-42 ॥ वे प्रायः पाखण्डी, लोगोंको ठगनेवाले, झूठ बोलनेवाले तथा वेद और धर्मसे दूर रहनेवाले होते हैं। उनमें से कुछ तो दम्भी, लोकव्यवहारमें चालाक, अभिमानी, वेदप्रतिपादित मार्गसे हटकर चलनेवाले, शूद्रोंकी सेवा करनेवाले, विभिन्न धर्मोंका प्रवर्तन करनेवाले, वेदनिन्दक, क्रूर, धर्मभ्रष्ट और व्यर्थ वाद-विवादमें लगे रहनेवाले होते हैं। हे राजन् ! जैसे-जैसे कलियुगकी वृद्धि होती है, वैसे-वैसे सत्यमूलक धर्मका सर्वथा क्षय होता जाता है और वैसे ही क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और इतर वर्णोंके लोग भी धर्महीन, मिथ्यावादी तथा पापी होते हैं। ब्राह्मण शूद्रधर्म में संलग्न और प्रतिग्रहपरायण हो जाते हैं ॥ 43-47 ॥
हे राजन् ! कलियुगका प्रभाव और बढ़नेपर स्त्रियाँ स्वेच्छाचारिणी तथा काम, लोभ और मोहसे युक्त हो जायँगी हे राजन् ! वे पापाचारिणी, झूठ बोलनेवाली, सदा कलह करनेवाली, अपने पतिको ठगनेवाली और नित्य धर्मका भाषण करनेमें निपुण होंगी। कलियुगमें इस प्रकारकी पापपरायण स्त्रियाँ होती हैं ।। 48-493 ॥
हे राजन् ! आहारकी शुद्धिसे ही अन्तःकरणकी शुद्धि होती है और हे नृपश्रेष्ठ ! चित्त शुद्ध होनेपर ही धर्मका प्रकाश होता है। आचारसंकरता (दूसरे वर्णोंके अनुसार आचरण ) - दोषसे धर्ममें व्यतिक्रम (विकार) उत्पन्न होता है और धर्ममें विकृति होनेपर वर्णसंकरता उत्पन्न होती है। हे राजन् ! इस प्रकार | सभी धर्मोंसे हीन कलियुगमें अपने-अपने वर्णाश्रम धर्मकी चर्चा भी कहीं नहीं सुनायी देती। हे राजन् ! धर्मज्ञ और श्रेष्ठजन भी अधर्म करने लग जाते हैं। यह कलियुगका स्वभाव ही है; किसीके भी द्वारा इसका प्रतीकार नहीं किया जा सकता। अतः हे राजेन्द्र ! इस कालमें स्वभावसे ही पाप करनेवाले मनुष्योंकी निष्कृति सामान्य उपायसे नहीं हो | सकती ॥। 50-543 ॥जनमेजय बोले- हे भगवन्! हे समस्त धर्मोक ज्ञाता ! हे समस्त शास्त्रोंमें निपुण ! अधर्मके बाहुल्यवाले | कलियुगमें मनुष्योंकी क्या गति होती है? यदि उससे निस्तारका कोई उपाय हो तो उसे दयापूर्वक मुझे बतलाइये ।। 55-56 ॥
व्यासजी बोले- हे महाराज ! इसका एक ही उपाय है दूसरा नहीं है; समस्त पापोंके शमनके लिये देवीके चरणकमलका ध्यान करना चाहिये। हे राजन्! देवीके पापदाहक नाममें जितनी शक्ति है, उतने पाप तो हैं ही नहीं। इसलिये भयकी क्या आवश्यकता ? यदि विवशतापूर्वक भी भगवतीके नामका उच्चारण हो जाय, तो वे क्या-क्या दे देती हैं, उसे जाननेमें भगवान् शंकर आदि भी समर्थ नहीं हैं ! ।। 57 - 59॥
भगवती देवीके नामका स्मरण ही समस्त पापोंका प्रायश्चित्त है, इसलिये हे राजन् ! मनुष्यको कलिके भयसे पुण्यक्षेत्रमें निवास करना चाहिये और पराम्बाके नामका निरन्तर स्मरण करना चाहिये। जो देवीको भक्तिभावसे नमस्कार करता है, वह प्राणियोंका छेदन-भेदन और सारे संसारको पीड़ित करके भी उन पापोंसे मुक्त हो जाता है ॥ 60-613 ॥
हे राजन्! यह मैंने आपसे सम्पूर्ण शास्त्रोंके रहस्यको कह दिया, इसपर भलीभाँति विचारकर आप देवीके चरणकमलकी आराधना करें। [ वैसे तो ] | सभी लोग 'अजपा' नामक गायत्रीका जप करते हैं, लेकिन वे [मायासे मोहित होनेके कारण] उन महामायाकी महिमा और महान् वैभवको नहीं जानते। सभी ब्राह्मण अपने हृदयमें गायत्रीका जप करते हैं, परंतु वे भी उन महामायाकी महिमा और उनके महान् वैभवको नहीं जानते। हे राजन्! युगधर्मकी व्यवस्थाके विषयमें आपने जो कुछ पूछा था, यह सब मैंने कह दिया, अब आप और क्या सुनना चाहते हैं ? ॥ 62-65 ॥