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देवी भागवत महापुराण ( देवी भागवत)

Devi Bhagwat Purana (Devi Bhagwat Katha)

स्कन्ध 3, अध्याय 16 - Skand 3, Adhyay 16

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युधाजित्का भारद्वाजमुनिके आश्रमपर आना और उनसे मनोरमाको भेजनेका आग्रह करना, प्रत्युत्तरमें मुनिका 'शक्ति हो तो ले जाओ' ऐसा कहना

व्यासजी बोले - [ हे राजन्!] तदनन्तर महाबली युधाजित्ने रणभूमिसे अयोध्या पहुँचकर सुदर्शनको भी मार डालनेकी इच्छासे मनोरमाके विषयमें लोगोंसे पूछा ॥ 1 ॥

'मनोरमा कहाँ चली गयी' ऐसा बार-बार कहते हुए उसने सेवकोंको इधर-उधर भेज दिया। तत्पश्चात् किसी शुभ दिनमें अपने दौहित्रको राजसिंहासनपर बैठा दिया ॥ 2 ॥

समस्त मन्त्रियोंके साथ गुरु वसिष्ठने अथर्ववेदके कल्याणकारी मन्त्रोंका उच्चारण करके जलपूरित समस्त कलशोंसे राजकुमार शत्रुजित्का अभिषेक किया ॥ 3 ॥

हे कुरुनन्दन ! उस समय शंख, भेरीके निनादों तथा तुरहियोंकी ध्वनियोंके साथ पूरे नगर में उत्सव मनाया गया ॥ 4 ॥ब्राह्मणोंके वेदपाठों, बन्दीजनोंके स्तुतिगान
तथा मंगलकारी जयघोषसे अयोध्यानगरी प्रफुल्लित सी दिखायी दे रही थी ॥ 5 ॥

हृष्ट-पुष्टजनोंसे भरी-पूरी और स्तुतियों तथा वाद्योंकी ध्वनिसे निनादित वह अयोध्या उस नये नरेशके अभिषिक्त होनेपर नवीन पुरीकी भाँति सुशोभित हो रही थी॥ 6 ॥

उस नगरीमें जो कोई भी सज्जनलोग थे, उन्होंने अपने घरमें ही रहकर शोक मनाया। वे सुदर्शनके विषयमें सोचते हुए कह रहे थे कि वह राजकुमार कहाँ चला गया? महान् पतिव्रता वह मनोरमा अपने पुत्रके साथ कहाँ चली गयी? राज्यलोभी शत्रु युधाजित्ने युद्धमें उसके पिताको मार डाला ॥ 7-8 ।।

ऐसा विचार करते हुए सबमें समान बुद्धि रखनेवाले वे साधुजन शत्रुजित् के अधीन होकर दुःखी मनसे रहने लगे ॥ 9 ॥

इस प्रकार युधाजित् भी विधानपूर्वक अपने दौहित्रको राजसिंहासनपर बैठाकर तथा राज्यभार मन्त्रियोंको सौंपकर अपनी नगरीको प्रस्थान कर गया ॥ 10 ॥

सुदर्शन मुनियोंके आश्रममें रह रहा है-ऐसा सुनकर युधाजित उसे मार डालनेकी इच्छासे तत्काल ही चित्रकूट पर्वतकी ओर चल पड़ा ॥ 11

वह दुर्दर्श नामक श्रृंगवेरपुरके राजाके यहाँ पहुँचा और उस विशाल सेनासम्पन्न तथा पराक्रमी निषादराजको अगुआ बनाकर उसने शीघ्र ही आगेकी ओर प्रस्थान किया ॥ 12 ॥

युधाजित्को सेनासहित आते हुए सुनकर अबोध सन्तानवाली वह मनोरमा भयभीत तथा अत्यन्त दुःखित हो गयी ॥ 13 ॥

अत्यन्त शोकसन्तप्त वह मनोरमा आँखों में आँसू भरकर मुनि भारद्वाजसे बोली कि युधाजित यहाँ भी आ पहुँचा; अब मैं क्या करूँ तथा कहाँ जाऊँ ? ॥ 14 ॥

इसने मेरे पिताका वध कर दिया तथा अपने दौहित्रको राजा बना दिया। अब वह विशाल सेनाके साथ मेरे पुत्रके वधकी कामनासे यहाँ आ | रहा है ॥ 15 ॥हे स्वामिन् मैंने सुना है कि पूर्वकालमें जब मुनियोंकि पवित्र आश्रममें द्रौपदीके साथ पाण्डव निवास कर रहे थे, उसी समय एक दिन वे पाँचों भाई | आखेटके लिये चले गये और द्रौपदी वहीं पर मुनियोंकि उस पावन आश्रम में रह गयी थी ॥ 16-17 ॥

श्रीग्य, अत्रि, गालव, पैल, जावालि, गौतम, भृगु, च्यवन, अभियोजज कण्व, जंतु क्रतु वीतिहोत्र सुमन्तु, यज्ञदत्त, वत्सल, राशासन, कहोड, यवक्री, यज्ञकृत् क्रतु—ये सब और भारद्वाज आदि अन्य पुण्यात्मा मुनिगण उस पावन आश्रममें विराजमान थे। वे सभी वेदपाठ कर रहे थे ।। 18-20 ॥

हे मुने। मुनि समुदायसे सम्पन्न उस आश्रम सर्वांगसुन्दरी वह द्रौपदी अपनी दासियोंके साथ निर्भय होकर रहती थी ॥ 21 ॥

शत्रुओंको सन्ताप पहुँचाने में समर्थ तथा धनुष बाण धारण किये वे पाँचों पाण्डव मृगका पीछा करते हुए एक वनसे दूसरे वनमें निकल गये ॥ 22 ॥ इसी बीच समृद्धिशाली सिन्धुनरेश [ जयद्रथ] वेद-ध्वनि सुनकर अपनी सेनाके साथ आश्रमके पास आ गया ॥ 23 ॥

वेदपाठ सुनकर राजा जयद्रथ पुण्यात्मा मुनियोंक दर्शनकी इच्छासे शीघ्रतापूर्वक रथसे उतरा ॥ 24 ॥

जब वह अपने दो भृत्योंके साथ आगे बढ़ा हो तो मुनियाँको वेदपाठमें संलग्न देखकर वहीं पर बैठ गया। हे स्वामिन् राजा जयद्रथ हाथ जोड़कर कुछ देरतक बैठा रहा। इसके बाद वह मुनियोंसे भरे हुए उस आश्रममें प्रविष्ट हुआ ।। 25-26 ॥

तत्पश्चात् मुनियोंकी पत्नियाँ तथा अन्य स्त्रियाँ वहाँ बैठे हुए राजा जयद्रथको देखनेकी इच्छासे वहाँ आ गयीं और लोगोंसे पूछने लगीं-यह कौन है ? 27 ॥

उन्हीं स्त्रियोंके साथ परम सुन्दरी द्रौपदी भी आयी थी। जयद्रथकी दृष्टि दूसरी लक्ष्मीके समान प्रतीत हो रही उस द्रौपदीपर पड़ गयी ॥ 28 ॥

दूसरी देवकन्याको भाँति प्रतीत हो रही उस श्याम नेत्रोंवाली द्रौपदीको देखकर राजा जयद्रथने ऋषि धौम्यसे पूछा कि यह सुन्दर मुखवाली युवती कौन है ? ।। 29 ।।यह किसकी पत्नी है, किसकी पुत्री है और इस

परम सुन्दरीका नाम क्या है? रूप तथा सौन्दर्यसे सम्पन्न यह स्त्री तो धरापर उतरकर आयी हुई साक्षात् इन्द्राणीकी भाँति प्रतीत हो रही है ॥ 30 ॥

यह स्त्री बबूलके वनमें स्थित लवंगलता तथा [कुरूपा] राक्षसियोंके समूहमें सचमुच रम्भाके समान प्रतीत हो रही है ॥ 31 ॥

हे महाभाग। आप सच सच बताइये कि यह स्त्री किसकी पत्नी है? हे द्विज। यह तो किसी रानी जैसी प्रतीत हो रही है; मुनिपत्नी तो यह कदापि नहीं हो सकती ॥ 32 ॥

धौम्य बोले- हे सिन्धुराजेन्द्र समस्त शुभ लक्षणोंवाली यह पाण्डवोंकी प्रिय भार्या तथा पांचालनरेशकी पुत्री द्रौपदी है। यह इसी पवित्र आश्रममें निवास करती है ॥ 33 ॥

जयद्रथ बोला- विख्यात पराक्रमी पाँचों पाण्डव कहाँ गये हुए हैं? क्या वे महान् बलशाली वीर निश्चिन्त होकर इस समय इसी वनमें रह रहे हैं ? ॥ 34

धौम्य बोले- पाँचों पाण्डव इस समय रथपर आरूढ़ होकर आखेटके लिये वनमें गये हुए हैं। वे राजागण मध्याह्नकालमें मृगोंको लेकर आ जायँगे 35

मुनिका यह वचन सुनकर वह राजा जयद्रथ अपने आसनसे उठा और द्रौपदीके पास जाकर उन्हें प्रणाम करके इस प्रकार बोला- हे परम सुन्दरि ! आप सकुशल तो हैं न, आपके पतिगण कहाँ गये हुए हैं? आपको वनमें निवास करते हुए आज ग्यारह वर्ष बीत चुके हैं ।। 36-37।।

तत्पश्चात् द्रौपदीने कहा- हे राजकुमार आपका कल्याण हो। अभी थोड़ी ही देरमें पाण्डव आ जायेंगे, तबतक आप आश्रमके समीप ही विश्राम कीजिये ॥ 38 ॥

उसके ऐसा कहनेपर लोभसे आक्रान्त उस वीर जयद्रथने मुनिवरोंकी अवहेलना करके द्रौपदीका | हरण कर लिया ॥ 39 ॥[ मनोरमाने कहा- हे स्वामिन्!] अतएव बुद्धिमान लोगोंको चाहिये कि वे किसीपर भी विश्वास न करें, ऐसा करनेवाला व्यक्ति दुःख प्राप्त करता है। इस विषयमें राजा बलि उदाहरण हैं। विरोचनपुत्र राजा बलि वैभवसम्पन्न, धर्मपरायण सत्यप्रतिज्ञ, यज्ञकर्ता, दानी, शरणदाता तथा साधुजनोंके सम्मान्य थे । 40-41 ॥

प्रह्लादके पौत्र वे राजा बलि कभी अधर्मका आचरण नहीं करते थे। उन्होंने दक्षिणायुक्त निन्यानवे यज्ञ किये थे, फिर भी सत्त्वगुणकी साक्षात् मूर्ति, योगियोंद्वारा सदा आराधित तथा विकारोंसे रहित भगवान् विष्णु भी देवताओंका प्रयोजन सिद्ध करनेके लिये कश्यपसे उत्पन्न हुए और उन्होंने वामनका कपटवेष धारण करके छलपूर्वक उनका राज्य तथा सागरसमेत पृथ्वी ले ली ॥ 42-44 ॥

विरोचनके पुत्र बलि एक सत्यवादी राजा थे। मैंने तो ऐसा सुना है कि भगवान् विष्णुने इन्द्रके लिये ही यह कपट किया था ।। 45 ।।

जब साक्षात् सत्वकी मूर्ति भगवान् विष्णुने बलिका यज्ञ ध्वंस करनेकी कामनासे वामनरूप धारण करके ऐसा किया, तब अन्य लोग क्यों नहीं करेंगे ? ।। 46 ।।

अतएव हे स्वामिन्! किसीपर कभी भी विश्वास नहीं करना चाहिये; क्योंकि यदि चित्तमें लोभ रहता है तो पाप करनेमें किसी भी प्रकारका डर ही क्या ? ।। 47 ।।

हे मुने! लोभके वशीभूत प्राणी सभी प्रकारके पाप कर बैठते हैं। उस समय किसीको परलोकका किंचिन्मात्र भी भय नहीं रहता ॥ 48 ॥

लोभसे नष्ट हुए चित्तवाले प्राणी दूसरोंका धन हड़पनेके लिये मन, वचन तथा कर्मसे सम्यक् तत्पर रहते हैं ।। 49 ।।

देवताओंकी निरन्तर आराधना करके मनुष्य उनसे धनकी कामना करते हैं। यह निश्चित है कि वे देवता अपने हाथोंसे धन उठाकर उन्हें देनेमें पूरी तरहसे समर्थ नहीं हैं ॥ 50 ॥किंतु व्यवसाय, दान, चोरी अथवा बलपूर्वक लूट आदि किसी भी माध्यमसे मनुष्यका अभिलषित धन [उन देवताओंके द्वारा] दूसरेके पाससे ला करके उन्हें दे दिया जाता है ॥ 51 ॥

विक्रय करनेके लिये पर्याप्त धान्य तथा वस्त्र आदिका संग्रह करके वैश्य इस भावनासे देवताओंकी पूजा करता है कि 'मेरे पास विपुल धन हो जाय।' हे परन्तप ! क्या इस व्यापारके द्वारा दूसरोंका धन ग्रहण करनेकी उन्हें इच्छा नहीं होती ? वस्तुका संग्रह करनेके बादसे ही वह भाव महँगा होनेकी इच्छा करने लगता है ॥ 52-53 ॥

हे ब्रह्मन् ! इस प्रकार सभी प्राणी दूसरोंका धन ले लेनेके लिये निरन्तर तत्पर रहते हैं तो फिर विश्वास कैसा ? ॥ 54 ॥

लोभ तथा मोहसे घिरे हुए लोगोंका तीर्थ, दान, अध्ययन - सब व्यर्थ हो जाता है; उनका किया हुआ वह सारा कर्म न करनेके समान हो जाता है ॥ 55 ॥ अतः हे महाभाग इस युधाजित्को घर लौटा दीजिये हे द्विजोत्तम! जानकीकी भाँति मैं अपने पुत्रके साथ यहीं निवास करूँगी ॥ 56 ॥

मनोरमाके ऐसा कहनेपर तेजस्वी भारद्वाजमुनि राजा युधाजित्के पास जाकर उनसे बोले-हे राजन् । हे नृपश्रेष्ठ! अपने इच्छानुसार आप अपने नगरको चले जायें। छोटे बालकवाली यह मनोरमा बड़ी दुःखी है; वह नहीं आ रही है ।। 57-58

युधाजित् बोला- हे सौम्य मुने! आप हठ छोड़ दीजिये और मनोरमाको विदा कीजिये, इसे छोड़कर मैं नहीं जाऊँगा, [ यदि आप नहीं मानेंगे तो ] मैं इसे अभी बलपूर्वक ले जाऊँगा ॥ 59 ॥

ऋषि बोले- जैसे प्राचीन कालमें विश्वामित्र वसिष्ठमुनिकी गौ ले जानेके लिये उद्यत हुए थे, उसी प्रकार यदि आपमें शक्ति हो तो आज मेरे आश्रमसे इसे बलपूर्वक ले जाइये ॥ 60 ll

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देवी भागवत महापुराण
Index


  1. [अध्याय 1] राजा जनमेजयका ब्रह्माण्डोत्पत्तिविषयक प्रश्न तथा इसके उत्तरमें व्यासजीका पूर्वकालमें नारदजीके साथ हुआ संवाद सुनाना
  2. [अध्याय 2] भगवती आद्याशक्तिके प्रभावका वर्णन
  3. [अध्याय 3] ब्रह्मा, विष्णु और महेशका विभिन्न लोकोंमें जाना तथा अपने ही सदृश अन्य ब्रह्मा, विष्णु और महेशको देखकर आश्चर्यचकित होना, देवीलोकका दर्शन
  4. [अध्याय 4] भगवतीके चरणनखमें त्रिदेवोंको सम्पूर्ण ब्रह्माण्डका दर्शन होना, भगवान् विष्णुद्वारा देवीकी स्तुति करना
  5. [अध्याय 5] ब्रह्मा और शिवजीका भगवतीकी स्तुति करना
  6. [अध्याय 6] भगवती जगदम्बिकाद्वारा अपने स्वरूपका वर्णन तथा 'महासरस्वती', 'महालक्ष्मी' और 'महाकाली' नामक अपनी शक्तियोंको क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु और शिवको प्रदान करना
  7. [अध्याय 7] ब्रह्माजीके द्वारा परमात्माके स्थूल और सूक्ष्म स्वरूपका वर्णन; सात्त्विक, राजस और तामस शक्तिका वर्णन; पंचतन्मात्राओं, ज्ञानेन्द्रियों, कर्मेन्द्रियों तथा पंचीकरण क्रियाद्वारा सृष्टिकी उत्पत्तिका वर्णन
  8. [अध्याय 8] सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुणका वर्णन
  9. [अध्याय 9] गुणोंके परस्पर मिश्रीभावका वर्णन, देवीके बीजमन्त्रकी महिमा
  10. [अध्याय 10] देवीके बीजमन्त्रकी महिमाके प्रसंगमें सत्यव्रतका आख्यान
  11. [अध्याय 11] सत्यव्रतद्वारा बिन्दुरहित सारस्वत बीजमन्त्र 'ऐ-ऐ' का उच्चारण तथा उससे प्रसन्न होकर भगवतीका सत्यव्रतको समस्त विद्याएँ प्रदान करना
  12. [अध्याय 12] सात्त्विक, राजस और तामस यज्ञोंका वर्णन मानसयज्ञकी महिमा और व्यासजीद्वारा राजा जनमेजयको देवी यज्ञके लिये प्रेरित करना
  13. [अध्याय 13] देवीकी आधारशक्तिसे पृथ्वीका अचल होना तथा उसपर सुमेरु आदि पर्वतोंकी रचना, ब्रह्माजीद्वारा मरीचि आदिकी मानसी सृष्टि करना, काश्यपी सृष्टिका वर्णन, ब्रह्मलोक, वैकुण्ठ, कैलास और स्वर्ग आदिका निर्माण; भगवान् विष्णुद्वारा अम्बायज्ञ करना और प्रसन्न होकर भगवती आद्या शक्तिद्वारा आकाशवाणीके माध्यमसे उन्हें वरदान देना
  14. [अध्याय 14] देवीमाहात्म्यसे सम्बन्धित राजा ध्रुवसन्धिकी कथा, ध्रुवसन्धिकी मृत्युके बाद राजा युधाजित् और वीरसेनका अपने-अपने दौहित्रोंके पक्षमें विवाद
  15. [अध्याय 15] राजा युधाजित् और वीरसेनका युद्ध, वीरसेनकी मृत्यु, राजा ध्रुवसन्धिकी रानी मनोरमाका अपने पुत्र सुदर्शनको लेकर भारद्वाजमुनिके आश्रममें जाना तथा वहीं निवास करना
  16. [अध्याय 16] युधाजित्का भारद्वाजमुनिके आश्रमपर आना और उनसे मनोरमाको भेजनेका आग्रह करना, प्रत्युत्तरमें मुनिका 'शक्ति हो तो ले जाओ' ऐसा कहना
  17. [अध्याय 17] धाजित्का अपने प्रधान अमात्यसे परामर्श करना, प्रधान अमात्यका इस सन्दर्भमें वसिष्ठविश्वामित्र प्रसंग सुनाना और परामर्श मानकर युधाजित्‌का वापस लौट जाना, बालक सुदर्शनको दैवयोगसे कामराज नामक बीजमन्त्रकी प्राप्ति, भगवतीकी आराधनासे सुदर्शनको उनका प्रत्यक्ष दर्शन होना तथा काशिराजकी कन्या शशिकलाको स्वप्नमें भगवतीद्वारा सुदर्शनका वरण करनेका आदेश देना
  18. [अध्याय 18] राजकुमारी शशिकलाद्वारा मन-ही-मन सुदर्शनका वरण करना, काशिराजद्वारा स्वयंवरकी घोषणा, शशिकलाका सखीके माध्यमसे अपना निश्चय माताको बताना
  19. [अध्याय 19] माताका शशिकलाको समझाना, शशिकलाका अपने निश्चयपर दृढ़ रहना, सुदर्शन तथा अन्य राजाओंका स्वयंवरमें आगमन, युधाजित्द्वारा सुदर्शनको मार डालनेकी बात कहनेपर केरलनरेशका उन्हें समझाना
  20. [अध्याय 20] राजाओंका सुदर्शनसे स्वयंवरमें आनेका कारण पूछना और सुदर्शनका उन्हें स्वप्नमें भगवतीद्वारा दिया गया आदेश बताना, राजा सुबाहुका शशिकलाको समझाना, परंतु उसका अपने निश्चयपर दृढ़ रहना
  21. [अध्याय 21] राजा सुबाहुका राजाओंसे अपनी कन्याकी इच्छा बताना, युधाजित्‌का क्रोधित होकर सुबाहुको फटकारना तथा अपने दौहित्रसे शशिकलाका विवाह करनेको कहना, माताद्वारा शशिकलाको पुनः समझाना, किंतु शशिकलाका अपने निश्चयपर दृढ़ रहना
  22. [अध्याय 22] शशिकलाका गुप्त स्थानमें सुदर्शनके साथ विवाह, विवाहकी बात जानकर राजाओंका सुबाहुके प्रति क्रोध प्रकट करना तथा सुदर्शनका मार्ग रोकनेका निश्चय करना
  23. [अध्याय 23] सुदर्शनका शशिकलाके साथ भारद्वाज आश्रमके लिये प्रस्थान, युधाजित् तथा अन्य राजाओंसे सुदर्शनका घोर संग्राम, भगवती सिंहवाहिनी दुर्गाका प्राकट्य, भगवतीद्वारा युधाजित् और शत्रुजित्का वध, सुबाहुद्वारा भगवतीकी स्तुति
  24. [अध्याय 24] सुबाहुद्वारा भगवती दुर्गासे सदा काशीमें रहनेका वरदान माँगना तथा देवीका वरदान देना, सुदर्शनद्वारा देवीकी स्तुति तथा देवीका उसे अयोध्या जाकर राज्य करनेका आदेश देना, राजाओंका सुदर्शनसे अनुमति लेकर अपने-अपने राज्योंको प्रस्थान
  25. [अध्याय 25] सुदर्शनका शत्रुजित्की माताको सान्त्वना देना, सुदर्शनद्वारा अयोध्या में तथा राजा सुबाहुद्वारा काशीमें देवी दुर्गाकी स्थापना
  26. [अध्याय 26] नवरात्रव्रत विधान, कुमारीपूजामें प्रशस्त कन्याओंका वर्णन
  27. [अध्याय 27] कुमारीपूजामें निषिद्ध कन्याओंका वर्णन, नवरात्रव्रतके माहात्म्यके प्रसंग में सुशील नामक वणिक्की कथा
  28. [अध्याय 28] श्रीरामचरित्रवर्णन
  29. [अध्याय 29] सीताहरण, रामका शोक और लक्ष्मणद्वारा उन्हें सान्त्वना देना
  30. [अध्याय 30] श्रीराम और लक्ष्मणके पास नारदजीका आना और उन्हें नवरात्रव्रत करनेका परामर्श देना, श्रीरामके पूछनेपर नारदजीका उनसे देवीकी महिमा और नवरात्रव्रतकी विधि बतलाना, श्रीरामद्वारा देवीका पूजन और देवीद्वारा उन्हें विजयका वरदान देना