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देवी भागवत महापुराण ( देवी भागवत)

Devi Bhagwat Purana (Devi Bhagwat Katha)

स्कन्ध 7, अध्याय 13 - Skand 7, Adhyay 13

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राजर्षि विश्वामित्रका अपने आश्रममें आना और सत्यव्रतद्वारा किये गये उपकारको जानना

राजा [ जनमेजय ] बोले- [हे व्यासजी !] राजा त्रिशंकुके आदेशसे सचिवोंने हरिश्चन्द्रको राजा बना दिया, किंतु स्वयं त्रिशंकुने उस चाण्डाल-देहसे मुक्ति कैसे प्राप्त की? वे वनमें कहीं मर गये अथवा गंगा-तटपर जलमें डूब गये अथवा गुरु वसिष्ठने कृपा करके उन्हें शापसे मुक्त कर दिया। यह सम्पूर्ण वृत्तान्त आप मेरे समक्ष कहिये; मैं राजा त्रिशंकुका चरित्र भलीभाँति सुनना चाहता हूँ ॥ 1-3 ॥

व्यासजी बोले- [हे राजन्!] अपने पुत्रका राज्याभिषेक करके राजा त्रिशंकुका चित्त बहुत प्रसन्न हुआ और वे वहीं जंगलमें कल्याणकारिणी भगवती | जगदम्बाका ध्यान करते हुए समय व्यतीत करने लगे ॥ 4 ॥

इस तरह कुछ समय बीतनेके बाद कौशिक मुनि एकाग्रचित्त होकर तपस्या पूर्ण करके अपनी पत्नी तथा पुत्रों आदिको देखनेके लिये [अपने आश्रममें] आये। वहाँ आकर अपने स्त्री-पुत्रादिको स्वस्थ देखकर वे परम हर्षित हुए। मेधावी ऋषिने पूजाके लिये आगे स्थित अपनी भार्यासे पूछा- हे सुनयने ! दुर्भिक्षकी स्थितिमें तुमने समय कैसे व्यतीत किया ? तुमने अन्नके बिना इन बालकोंको किस उपायसे पाला; यह मुझे बताओ ॥ 5-7 ॥

हे सुन्दरि ! मैं तो तपस्यामें संलग्न था, इसलिये नहीं आ सका। हे प्रिये! हे शोभने! बिना धनके तुमने क्या व्यवस्था की ? ॥ 8 ॥

यहाँ पर भीषण अकालका समाचार सुनकर अत्यधिक चिन्तित था, किंतु यह सोचकर नहीं आया कि धनहीन मैं [ वहाँ जाकर] करूँगा ही क्या ! ॥ 9 ॥हे सुजघने ! वनमें एक दिन मैं भी भूखसे अत्यधिक विकल होकर चोरकी भाँति एक चाण्डालके घरमें प्रविष्ट हुआ। वहाँ चाण्डालको सोया हुआ देखकर भूखसे अत्यन्त व्याकुल मैं रसोईघर खोजकर कुछ खानेके लिये उसमें पहुँच गया ।। 10-11 ॥ बर्तन खोलकर भोजन प्राप्त करनेके लिये मैंने ज्यों ही बर्तनमें हाथ डाला, तभी उस चाण्डालने मुझे देख लिया। उसने आदरपूर्वक मुझसे पूछा- आप कौन हैं ? रातके समय मेरे घरमें आप क्यों प्रविष्ट हुए हैं और मेरे बर्तनको क्यों खोल रहे हैं? आप अपना उद्देश्य बताइये ।। 12-13 ॥

हे सुन्दर केशोंवाली ! चाण्डालके यह पूछने पर क्षुधासे अत्यधिक पीड़ित मैं गद्गद वाणीमें उससे कहने लगा - हे महाभाग ! मैं एक तपस्वी ब्राह्मण हूँ। मैं भूखसे विकल होकर चोरीके विचारसे युक्त होकर यहाँ आया हूँ और इस बर्तनमें कोई खानेकी वस्तु देख रहा हूँ। हे महामते। चोरीके विचारसे यहाँ आया हुआ मैं आपका अतिथि हूँ। इस समय मैं भूखा हूँ। अतः आप मुझे आज्ञा दीजिये, जिससे मैं आपके द्वारा भलीभाँति पकाये गये पदार्थका भक्षण करूँ । 14 - 16 ॥

विश्वामित्र बोले- [ हे सुन्दरि !] मेरी बात सुनकर चाण्डालने मुझसे कहा- हे चारों वर्णोंमें अग्रगण्य ! इसे चाण्डालका घर जानिये, अतः आप मेरे यहाँ भोजन मत कीजिये; क्योंकि एक तो मानव योनिमें जन्म पाना दुर्लभ है, उसमें भी द्विज (ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य) के यहाँ बड़ा ही दुर्लभ है। द्विजों में भी ब्राह्मण-कुलमें जन्म तो सर्वथा दुर्लभ है। क्या आप इसे नहीं जानते हैं? उत्तम लोककी कामना करनेवाले व्यक्तिको कभी भी दूषित आहार ग्रहण नहीं करना चाहिये। भगवान् मनुने कर्मानुसार सात जातियोंको अन्त्यज मानकर उन्हें अग्राह्य बतलाया है। हे विप्र मैं चाण्डाल हूँ, अतः अपने कर्मके अनुसार त्याज्य हूँ; इसमें कोई सन्देह नहीं है। हे द्विज! मैं अपना धर्म समझकर ही आपको भोजन करनेसे रोक रहा हूँ, न कि [ अपने पदार्थके] लोभसे। हे द्विजवर वर्णसंकरताका दोष आपको न लगे केवल यही मेरा अभिप्राय है। ll 17- 203 llविश्वामित्र बोले- हे धर्मज्ञ तुम सत्य कह रहे हो। हे अन्त्यज ! तुम्हारी बुद्धि अत्यन्त विशाल है, फिर भी मैं तुम्हें आपत्तिकालमें पालनीय धर्मका सूक्ष्म मार्ग बता रहा हूँ ॥ 216 ॥

हे मानद ! मनुष्यको चाहिये कि जिस किसी भी उपायसे शरीरकी रक्षा करे। इसमें यदि कोई पाप हो जाय, तो बादमें पापसे मुक्तिके लिये प्रायश्चित्त कर लेना चाहिये आपत्तिकालमें किये गये पापकर्मके कारण दुर्गति नहीं होती, किंतु सामान्य समयमें किये गये पापके कारण दुर्गति अवश्य होती है । ll 22-23 ॥

भूख से मरनेवालेको नरक होता है, इसमें सन्देह नहीं है। अतः अपने कल्याणकी इच्छा रखनेवालेको भूख मिटानेका प्रयत्न करना चाहिये। हे अन्त्यज ! इसीलिये मैं भी चौर-कर्मसे अपने देहकी रक्षा कर रहा हूँ। विद्वानोंने कहा है कि अनावृष्टिके समय चोरी करनेसे जो पाप होता है, वह पाप उस मेघको लगता है, जो पानी नहीं बरसाता है ।। 24-253 ॥

ॐ विश्वामित्र बोले- हे प्रिये! मेरे ऐसा यह वचन कहते ही आकाशसे हाथीकी सूँड़की तरह मोटी धारवाली मनोभिलषित जलवृष्टि सहसा होने लगी। बिजलीकी चमकके साथ बरसते हुए मेघको देखकर मैं अत्यन्त आनन्दित हुआ । ll 26-27 ॥

उसी समय उस चाण्डालका घर छोड़कर मैं परम प्रसन्नतापूर्वक बाहर निकल पड़ा। हे सुन्दरि ! अब यह बताओ कि तुमने प्राणियोंका विनाश करनेवाले उस अत्यन्त भीषण समयको इस वनमें किस प्रकार बिताया ? ॥ 283 ॥

व्यासजी बोले- [हे राजन्!] पतिकी यह बात सुनकर उस प्रियभाषिणी स्त्रीने पतिसे कहा हे मुनिश्रेष्ठ! मैंने जिस प्रकार उस अत्यन्त कष्टकारी समयको व्यतीत किया, उसे आप सुनिये। आपके चले जानेके बाद यहाँ अकाल पड़ गया था। मेरे सभी पुत्र अन्नके लिये बड़े दुःखित हुए ॥ 29-303 ॥

बालकोंको भूखा देखकर घोर चिन्तासे ग्रस्त मैं नीवार (जंगली धान्य)- के लिये वन-वन घूमती रही। उस समय मुझे कुछ फल मिल गये। इस प्रकार नीवार अन्नके द्वारा मैंने कुछ महीने व्यतीत किये ॥ 31-32 ॥हे कान्त ! उसके भी समाप्त हो जानेपर मैं मन | ही मन पुनः सोचने लगी- 'इस वनमें अब नीवारान्न भी नहीं मिल रहा है और इस अकालमें भिक्षा भी नहीं मिल सकती। वृक्षोंपर फल नहीं रह गये और धरतीमें कन्दमूल भी नहीं रहे। भूखसे पीड़ित बालक व्याकुल होकर बहुत रो रहे हैं। अब मैं क्या करूँ कहाँ जाऊँ और भूखसे तड़पते हुए इन बालकोंसे क्या कहूँ' ।। 33-343 ॥

ऐसा सोचकर मैंने मनमें यही निश्चय किया कि किसी धनी व्यक्तिके हाथ आज अपने एक पुत्रको बेचूँगी और उसका मूल्य लेकर उस द्रव्यसे भूखसे पीड़ित अपने बालकोंका पालन करूँगी; क्योंकि इनके पालन-पोषणका कोई दूसरा उपाय नहीं रह गया है ।। 35-363 ॥

अपने मनमें यह विचार करके मैंने इस पुत्रको बेचनेका दृढ़ निश्चय कर लिया। हे महाभाग ! उस समय मेरा यह पुत्र व्याकुल होकर जोर-जोर से रोने-चिल्लाने लगा, किंतु मैं निर्लज्ज होकर अपने रोते-चिल्लाते इस पुत्रको लेकर घरसे निकल पड़ी ।। 37-38 ।।

उस समय राजर्षि सत्यव्रतने मार्गमें मुझ अति व्याकुल चित्तवालीको देखकर पूछा कि यह बालक क्यों रो रहा है ? ॥ 39 ॥

हे मुनिवर तब मैंने उनसे यह वचन कहा हे राजन्! मैं इस बालकको आज बेचनेके लिये ले जा रही हूँ ll 40 ॥

तब मेरी बात सुनकर राजाका हृदय दयासे भर गया और उन्होंने मुझसे कहा- 'तुम इस बालकको लेकर अपने घर लौट जाओ। जबतक मुनि विश्वामित्र | लौटकर आ नहीं जाते, तबतक तुम्हारे इन बालकों के भोजनके लिये सामग्री प्रतिदिन तुम्हारे यहाँ पहुँचा दिया करूँगा' ।। 41-42 ॥ तभीसे दयालु राजा सत्यव्रत प्रतिदिन कुछ
भोज्य-सामग्री इस पेड़ पर रखकर चले जाते थे ॥ 43 ॥

हे कान्त! उन्होंने ही संकटके सागरसे इन बालकोंकी रक्षा की, किंतु मेरे ही कारण राजा सत्यव्रतको मुनि वसिष्ठके शापका भागी होना पड़ा ॥ 44 ॥किसी दिन राजा सत्यव्रत जंगलमें कोई सामग्री नहीं पा सके। तब उन्होंने वसिष्ठजीकी दूध देनेवाली गाय मार डाली; इससे मुनि वसिष्ठ उनपर बहुत कुपित हुए ll 45 ll

कुपित महात्मा वसिष्ठने राजाका नाम 'त्रिशंकु' रख दिया और गोवध करनेके कारण राजाको चाण्डाल बना दिया ॥ 46 ll

हे कौशिक ! उनके इसी कष्टसे मैं अत्यन्त दुःखित है; क्योंकि मेरे ही कारण वे राजकुमार सत्यव्रत चाण्डाल हो गये हैं। इसलिये अब आपको जिस किसी भी उपायसे; यहाँतक कि अपनी उम्र तपस्याके प्रभावसे राजाकी रक्षा अवश्य करनी चाहिये ।। 47-48 ।।

व्यासजी बोले- हे शत्रुका दमन करनेवाले [राजा जनमेजय]! अपनी पत्नीकी यह बात सुनकर मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्र उस दुःखित स्त्रीको सान्त्वना देते हुए कहने लगे ॥ 49 ll

विश्वामित्र बोले- हे कमलनयने! जिन्होंने तुम्हारा उपकार किया है और घोर वनमें तुम्हारी रक्षा की है, उन राजा सत्यव्रतको मैं शापमुक्त अवश्य करूँगा। मैं अपनी योगविद्या तथा तपस्याके प्रभावसे उनका दुःख दूर कर दूंगा ॥ 503 ॥

परमतत्त्ववेत्ता विश्वामित्रजी अपनी भार्याको इस तरह आश्वस्त करके सोचने लगे कि राजा सत्यव्रतका दुःख किस प्रकार दूर हो सकता है ? तब भलीभाँति विचार करके मुनि विश्वामित्र उस स्थानपर गये, जहाँ राजा सत्यव्रत (त्रिशंकु) दीन अवस्थाको प्राप्त होकर चाण्डालके रूपमें एक कुटियामें रह रहे थे ll 51-523 ॥

मुनिको आते देखकर राजा त्रिशंकु विस्मयमें पड़ गये। वे तत्काल मुनिके चरणोंपर दण्डकी भाँति गिर पड़े। तब भूमिपर पड़े हुए राजाको हाथसे पकड़कर द्विजश्रेष्ठ विश्वामित्रने उठाया और उन्हें सान्त्वना देते हुए यह वचन कहा-'हे राजन्! मेरे ही कारण वसिष्ठमुनिने आपको शाप दिया है, अतः मैं आपकी सारी कामना पूर्ण करूँगा। अब आप बताइये कि मैं आपका कौन-सा कार्य करूँ ?' ll 53-553 llराजा बोले- पूर्वकालमें मैंने यज्ञ करानेके लिये वसिष्ठजीसे यह प्रार्थना की थी- हे मुनिश्रेष्ठ ! मैं महान् यज्ञ करना चाहता हूँ, अतः आप मुझसे यज्ञ सम्पन्न कराइये। हे विप्रेन्द्र ! आप मेरा यह अभीष्ट कार्य कीजिये, जिससे मैं स्वर्ग चला जाऊँ; मैं इसी मानव-देहसे सुखोंके निधान इन्द्रलोक जाना चाहता हूँ॥56-573॥

इसपर वसिष्ठमुनिने क्रोधित होकर मुझसे कहा अरे दुर्बुद्धि ! इस मानवशरीरसे तुम्हारा स्वर्गमें वास कैसे हो सकता है ? ॥ 583 ॥

तब स्वर्गकी उत्कट लालसावाले मैंने भगवान् वसिष्ठसे पुन: कहा- हे निष्पाप ! तब मैं किसी अन्यको पुरोहित बनाकर वह श्रेष्ठ यज्ञ आरम्भ करूँगा। उसी समय उन्होंने मुझे यह शाप दे दिया 'हे नीच! तुम चाण्डाल हो जाओ' ॥ 59-60॥

हे मुनीश्वर ! इस प्रकार मैंने शाप पानेका सारा कारण आपसे कह दिया। अब एकमात्र आप ही मेरा दुःख दूर करनेमें समर्थ हैं ॥ 61 ॥

कष्टकी पीड़ासे व्यथित राजा त्रिशंकु इतना कहकर चुप हो गये और विश्वामित्रजी भी उनके | शापको दूर करनेका उपाय सोचने लगे ॥ 62 ॥

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देवी भागवत महापुराण
Index


  1. [अध्याय 1] पितामह ब्रह्माकी मानसी सृष्टिका वर्णन, नारदजीका दक्षके पुत्रोंको सन्तानोत्पत्तिसे विरत करना और दक्षका उन्हें शाप देना, दक्षकन्याओंसे देवताओं और दानवोंकी उत्पत्ति
  2. [अध्याय 2] सूर्यवंशके वर्णनके प्रसंगमें सुकन्याकी कथा
  3. [अध्याय 3] सुकन्याका च्यवनमुनिके साथ विवाह
  4. [अध्याय 4] सुकन्याकी पतिसेवा तथा वनमें अश्विनीकुमारोंसे भेंटका वर्णन
  5. [अध्याय 5] अश्विनीकुमारोंका च्यवनमुनिको नेत्र तथा नवयौवनसे सम्पन्न बनाना
  6. [अध्याय 6] राजा शर्यातिके यज्ञमें च्यवनमुनिका अश्विनीकुमारोंको सोमरस देना
  7. [अध्याय 7] क्रुद्ध इन्द्रका विरोध करना; परंतु च्यवनके प्रभावको देखकर शान्त हो जाना, शर्यातिके बादके सूर्यवंशी राजाओंका विवरण
  8. [अध्याय 8] राजा रेवतकी कथा
  9. [अध्याय 9] सूर्यवंशी राजाओंके वर्णनके क्रममें राजा ककुत्स्थ, युवनाश्व और मान्धाताकी कथा
  10. [अध्याय 10] सूर्यवंशी राजा अरुणद्वारा राजकुमार सत्यव्रतका त्याग, सत्यव्रतका वनमें भगवती जगदम्बाके मन्त्र जपमें रत होना
  11. [अध्याय 11] भगवती जगदम्बाकी कृपासे सत्यव्रतका राज्याभिषेक और राजा अरुणद्वारा उन्हें नीतिशास्त्रकी शिक्षा देना
  12. [अध्याय 12] राजा सत्यव्रतको महर्षि वसिष्ठका शाप तथा युवराज हरिश्चन्द्रका राजा बनना
  13. [अध्याय 13] राजर्षि विश्वामित्रका अपने आश्रममें आना और सत्यव्रतद्वारा किये गये उपकारको जानना
  14. [अध्याय 14] विश्वामित्रका सत्यव्रत (त्रिशंकु ) - को सशरीर स्वर्ग भेजना, वरुणदेवकी आराधनासे राजा हरिश्चन्द्रको पुत्रकी प्राप्ति
  15. [अध्याय 15] प्रतिज्ञा पूर्ण न करनेसे वरुणका क्रुद्ध होना और राजा हरिश्चन्द्रको जलोदरग्रस्त होनेका शाप देना
  16. [अध्याय 16] राजा हरिश्चन्द्रका शुनःशेषको स्तम्भमें बाँधकर यज्ञ प्रारम्भ करना
  17. [अध्याय 17] विश्वामित्रका शुनःशेपको वरुणमन्त्र देना और उसके जपसे वरुणका प्रकट होकर उसे बन्धनमुक्त तथा राजाको रोगमुक्त करना, राजा हरिश्चन्द्रकी प्रशंसासे विश्वामित्रका वसिष्ठपर क्रोधित होना
  18. [अध्याय 18] विश्वामित्रका मायाशूकरके द्वारा हरिश्चन्द्रके उद्यानको नष्ट कराना
  19. [अध्याय 19] विश्वामित्रकी कपटपूर्ण बातोंमें आकर राजा हरिश्चन्द्रका राज्यदान करना
  20. [अध्याय 20] हरिश्चन्द्रका दक्षिणा देनेहेतु स्वयं, रानी और पुत्रको बेचनेके लिये काशी जाना
  21. [अध्याय 21] विश्वामित्रका राजा हरिश्चन्द्रसे दक्षिणा माँगना और रानीका अपनेको विक्रयहेतु प्रस्तुत करना
  22. [अध्याय 22] राजा हरिश्चन्द्रका रानी और राजकुमारका विक्रय करना और विश्वामित्रको ग्यारह करोड़ स्वर्णमुद्राएँ देना तथा विश्वामित्रका और अधिक धनके लिये आग्रह करना
  23. [अध्याय 23] विश्वामित्रका राजा हरिश्चन्द्रको चाण्डालके हाथ बेचकर ऋणमुक्त करना
  24. [अध्याय 24] चाण्डालका राजा हरिश्चन्द्रको श्मशानघाटमें नियुक्त करना
  25. [अध्याय 25] सर्पदंशसे रोहितकी मृत्यु, रानीका करुण विलाप, पहरेदारोंका रानीको राक्षसी समझकर चाण्डालको सौंपना और चाण्डालका हरिश्चन्द्रको उसके वधकी आज्ञा देना
  26. [अध्याय 26] रानीका चाण्डालवेशधारी राजा हरिश्चन्द्रसे अनुमति लेकर पुत्रके शवको लाना और करुण विलाप करना, राजाका पत्नी और पुत्रको पहचानकर मूर्च्छित होना और विलाप करना
  27. [अध्याय 27] चिता बनाकर राजाका रोहितको उसपर लिटाना और राजा-रानीका भगवतीका ध्यानकर स्वयं भी पुत्रकी चितामें जल जानेको उद्यत होना, ब्रह्माजीसहित समस्त देवताओंका राजाके पास आना, इन्द्रका अमृत वर्षा करके रोहितको जीवित करना और राजा-रानीसे स्वर्ग चलनेके लिये आग्रह करना, राजाका सम्पूर्ण अयोध्यावासियोंके साथ स्वर्ग जानेका निश्चय
  28. [अध्याय 28] दुर्गम दैत्यकी तपस्या; वर-प्राप्ति तथा अत्याचार, देवताओंका भगवतीकी प्रार्थना करना, भगवतीका शताक्षी और शाकम्भरीरूपमें प्राकट्य, दुर्गमका वध और देवगणोंद्वारा भगवतीकी स्तुति
  29. [अध्याय 29] व्यासजीका राजा जनमेजयसे भगवतीकी महिमाका वर्णन करना और उनसे उन्हींकी आराधना करनेको कहना, भगवान् शंकर और विष्णुके अभिमानको देखकर गौरी तथा लक्ष्मीका अन्तर्धान होना और शिव तथा विष्णुका शक्तिहीन होना
  30. [अध्याय 30] शक्तिपीठोंकी उत्पत्तिकी कथा तथा उनके नाम एवं उनका माहात्म्य
  31. [अध्याय 31] तारकासुरसे पीड़ित देवताओंद्वारा भगवतीकी स्तुति तथा भगवतीका हिमालयकी पुत्रीके रूपमें प्रकट होनेका आश्वासन देना
  32. [अध्याय 32] देवीगीताके प्रसंगमें भगवतीका हिमालयसे माया तथा अपने स्वरूपका वर्णन
  33. [अध्याय 33] भगवतीका अपनी सर्वव्यापकता बताते हुए विराट्रूप प्रकट करना, भयभीत देवताओंकी स्तुतिसे प्रसन्न भगवतीका पुनः सौम्यरूप धारण करना
  34. [अध्याय 34] भगवतीका हिमालय तथा देवताओंसे परमपदकी प्राप्तिका उपाय बताना
  35. [अध्याय 35] भगवतीद्वारा यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा तथा कुण्डलीजागरणकी विधि बताना
  36. [अध्याय 36] भगवतीके द्वारा हिमालयको ज्ञानोपदेश - ब्रह्मस्वरूपका वर्णन
  37. [अध्याय 37] भगवतीद्वारा अपनी श्रेष्ठ भक्तिका वर्णन
  38. [अध्याय 38] भगवतीके द्वारा देवीतीर्थों, व्रतों तथा उत्सवोंका वर्णन
  39. [अध्याय 39] देवी- पूजनके विविध प्रकारोंका वर्णन
  40. [अध्याय 40] देवीकी पूजा विधि तथा फलश्रुति