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देवी भागवत महापुराण ( देवी भागवत)

Devi Bhagwat Purana (Devi Bhagwat Katha)

स्कन्ध 4, अध्याय 10 - Skand 4, Adhyay 10

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राजा जनमेजयद्वारा प्रह्लादके साथ नर-नारायणके बुद्धका कारण पूछना, व्यासजीद्वारा उत्तरमें संसारके मूल कारण अहंकारका निरूपण करना तथा महर्षि भृगुद्वारा भगवान् विष्णुको शाप देनेकी कथा

जनमेजय बोले- हे व्यासजी! इस कथानकमें मुझे यह महान् संशय हो रहा है कि जब वे नर नारायण शान्तस्वभाव, भगवान् विष्णुके अंशस्वरूप, तपको ही अपना सर्वस्व माननेवाले, तीर्थमें निवास करनेवाले, सत्त्वगुणसम्पन्न, वनके फल-मूलका सदा आहार करनेवाले, धर्मपुत्र, महात्मा तपस्वी तथा सत्यनिष्ठ थे; तब वे युद्धमें परस्पर राग-द्वेषसे ग्रस्त कैसे हो गये और उन्होंने उत्कृष्ट तपस्याका त्याग करके संग्राम क्यों किया ? ॥ 1-3 ।।उन दोनों मुनियोंने शान्ति - सुखका त्याग करके प्रह्लादके साथ पूरे सौ दिव्य वर्षोंतक युद्ध किसलिये किया ? ॥ 4 ॥ उन दोनों मुनियोंने प्रह्लादके साथ वह संग्राम क्यों किया? हे महाभाग ! आप मुझे उस युद्धका कारण बताइये ॥ 5 ॥ (स्त्री, धन तथा कोई कार्यविशेष ही प्रायः युद्धके कारण होते हैं।) उन विरक्त मुनियोंको युद्धका विचार क्यों उत्पन्न हुआ ? हे परन्तप ! उन्होंने उस प्रकारका तप किसीको प्रसन्न करनेके लिये, सुखभोगके लिये अथवा स्वर्गके लिये-किस उद्देश्यसे किया था? शान्त चित्तवाले उन मुनियोंने समस्त फल प्रदान करनेवाला कठोर तप तो किया था, किंतु उन्होंने कौन-सा अद्भुत फल प्राप्त किया? उन्होंने तपस्यासे शरीरको कष्ट दिया और पूरे सौ दिव्य वर्षोंतक बार बार संग्राम करके परिश्रमके द्वारा अपनेको संतप्त किया। उन मुनियोंने न राज्यके लिये, न धनके लिये, न स्त्रीके लिये और न तो गृहके लिये ही यह युद्ध किया तो फिर उन्होंने महात्मा प्रह्लादके साथ किसलिये युद्ध किया ? ॥ 6-93 ॥

युद्ध शरीरके लिये कष्टदायक होता है - इस | सनातन बातको जानते हुए कोई तृष्णारहित पुरुष आखिर ऐसा युद्ध किसलिये करेगा ? हे धर्मज्ञ उत्तम बुद्धिवाला मनुष्य इस लोकमें सदा सुखदायी कर्म ही करता है, दुःखप्रद कर्म नहीं - यह सनातन सिद्धान्त है। तब धर्मपुत्र, भगवान् विष्णुके अंशस्वरूप, सर्वज्ञ तथा सभी गुणोंसे विभूषित उन मुनियोंने वह दुःखदायक तथा धर्मविनाशक युद्ध क्यों किया? हे व्यासजी ! कोई मूर्ख भी अच्छी प्रकार आचरित, सुख तथा आनन्द देनेवाले और महाफलदायी तपका त्याग करके दारुण युद्ध करना नहीं चाहता ॥ 10-133 ॥

मैंने सुना है कि राजा ययाति स्वर्गसे गये थे। अहंकारजन्य पापके कारण वे पृथ्वीतलपर गिरा दिये गये थे। वे यज्ञकर्ता, दानी और धर्मनिष्ठ च्युत हो थे; किंतु केवल थोड़ेसे अहंकार भरे शब्दोंका उच्चारण करनेके कारण वज्रपाणि इन्द्रने उन्हें [ स्वर्गसे पृथ्वीपर] गिरा दिया था। यह निश्चित है कि बिना अहंकारकेयुद्ध हो ही नहीं सकता। अन्ततः मुनिको उस युद्धका क्या फल मिला, उससे तो केवल उनका पुण्य ही नष्ट हुआ । 14 - 163 ॥

व्यासजी बोले- हे राजन् धर्मका निर्णय करते समय सर्वज्ञ मुनियोंने अहंकारको ही संसारका मूल कारण कहा है और इसे [सत्त्वादि भेदसे] तीन प्रकारका बतलाया है। [ऐसी स्थितिमें] शरीरधारी होकर मुनि नारायण उस अहंकारका त्याग करनेमें कैसे समर्थ हो सकते थे ? यह निश्चित है कि बिना कारणके कार्य नहीं होता। 17-183 ।।

तप, दान तथा यज्ञ सात्त्विक अहंकारसे होते हैं। हे महाभाग! राजस और तामस अहंकारसे कलह उत्पन्न होता है। हे राजेन्द्र ! यह निश्चय है कि छोटी-सी भी क्रिया चाहे वह शुभ हो अथवा अशुभ- बिना अहंकारके कभी नहीं हो सकती। जगत्में अहंकारसे बढ़कर बन्धनमें डालनेवाला दूसरा कोई पदार्थ नहीं है। अतः जिस अहंकारसे ही यह विश्व निर्मित है, उसके बिना यह संसार कैसे रह सकता है ? ।। 19 - 213 ॥

हे पृथ्वीपते। जब ब्रह्मा, विष्णु और शिव भी अहंकारयुक्त रहते हैं, तब अन्य प्राणियों और मुनियोंकी बात ही क्या? यह चराचर जगत् अहंकारके वशीभूत होकर भ्रमण करता रहता है। सभी जीव कर्मके अधीन हैं और उसीके अनुसार बार-बार उनका जन्म तथा मरण होता रहता है। हे महीपते! देवता, मनुष्य और पशु-पक्षियोंका इस संसारमें बराबर चक्कर काटना रथके पहियेके भ्रमणके समान बताया गया है ।22-246 ॥

इस विस्तृत संसारमें उत्तम अधम सभी योनियोंमें भगवान् विष्णुके अवतारोंकी संख्या कौन मनुष्य जान सकता है ? साक्षात् नारायण श्रीहरिको मत्स्य, कच्छप, वराह, नरसिंह और वामनतकका शरीर धारण करना पड़ा। वे जगत्प्रभु वासुदेव, भगवान् जनार्दन भी विधिके अधीन होकर विभिन्न युगों में असंख्य अवतार धारण करते रहते हैं ॥ 25 - 273 ।।हे महाराज ! सातवें वैवस्वत मन्वन्तरमें भगवान् श्रीहरिने जो-जो अवतार लिये थे, उन्हें आप ध्यानपूर्वक सुनें। हे महाराज! देवश्रेष्ठ और सबके स्वामी भगवान् विष्णुको महर्षि भृगुके शापके कारण अनेक अवतार धारण करने पड़े थे ॥ 28-293 ॥

राजा बोले- हे महाभाग ! हे पितामह! मेरे मनमें यह संदेह हो रहा है कि भृगुने भगवान्‌को शाप क्यों दे दिया? हे मुने! भगवान् विष्णुने उन भृगुमुनिका कौन-सा अप्रिय कार्य कर दिया था, जिससे रुष्ट होकर महर्षि भृगुने सभी देवताओं द्वारा नमस्कार किये जानेवाले भगवान् विष्णुको शाप | दे दिया ॥ 30-313 ॥

व्यासजी बोले- हे राजन् ! सुनिये, मैं आपको भृगुके शापका कारण बताता हूँ। पूर्वकालमें कश्यपतनय हिरण्यकशिपु नामक एक राजा था। उस समय जब भी वह देवताओंके साथ परस्पर संघर्ष करने लगता था, तब युद्ध आरम्भ हो जानेपर सारा संसार व्याकुल हो उठता था ॥ 32-333 ॥

बादमें हिरण्यकशिपुका वध हो जानेपर प्रह्लाद राजा बने। शत्रुओंको कष्ट पहुँचानेवाले वे प्रह्लाद भी देवताओंको पीड़ित करने लगे। अतः इन्द्र और प्रह्लादमें भयानक संग्राम आरम्भ हो गया। हे राजन् ! पूरे सौ वर्षतक देवताओंने लोगोंको अचम्भे में डाल | देनेवाला भीषण युद्ध किया और प्रह्लादको पराजित कर दिया। हे राजन् ! तब शाश्वत धर्मको समझकर वे महान् विरक्तिको प्राप्त हुए और विरोचनपुत्र बलिको राज्यपर प्रतिष्ठित करके तप करनेके लिये गन्धमादनपर्वतपर चले गये 34-373

राज्य प्राप्त करके ऐश्वर्यशाली राजा बलिने देवताओंसे शत्रुता कर ली, जिससे [देवताओं और [दैत्योंमें] पुनः परस्पर अत्यन्त भीषण युद्ध होने लगा। उसमें देवताओं तथा अमित तेजस्वी इन्द्रने दैत्योंको जीत लिया। हे राजन् ! उस समय इन्द्रके सहायक बनकर भगवान् विष्णुने दैत्योंको राज्यसे च्युत कर दिया ।। 38-393 ॥तदनन्तर हारे हुए दैत्य [अपने गुरु] शुक्राचार्यकी शरणमें गये। [ सभी दैत्य उनसे कहने लगे- ] हे ब्रह्मन्! आप प्रतापशाली होते हुए भी हमारी सहायता क्यों नहीं कर रहे हैं? हे मन्त्रज्ञोंमें श्रेष्ठ! यदि हमारी रक्षाहेतु आप सहायक न हुए तो हमलोग यहाँ नहीं रह पायेंगे और निश्चय ही हमें पातालमें जाना पड़ेगा ।। 40-413 ॥

व्यासजी बोले- दैत्योंके ऐसा कहनेपर दयालु शुक्राचार्यमुनिने उनसे कहा- हे असुरो ! डरो मत। मैं अपने तेजसे [तुमलोगोंको धरातलपर] स्थापित करूँगा और मन्त्रों तथा औषधियोंसे सर्वदा तुमलोगोंकी सहायता करूँगा। तुमलोग चिन्तामुक्त होकर उत्साह बनाये रखो । 42-433 ॥

व्यासजी बोले- इस प्रकार शुक्राचार्यका आश्रय पाकर वे दैत्य निर्भय हो गये। उधर देवताओंने गुप्तचरोंसे यह समाचार सुन लिया। तत्पश्चात् शुक्राचार्य मन्त्रके प्रभावको समझकर अत्यन्त घबराये हुए देवताओंने इन्द्रके साथ परस्पर मन्त्रणा करके यह योजना बनायी कि जबतक शुक्राचार्यके मन्त्रके प्रभावसे दैत्य हमें राज्यच्युत करें, उसके पहले ही हमलोग युद्ध करनेके लिये शीघ्रतापूर्वक प्रस्थान कर दें और बलपूर्वक उनका वध करके बचे हुए दैत्योंको पाताल भेज दें । 44-463 ॥

तदनन्तर अत्यधिक रोषमें भरे देवताओंने हाथोंमें शस्त्र धारणकर दैत्योंपर चढ़ाई कर दी। इन्द्रकी प्रेरणासे भगवान् विष्णुसहित सभी देवता उनपर टूट पड़े। तब देवताओंके द्वारा मारे जा रहे वे दैत्य आतंकित तथा भयभीत होकर शुक्राचार्यकी शरणमें गये और 'रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये' - ऐसा बार बार कहने लगे ॥ 47-4863 ।।

देवताओंके द्वारा पीड़ित किये गये उन महाबली दैत्योंको देखकर मन्त्र और औषधिके प्रभावसे शक्तिशाली बने शुक्राचार्यने उनसे 'डरो मत' - ऐसा वचन कहा। तब शुक्राचार्यको देखते ही सभी देवता उन दैत्योंको छोड़कर चले गये ॥ 49-50 ।।

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देवी भागवत महापुराण
Index


  1. [अध्याय 1] वसुदेव, देवकी आदिके कष्टोंके कारणके सम्बन्धमें जनमेजयका प्रश्न
  2. [अध्याय 2] व्यासजीका जनमेजयको कर्मकी प्रधानता समझाना
  3. [अध्याय 3] वसुदेव और देवकीके पूर्वजन्मकी कथा
  4. [अध्याय 4] व्यासजीद्वारा जनमेजयको मायाकी प्रबलता समझाना
  5. [अध्याय 5] नर-नारायणकी तपस्यासे चिन्तित होकर इन्द्रका उनके पास जाना और मोहिनी माया प्रकट करना तथा उससे भी अप्रभावित रहनेपर कामदेव, वसन्त और अप्सराओंको भेजना
  6. [अध्याय 6] कामदेवद्वारा नर-नारायणके समीप वसन्त ऋतुकी सृष्टि, नारायणद्वारा उर्वशीकी उत्पत्ति, अप्सराओंद्वारा नारायणसे स्वयंको अंगीकार करनेकी प्रार्थना
  7. [अध्याय 7] अप्सराओंके प्रस्तावसे नारायणके मनमें ऊहापोह और नरका उन्हें समझाना तथा अहंकारके कारण प्रह्लादके साथ हुए युद्धका स्मरण कराना
  8. [अध्याय 8] व्यासजीद्वारा राजा जनमेजयको प्रह्लादकी कथा सुनाना इस प्रसंग में च्यवनॠषिके पाताललोक जानेका वर्णन
  9. [अध्याय 9] प्रह्लादजीका तीर्थयात्राके क्रममें नैमिषारण्य पहुँचना और वहाँ नर-नारायणसे उनका घोर युद्ध, भगवान् विष्णुका आगमन और उनके द्वारा प्रह्लादको नर-नारायणका परिचय देना
  10. [अध्याय 10] राजा जनमेजयद्वारा प्रह्लादके साथ नर-नारायणके बुद्धका कारण पूछना, व्यासजीद्वारा उत्तरमें संसारके मूल कारण अहंकारका निरूपण करना तथा महर्षि भृगुद्वारा भगवान् विष्णुको शाप देनेकी कथा
  11. [अध्याय 11] मन्त्रविद्याकी प्राप्तिके लिये शुक्राचार्यका तपस्यारत होना, देवताओंद्वारा दैत्योंपर आक्रमण, शुक्राचार्यकी माताद्वारा दैत्योंकी रक्षा और इन्द्र तथा विष्णुको संज्ञाशून्य कर देना, विष्णुद्वारा शुक्रमाताका वध
  12. [अध्याय 12] महात्मा भृगुद्वारा विष्णुको मानवयोनिमें जन्म लेनेका शाप देना, इन्द्रद्वारा अपनी पुत्री जयन्तीको शुक्राचार्यके लिये अर्पित करना, देवगुरु बृहस्पतिद्वारा शुक्राचार्यका रूप धारणकर दैत्योंका पुरोहित बनना
  13. [अध्याय 13] शुक्राचार्यरूपधारी बृहस्पतिका दैत्योंको उपदेश देना
  14. [अध्याय 14] शुक्राचार्यद्वारा दैत्योंको बृहस्पतिका पाखण्डपूर्ण कृत्य बताना, बृहस्पतिकी मायासे मोहित दैत्योंका उन्हें फटकारना, क्रुद्ध शुक्राचार्यका दैत्योंको शाप देना, बृहस्पतिका अन्तर्धान हो जाना, प्रह्लादका शुक्राचार्यजीसे क्षमा माँगना और शुक्राचार्यका उन्हें प्रारब्धकी बलवत्ता समझाना
  15. [अध्याय 15] देवता और दैत्योंके युद्धमें दैत्योंकी विजय, इन्द्रद्वारा भगवतीकी स्तुति, भगवतीका प्रकट होकर दैत्योंके पास जाना, प्रह्लादद्वारा भगवतीकी स्तुति, देवीके आदेशसे दैत्योंका पातालगमन
  16. [अध्याय 16] भगवान् श्रीहरिके विविध अवतारोंका संक्षिप्त वर्णन
  17. [अध्याय 17] श्रीनारायणद्वारा अप्सराओंको वरदान देना, राजा जनमेजयद्वारा व्यासजीसे श्रीकृष्णावतारका चरित सुनानेका निवेदन करना
  18. [अध्याय 18] पापभारसे व्यथित पृथ्वीका देवलोक जाना, इन्द्रका देवताओं और पृथ्वीके साथ ब्रह्मलोक जाना, ब्रह्माजीका पृथ्वी तथा इन्द्रादि देवताओंसहित विष्णुलोक जाकर विष्णुकी स्तुति करना, विष्णुद्वारा अपनेको भगवतीके अधीन बताना
  19. [अध्याय 19] देवताओं द्वारा भगवतीका स्तवन, भगवतीद्वारा श्रीकृष्ण और अर्जुनको निमित्त बनाकर अपनी शक्तिसे पृथ्वीका भार दूर करनेका आश्वासन देना
  20. [अध्याय 20] व्यासजीद्वारा जनमेजयको भगवतीकी महिमा सुनाना तथा कृष्णावतारकी कथाका उपक्रम
  21. [अध्याय 21] देवकीके प्रथम पुत्रका जन्म, वसुदेवद्वारा प्रतिज्ञानुसार उसे कंसको अर्पित करना और कंसद्वारा उस नवजात शिशुका वध
  22. [अध्याय 22] देवकीके छः पुत्रोंके पूर्वजन्मकी कथा, सातवें पुत्रके रूपमें भगवान् संकर्षणका अवतार, देवताओं तथा दानवोंके अंशावतारोंका वर्णन
  23. [अध्याय 23] कंसके कारागारमें भगवान् श्रीकृष्णका अवतार, वसुदेवजीका उन्हें गोकुल पहुँचाना और वहाँसे योगमायास्वरूपा कन्याको लेकर आना, कंसद्वारा कन्याके वधका प्रयास, योगमायाद्वारा आकाशवाणी करनेपर कंसका अपने सेवकोंद्वारा नवजात शिशुओंका वध कराना
  24. [अध्याय 24] श्रीकृष्णावतारकी संक्षिप्त कथा, कृष्णपुत्रका प्रसूतिगृहसे हरण, कृष्णद्वारा भगवतीकी स्तुति, भगवती चण्डिकाद्वारा सोलह वर्षके बाद पुनः पुत्रप्राप्तिका वर देना
  25. [अध्याय 25] व्यासजीद्वारा शाम्भवी मायाकी बलवत्ताका वर्णन, श्रीकृष्णद्वारा शिवजीकी प्रसन्नताके लिये तप करना और शिवजीद्वारा उन्हें वरदान देना