नारदजी बोले - हे विशाम्पते! राजा तालध्वजके यह पूछने पर मैंने अपने मनमें सम्यक् प्रकारसे विचार करके उनसे कहा- हे राजन् मैं निश्चितरूपसे नहीं जानती कि मैं किसकी कन्या हूँ, मेरे माता-पिता कौन हैं और मुझे इस सरोवरपर कौन लाया है ॥ 1-2 ॥
अब मैं क्या करूँ, कहाँ जाऊँ, मेरा कल्याण कैसे हो सकेगा, मैं आश्रयहीन हूँ। हे राजेन्द्र। यही बात सोचती रहती हैं ॥ 3 ॥
हे राजन्! दैव ही सर्वोपरि है; इसमें मेरा पौरुष व्यर्थ ही है। हे भूपाल ! आप धर्मज्ञ हैं; आप जैसा चाहते हों, वैसा करें ॥ 4 ॥
हे राजन्! मैं आपके अधीन हूँ; क्योंकि मेरा यहाँ कोई भी रक्षक नहीं है। मेरे न पिता हैं, न माता हैं, न बन्धुबान्धव हैं और न तो मेरा कोई स्थान ही है ॥ 5 ॥
मेरे ऐसा कहनेपर वे राजा तालध्वज कामासक्त हो उठे और मुझ विशाल नयनोंवालीकी ओर दृष्टि डालकर उन्होंने अपने सेवकोंसे कहा- ॥ 6 ॥
तुमलोग इस सुन्दर स्त्रीके आरोहणके लिये रेशमी वस्त्रसे आवेष्टित एक मनोहर पालकी ले आओ, जिसे होनेवाले चार पुरुष हों, उसमें कोमल आस्तरण बिछा हो तथा वह मोतियोंकी झालरोंसे सुशोभित हो, वह सोनेकी बनी हुई हो, चौकोर हो तथा पर्याप्त विशाल हो ।। 7-8 ॥
राजाकी बात सुनकर शीघ्रगामी सेवकोंने मेरे लिये वस्त्रसे ढकी हुई दिव्य पालकी लाकर उपस्थित कर दी ।। 9 ।।
उन राजा तालध्वजका प्रिय कार्य करनेकी इच्छासे मैं उस पालकीपर आरूढ़ हो गया। मुझे अपने भवन ले जाकर राजा तालध्वज अत्यन्त प्रसन्न हुए ॥ 10 ॥ किसी शुभ लग्न तथा उत्तम दिनमें राजाने वैवाहिक विधि-विधान से अग्निके साक्ष्यमें मेरे साथ विवाह कर लिया ॥ 11 ॥
उस समय मैं उनके लिये प्राणोंसे भी बढ़कर | प्रिय हो गया। उन्होंने वहाँ मेरा नाम सौभाग्यसुन्दरी ऐसा रख दिया ॥ 12 ॥कामशास्त्रानुकूल अनेक प्रकारके भोग विलासोंके द्वारा मेरे साथ रमण करते हुए राजाको आनन्द मिलता था ॥ 13 ॥
राज्यके कार्योंको छोड़कर वे दिन-रात मेरे साथ क्रीडारत रहते थे। कामकलामें आसक्त उन राजाको समय बीतनेका भी बोध नहीं रहता था ॥ 14 ॥
मनोहर उद्यानों, बावलियों, सुन्दर महलों, अट्टालिकाओं, श्रेष्ठ पर्वतों, उत्तम जलाशयों तथा रमणीक काननमें विहार करते हुए मधुपानसे उन्मत्त वे राजा समस्त कार्य छोड़कर मेरे अधीन हो गये। 15-16 ॥ हे व्यासजी! उनमें मेरी भी पूर्ण आसक्ति हो गयी और मैं क्रीडारसके वशीभूत हो गया। मुझे अपने पूर्व पुरुष - शरीर तथा मुनि जन्मका भी स्मरण नहीं रहा ॥ 17 ॥
ये ही मेरे पति हैं तथा इनकी अनेक पत्नियोंमें मैं ही इनकी प्रिय पतिव्रता भार्या है सम्पूर्ण विलासको जाननेवाली मैं इनकी पटरानी हूँ; इस प्रकार मेरा जीवन सफल है-ऐसा सोचती हुई मैं दिन-रात उन्होंके प्रेममें आबद्ध रहती थी तथा उनके साथ क्रीडारत रहती थी। इस तरह उनके सुखके लोभमें मैं सदा उन्होंके अधीन हो गयी। मेरा ब्रह्मविज्ञान, सनातन ब्रह्मज्ञान तथा धर्मशास्त्रका रहस्य पूर्णरूपसे विस्मृत हो गया और मैं उन्होंमें आसक्त मन होकर रहने लगी ।। 18 - 20 ॥
हे मुने! इस प्रकार कामक्रीडामें आसक्त मेरे वहाँ विहार करते हुए बारह वर्ष एक क्षणकी भाँति व्यतीत हो गये ॥ 21 ॥ मेरे गर्भवती होनेपर राजाको परम प्रसन्नता हुई। राजाने विधिपूर्वक गर्भसम्बन्धी संस्कारकर्म सम्पन्न कराया ॥ 22 ॥ गर्भके समय मेरी मनोवांछित वस्तुओंके विषयमें राजा मुझे प्रसन्न करते हुए बार-बार पूछा करते थे। तब अत्यन्त प्रसन्नचित्त में जाके कारण कुछ भी नहीं कह पाती थी ॥ 23 ॥
दस माह पूर्ण होनेपर ग्रह, नक्षत्र, लग्न तथा तारा बलयुक्त शुभ दिनमें मुझे एक पुत्र उत्पन्न हुआ ॥ 24 ॥ राजाके भवनमें पुत्र जन्मका उत्सव मनाया गया। पुत्र-जन्मसे राजा परम प्रसन्न हो गये ॥ 25॥जननाशौच समाप्त होनेपर पुत्रका दर्शन करके राजाको असीम प्रसन्नता हुई। हे परन्तप। अब मैं राजा तालध्वजकी अत्यन्त प्रिय भार्या हो गयी ॥ 26 ॥ दो वर्षके अनन्तर मैंने पुनः गर्भ धारण किया।
[यथासमय] सभी शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न दूसरा पुत्र
उत्पन्न हुआ ॥ 27 ॥
तदनन्तर ब्राह्मणोंका आदेश पाकर राजाने इस पुत्रका नाम 'सुधन्वा' तथा बड़े पुत्रका नाम 'वीरवर्मा' रखा ॥ 28 ॥
इस प्रकार मैंने राजाके मनोनुकूल बारह पुत्र उत्पन्न किये। मैं मोहके वशीभूत होकर उनके लालन-पालनमें प्रेमपूर्वक लगा रहा ।। 29 ।।
इसके बाद समय-समयपर मेरे परम रूपवान् आठ पुत्र और उत्पन्न हुए। इससे सुखका साधनभूत मेरा गार्हस्थ्य जीवन सर्वथा पूर्ण हो गया ॥ 30 ॥
राजाने समयानुसार उचित रूपसे उनका विवाह कर दिया। इस प्रकार वधुओं तथा पुत्रोंसे युक्त मेरा परिवार बहुत बड़ा हो गया ॥ 31 ॥
फिर मेरे पौत्र उत्पन्न हुए, जो खेलकूदमें मग्न रहते थे तथा अनेक प्रकारकी बालक्रीडाओंसे मेरे मोहको बढ़ाते रहते थे कभी सुख-समृद्धि मेरे सामने आती थी और कभी पुत्रोंके रोगग्रस्त होनेके कारण चित्तको अशान्त कर देनेवाला महान् दुःख भोगना पड़ता था । ll32-33॥
कभी-कभी पुत्रों अथवा वधुओंमें परस्पर अत्यन्त भीषण विरोध हो जाता था, उससे मुझे सन्ताप होने लगता था ॥ 34 ॥
हे मुनिश्रेष्ठ! संकल्पसे उत्पन्न इस सुख दुःखात्मक, तुच्छ, भयानक तथा मिथ्या व्यवहारवाले मोहमें मैं निमग्न रहता था ॥ 35 ॥
मेरा पूर्वकालिक विज्ञान विस्मृत हो गया तथा शास्त्र ज्ञान भी समाप्त हो गया। स्त्रीभावमें होकर मैं घरके कार्योंमें ही सदा व्यस्त रहता था ॥ 36 ॥
मेरे ये पुत्र महान् पराक्रमी हैं तथा मेरी ये बहुएँ उत्तम कुलमें उत्पन्न हुई हैं- ऐसा सोचकर मेरे मनमें अति मोह बढ़ानेवाला अहंकार उत्पन्न हो जाया करता था ॥ 37 ॥मेरे ये बालक पूर्ण तत्पर होकर घरमें खेल रहे हैं अहो, इस संसारमें सभी नारियोंमें मैं अवश्य ही धन्य हूँ ॥ 38 ll
'मैं नारद हूँ तथा भगवान्ने अपनी मायाके प्रभावसे मुझे वंचित कर रखा है-ऐसा मैं अपने मनमें कभी सोच भी नहीं पाता था ॥ 39 ॥
हे व्यासजी! इस प्रकार मायासे मोहित हुआ मैं केवल यही सोचा करता था कि मैं उत्तम आचरणवाली एक पतिव्रता राजमहिषी हूँ, मेरे बहुतसे पुत्र हैं तथा इस संसारमें मैं बड़ी धन्य हूँ ll 40 ll
हे मानद ! इसके बाद दूर देशमें रहनेवाले किसी महान् राजाने मेरे पतिके साथ शत्रुता ठान ली। वह हाथियों तथा रथोंसे अपनी सेना सुसज्जित करके कान्यकुब्जनगरमें आ गया और युद्धके विषयमें सोचने लगा । ll41-42 ॥
उस राजाने अपनी सेनाके साथ मेरा नगर घेर लिया; तब मेरे पुत्र तथा पौत्र भी नगरसे बाहर निकल पड़े ॥ 43 ॥
मेरे उन पुत्र-पौत्रोंने उस राजाके साथ भयंकर युद्ध किया। कालयोगसे मेरे सभी पुत्र संग्राममें शत्रुके द्वारा मार डाले गये ॥ 44 ॥
तत्पश्चात् राजा तालध्वज हताश होकर युद्धस्थलसे अपने घर आ गये। मैंने सुना कि मेरे सभी पुत्र उस अत्यन्त भीषण संग्राममें मृत्युको प्राप्त हो गये । ll 45 ।। मेरे पुत्रों तथा पौत्रोंका संहार करके वह राजा सेनासहित चला गया। इसके बाद मैं विलाप करता हुआ युद्ध भूमिमें जा पहुँचा ॥ 46 ॥
हे आयुष्मन् ! वहाँ अपने पुत्रों तथा पौत्रोंको भूमिपर गिरा हुआ देखकर मैं दुःखसे अत्यन्त पीडित होकर शोक-सागरमें डूब गया तथा इस प्रकार विलाप करने लगा-हाय, मेरे पुत्र इस समय कहाँ चले गये? हाय, मुझे तो इस दुष्टात्मा, अति बलवान्, महापापी तथा दुर्लघ्य दैवने मार डाला ॥ 47-48 ।।
इसी बीच एक परम सुन्दर वृद्ध ब्राह्मणका रूप धारण करके मधुसूदन भगवान् विष्णु वहाँ पहुँच गये 49 ।। हे वेदज्ञ ! सुन्दर वस्त्रोंसे सुशोभित वे मेरे पास आये और युद्धभूमिमें अति विलाप करती हुई मुझ अवलासे बोले ll 50 llब्राह्मण बोले—हे तन्वङ्गि ! हे पिकालापे! तुम क्यों विषाद कर रही हो? पति-पुत्रादिसे सम्पन्न गृहस्थीमें मोहके कारण ही यह भ्रम उत्पन्न हुआ है। तुम कौन हो, ये किसके पुत्र हैं तथा ये कौन हैं? तुम परम आत्मगतिपर विचार करो। हे सुलोचने! अब उठो और विलाप करना छोड़कर स्वस्थ हो जाओ ।। 51-52 ॥
हे कामिनि ! मर्यादाके रक्षणार्थ अब अपने परलोक गये हुए पुत्रोंके निमित्त स्नान तथा तिलदान करो। धर्मशास्त्रका निर्णय है कि मृत बन्धुओंके निमित्त तीर्थमें ही स्नान करना चाहिये; घरमें कभी नहीं ।। 53-54 ।।
नारदजी बोले – उस वृद्ध ब्राह्मणने इस प्रकार | कहकर मुझे समझाया। तत्पश्चात् मैं उठा और बन्धु बान्धवों तथा राजाको साथ लेकर द्विजरूपधारी भगवान् विष्णुको आगे करके तत्काल परम पवित्र तीर्थके लिये चल पड़ा ।। 55-56 ॥
ब्राह्मणरूपधारी जनार्दन जगन्नाथ श्रीहरि भगवान् विष्णु मेरे ऊपर कृपा करके पुंतीर्थ सरोवरपर मुझको ले जाकर बोले- हे गजगामिनि ! इस पवित्र सरोवरमें स्नान करो और निरर्थक शोकका परित्याग करो। अब पुत्रोंकी [तिलांजलि आदि] क्रियाका समय उपस्थित है ॥। 57-58 ।।
जन्म-जन्मान्तरमें तुम्हारे करोड़ों पुत्र, पिता, पति, भाई तथा बहन हुए तथा वे मृत्युको भी प्राप्त हो गये। उनमें से तुम किस-किसका दुःख मनाओगी? यह मनमें उत्पन्न भ्रममात्र है, जो शरीरधारियोंको व्यर्थ ही स्वप्नके समान होकर भी दुःख पहुँचाता रहता है ।। 59-60 ॥
नारदजी बोले - उनका यह वचन सुनकर भगवान् विष्णुकी प्रेरणाके अनुसार स्नान करनेकी इच्छासे मैं उस पुरुषसंज्ञक तीर्थ (सरोवर) में प्रविष्ट हुआ ॥ 61 ॥
उस तीर्थमें डुबकी लगाते ही मैं तत्क्षण पुरुषरूपमें हो गया तथा भगवान् विष्णु अपने हाथमें मेरी वीणा लिये हुए अपने स्वाभाविक स्वरूपमें सरोवरके तटपर विराजमान थे ॥ 62 ॥ हे द्विजश्रेष्ठ ! स्नान करनेके पश्चात् मुझे तटपर कमललोचन भगवान्का दर्शन प्राप्त हुआ; तब मेरे चित्तमें सभी बातोंका स्मरण हो गया ॥ 63 ॥मैं सोचने लगा कि मैं नारद हूँ और भगवान् विष्णुके साथ यहाँ आया था; मायासे विमोहित होनेके कारण मैं स्त्रीभावको प्राप्त हो गया ॥ 64 ॥ जब मैं इस तरहकी बातें सोच रहा था, उसी समय भगवान् विष्णुने मुझसे कहा- हे नारद ! यहाँ आओ, वहाँ जलमें खड़े होकर क्या कर रहे हो ? ॥ 65 ॥ अपने अत्यन्त दारुण स्त्रीभावका स्मरण करके तथा किस कारणसे मैं पुनः पुरुषभावको प्राप्त हुआ यह सोचकर मैं आश्चर्यचकित हो गया ॥ 66 ॥