व्यासजी बोले - [ हे राजन्!] युद्ध आरम्भ हो जानेपर क्रोध एवं लोभके वशीभूत उन दोनों राजाओंने लड़नेके लिये शस्त्र उठा लिये और तब उनके बीच भयानक संग्राम आरम्भ हो गया ॥ 1 ॥
युद्धके लिये कृतसंकल्प वे विशालबाहु राजा युधाजित् धनुष धारण करके अपनी सेना तथा वाहन आदिके साथ रणभूमिमें डट गये ॥ 2 ॥
इधर इन्द्रके समान तेजस्वी राजा वीरसेन भी क्षत्रियोचित धर्मका अनुसरण करते हुए अपने दौहित्रके हित साधनहेतु विशाल सेनाके साथ रणक्षेत्रमें उपस्थित हो गये ॥ 3 ॥
सत्यपराक्रमी राजा वीरसेनने युधाजित्को समरांगणमें उपस्थित देखकर क्रोधयुक्त होकर इस प्रकार बाणोंकी वृष्टि आरम्भ कर दी, मानो पर्वतपर मेघ जल बरसा रहा हो ॥ 4 ॥राजा वीरसेनने पत्थरपर घिसकर तीक्ष्ण बनाये गये, द्रुतगामी तथा सीधे प्रवेश करनेवाले बाणोंसे युधाजित्को आच्छादित कर दिया और युधाजित्के द्वारा छोड़े गये अत्यन्त तीव्रगामी बाणोंको उन्होंने अपने बाणोंसे टुकड़े-टुकड़े कर दिया ॥ 5 ॥
इस प्रकार हाथियों, रथों तथा घोड़ोंसे अतिभयंकर युद्ध होने लगा जिसे देवता, मनुष्य तथा मुनिगण देख रहे थे। मांसभक्षणकी लालसावाले कौए गीध आदि पक्षियोंके विस्तृत समूहसे शीघ्र ही वहाँका आकाशमण्डल ढक गया ।। 6 ।।
उस युद्धभूमिमें हाथियों, घोड़ों तथा सैन्यसमूहोंके शरीरसे निकले रक्तसे अद्भुत तथा भयंकर नदी बह चली, जो लोगोंको उसी प्रकार दिखायी पड़ रही थी, जैसे यमलोकके मार्गमें प्रवाहित वैतरणी पापियोंको भयावह दीखती है ॥ 7 ॥
[तीव्र धारके वेगसे] कटे हुए तटवाली उस नदीमें मनुष्योंके केशयुक्त इधर-उधर बिखरे मस्तक, खेलनेमें तत्पर बालकोंद्वारा यमुनामें फेंके गये तुम्बीफलोंके समान प्रतीत हो रहे थे ॥ 8 ॥
रथसे गिरे हुए किसी मृत वीरको पृथ्वीपर पड़ा हुआ देखकर मांसकी इच्छासे गीध उसके ऊपर मँडराने लगता था, इससे ऐसा प्रतीत होता था मानो उस वीरका जीव अपने शरीरको अति सुन्दर देखकर अत्यन्त विवश हो उसमें पुनः प्रवेश करनेकी इच्छा कर रहा हो ॥ 9 ॥
युद्धभूमिमें हत कोई वीर योद्धा सुन्दर विमानमें आरूढ़ होकर अपनी गोदमें बैठी हुई किसी देवांगनासे अपना मनोभाव इस प्रकार व्यक्त करता था हे करभोरु ! इस समय बाणोंसे आहत होकर धरतीपर पड़े हुए मेरे इस कान्तियुक्त शरीरको देखो ॥ 10 ॥
शत्रुके द्वारा मारा गया एक वीर ज्यों ही अन्तरिक्षमें पहुँचा और अप्सराके पास जाकर विमानमें बैठा, त्यों ही उसकी अपनी प्रिय स्त्री अपना शरीर अग्निको भलीभाँति समर्पित करके पुनः दिव्य शरीर पाकर अपने पतिके पास जा पहुँची ॥ 11 ॥उस युद्धमें दो वीर परस्पर एक-दूसरेके शस्त्र प्रहारसे आहत होकर मर गये और साथ-साथ ही स्वर्गलोकमें पहुँचे । वहाँपर भी एक अप्सराको प्राप्त करनेके लिये वे दोनों वीर शस्त्रयुक्त होकर एक दूसरेको मारनेहेतु युद्ध करने लगे ॥ 12 ॥
कोई अनुरागमय युवा वीर अतिशय रूपवती तथा गुणवती अप्सराको प्राप्त करके अत्यन्त बढ़ा-चढ़ाकर अपने गुणों का वर्णन करते हुए उसके प्रति भक्तिपरायण होकर प्रयत्नपूर्वक उस प्रेमदायिनीके गुण आदिका अनुकरण करने लगा ॥ 13 ॥
घोर युद्धके कारण रणभूमिसे उड़ी हुई अत्यधिक धूलने अन्तरिक्षस्थित सूर्यको ढक दिया और दिनमें ही रात हो गयी। पुनः वही धूल जब अथाह रक्त सिन्धु में विलीन हो जाती तब अत्यन्त प्रभावाले सूर्य अचानक प्रकट हो जाते ॥ 14 ॥
कोई युवक वीर युद्धमें मरकर स्वर्ग पहुँचा तो उसे एक सुन्दर रूपवाली देवकन्या मिली, जो उसके ऊपर आसक्त हो गयी। किंतु ब्रह्मचर्यव्रतके नाश होनेसे भयभीत उस चतुर वीरने उसे स्वीकार नहीं किया; [ उसने सोचा कि ऐसा करनेसे] मेरे अनुरूप यह ब्रह्मचारी शब्द व्यर्थ हो जायगा ॥ 15 ॥
तदनन्तर घोर संग्राम छिड़ जानेपर राजा युधाजित्ने
अपने तीक्ष्ण तथा अत्यन्त भीषण बाणोंसे वीरसेनको मार डाला ॥ 16 ॥ इस प्रकार कटे मस्तकवाले महाराज वीरसेन पृथ्वी पर गिर पड़े। उनकी सम्पूर्ण सेना नष्ट हो गयी और चारों दिशाओंमें भाग गयी ॥ 17 ॥
अपने पिता वीरसेनको समरांगणमें मारा गया सुनकर तथा अपने पिताके वैरका स्मरण करते हुए मनोरमा भयसे व्याकुल हो गई। वह इस चिन्तामें पड़ गई कि बुरे विचारोंवाला वह | पापी युधाजित राज्यके लोभसे मेरे पुत्रको अवश्य ही मार डालेगा ।। 18-19 ॥ अब मैं क्या करूँ? कहाँ जाऊँ? मेरे पिताजी युद्धमें मारे गये तथा पतिदेव भी मर चुके हैं और मेरा यह पुत्र अभी बालक ही है ॥ 20 ॥लोभ बड़ा ही पापी होता है, इसने किसको अपने वशमें नहीं किया। लोभसे ग्रस्त हो जानेपर श्रेष्ठ राजा भी कौन-सा पाप नहीं कर सकता। लोभसे अभिभूत मनुष्य अपने माता-पिता, भाई, गुरु तथा बन्धु बान्धवोंको भी मार डालता है; इसमें सन्देह नहीं है। लोभके कारण मनुष्य अभक्ष्यका भक्षण तथा अगम्या स्त्रीके साथ गमन भी कर लेता है; यहाँतक कि लोभसे व्याकुल होकर वह धर्मका त्याग भी कर देता है ॥ 21-23 ॥
अब इस नगरमें कोई बलवान् पुरुष मुझे सहायता देनेवाला भी नहीं रह गया, जिसके आश्रयमें रहकर मैं अपने सुन्दर पुत्रका पालन कर सकूँ ।। 24 ।।
यदि राजा युधाजित् मेरे पुत्रको मार डाले, तो मैं फिर क्या करूँगी ? इस संसारमें मेरा कोई रक्षक नहीं है, जिसके सहारे मैं निश्चिन्त रह सकूँ ? 25 ॥
मेरी सौत लीलावती भी सदा मुझसे वैरभाव रखती है, अतः वह भी मेरे पुत्रपर दया नहीं करेगी ॥ 26 ॥
युधाजितके रणभूमिसे लौटकर आ जानेपर मेरा यहाँसे निकल भागना सम्भव नहीं हो सकेगा; वह मेरे पुत्रको बालक जानकर उसे कारागारमें डाल देगा ॥ 27 ॥ सुना जाता है कि पूर्वकालमें इन्द्रने अपने वज्रको अत्यन्त छोटा बनाकर अपनी सौतेली माता दिति के गर्भ में प्रवेश करके गर्भस्थ शिशुको काटकर उसके सात टुकड़े कर दिये थे। इसके बाद उसने पुनः एक-एक टुकड़ेके सात-सात खण्ड कर दिये थे। वे ही आगे चलकर देवलोकमें उनचास मरुत्के रूपमें प्रतिष्ठित हुए ।। 28-29 ।।
मैंने यह भी सुना है कि पूर्वकालमें एक राजाकी किसी रानीने अपनी सौतके गर्भको नष्ट करनेके उद्देश्यसे उसे विष दे दिया था। कुछ समय बीतने पर वह बालक विषके साथ उत्पन्न हुआ, इसीसे वह भूमण्डलपर 'सगर' नामसे प्रसिद्ध हो गया ।। 30-31 ॥
महाराज दशरथकी भार्या कैकेयीने पतिके जीवनकालमें ही उनके ज्येष्ठ पुत्र रामचन्द्रको वनवास दे दिया था, जिसके फलस्वरूप राजा दशरथकी मृत्यु भी हो गयी ॥ 32 ॥जो मन्त्री मेरे पुत्र सुदर्शनको राजा बनाना चाहते थे, वे भी अब विवश होकर युधाजित्के अधीन हो गये हैं। मेरा भाई भी ऐसा योद्धा नहीं है, जो मुझे बन्धनसे छुड़ा सके। दैवयोगसे है महान् संकटमें पड़ गयी हूँ। फिर भी उद्योग तो सर्वथा करना ही चाहिये, सफलता तो दैवके आधीन है। अतः अब मैं अपने पुत्रकी रक्षाके लिये शीघ्र ही कोई उपाय करूँगी ॥ 33-35 ॥
ऐसा सोचकर वह रानी अतिसम्मानित, सभी कार्योंमें दक्ष तथा विचार कुशल श्रेष्ठ मन्त्रिप्रवर | विदल्लको बुलवाकर उन्हें एकान्तमें ले गयी और बालकको हाथमें लेकर रोती हुई दीन मनवाली उस मनोरमाने अत्यन्त दुःखित होकर उनसे कहा मेरे पिता युद्धमें मारे गये और मेरा यह पुत्र अभी अबोध बालक है। राजा युधाजित् बलवान् हैं [ऐसी परिस्थितिमें) मुझे क्या करना चाहिये ? मुझे बतायें ।। 36-38 ॥
तब विदल्लने उससे कहा- अब यहाँ नहीं रहना चाहिये, हमलोग यहाँसे वाराणसीके वनमें चलेंगे। वहाँ सुबाहु नामसे विख्यात मेरे मामा रहते हैं। वे समृद्धिशाली तथा महाबलशाली हैं; वे ही हमारे रक्षक होंगे ।। 39-40 ।।
मनमें युधाजितके दर्शनकी लालसासे नगरसे बाहर निकल चलना चाहिये और रथपर सवार हो प्रस्थान कर देना चाहिये; इसमें शंकाकी आवश्यकता नहीं है 41 ।।
विदल्लके ऐसा कहनेपर रानी मनोरमा लीलावती के पास गयी और बोली- हे सुनयने! मैं [तुम्हारे] पिताजीका दर्शन करने जा रही हूँ ॥ 42 ॥
ऐसा कहकर मनोरमा एक दासी और मन्त्री विदल्लको साथ लेकर रथपर सवार हो नगरसे बाहर निकल गयी। उस समय बहुत डरी हुई, दुःखित, अत्यन्त दीन तथा पिताके मृत्युजन्य शोकसे व्याकुल वह मनोरमा राजा युधाजित्से मिलकर तत्काल अपने मृत पिताका दाहसंस्कार कराकर भयसे व्याकुल हो काँपती हुई दो दिनोंमें गंगाजीके तटपर पहुँच गयी ।। 43 - 45 ॥वहाँके निषादोंने उसे लूट लिया तथा उसका सारा धन और रथ छीन लिया। सब कुछ लेकर वे धूर्त दस्यु चले गये। तब वह रोती हुई अपने पुत्रको लेकर सैरंध्रीके हाथका सहारा लेकर किसी प्रकार गंगाके तटपर गयी और एक छोटी-सी नौकापर डरती हुई बैठकर पवित्र गंगाको पार करके वह भयाक्रान्त मनोरमा त्रिकूटपर्वतपर पहुँच गयी ।। 46-48 ॥
वह भयभीत मनोरमा भारद्वाजमुनिके आश्रम में शीघ्रतासे पहुँची। तब वहाँ तपस्वियोंको देखकर वह निर्भय हो गयी। तदनन्तर भारद्वाजमुनिने पूछा- हे शुचिस्मिते! तुम कौन हो, किसकी पत्नी हो ? इतने कष्टसे तुम यहाँ कैसे आ गयी हो ? मुझसे सत्य कहो। तुम कोई देवी हो अथवा मानवी हो। अपने इस बालक पुत्रके साथ वनमें क्यों विचरण कर रही हो ? हे सुन्दरि ! हे कमलनयने! तुम राज्यभ्रष्ट जैसी प्रतीत हो रही हो ।। 49-51 ।।
मुनिके पूछनेपर उस रूपवती रानीने कुछ भी उत्तर नहीं दिया और दुःखसे सन्तप्त होकर रोती हुई उसने अपने मन्त्री विदल्लको सारी बातें बतानेके लिये संकेत किया ॥ 52 ॥
तब विदल्लने मुनिसे कहा- ध्रुवसन्धि एक श्रेष्ठ नरेश थे। ये उन्हींकी मनोरमा नामवाली धर्मपत्नी हैं॥ 53
सूर्यवंशमें उत्पन्न उन महाबली महाराजको सिंहने मार डाला। सुदर्शन नामका यह बालक उन्हीं राजाका पुत्र है 54 ॥
इनके अत्यन्त धर्मात्मा पिता अपने इसी दौहित्रके लिये संग्राममें मारे गये। अतएव युधाजितके भयसे संत्रस्त होकर ये इस निर्जन वनमें आयी हुई हैं॥ 55 ॥
हे महाभाग ! हे मुनिश्रेष्ठ! अबोध पुत्रवाली ये राजपुत्री अब आपकी शरणमें आयी हैं। अतः आप इनकी रक्षा कीजिये ।। 56 ।।
किसी दुःखी प्राणीकी रक्षा करनेमें यज्ञ करनेसे भी अधिक पुण्य बताया गया है। भयभीत तथा दीनकी रक्षाको तो और भी अधिक फलदायक कहा गया है ॥ 57 ॥ऋषि बोले- हे कल्याणि ! तुम यहाँ भयरहित होकर निवास करो; हे सुव्रते ! अपने पुत्रका पालन पोषण करो। हे विशालनयने ! यहाँ तुम्हें शत्रुओंसे उत्पन्न होनेवाला किसी प्रकारका भी भय नहीं करना चाहिये। तुम अपने इस कान्तिमान् पुत्रका पालन करो, तुम्हारा यह पुत्र आगे चलकर राजा होगा। यहाँ तुम लोगोंको कभी भी कोई दुःख तथा शोक नहीं होगा ।। 58-59 ।।
व्यासजी बोले- मुनिके इस प्रकार कहनेपर महारानी मनोरमा निश्चिन्त हो गयीं और मुनिके द्वारा प्रदान की गयी एक कुटियामें वे शोकरहित होकर निवास करने लगीं ॥ 60 ॥
इस प्रकार सुदर्शनका पालन-पोषण करती हुई वे मनोरमा अपनी दासी तथा मन्त्री विदल्लके साथ वहाँ रहने लगीं ॥ 61॥