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देवी भागवत महापुराण ( देवी भागवत)

Devi Bhagwat Purana (Devi Bhagwat Katha)

स्कन्ध 7, अध्याय 8 - Skand 7, Adhyay 8

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राजा रेवतकी कथा

जनमेजय बोले- हे ब्रह्मन्! मेरे मनमें यह महान् संशय हो रहा है कि स्वयं राजा रेवत अपनी कन्या रेवतीको साथ लेकर ब्रह्मलोक चले गये। मैंने पूर्वकालमें ब्राह्मणोंसे कथा-प्रसंगमें यह अनेक बार सुना है कि ब्रह्मको जाननेवाला शान्त स्वभाव ब्राह्मण ही ब्रह्मलोक प्राप्त कर सकता है ॥ 1-2 ॥राजा रेवत अत्यन्त दुष्प्राप्य सत्यलोकमें स्वयं अपनी पुत्री रेवतीके साथ पृथ्वीलोकसे कैसे पहुँच गये-इसी बातका मुझे सन्देह है। सभी शास्त्रोंमें यही निर्णय विद्यमान है कि मृत व्यक्ति ही स्वर्ग प्राप्त कर सकता है; (इस मानवदेहसे ब्रह्मलोकमें जाना कैसे सम्भव है ?) और स्वर्गसे पुनः इस मनुष्यलोकमें पहुँच जाना कैसे हो सकता है ? हे विद्वन्! महाराज रेवत जिस तरह ब्रह्माजीसे अपनी कन्याके लिये वर पूछनेकी इच्छासे वहाँ गये थे-इसे बताकर इस समय मेरे इस सन्देहको दूर करनेकी कृपा करें ॥ 35॥ व्यासजी बोले- हे राजन्! सुमेरुपर्वतके शिखरपर ही इन्द्रलोक, वह्निलोक, संयमिनीपुरी, सत्यलोक, कैलास और वैकुण्ठ-ये सभी लोक प्रतिष्ठित हैं। वैकुण्ठको ही वैष्णव पद कहा जाता है ॥ 6-7 ॥

जैसे धनुष धारण करनेवाले कुन्तीपुत्र अर्जुन इन्द्रलोक गये थे और वे इसी मनुष्य-शरीरसे उस इन्द्रलोकमें पाँच वर्षतक इन्द्रके सान्निध्यमें रहे, उसी प्रकार ककुत्स्थ आदि अन्य प्रमुख राजा भी स्वर्गलोक जा चुके हैं। इसके अतिरिक्त महाबलशाली दैत्य भी इन्द्रलोकको जीतकर वहाँ पहुँचकर अपनी इच्छाके अनुसार रह चुके हैं ॥ 8-10 ॥

पूर्वकालमें महाराज महाभिष भी ब्रह्मलोक गये थे। उन नरेशने परम सुन्दरी गंगाजीको आते देखा। हे राजन् ! उस समय दैवयोगसे वायुने उनके वस्त्र उड़ा दिये, जिससे राजाने उन सुन्दरी गंगाको कुछ अनावृत अवस्थामें देख लिया। इसपर कामसे व्यथित राजा मुसकराने लगे और गंगाजी भी हँस पड़ीं। उस समय ब्रह्माजीने उन दोनोंको देख लिया और शाप दे दिया, जिससे उन दोनोंको पृथ्वीपर जन्म लेना पड़ा। दैत्यों और दानवोंसे पीड़ित सभी देवताओंने भी वैकुण्ठधाममें जाकर कमलाकान्त जगत्पति भगवान् विष्णुकी स्तुति की थी ॥ 11 - 14 ॥

अतएव हे नृपश्रेष्ठ | इस विषयमें किसी भी प्रकारका सन्देह नहीं करना चाहिये। हे नराधिप ! पुण्यात्मा, तपस्वी और महापुरुष सभी लोकोंमें जा सकते हैं। हे नरेन्द्र ! हे राजन्! जैसे पवित्र सदाचरण ही ब्रह्मादि लोकोंमें जानेका कारण है, वैसे ही पवित्र मनवाले यजमानलोग भी यज्ञके प्रभावसे वहाँ पहुँच जाते हैं ।। 15-163 ॥जनमेजय बोले- महाराज रेवत सुन्दर नेत्रोंवाली अपनी पुत्री रेवतीको साथमें लेकर ब्रह्मलोक पहुँच गये; उसके बाद उन्होंने क्या किया, ब्रह्माजीने उन्हें क्या आदेश दिया और उन रेवतने अपनी पुत्री किसे सौंपी ? हे ब्रह्मन् ! अब आप इन सारी बातोंको विस्तारपूर्वक मुझको बतलाइये 17-183 ॥

व्यासजी बोले- हे महीपाल ! सुनिये, जब राजा रेवत अपनी पुत्रीके वरके विषयमें पूछनेके लिये ब्रह्मलोक पहुँचे, उस समय गन्धर्वलोगोंका संगीत हो रहा था। वे अपनी कन्याके साथ कुछ देरतक सभामें रुककर संगीत सुनते हुए परम तृप्त हुए। पुनः गन्धर्वोंका संगीत समाप्त हो जानेपर परमेश्वर (ब्रह्माजी) -को प्रणाम करके उन्हें अपनी कन्या रेवतीको दिखाकर अपना आशय प्रकट कर दिया । ll 19 - 213 ॥

राजा बोले- हे देवेश ! यह कन्या मेरी पुत्री है, मैं इसे किसको प्रदान करूँ-यही पूछनेके लिये आपके पास आया हूँ। अतः हे ब्रह्मन् ! आप इसके योग्य वर बतायें। मैंने उत्तम कुलमें उत्पन्न बहुतसे राजकुमारोंको देखा है, किंतु किसीमें भी मेरा चंचल मन स्थिर नहीं होता है। इसलिये हे देवदेवेश [ वरके विषयमें] आपसे पूछनेके लिये यहाँ आया हूँ। हे सर्वज्ञ ! आप किसी योग्य राजकुमार वरके विषयमें बताइये। ऐसे राजकुमारका निर्देश कीजिये; जो कुलीन, बलवान्, समस्त लक्षणोंसे सम्पन्न, दानी तथा धर्मपरायण हो ॥ 22 -253 ॥

व्यासजी बोले- हे राजन् ! तब राजाकी बात सुनकर जगत्की रचना करनेवाले ब्रह्माजी कालपर्यय (ब्रह्मलोकके थोड़े समयमें पृथ्वीलोकका बड़ा लम्बा समय बीता हुआ) देखकर हँस करके उनसे कहने लगे - ॥ 263 ॥

ब्रह्माजी बोले- हे राजन्! आपने अपने हृदयमें | जिन राजकुमारोंको वरके रूपमें समझ रखा था, वे सब-के-सब पुत्र-पौत्र तथा बन्धुओंसमेत काल कवलित हो चुके हैं। इस समय वहाँ सत्ताईसवाँ द्वापर चल रहा है। आपके सभी वंशज मृत हो चुके हैं और दैत्योंने आपकी पुरी भी विनष्ट कर डाली है। इस समय वहाँ चन्द्रवंशी राजा शासन कर रहे हैं। अबमथुरा नामसे प्रसिद्ध उस पुरीके अधिपतिके रूपमें उग्रसेन विख्यात हैं। ययातिवंशमें उत्पन्न वे उग्रसेन | सम्पूर्ण मथुरामण्डलके नरेश हैं। उन महाराज उग्रसेनका एक कंस नामक पुत्र हुआ, जो महान् बलशाली तथा देवताओंसे द्वेष रखनेवाला था। राजाओंमें सबसे अधिक मदोन्मत्त उस दानववंशी कंसने अपने पिताको भी कारागारमें डाल दिया और वह स्वयं राज्य करने लगा ।। 27-313 ॥

तब पृथ्वी असह्य भारसे व्याकुल होकर ब्रह्माजीकी शरण में गयी। श्रेष्ठ देवगणोंने ऐसा कहा है कि दुष्ट राजाओं तथा उनके सैनिकोंके भारसे पृथ्वीके अति व्याकुल होनेपर ही भगवान्‌का अंशावतार होता है। अतः उस समय कमलके समान नेत्रवाले वसुदेवनन्दन श्रीकृष्ण देवीस्वरूपा देवकीके गर्भसे उत्पन्न हुए, वे साक्षात् नारायणमुनि ही थे ॥ 32-34 ॥

उन सनातन धर्मपुत्र नरसखा नारायणमुनिने बदरिकाश्रममें गंगाजीके तटपर अत्यन्त कठोर तपस्या की थी। वे ही यदुकुलमें अवतार लेकर 'वासुदेव' नामसे विख्यात हुए। हे महाभाग ! उन्हीं वासुदेव भगवान् श्रीकृष्णने पापी कंसका संहार किया और इस प्रकार उस दुष्ट राजाको मारकर उन्होंने [उसके पिता ] उग्रसेनको सम्पूर्ण राज्य दे दिया ॥ 35-363 ॥

कंसका श्वसुर जरासन्ध महान् बलशाली तथा पापी था। वह अत्यन्त क्रोधित हो मथुरा आकर श्रीकृष्णके साथ आवेगपूर्वक युद्ध करने लगा। अन्तमें श्रीकृष्णने उस महाबली जरासन्धको युद्धमें जीत लिया। तब उसने सेनासहित कालयवनको [कृष्णके साथ] युद्ध करनेके लिये भेजा ।। 37-383 ॥

महापराक्रमी यवनाधिप कालयवनको सेनासहित आता सुनकर (कृष्ण मथुरा छोड़कर द्वारका चले गये। भगवान् श्रीकृष्णने कुशल शिल्पियोंके द्वारा बड़े-बड़े दुर्ग तथा बाजारोंसे सुशोभित उस नष्ट-भ्रष्ट पुरीका पुनः निर्माण कराया, उस पुरीका जीर्णोद्धार करके प्रतापी श्रीकृष्णने उग्रसेनको वहाँका अपना आज्ञाकारी राजा बनाया।) तत्पश्चात् यदुश्रेष्ठ श्रीकृष्णने | उस द्वारकापुरीमें यादवोंको भलीभाँति बसाया। इस समय वे वासुदेव अपने बन्धु बान्धवोंके साथ उस द्वारकामें रह रहे हैं ॥ 39-40 ॥उनके बड़े भाई बलराम हैं। हल तथा मूसलको आयुधके रूपमें धारण करनेवाले वे शूरवीर बलराम शेषके अंशावतार कहे जाते हैं। वे ही आपकी कन्याके लिये उपयुक्त वर हैं ॥ 41 ॥

अब आप वैवाहिक विधिके अनुसार शीघ्र ही संकर्षण बलरामको कमलके समान नेत्रोंवाली अपनी कन्या रेवती सौंप दीजिये। हे नृपश्रेष्ठ! उन्हें कन्या प्रदानकर आप तप करनेके लिये देवोद्यान बदरिकाश्रम चले जाइये; क्योंकि तप मनुष्योंकी सारी अभिलाषाएँ पूर्ण कर देता है और उनके अन्तःकरणको पवित्र बना देता है ॥ 42-43 ॥

व्यासजी बोले- हे राजन् ! पद्मयोनि ब्रह्माजीसे यह आदेश पाकर राजा रेवत अपनी कन्याके साथ शीघ्र ही द्वारका चले गये। वहाँ उन्होंने बलरामजीको शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न अपनी पुत्री सौंप दी। उसके बाद सुदीर्घ कालतक कठोर तपस्या करके वे राजा रेवत नदीके तटपर अपना शरीर त्यागकर देवलोक चले गये । ll 44-453 ॥

राजा बोले- हे भगवन्! आपने यह तो महान् आश्चर्यजनक बात कही कि राजा रेवत कन्याके योग्य वर जाननेके उद्देश्यसे ब्रह्मलोक गये और उनके वहाँ ठहरे हुए एक सौ आठ युग बीत गये, तबतक वह कन्या तथा वे राजा वृद्ध क्यों नहीं हुए अथवा इतने दीर्घ समयकी पूर्ण आयु ही उन्हें कैसे प्राप्त हुई ? ll 46-48 ll

व्यासजी बोले- हे निष्पाप जनमेजय! ब्रह्मलोकमें भूख, प्यास, मृत्यु, भय, वृद्धावस्था तथा ग्लानि इनमें कोई भी विकार कभी भी उत्पन्न नहीं होता ॥ 49 ॥ जब राजा रेवत वहाँसे सुमेरुपर्वतपर चले गये, तब राक्षसोंने शर्याति-वंशकी संततियोंको नष्ट कर डाला। वहाँके सभी लोग भयभीत होकर कुशस्थली छोड़कर इधर-उधर भाग गये ॥ 50 ॥ कुछ समय बाद क्षुव नामक मनुसे एक परम ओजस्वी पुत्र उत्पन्न हुआ। इक्ष्वाकु नामसे विख्यात वे ही सूर्यवंशके प्रवर्तक माने जाते हैं ॥ 51 ॥

नारदजीके उपदेशसे और उनसे श्रेष्ठ दीक्षा प्राप्त करके उन्होंने वंशवृद्धिके उद्देश्यसे भगवतीके ध्यानमें निरन्तर संलग्न रहकर कठोर तपस्या की ॥ 52 ॥हे राजन्! ऐसा सुना गया है कि उन इक्ष्वाकुके एक सौ पुत्र हुए। उनमें सबसे बड़े विकुक्षि थे, जो बल तथा पराक्रमसे सम्पन्न थे ॥ 53 ॥

वे इक्ष्वाकु राजाके रूपमें अयोध्यामें निवास करते थे- यह बात प्रसिद्ध है। उनके शकुनि आदि पचास परम बलवान् पुत्र उत्तरापथ नामक देशके रक्षक नियुक्त किये गये और हे राजन्! उनके जो अड़तालीस पुत्र थे, वे सब उन महात्मा इक्ष्वाकुके द्वारा दक्षिणी देशोंकी रक्षाके लिये आदेशित किये गये। इनके अतिरिक्त अन्य दो पुत्र राजा इक्ष्वाकुकी सेवाके लिये उनके पास रहने लगे ॥ 54-56॥

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देवी भागवत महापुराण
Index


  1. [अध्याय 1] पितामह ब्रह्माकी मानसी सृष्टिका वर्णन, नारदजीका दक्षके पुत्रोंको सन्तानोत्पत्तिसे विरत करना और दक्षका उन्हें शाप देना, दक्षकन्याओंसे देवताओं और दानवोंकी उत्पत्ति
  2. [अध्याय 2] सूर्यवंशके वर्णनके प्रसंगमें सुकन्याकी कथा
  3. [अध्याय 3] सुकन्याका च्यवनमुनिके साथ विवाह
  4. [अध्याय 4] सुकन्याकी पतिसेवा तथा वनमें अश्विनीकुमारोंसे भेंटका वर्णन
  5. [अध्याय 5] अश्विनीकुमारोंका च्यवनमुनिको नेत्र तथा नवयौवनसे सम्पन्न बनाना
  6. [अध्याय 6] राजा शर्यातिके यज्ञमें च्यवनमुनिका अश्विनीकुमारोंको सोमरस देना
  7. [अध्याय 7] क्रुद्ध इन्द्रका विरोध करना; परंतु च्यवनके प्रभावको देखकर शान्त हो जाना, शर्यातिके बादके सूर्यवंशी राजाओंका विवरण
  8. [अध्याय 8] राजा रेवतकी कथा
  9. [अध्याय 9] सूर्यवंशी राजाओंके वर्णनके क्रममें राजा ककुत्स्थ, युवनाश्व और मान्धाताकी कथा
  10. [अध्याय 10] सूर्यवंशी राजा अरुणद्वारा राजकुमार सत्यव्रतका त्याग, सत्यव्रतका वनमें भगवती जगदम्बाके मन्त्र जपमें रत होना
  11. [अध्याय 11] भगवती जगदम्बाकी कृपासे सत्यव्रतका राज्याभिषेक और राजा अरुणद्वारा उन्हें नीतिशास्त्रकी शिक्षा देना
  12. [अध्याय 12] राजा सत्यव्रतको महर्षि वसिष्ठका शाप तथा युवराज हरिश्चन्द्रका राजा बनना
  13. [अध्याय 13] राजर्षि विश्वामित्रका अपने आश्रममें आना और सत्यव्रतद्वारा किये गये उपकारको जानना
  14. [अध्याय 14] विश्वामित्रका सत्यव्रत (त्रिशंकु ) - को सशरीर स्वर्ग भेजना, वरुणदेवकी आराधनासे राजा हरिश्चन्द्रको पुत्रकी प्राप्ति
  15. [अध्याय 15] प्रतिज्ञा पूर्ण न करनेसे वरुणका क्रुद्ध होना और राजा हरिश्चन्द्रको जलोदरग्रस्त होनेका शाप देना
  16. [अध्याय 16] राजा हरिश्चन्द्रका शुनःशेषको स्तम्भमें बाँधकर यज्ञ प्रारम्भ करना
  17. [अध्याय 17] विश्वामित्रका शुनःशेपको वरुणमन्त्र देना और उसके जपसे वरुणका प्रकट होकर उसे बन्धनमुक्त तथा राजाको रोगमुक्त करना, राजा हरिश्चन्द्रकी प्रशंसासे विश्वामित्रका वसिष्ठपर क्रोधित होना
  18. [अध्याय 18] विश्वामित्रका मायाशूकरके द्वारा हरिश्चन्द्रके उद्यानको नष्ट कराना
  19. [अध्याय 19] विश्वामित्रकी कपटपूर्ण बातोंमें आकर राजा हरिश्चन्द्रका राज्यदान करना
  20. [अध्याय 20] हरिश्चन्द्रका दक्षिणा देनेहेतु स्वयं, रानी और पुत्रको बेचनेके लिये काशी जाना
  21. [अध्याय 21] विश्वामित्रका राजा हरिश्चन्द्रसे दक्षिणा माँगना और रानीका अपनेको विक्रयहेतु प्रस्तुत करना
  22. [अध्याय 22] राजा हरिश्चन्द्रका रानी और राजकुमारका विक्रय करना और विश्वामित्रको ग्यारह करोड़ स्वर्णमुद्राएँ देना तथा विश्वामित्रका और अधिक धनके लिये आग्रह करना
  23. [अध्याय 23] विश्वामित्रका राजा हरिश्चन्द्रको चाण्डालके हाथ बेचकर ऋणमुक्त करना
  24. [अध्याय 24] चाण्डालका राजा हरिश्चन्द्रको श्मशानघाटमें नियुक्त करना
  25. [अध्याय 25] सर्पदंशसे रोहितकी मृत्यु, रानीका करुण विलाप, पहरेदारोंका रानीको राक्षसी समझकर चाण्डालको सौंपना और चाण्डालका हरिश्चन्द्रको उसके वधकी आज्ञा देना
  26. [अध्याय 26] रानीका चाण्डालवेशधारी राजा हरिश्चन्द्रसे अनुमति लेकर पुत्रके शवको लाना और करुण विलाप करना, राजाका पत्नी और पुत्रको पहचानकर मूर्च्छित होना और विलाप करना
  27. [अध्याय 27] चिता बनाकर राजाका रोहितको उसपर लिटाना और राजा-रानीका भगवतीका ध्यानकर स्वयं भी पुत्रकी चितामें जल जानेको उद्यत होना, ब्रह्माजीसहित समस्त देवताओंका राजाके पास आना, इन्द्रका अमृत वर्षा करके रोहितको जीवित करना और राजा-रानीसे स्वर्ग चलनेके लिये आग्रह करना, राजाका सम्पूर्ण अयोध्यावासियोंके साथ स्वर्ग जानेका निश्चय
  28. [अध्याय 28] दुर्गम दैत्यकी तपस्या; वर-प्राप्ति तथा अत्याचार, देवताओंका भगवतीकी प्रार्थना करना, भगवतीका शताक्षी और शाकम्भरीरूपमें प्राकट्य, दुर्गमका वध और देवगणोंद्वारा भगवतीकी स्तुति
  29. [अध्याय 29] व्यासजीका राजा जनमेजयसे भगवतीकी महिमाका वर्णन करना और उनसे उन्हींकी आराधना करनेको कहना, भगवान् शंकर और विष्णुके अभिमानको देखकर गौरी तथा लक्ष्मीका अन्तर्धान होना और शिव तथा विष्णुका शक्तिहीन होना
  30. [अध्याय 30] शक्तिपीठोंकी उत्पत्तिकी कथा तथा उनके नाम एवं उनका माहात्म्य
  31. [अध्याय 31] तारकासुरसे पीड़ित देवताओंद्वारा भगवतीकी स्तुति तथा भगवतीका हिमालयकी पुत्रीके रूपमें प्रकट होनेका आश्वासन देना
  32. [अध्याय 32] देवीगीताके प्रसंगमें भगवतीका हिमालयसे माया तथा अपने स्वरूपका वर्णन
  33. [अध्याय 33] भगवतीका अपनी सर्वव्यापकता बताते हुए विराट्रूप प्रकट करना, भयभीत देवताओंकी स्तुतिसे प्रसन्न भगवतीका पुनः सौम्यरूप धारण करना
  34. [अध्याय 34] भगवतीका हिमालय तथा देवताओंसे परमपदकी प्राप्तिका उपाय बताना
  35. [अध्याय 35] भगवतीद्वारा यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा तथा कुण्डलीजागरणकी विधि बताना
  36. [अध्याय 36] भगवतीके द्वारा हिमालयको ज्ञानोपदेश - ब्रह्मस्वरूपका वर्णन
  37. [अध्याय 37] भगवतीद्वारा अपनी श्रेष्ठ भक्तिका वर्णन
  38. [अध्याय 38] भगवतीके द्वारा देवीतीर्थों, व्रतों तथा उत्सवोंका वर्णन
  39. [अध्याय 39] देवी- पूजनके विविध प्रकारोंका वर्णन
  40. [अध्याय 40] देवीकी पूजा विधि तथा फलश्रुति