ऋषिगण बोले- हे सूतजी! हे अनघ ! यद्यपि आपने परम तेजस्वी व्यास तथा सत्यवतीके जन्मकी कथा विस्तारपूर्वक कही तथापि हमलोगोंके चित्तमें एक बड़ी भारी शंका बनी हुई है। हे धर्मज्ञ! हे अनघ ! वह शंका आपके कहनेपर भी दूर नहीं हो रही है ॥ 1-2 ॥ व्यासजीकी कल्याणमयी माता जो सत्यवती नामसे जानी जाती थीं, वे धर्मात्मा राजा शन्तनुको कैसे प्राप्त हुई ? कुल तथा आचरणसे हीन उस निषादकन्याका पुरुकुलमें उत्पन्न उन धर्मात्मा राजाने स्वयं कैसे वरण कर लिया ? ।। 3-4 ॥
आप कृपा करके हमलोगोंको यह भी बतलाइये कि राजा शन्तनुकी पहली पत्नी कौन थी? वसुके अंशसे उत्पन्न मेधावी भीष्म उनके पुत्र कैसे हुए? ॥ 5 ॥हे सूतजी! आप यह पहले ही कह चुके हैं कि सत्यवतीके वीर पुत्र चित्रांगदको अमित तेजवाले भीष्मने राजा बनाया था और वीर चित्रांगदके मारे जानेपर उसके अनुज तथा सत्यवतीके पुत्र विचित्रवीर्यको उन्होंने राजा बनाया ॥ 6-7 ॥
रूपसम्पन्न तथा ज्येष्ठ पुत्र धर्मात्मा भीष्मके रहते हुए विचित्रवीर्यने राज्य कैसे किया और सब कुछ जानते हुए भी भीष्मने उन्हें राज्यपर कैसे स्थापित किया ? ॥ 8 ॥ विचित्रवीर्यके मरनेपर अत्यन्त दुःखित माता सत्यवतीने अपनी दोनों पुत्रवधुओंसे दो गोलक पुत्र कैसे उत्पन्न कराये ? ॥ 9 ॥
उन सुन्दरी सत्यवतीने उस समय ज्येष्ठ पुत्र भीष्मको राजा क्यों नहीं बनाया और उन पराक्रमी भीष्मने अपना विवाह क्यों नहीं किया ? ॥ 10 ॥
अमित तेजस्वी बड़े भाई व्यासजीने ऐसा अधर्म क्यों किया जो कि उन्होंने नियोगद्वारा दो पुत्र उत्पन्न किये ? ॥ 11 ॥
पुराणोंके रचयिता व्यासमुनिने धर्मज्ञ होते हुए भी ऐसा कार्य क्यों किया; हे सूतजी ! क्या यही वेदोंसे अनुमोदित शिष्टाचार है ? ॥ 12-13 ॥
हे मेधाविन्! आप व्यासजीके शिष्य हैं, इसलिये आप हमारी इन सभी शंकाओंका समाधान करनेमें समर्थ हैं। हम सभी इस धर्मक्षेत्रमें इन प्रश्नोंके उत्तर सुननेको उत्सुक हो रहे हैं ।। 14 ।।
सूतजी बोले – [हे मुनियो!] इक्ष्वाकुकुलमें | महाभिष नामके एक सत्यवादी, धर्मात्मा और चक्रवर्ती राजा उत्पन्न हुए ऐसा कहा जाता है ॥ 15 ॥
उन बुद्धिमान् राजाने हजारों अश्वमेध तथा | सैकड़ों वाजपेय यज्ञ करके इन्द्रको सन्तुष्ट किया और स्वर्ग प्राप्त किया था ॥ 16 ॥
एक बार राजा महाभिष ब्रह्मलोक गये। वहाँ प्रजापतिकी सेवाके लिये सभी देवता आये हुए थे । उस समय देवनदी गंगाजी भी ब्रह्माजीकी सेवामें उपस्थित थीं। उस समय तीव्रगामी पवनने उनका वस्त्र उड़ा दिया। सभी देवता अपना सिर नीचा किये उन्हें बिना देखे खड़े रहे, किंतु राजा महाभिष निःशंक भावसे उनकी ओर देखते रह गये ।। 17-19॥उन गंगानदीने भी राजाको अपनेपर प्रेमासक्त जाना। उन दोनोंको इस प्रकार मुग्ध देखकर ब्रह्माजी क्रोधित हो गये और कोपाविष्ट होकर शीघ्र ही उन दोनोंको शाप दे दिया-हे राजन्! मनुष्यलोकमै तुम्हारा जन्म होगा। वहाँ जब तुम अधिक पुण्य एकत्र कर लोगे, तब पुनः स्वर्गलोकमें आओगे। गंगाको महाभिष राजापर प्रेमासक्त जानकर ब्रह्माजीने उन्हें [गंगाको] भी उसी प्रकार शाप दे दिया ।। 20-22 ॥
इस प्रकार वे दोनों दुःखी मनसे ब्रह्माजीके पाससे शीघ्र ही चले गये। राजा अपने मनमें सोचने लगे कि इस मृत्युलोकमें कौन ऐसे राजा हैं, जो धर्मपरायण हैं। ऐसा विचारकर उन्होंने पुरुवंशीय महाराज 'प्रतीप' को ही पिता बनानेका निश्चय कर लिया। इसी बीच आठों वसु अपनी-अपनी स्त्रीके साथ विहार करते हुए स्वेच्छया महर्षि वसिष्ठके आश्रमपर आ पहुँचे। उन पृथु आदि वसुओंमें 'द्यौ' नामक एक श्रेष्ठ वसु थे। उनकी पत्नीने 'नन्दिनी' गौको देखकर अपने पतिसे पूछा कि यह सुन्दर गाय किसकी है? ॥ 23-26 ॥
द्यौने उससे कहा- हे सुन्दरि सुनो, यह महर्षि वसिष्ठजीकी गाय है। इस गायका दूध स्त्री या पुरुष जो कोई भी पीता है, उसकी आयु दस हजार वर्षकी हो जाती है और उसका यौवन सर्वदा बना रहता है। यह सुनकर उस सुन्दरी स्त्रीने कहा- मृत्युलोकमें मेरी एक सखी है। मेरी वह सखी राजर्षि उशीनरकी परम सुन्दरी कन्या है। हे महाभाग उसके लिये अत्यन्त सुन्दर तथा सब प्रकारकी कामनाओंको देनेवाली इस गायको बछड़े सहित अपने आश्रममें ले चलिये। जब मेरी सखी इसका दूध पीयेगी तब वह निर्जरा एवं रोगरहित होकर मनुष्योंमें एकमात्र अद्वितीय बन जायगी। उसका वचन सुनकर द्यौ नामके वसुने 'पृथु ' आदि अष्टवसुओंके साथ जितेन्द्रिय मुनिका अपमान करके नन्दिनीका अपहरण कर लिया ।। 27-313 ॥
नन्दिनीका हरण हो जानेपर महातपस्वी वसिष्ठ फल लेकर शीघ्र ही अपने आश्रम आ गये। जब मुनिने अपने आश्रममें बछड़े सहित नन्दिनीगायको नहीं देखा तब वे तेजस्वी वनों एवं गुफाओंमें उसे ढूँढ़नेलगे, जब वह गाय नहीं मिली तब वरुणपुत्र मुनि वसिष्ठजी ध्यानयोगसे उसे वसुओंके द्वारा हरी गयी जानकर अत्यन्त कुपित हुए। वसुओंने मेरी अवमानना करके मेरी गौ चुरा ली है। वे सभी मानवयोनिमें जन्म ग्रहण करेंगे, इसमें सन्देह नहीं है। इस प्रकार धर्मात्मा वसिष्ठजीने उन वसुओंको शाप दिया ।। 32-36 ॥
यह सुनकर वे सभी वसु खिन्नमनस्क और दुःखित हो गये और वहाँसे चल दिये। हमें शाप दे दिया गया है यह जानकर वे ऋषि वसिष्ठके पास पहुँचे और उन्हें प्रसन्न करते हुए वे सभी वसु उनके शरणागत हो गये। तब धर्मात्मा मुनि वसिष्ठजीने उन सामने खड़े वसुओंको देखकर कहा- तुमलोगोंमेंसे [सात वसु] एक-एक वर्षके अन्तरालसे ही शापसे मुक्त हो जायेंगे; परंतु जिसने मेरी प्रिय सवत्सा नन्दिनीका अपहरण किया है, वह 'द्यौ' नामक वसु मनुष्य-शरीरमें ही बहुत दिनोंतक रहेगा ॥ 37-393 ।।
उन अभिशप्त वसुओंने मार्गमें जाती हुई नदियों में उत्तम गंगाजीको देखकर उन अभिशप्त तथा चिन्तातुर गंगाजी से प्रणामपूर्वक कहा- हे देवि! अमृत पीनेवाले हम देवता मानवकुक्षिसे कैसे उत्पन्न होंगे, यह हमें महान् चिन्ता है, अतः हे नदियोंमें श्रेष्ठ आप ही मानुषी बनकर हमलोगोंको जन्म दें पृथ्वीपर शन्तनु नामक एक राजर्षि हैं, हे अनथे। आप उन्हींकी भार्या बन जायें और हे सुरापगे। हमें क्रमश: जन्म लेनेपर आप जलमें छोड़ती जायें। आपके ऐसा करनेसे हमलोग भी शापसे मुक्त हो जायेंगे, इसमें सन्देह नहीं है। गंगाजीने जब उनसे 'तथास्तु' कह दिया तब वे सब वसु अपने-अपने लोकको चले गये और गंगाजी भी बार-बार विचार करती हुई वहाँसे चली | गयीं ॥। 40 - 443 ॥
उस समय राजा महाभिषने राजा प्रतीपके पुत्रके रूपमें जन्म लिया। उन्हींका नाम शन्तनु पड़ा, जो सत्यप्रतिज्ञ एवं धर्मात्मा राजर्षि हुए महाराज प्रतीपने परम तेजस्वी भगवान् सूर्यकी आराधना की। उस समय जलमेंसे एक परम सुन्दर स्त्री निकल पड़ी और | वह सुमुखी आकर तुरंत ही महाराजके शाल वृक्षके समान विशाल दाहिने जंघेपर विराजमान हो गयी।अंकमें बैठी हुई उस स्त्रीसे राजाने पूछा- 'हे वरानने! तुम मुझसे बिना पूछे ही मेरे शुभ दाहिने जंघेपर क्यों बैठ गयी ?' 45-48 उस सुन्दरीने उनसे कहा-'हे नृपश्रेष्ठ हे कुरुश्रेष्ठ! मैं जिस कामनासे आपके अंकमें बैठी हैं, उस कामनावाली मुझे आप स्वीकार करें' 49 ॥ उस रूपयौवनसम्पन्ना सुन्दरीसे राजाने कहा मैं किसी सुन्दरी परस्त्रीको कामकी इच्छासे नहीं स्वीकार करता' ॥ 50 ॥
हे भामिनि ! हे शुचिस्मिते! तुम मेरे दाहिने जंघेपर प्रेमपूर्वक आकर बैठ गयी हो, उसे तुम पुत्रों तथा पुत्रवधुओंका स्थान समझो। अतः हे कल्याणि ! मेरे मनोवांछित पुत्रके उत्पन्न होनेपर तुम मेरी पुत्रवधू हो जाओ। तुम्हारे पुण्यसे मुझे पुत्र हो जायगा, इसमें संशय नहीं है । ll 51-52 ll
वह दिव्य दर्शनवाली कामिनी 'तथास्तु' कहकर चली गयी और उस स्त्रीके विषयमें सोचते हुए राजा प्रतीप भी अपने घर चले गये ॥ 53 ॥
समय बीतनेपर पुत्रके युवा होनेपर वन जानेकी इच्छावाले राजाने अपने पुत्रको वह समस्त पूर्व वृत्तान्त कह सुनाया ।। 54 ।।
सारी बात बताकर राजाने अपने पुत्रसे कहा 'यदि वह सुन्दरी बाला तुम्हें कभी वनमें मिले और अपनी अभिलाषा प्रकट करे तो उस मनोरमाको स्वीकार कर लेना तथा उससे मत पूछना कि तुम कौन हो ? यह मेरी आज्ञा है, उसे अपनी धर्मपत्नी बनाकर तुम सुखी रहोगे ॥ 55-563 ॥
सूतजी बोले- इस प्रकार अपने पुत्रको आदेश देकर महाराज प्रतीप प्रसन्नताके साथ उन्हें सारा राज्य-वैभव सौंपकर बनको चले गये। वहाँ जाकर ये तप करके तथा आदिशक्ति भगवती जगदम्बिकाकी आराधना करके अपने तेजसे शरीर छोड़कर स्वर्ग चले गये। महातेजस्वी राजा शन्तनुने सार्वभौम राज्य प्राप्त किया और वे धर्मपूर्वक प्रजाका पालन करने लगे ॥ 57-60 ।।