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देवी भागवत महापुराण ( देवी भागवत)

Devi Bhagwat Purana (Devi Bhagwat Katha)

स्कन्ध 7, अध्याय 6 - Skand 7, Adhyay 6

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राजा शर्यातिके यज्ञमें च्यवनमुनिका अश्विनीकुमारोंको सोमरस देना

जनमेजय बोले- [हे व्यासजी!] च्यवनने उन दोनों वैद्योंको सोमरस पीनेका अधिकारी किस प्रकार बनाया? उन महात्मा च्यवनकी बात कैसे सत्य सिद्ध हुई ? ॥ 1 ॥

देवराज इन्द्रके बलके सामने मानव बलकी क्या तुलना हो सकती है? फिर भी उन इन्द्रके द्वारा सोमरसके पानसे निषिद्ध किये गये उन दोनों अश्विनी कुमारोंको च्यवनमुनिने सोमरस-पानका अधिकारी बना दिया। हे धर्मनिष्ठ हे प्रभो। इस आश्चर्यमय विषयका विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये; क्योंकि मैं इस समय व्यवनमु निका चरित्र पूर्णरूपसे सुननेका इच्छुक हूँ ll 2-3 ll

व्यासजी बोले- हे महाराज! हे भारत! राजा शर्यातिने जब भूमण्डलपर यज्ञ किया था, च्यवनमुनिके तत्कालीन उस अत्यन्त अद्भुत चरित्रके विषयमें सुनिये। दूसरे देवताके समान तेजस्वी मुनि च्यवन सुन्दर रूपवाली उस देवकन्यास्वरूपिणी सुकन्याको पाकर प्रसन्नचित्त हो गये और उसके साथ विहार करने लगे ll 4-5 ll

एक समयकी बात है—महाराज शर्यातिकी पत्नी [अपनी कन्याके विषयमें] अत्यन्त चिन्तित हो उठीं। काँपती और रोती हुई वे अपने पतिसे बोलीं हे राजन्! आपने बनमें एक अन्धे मुनिको पुत्री प दी थी। वह न जाने जीवित है अथवा मर गयी। अतः आपको उसे सम्यक् रूपसे देखना चाहिये ll 6-7 ॥

हे नाथ! आप मुनि च्यवनके आश्रम में आदरपूर्वक यह देखनेके लिये जाइये कि उस प्रकारका पति पाकर वह सुकन्या क्या कर रही है ? ॥ 8 ॥

हे राजर्षे! पुत्रीके दुःखके कारण मेरा हृदय जल रहा है। तपस्या करनेसे क्षीण शरीरवाली मेरी उस विशालनयना पुत्रीको मेरे पास ले आइये ॥ 9 ॥

नेत्रहीन पति पाकर महान् कष्ट भोगनेवाली, [तपके कारण] कृश शरीरवाली, वल्कल धारण करनेवाली तथा क्षीण कटिप्रदेशवाली अपनी पुत्रीको मैं देखना चाहती हूँ ॥ 10 ॥शर्याति बोले- हे विशालाक्षि ! हे वरारोहे! मैं अभी अपनी प्रिय पुत्री सुकन्याको आदरपूर्वक | देखनेके लिये उत्तम व्रतका आचरण करनेवाले उन च्यवनऋषिके पास जा रहा हूँ ॥ 11 ॥

व्यासजी बोले-शोकसे अत्यन्त व्याकुल अपनी पत्नीसे ऐसा कहकर राजा शर्याति रथपर बैठकर च्यवनमुनिके आश्रमकी और तुरंत चल पड़े ॥ 12 ॥ आश्रमके निकट पहुँचकर राजा शर्यातिने देवपुत्रके समान प्रतीत होनेवाले एक नवयौवनसे सम्पन्न मुनिको वहाँ देखा ॥ 13 ॥

देवताओंके स्वरूपवाले उस मुनिको देखकर राजा शर्याति विस्मयमें पड़ गये। वे सोचने लगे कि मेरी पुत्रीने लोकमें निन्दा करानेवाला यह कैसा नीच कर्म कर डाला है? ॥ 14 ॥

प्रतीत होता है कि इसने कामपीड़ित होकर उन वृद्ध, शान्तचित्त तथा अति निर्धन मुनिका वध कर दिया एवं किसी अन्यको अपना पति बना लिया है। यह कामदेव बड़ा दुःसह है और युवावस्थामें तो यह विशेषरूपसे और भी दुःसह हो जाता है। इस पुत्रीने तो मनुवंशमें बड़ा भारी कलंक लगा दिया ॥ 15-16 ll

जिस मनुष्यकी पुत्री ऐसा नीच कर्म करनेवाली हो, संसारमें उसके जीवनको धिक्कार है। ऐसी पुत्री मनुष्योंके लिये सभी पापोंसे बढ़कर दुःख देनेवाली होती है। मैंने भी तो स्वार्थकी सिद्धिके लिये ऐसा अनुचित कार्य कर दिया था, जो कि जानबूझकर नेत्रहीन और वृद्ध मुनिको अपनी पुत्री सौंप दी। पिताको चाहिये कि वह भलीभाँति सोच समझकर ही एक योग्य वरको अपनी कन्या प्रदान करे। मैंने जैसा कर्म किया था, वैसा फल भी पाया ।। 17-19 ॥

अब यदि मैं पापकर्म करनेवाली इस दुश्चरित्र कन्याको मार डालता हूँ, तो मुझे दुस्तर स्त्री-हत्या और विशेषरूपसे पुत्री हत्याका बड़ा भारी दोष लगेगा ॥ 20 ॥मैंने तो इस परम प्रसिद्ध मनुवंशको कलंकित कर दिया। एक ओर बलवती लोकनिन्दा है और दूसरी ओर न छोड़ी जा सकनेवाली [सन्तानके प्रति ] स्नेहश्रृंखला; अब मैं क्या करूँ ? इस प्रकार सोचते हुए राजा शयति जब चिन्ताके सागरमें डूबे हुए थे, उसी समय सुकन्याने चिन्तासे आकुल अपने पिताको संयोगवश देख लिया ॥ 21-22 ॥

उन्हें देखते ही प्रेमसे परिपूर्ण हृदयवाली वह सुकन्या अपने पिता राजा शर्यातिके पास गयी और वहाँ जाकर उनसे पूछने लगी- हे राजन्! कमलके समान नेत्रवाले बैठे हुए इन युवा मुनिको देखकर चिन्ताके कारण व्याकुल मुखमण्डलवाले आप इस समय क्या सोच रहे हैं? हे पुरुषव्याघ्र ! इधर आइये और मेरे पतिको प्रणाम कीजिये। हे मनुवंशी राजेन्द्र ! इस समय आप शोक मत कीजिये ॥ 23–25 ॥

व्यासजी बोले- [हे राजन्!]] तब अपनी पुत्री सुकन्याकी बात सुनकर क्रोधसे सन्तप्त राजा शर्याति अपने सामने खड़ी उस कन्यासे कहने लगे ll 26 ॥

राजा बोले- हे पुत्र ! परम तपस्वी, वृद्ध तथा नेत्रहीन वे मुनि च्यवन कहाँ हैं और यह मदोन्मत्त युवक कौन है ? इस विषयमें मुझे महान् सन्देह हो रहा है ॥ 27 ॥

दुराचारमें लिप्त रहनेवाली हे पापिनि! हे कुल नाशिनि! क्या तुमने च्यवनमुनिको मार डाला और | कामके वशीभूत होकर इस पुरुषका नये पतिके रूपमें वरण कर लिया ? ॥ 28 ॥

इस आश्रम में रहनेवाले उन मुनिको में इस समय नहीं देख रहा हूँ, इसीलिये मैं चिन्ताग्रस्त हूँ। तुमने यह नीच कर्म क्यों किया? यह तो निश्चय ही व्यभिचारिणी स्त्रियोंका चरित्र है॥ 29 ॥

हे दुराचारिणि! इस समय तुम्हारे पास इस दिव्य पुरुषको देखकर तथा उन च्यवनमुनिको न देखकर मैं तुम्हारे द्वारा उत्पन्न किये गये शोकसागर में डूबा हुआ हूँ ॥ 30 ll

अपने पिताकी बात सुनकर उन्हें साथ लेकर वह सुकन्या तुरंत पतिके पास पहुँची और उनसे आदरपूर्वक कहने लगी- ॥ 31 llहे तात! ये आपके जामाता च्यवनमुनि ही हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं है। अश्विनीकुमारोंने इन्हें ऐसा कान्तिमान् | तथा कमलके समान नेत्रवाला बना दिया है ॥ 32 ॥

वे दोनों अश्विनीकुमार एक बार दैवयोगसे मेरे आश्रम में पधारे थे। उन्होंने ही दयालुतापूर्वक च्यवनमुनिको ऐसा कर दिया है ॥ 33 ॥

हे पिताजी! मैं आपकी पुत्री हूँ। हे राजन्! [मेरे पतिदेवका] यह रूप देखकर संशयमें पड़े हुए आप मोहके वशीभूत होकर मुझे जैसी समझ रहे हैं, मैं वैसी पापकृत्य करनेवाली नहीं हूँ ॥ 34 ॥

हे राजन् ! भृगुवंशको सुशोभित करनेवाले च्यवनमुनिको आप प्रणाम करें। हे पिताजी! आप इन्हींसे पूछ लीजिये; ये आपको सारी बात विस्तारपूर्वक बता देंगे ॥ 35 ॥

तब पुत्रीकी यह बात सुनकर राजा शर्यातिने तुरंत मुनिके पास पहुँचकर उन्हें प्रणाम किया और वे उनसे आदरपूर्वक पूछने लगे ॥ 36 ॥

राजा बोले- हे भार्गव ! आप अपना सारा वृत्तान्त समुचितरूपसे मुझे शीघ्र बतलाइये। आपने फिरसे किस प्रकार अपने दोनों नेत्र प्राप्त किये और आपका बुढ़ापा कैसे दूर हुआ ? आपका परम सुन्दर रूप देखकर मुझे यह महान् सन्देह हो रहा है। हे ब्रह्मन्! आप विस्तारपूर्वक यह सब बतलाइये, जिसे | सुनकर मुझे सुख प्राप्त हो ॥ 37-38 ॥

च्यवन बोले- हे नृपश्रेष्ठ ! देवताओंकी चिकित्सा करनेवाले दोनों अश्विनीकुमार एक बार यहाँ आये थे। उन दोनोंने ही कृपापूर्वक मेरा यह उपकार किया है उस उपकारके बदले मैंने उन दोनोंको वर दिया है कि मैं आप दोनोंको राजा शर्यातिके यज्ञमें सोमपानका अधिकारी बना दूंगा।। 39-40 ॥

हे महाराज इस प्रकार अश्विनीकुमारोंद्वारा मुझे | यह युवावस्था तथा ये विमल नेत्र प्राप्त हुए हैं; आप निश्चिन्त रहें और इस पवित्र आसनपर विराजमान हों ॥ 41 ॥

मुनिके यह कहनेपर राजा शर्याति रानीसहित सुखपूर्वक आसनपर बैठ गये। इसके बाद वे महात्मा च्यवनजीसे कल्याणमयी बातें करने लगे ॥ 42 ॥तत्पश्चात् भृगुवंशी च्यवनमुनिने राजाको सान्त्वना देते हुए उनसे कहा- हे राजन्! मैं आपसे यज्ञ कराऊँगा, आप यज्ञसम्बन्धी सामग्रियाँ जुटाइये मैं दोनों अश्विनीकुमारोंसे प्रतिज्ञा कर चुका हूँ कि 'मैं आप दोनोंको सोमपानका अधिकारी बना दूंगा ?' हे नृपश्रेष्ठ ! आपके महान् यज्ञमें मुझे वह कार्य सम्पन्न करना है और हे राजेन्द्र ! आपके सोमयज्ञमें इन्द्रके कोप करनेपर मैं अपने तेजबलसे उन्हें शान्त कर दूंगा और [उन देववैद्योंको] सोमरस पिलाऊँगा ।। 43 - 45 ॥

हे राजन् ! इस बातसे राजा शर्याति परम सन्तुष्ट हुए और उन्होंने च्यवनमुनिको उस बातको आदरपूर्वक स्वीकार कर लिया ॥ 46 ॥

तत्पश्चात् च्यवनमुनिका सम्मान करके परम सन्तुष्ट होकर राजा शर्याति अपनी पत्नीके साथ मुनिसे सम्बन्धित चर्चा करते हुए अपने नगरको चले गये ॥ 47 ॥

तदनन्तर सम्पूर्ण कामनाओंसे परिपूर्ण राजा शर्यातिने किसी शुभ मुहूर्तमें एक उत्तम यज्ञशालाका निर्माण कराया ॥ 48 ॥

इसके बाद वसिष्ठ आदि प्रमुख पूज्य मुनियोंको बुलाकर भृगुवंशी च्यवनमुनिने राजा शर्यातिसे यज्ञ कराना आरम्भ कर दिया ॥ 49 ॥

उस महायज्ञ इन्द्रसहित सभी देवता उपस्थित हुए और दोनों अश्विनीकुमार भी सोमपानकी इच्छासे वहाँ आये 50 ॥

वहाँ दोनों अश्विनीकुमारोंको भी उपस्थित देखकर इन्द्र सशंकित हो उठे और वे सभी देवताओंसे पूछने लगे-'वे दोनों यहाँ क्यों आये हुए हैं? ये चिकित्सक हैं; अतः ये सोमरस पीनेके अधिकारी नहीं हैं। इन्हें यहाँ किसने बुलाया है ?" इसपर राजाके उस महायज्ञमें उपस्थित देवताओंने कोई उत्तर नहीं दिया ।। 51-52 ॥

तत्पश्चात् जब च्यवनमुनि दोनों अश्विनीकुमारोंको सोमरस ग्रहण कराने लगे, तब इन्द्रने [यह कहते हुए उन्हें रोका-'इन दोनोंको सोमभाग ग्रहण मत कराइये ' ॥ 53 ॥तब च्यवनमुनिने इन्द्रसे कहा- ये सूर्यपुत्र अश्विनीकुमार सोमरस ग्रहण करनेके अधिकारी कैसे नहीं हैं? हे शचीपते! आप इस बातको प्रमाणित कीजिये ॥ 54 ॥ ये वर्णसंकर नहीं हैं, अपितु सूर्यकी धर्मपत्नीसे उत्पन्न हुए हैं। तब हे देवेन्द्र! ये दोनों श्रेष्ठ चिकित्सक किस दोषके कारण सोमपानके योग्य नहीं हैं ? ॥ 55 ॥

हे इन्द्र! इस यज्ञमें उपस्थित सभी देवता ही इसका निर्णय कर दें। मैं तो इन्हें सोमरस अवश्य पिलाऊँगा; क्योंकि मैंने इन्हें सोमपानका अधिकारी बना दिया है ॥ 56 ॥

हे मघवन्! मैंने ही इस यज्ञके लिये राजा शर्यातिको प्रेरित किया है। हे विभो ! इनके लिये मैं ऐसा अवश्य करूँगा; मेरा यह कथन सत्य है ॥ 57 ॥ हे शक्र ! मुझे नवीन अवस्था प्रदान करके इन्होंने मेरा बड़ा उपकार किया है, अतः उसके बदलेमें मुझे सभी प्रकारसे इनका प्रत्युपकार करना चाहिये ॥ 58 ॥

इन्द्र बोले- चिकित्सावृत्तिवाले ये दोनों अश्विनीकुमार देवताओंके द्वारा निन्दनीय माने गये हैं। अतः ये सोमपानके अधिकारी नहीं हैं। इनके लिये | सोमरसका भाग मत ग्रहण कीजिये ॥ 59 ॥

च्यवनमुनि बोले- हे अहल्याजार! इस समय व्यर्थ कोप मत करो। वृत्रका वध करनेवाले हे इन्द्र ! ये देवपुत्र अश्विनीकुमार सोमपानके अधिकारी क्यों नहीं हैं ? ॥ 60 ॥

[ व्यासजी बोले- ] हे राजन् ! इस प्रकारका विवाद छिड़ जानेपर वहाँ उपस्थित कोई भी देवता च्यवनमुनिसे कुछ भी नहीं कह सका। तब अपने तपोबलके द्वारा अत्यन्त तेजस्वी च्यवनमुनिने सोमरसका भाग लेकर अश्विनीकुमारों को दे दिया ॥ 61 ॥

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देवी भागवत महापुराण
Index


  1. [अध्याय 1] पितामह ब्रह्माकी मानसी सृष्टिका वर्णन, नारदजीका दक्षके पुत्रोंको सन्तानोत्पत्तिसे विरत करना और दक्षका उन्हें शाप देना, दक्षकन्याओंसे देवताओं और दानवोंकी उत्पत्ति
  2. [अध्याय 2] सूर्यवंशके वर्णनके प्रसंगमें सुकन्याकी कथा
  3. [अध्याय 3] सुकन्याका च्यवनमुनिके साथ विवाह
  4. [अध्याय 4] सुकन्याकी पतिसेवा तथा वनमें अश्विनीकुमारोंसे भेंटका वर्णन
  5. [अध्याय 5] अश्विनीकुमारोंका च्यवनमुनिको नेत्र तथा नवयौवनसे सम्पन्न बनाना
  6. [अध्याय 6] राजा शर्यातिके यज्ञमें च्यवनमुनिका अश्विनीकुमारोंको सोमरस देना
  7. [अध्याय 7] क्रुद्ध इन्द्रका विरोध करना; परंतु च्यवनके प्रभावको देखकर शान्त हो जाना, शर्यातिके बादके सूर्यवंशी राजाओंका विवरण
  8. [अध्याय 8] राजा रेवतकी कथा
  9. [अध्याय 9] सूर्यवंशी राजाओंके वर्णनके क्रममें राजा ककुत्स्थ, युवनाश्व और मान्धाताकी कथा
  10. [अध्याय 10] सूर्यवंशी राजा अरुणद्वारा राजकुमार सत्यव्रतका त्याग, सत्यव्रतका वनमें भगवती जगदम्बाके मन्त्र जपमें रत होना
  11. [अध्याय 11] भगवती जगदम्बाकी कृपासे सत्यव्रतका राज्याभिषेक और राजा अरुणद्वारा उन्हें नीतिशास्त्रकी शिक्षा देना
  12. [अध्याय 12] राजा सत्यव्रतको महर्षि वसिष्ठका शाप तथा युवराज हरिश्चन्द्रका राजा बनना
  13. [अध्याय 13] राजर्षि विश्वामित्रका अपने आश्रममें आना और सत्यव्रतद्वारा किये गये उपकारको जानना
  14. [अध्याय 14] विश्वामित्रका सत्यव्रत (त्रिशंकु ) - को सशरीर स्वर्ग भेजना, वरुणदेवकी आराधनासे राजा हरिश्चन्द्रको पुत्रकी प्राप्ति
  15. [अध्याय 15] प्रतिज्ञा पूर्ण न करनेसे वरुणका क्रुद्ध होना और राजा हरिश्चन्द्रको जलोदरग्रस्त होनेका शाप देना
  16. [अध्याय 16] राजा हरिश्चन्द्रका शुनःशेषको स्तम्भमें बाँधकर यज्ञ प्रारम्भ करना
  17. [अध्याय 17] विश्वामित्रका शुनःशेपको वरुणमन्त्र देना और उसके जपसे वरुणका प्रकट होकर उसे बन्धनमुक्त तथा राजाको रोगमुक्त करना, राजा हरिश्चन्द्रकी प्रशंसासे विश्वामित्रका वसिष्ठपर क्रोधित होना
  18. [अध्याय 18] विश्वामित्रका मायाशूकरके द्वारा हरिश्चन्द्रके उद्यानको नष्ट कराना
  19. [अध्याय 19] विश्वामित्रकी कपटपूर्ण बातोंमें आकर राजा हरिश्चन्द्रका राज्यदान करना
  20. [अध्याय 20] हरिश्चन्द्रका दक्षिणा देनेहेतु स्वयं, रानी और पुत्रको बेचनेके लिये काशी जाना
  21. [अध्याय 21] विश्वामित्रका राजा हरिश्चन्द्रसे दक्षिणा माँगना और रानीका अपनेको विक्रयहेतु प्रस्तुत करना
  22. [अध्याय 22] राजा हरिश्चन्द्रका रानी और राजकुमारका विक्रय करना और विश्वामित्रको ग्यारह करोड़ स्वर्णमुद्राएँ देना तथा विश्वामित्रका और अधिक धनके लिये आग्रह करना
  23. [अध्याय 23] विश्वामित्रका राजा हरिश्चन्द्रको चाण्डालके हाथ बेचकर ऋणमुक्त करना
  24. [अध्याय 24] चाण्डालका राजा हरिश्चन्द्रको श्मशानघाटमें नियुक्त करना
  25. [अध्याय 25] सर्पदंशसे रोहितकी मृत्यु, रानीका करुण विलाप, पहरेदारोंका रानीको राक्षसी समझकर चाण्डालको सौंपना और चाण्डालका हरिश्चन्द्रको उसके वधकी आज्ञा देना
  26. [अध्याय 26] रानीका चाण्डालवेशधारी राजा हरिश्चन्द्रसे अनुमति लेकर पुत्रके शवको लाना और करुण विलाप करना, राजाका पत्नी और पुत्रको पहचानकर मूर्च्छित होना और विलाप करना
  27. [अध्याय 27] चिता बनाकर राजाका रोहितको उसपर लिटाना और राजा-रानीका भगवतीका ध्यानकर स्वयं भी पुत्रकी चितामें जल जानेको उद्यत होना, ब्रह्माजीसहित समस्त देवताओंका राजाके पास आना, इन्द्रका अमृत वर्षा करके रोहितको जीवित करना और राजा-रानीसे स्वर्ग चलनेके लिये आग्रह करना, राजाका सम्पूर्ण अयोध्यावासियोंके साथ स्वर्ग जानेका निश्चय
  28. [अध्याय 28] दुर्गम दैत्यकी तपस्या; वर-प्राप्ति तथा अत्याचार, देवताओंका भगवतीकी प्रार्थना करना, भगवतीका शताक्षी और शाकम्भरीरूपमें प्राकट्य, दुर्गमका वध और देवगणोंद्वारा भगवतीकी स्तुति
  29. [अध्याय 29] व्यासजीका राजा जनमेजयसे भगवतीकी महिमाका वर्णन करना और उनसे उन्हींकी आराधना करनेको कहना, भगवान् शंकर और विष्णुके अभिमानको देखकर गौरी तथा लक्ष्मीका अन्तर्धान होना और शिव तथा विष्णुका शक्तिहीन होना
  30. [अध्याय 30] शक्तिपीठोंकी उत्पत्तिकी कथा तथा उनके नाम एवं उनका माहात्म्य
  31. [अध्याय 31] तारकासुरसे पीड़ित देवताओंद्वारा भगवतीकी स्तुति तथा भगवतीका हिमालयकी पुत्रीके रूपमें प्रकट होनेका आश्वासन देना
  32. [अध्याय 32] देवीगीताके प्रसंगमें भगवतीका हिमालयसे माया तथा अपने स्वरूपका वर्णन
  33. [अध्याय 33] भगवतीका अपनी सर्वव्यापकता बताते हुए विराट्रूप प्रकट करना, भयभीत देवताओंकी स्तुतिसे प्रसन्न भगवतीका पुनः सौम्यरूप धारण करना
  34. [अध्याय 34] भगवतीका हिमालय तथा देवताओंसे परमपदकी प्राप्तिका उपाय बताना
  35. [अध्याय 35] भगवतीद्वारा यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा तथा कुण्डलीजागरणकी विधि बताना
  36. [अध्याय 36] भगवतीके द्वारा हिमालयको ज्ञानोपदेश - ब्रह्मस्वरूपका वर्णन
  37. [अध्याय 37] भगवतीद्वारा अपनी श्रेष्ठ भक्तिका वर्णन
  38. [अध्याय 38] भगवतीके द्वारा देवीतीर्थों, व्रतों तथा उत्सवोंका वर्णन
  39. [अध्याय 39] देवी- पूजनके विविध प्रकारोंका वर्णन
  40. [अध्याय 40] देवीकी पूजा विधि तथा फलश्रुति