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देवी भागवत महापुराण ( देवी भागवत)

Devi Bhagwat Purana (Devi Bhagwat Katha)

स्कन्ध 6, अध्याय 20 - Skand 6, Adhyay 20

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राजा हरिवर्माको भगवान् विष्णुद्वारा अपना हैहयसंज्ञक पुत्र देना, राजाद्वारा उसका 'एकवीर' नाम रखना

जनमेजय बोले- [हे मुनिवर ! ] मुझे इस विषयमें यह महान् संशय हो रहा है कि भगवान्ने उत्पन्न होते ही उस बालकका त्याग कर दिया। निर्जन वनमें उस असहाय बालककी देखभाल किसने की ? ॥ 1 ॥

हे सत्यवतीनन्दन ! उस बालककी क्या गति हुई? बाघ, सिंह आदि हिंसक जानवर उस छोटे-से बालकको उठा तो नहीं ले गये ॥ 2 ॥

व्यासजी बोले- हे राजन्! जब भगवान् विष्णु तथा लक्ष्मीजी उस स्थानसे चले गये, उसी समय चम्पक नामक विद्याधर उत्तम विमानपर आरूढ़ होकर अपनी प्रेयसी मदनालसाके साथ इच्छापूर्वक विहार करते हुए संयोगवश वहाँ आ पहुँचा । ll 3-4 ॥

देवपुत्र - तुल्य उस उत्तम शिशुको पृथ्वीपर सुखपूर्वक अकेले खेलते हुए देखकर चम्पकने शीघ्रतापूर्वक विमानसे उतरकर झटसे उस बालकको उठा लिया और वह उसी प्रकार आनन्दित हो गया, जिस प्रकार कोई धनहीन व्यक्ति धनका खजाना पाकर आनन्दित हो जाता है ॥ 5-6 ll

कामदेवके समान अत्यन्त सुन्दर उस नवजात शिशुको उठाकर चम्पकने (अपनी पत्नी) मदनालसाको सौंप दिया ॥ 7 ॥

उस बालकको लेते ही प्रेमसे रोमांचित तथा विस्मित मदनालसा हृदयसे लगाकर उस बालकका | मुख चूमने लगी ll 8 ll

हे भारत प्रीतिपूर्वक हृदयसे लगाने तथा चूमनेके पश्चात् उस तन्वंगी मदनालसाने उसे अपना पुत्र समझकर गोदमें ले लिया ॥ 9 ॥

उसे गोदमें लेकर पति-पत्नी प्रसन्नतापूर्वक विमानपर आरूढ़ हो गये। तब कमनीय अंगोंवाली मदालसाने हँसकर अपने पतिसे पूछा- हे कान्त ! बालक किसका है तथा किसने इसे निर्जन वनमें छोड़ दिया है? त्रिनेत्रधारी भगवान् शंकरने इसे मुझे पुत्ररूपमें दिया है । ll 10-11 ॥चम्पक बोला- हे प्रिये! मैं आज ही सब कुछ | जाननेवाले इन्द्रके पास जाकर पूछूंगा कि यह बालक देवता है, दानव है अथवा गन्धर्व है। उनसे आदेश प्राप्त करनेके बाद ही मैं वनमें प्राप्त इस बालकको अपना पुत्र बनाऊँगा; बिना उनसे पूछे मुझे कोई भी कार्य निश्चितरूपसे नहीं करना चाहिये ॥ 12-13 ॥

ऐसा कहकर उस मदनालसा तथा पुत्रको लेकर हर्षातिरेकके कारण उत्फुल्ल नेत्रोंवाले उस चम्पकने तुरंत विमानसे इन्द्रपुरीके लिये प्रस्थान किया। [ वहाँ पहुँचकर] प्रेमपूर्वक इन्द्रके चरणोंमें प्रणामकर उस बालकको उन्हें समर्पित करके दोनों हाथ जोड़कर चम्पक खड़ा हो गया और बोला- ॥ 14-15 ॥

हे देवदेव! कामदेवके समान प्रभावाला यह बालक मुझे परम पवित्र तीर्थ यमुना तथा तमसा नदीके संगम स्थलपर प्राप्त हुआ था ॥ 16 ॥ हे शचीपते! कान्तिसे सम्पन्न यह बालक किसका है; इसका त्याग क्यों कर दिया गया है ? हे देवेश! यदि आपका आदेश हो तो मैं इस बालकको
अपना पुत्र बना लूँ ॥ 17 ॥

यह अत्यन्त सुन्दर बालक मेरी पत्नीका प्रिय पुत्र बन गया है। धर्मशास्त्रों में कृत्रिम पुत्र भी कहा गया है ll 18 ll

इन्द्र बोले- यह अश्वरूपधारी भगवान् विष्णुका पुत्र है। हे महाभाग ! हैहयसंज्ञक यह परम तपस्वी बालक लक्ष्मीजीसे उत्पन्न हुआ है ॥ 19 ॥

भगवान् विष्णुने ययातिके पुत्र राजा हरिवर्माको अर्पित करनेके उद्देश्यसे इस बालकको उत्पन्न किया है ॥ 20 ॥

परम धार्मिक राजा हरिवर्मा भगवान् विष्णुसे प्रेरणा प्राप्तकर पुत्रके लिये आज ही उस पावन तीर्थमें पहुँचेंगे। अतएव जबतक भगवान् विष्णुके द्वारा प्रेरित होकर वे राजा उसे लेनेहेतु वहाँ पहुँच नहीं जाते, उससे पूर्व तुम इस सुन्दर बालकको लेकर वहीं पर पहुँच जाओ ॥ 21-22 ॥ हे श्रेष्ठ! वहाँ जाकर इस बालकको छोड़ दो,
विलम्ब मत करो; क्योंकि राजा हरिवर्मा [तुमसे पहले
पहुँच गये तो] बालकको वहाँ न देखकर अत्यन्त
दुःखी होंगे ॥ 23 ॥अतएव हे चम्पक ! इस बालकको छोड़ आओ, जिससे राजा पुत्र प्राप्त कर लें। यह पृथ्वीलोकमें 'एकवीर' - इस नामसे प्रसिद्ध होगा ॥ 24 ॥

व्यासजी बोले- हे राजन् ! इन्द्रकी यह बात सुनकर चम्पक शीघ्रतापूर्वक उस बालकको लेकर उस स्थानपर पहुँच गया। बालक पहले जहाँ पड़ा हुआ था, वहीं पर उसने बालकको रख दिया और अपने विमानपर चढ़कर अपने स्थानको लौट गया ।। 25-26 ॥

इसके तुरंत बाद कमलाकान्त जगद्गुरु भगवान् विष्णु लक्ष्मीजीके साथ श्रेष्ठ विमानपर आरूढ़ होकर राजाके यहाँ पहुँचे ॥ 27 ॥

उस समय राजा हरिवर्माने भगवान् विष्णुको उत्तम विमानसे उतरते हुए देखा। भगवान्‌के दर्शनसे राजा अत्यन्त हर्षित हुए और दण्डकी भाँति उनके समक्ष पृथ्वीपर गिर पड़े ॥ 28 ॥

'हे वत्स! उठो'- ऐसा कहकर भगवान् विष्णुने भूमिपर पड़े हुए अपने भक्तको आश्वासन दिया । इसके बाद राजा हरिवर्मा भी उल्लसित होकर अपने सामने खड़े वासुदेवकी भक्तिपूर्वक स्पष्ट वाणीमें स्तुति करने लगे - ॥ 29 ॥

हे देवाधिदेव! हे अखिललोकनाथ ! हे कृपानिधे! हे लोकगुरो हे रमेश ! आपका जो दर्शन योगिजनोंके लिये भी अलभ्य है, वह मुझ अज्ञानीके लिये तो अत्यन्त ही दुर्लभ था ll 30 ll

जो लोग कामनारहित तथा विषयोंसे मुक्त हैं, उन्हें ही आपका दर्शन हो सकता है। हे भगवन्! हे अनन्त! हे देवदेव! केवल आशापरायण मैं वास्तवमें आपके दर्शनके योग्य नहीं था ॥ 31 ॥

इस प्रकार उन राजाके स्तुति करनेपर भगवान् विष्णुने अमृतमयी वाणीमें उनसे कहा- हे राजन् मैं तुम्हारी तपस्यासे प्रसन्न हूँ । अतः मैं तुम्हें मनोवांछित वरदान दूँगा; तुम माँग लो ॥ 32 ॥

तत्पश्चात् राजाने अपने सामने स्थित विष्णुके चरणोंमें सिर झुकाकर उनसे कहा- हे मुरारे! मैंने पुत्रप्राप्तिके लिये तपस्या की है। अतएव आप मुझे अपने ही सदृश पुत्र दीजिये ॥ 33 ॥राजाकी प्रार्थना सुनकर आदिदेव भगवान् विष्णुने राजासे सार्थक वचन कहा—हे ययातिनन्दन ! तुम इसी समय यमुना तथा तमसा नदीके उ पावन संगम तीर्थपर चले जाओ। हे राजन्! आप जैसा पुत्र चाहते हैं, वैसा ही पुत्र मैंने वहाँ रख दिया है। मेरे तेजसे प्रादुर्भूत वह पुत्र अमित प्रभाववाला है तथा लक्ष्मीजीने उसे उत्पन्न किया है। तुम्हारे लिये ही उसकी उत्पत्ति की गयी है, अतः तुम उसे ग्रहण करो ।। 34-35 ।।

भगवान् विष्णुकी अत्यन्त मधुर वाणी सुनकर राजाके मनमें प्रसन्नता हुई। राजाको यह वरदान देकर भगवान् विष्णु लक्ष्मीजीके साथ वैकुण्ठ चले गये ॥ 36 ॥

भगवान् विष्णुके चले जानेपर उन जनार्दनकी बात सुनकर आनन्दविभोर ययातिनन्दन राजा हरिवर्मा एक अप्रतिहत गति वाले रथपर आरूढ़ होकर उस स्थानपर गये, जहाँ बालक स्थित था ॥ 37 ॥

वहाँ पहुँचनेपर परम तेजस्वी राजाने उस अति मनोहर बालकको एक हाथसे पैरका कोमल अँगूठा मुखमें डालकर भूमिपर खेलता हुआ देखा ॥ 38 ॥ लक्ष्मीजीसे उत्पन्न भगवान् विष्णुके अंशस्वरूप तथा उन्हींके समान प्रभावशाली एवं कामदेवके सदृश रूपवान् उस पुत्रको देखकर राजा हरिवर्माका मुखारविन्द हर्षसे खिल उठा। उस बालकको अपने करकमलोंसे बड़ी तेजीसे उठाते हुए राजा हरिवर्मा प्रेमसागरमें मग्न हो गये। प्रसन्नतापूर्वक उसका मस्तक सूँघकर उन राजाने पुत्रका आलिंगन किया और अत्यन्त आनन्द प्राप्त किया ।। 39-40 ।।

उस बालकका अत्यन्त मनोहर मुख देखकर प्रेमके अनुसे रुँधे कण्ठवाले राजाने उससे कहा- हे | पुत्र | भगवान् विष्णु तथा माता लक्ष्मीके द्वारा तुम मेरे लिये प्रदान किये गये हो। हे पुत्र ! नरकभोगके दुःखसे भयभीत होकर मैंने तुम्हारे लिये पूरे सौ वर्षोंतक अत्यन्त कठोर तपस्या की है। उसी तपसे प्रसन्न होकर रमाकान्त विष्णुने सांसारिक सुख भोगनेके लिये तुम्हें पुत्ररूपमें मुझे प्रदान किया है ।। 41-42 ।।लक्ष्मीजी तुम्हारी जननी हैं; तुझ पुत्रको मेरे लिये छोड़कर वे भगवान् विष्णुके साथ वैकुण्ठ चली गयी हैं। अब वह माता धन्य होगी, जो तुझ जैसे हँसते हुए पुत्रको अपनी गोदमें लेकर आनन्द प्राप्त करेगी। हे पुत्र मेरे लिये संसारसागरको पार करनेके लिये तुम नौकास्वरूप हो, जिसे साक्षात् लक्ष्मीपति भगवान् विष्णुने उत्पन्न किया है। ऐसा कहकर राजा हरिवर्मा प्रसन्नतापूर्वक उस पुत्रको लेकर अपने घरकी ओर चले गये ।। 43-44 ॥

राजा नगरके समीप आ गये हैं- ऐसा सुनकर राजाके सभी सचिव तथा उनके प्रजावर्ग पुरोहितोंके साथ समस्त उपहार सामग्री लेकर उनके पास पहुँच गये ll 45 ll

सूत, बंदीजन तथा गायकगण भी राजाके सामने उनका यशोगान करते हुए शीघ्र ही आ गये नगरमें आकर राजा हरिवर्मा अपने सम्मुख उपस्थित लोगोंको [स्नेहभरी] दृष्टि तथा [मधुर] वचनोंसे आश्वस्त करके नगरवासियोंद्वारा भलीभाँति पूजित होकर पुत्रके साथ नगरीमें प्रविष्ट हुए। नगरमें जाते समय रास्तेभर राजाके ऊपर लाजा तथा फूलोंकी वर्षा की जा रही थी ।। 46-47 ।।

सचिवोंके साथ अपने समृद्धिशाली महलमें पहुँचनेपर राजाने हर्षपूर्वक कामदेवके तुल्य कान्तिमान् तथा मनोहर नवजात पुत्रको दोनों हाथोंमें लेकर रानीको दे दिया ॥ 48 ॥

उस बालकको गोदमें लेकर पुण्यात्मा रानीने राजासे पूछा- हे राजन्! कामदेवके समान सुन्दर तथा उत्तम कुलमें उत्पन्न इस पुत्रको आपने कहाँसे प्राप्त किया? हे कान्त! आप शीघ्र बताइये कि किसने | आपको यह बालक दिया है? इस पुत्रने अपने सौन्दर्यसे मेरे मनको वशीभूत कर लिया है। तब राजाने बड़ी प्रसन्नताके साथ कहा- हे प्रिये! हे चंचल नेत्रोंवाली! लक्ष्मीजीसे उत्पन्न तथा भगवान् जनार्दनका अंशस्वरूप यह महान् शक्तिशाली पुत्र मुझे स्वयं लक्ष्मीपति भगवान् विष्णुने ही दिया है। उस पुत्रको लेकर रानी परम आनन्दित हुई और राजाने अद्भुत उत्सव मनाया ॥ 49-51 ॥राजाने याचकोंको दान दिया। इस अवसरपर गीत गाये गये तथा अनेक वाद्य बजाये गये सम्यक् उत्सव करके राजाने अपने पुत्रका 'एकवीर'- यह प्रसिद्ध नाम रखा। वे सुख पाकर बहुत प्रसन्न हुए तथा आनन्दित हुए । इन्द्रके समान पराक्रमशाली राजा हरिवर्मा भगवान् विष्णुके सदृश रूपवान् तथा गुणी पुत्र पाकर वंशऋण (पितृऋण) - से मुक्त हो गये ॥ 52-53॥

इस प्रकार समस्त देवताओंके अधिपति भगवान् विष्णुके द्वारा अर्पित किये गये उस सर्वगुणसम्पन्न पुत्रको प्राप्त करके इन्द्रके समान प्रतापी राजा हरिवर्मा अपनी भार्याके साथ नानाविध सुख भोगते हुए तथा | विनोद करते हुए अपने महलमें रहने लगे ॥ 54 ॥

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देवी भागवत महापुराण
Index


  1. [अध्याय 1] त्रिशिराकी तपस्यासे चिन्तित इन्द्रद्वारा तपभंगहेतु अप्सराओंको भेजना
  2. [अध्याय 2] इन्द्रद्वारा त्रिशिराका वध, क्रुद्ध त्वष्टाद्वारा अथर्ववेदोक्त मन्त्रोंसे हवन करके वृत्रासुरको उत्पन्न करना और उसे इन्द्रके वधके लिये प्रेरित करना
  3. [अध्याय 3] वृत्रासुरका देवलोकपर आक्रमण, बृहस्पतिद्वारा इन्द्रकी भर्त्सना करना और वृत्रासुरको अजेय बतलाना, इन्द्रकी पराजय, त्वष्टाके निर्देशसे वृत्रासुरका ब्रह्माजीको प्रसन्न करनेके लिये तपस्यारत होना
  4. [अध्याय 4] तपस्यासे प्रसन्न होकर ब्रह्माजीका वृत्रासुरको वरदान देना, त्वष्टाकी प्रेरणासे वृत्रासुरका स्वर्गपर आक्रमण करके अपने अधिकारमें कर लेना, इन्द्रका पितामह ब्रह्मा और भगवान् शंकरके साथ वैकुण्ठधाम जाना
  5. [अध्याय 5] भगवान् विष्णुकी प्रेरणासे देवताओंका भगवतीकी स्तुति करना और प्रसन्न होकर भगवतीका वरदान देना
  6. [अध्याय 6] भगवान् विष्णुका इन्द्रको वृत्रासुरसे सन्धिका परामर्श देना, ऋषियोंकी मध्यस्थतासे इन्द्र और वृत्रासुरमें सन्धि, इन्द्रद्वारा छलपूर्वक वृत्रासुरका वध
  7. [अध्याय 7] त्वष्टाका वृत्रासुरकी पारलौकिक क्रिया करके इन्द्रको शाप देना, इन्द्रको ब्रह्महत्या लगना, नहुषका स्वर्गाधिपति बनना और इन्द्राणीपर आसक्त होना
  8. [अध्याय 8] इन्द्राणीको बृहस्पतिकी शरणमें जानकर नहुषका क्रुद्ध होना, देवताओंका नहुषको समझाना, बृहस्पतिके परामर्शसे इन्द्राणीका नहुषसे समय मांगना, देवताओंका भगवान् विष्णुके पास जाना और विष्णुका उन्हें देवीको प्रसन्न करनेके लिये अश्वमेधयज्ञ करने को कहना, बृहस्पतिका शचीको भगवतीकी आराधना करनेको कहना, शचीकी आराधनासे प्रसन्न होकर देवीका प्रकट होना और शचीको इन्द्रका दर्शन होना
  9. [अध्याय 9] शचीका इन्द्रसे अपना दुःख कहना, इन्द्रका शचीको सलाह देना कि वह नहुषसे ऋषियोंद्वारा वहन की जा रही पालकीमें आनेको कहे, नहुषका ऋषियोंद्वारा वहन की जा रही पालकीमें सवार होना और शापित होकर सर्प होना तथा इन्द्रका पुनः स्वर्गाधिपति बनना
  10. [अध्याय 10] कर्मकी गहन गतिका वर्णन तथा इस सम्बन्धमें भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुनका उदाहरण
  11. [अध्याय 11] युगधर्म एवं तत्सम्बन्धी व्यवस्थाका वर्णन
  12. [अध्याय 12] पवित्र तीर्थोका वर्णन, चित्तशुद्धिकी प्रधानता तथा इस सम्बन्धमें विश्वामित्र और वसिष्ठके परस्पर वैरकी कथा, राजा हरिश्चन्द्रका वरुणदेवके शापसे जलोदरग्रस्त होना
  13. [अध्याय 13] राजा हरिश्चन्द्रका शुनःशेपको यज्ञीय पशु बनाकर यज्ञ करना, विश्वामित्रसे प्राप्त वरुणमन्त्र जपसे शुनःशेपका मुक्त होना, परस्पर शापसे विश्वामित्र और वसिष्ठका बक तथा आडी होना
  14. [अध्याय 14] राजा निमि और वसिष्ठका एक-दूसरेको शाप देना, वसिष्ठका मित्रावरुणके पुत्रके रूपमें जन्म लेना
  15. [अध्याय 15] भगवतीकी कृपासे निमिको मनुष्योंके नेत्र पलकोंमें वासस्थान मिलना तथा संसारी प्राणियोंकी त्रिगुणात्मकताका वर्णन
  16. [अध्याय 16] हैहयवंशी क्षत्रियोंद्वारा भृगुवंशी ब्राह्मणोंका संहार
  17. [अध्याय 17] भगवतीकी कृपासे भार्गव ब्राह्मणीकी जंघासे तेजस्वी बालककी उत्पत्ति, हैहयवंशी क्षत्रियोंकी उत्पत्तिकी कथा
  18. [अध्याय 18] भगवती लक्ष्मीद्वारा घोड़ीका रूप धारणकर तपस्या करना
  19. [अध्याय 19] भगवती लक्ष्मीको अश्वरूपधारी भगवान् विष्णुके दर्शन और उनका वैकुण्ठगमन
  20. [अध्याय 20] राजा हरिवर्माको भगवान् विष्णुद्वारा अपना हैहयसंज्ञक पुत्र देना, राजाद्वारा उसका 'एकवीर' नाम रखना
  21. [अध्याय 21] आखेटके लिये वनमें गये राजासे एकावलीकी सखी यशोवतीकी भेंट, एकावलीके जन्मकी कथा
  22. [अध्याय 22] यशोवतीका एकवीरसे कालकेतुद्वारा एकावलीके अपहृत होनेकी बात बताना
  23. [अध्याय 23] भगवतीके सिद्धिप्रदायक मन्यसे दीक्षित एकवीरद्वारा कालकेतुका वध, एकवीर और एकावलीका विवाह तथा हैहयवंशकी परम्परा
  24. [अध्याय 24] धृतराष्ट्रके जन्मकी कथा
  25. [अध्याय 25] पाण्डु और विदुरके जन्मकी कथा, पाण्डवोंका जन्म, पाण्डुकी मृत्यु, द्रौपदीस्वयंवर, राजसूययज्ञ, कपटद्यूत तथा वनवास और व्यासजीके मोहका वर्णन
  26. [अध्याय 26] देवर्षि नारद और पर्वतमुनिका एक-दूसरेको शाप देना, राजकुमारी दमयन्तीका नारदसे विवाह करनेका निश्चय
  27. [अध्याय 27] वानरमुख नारदसे दमयन्तीका विवाह, नारद तथा पर्वतका परस्पर शापमोचन
  28. [अध्याय 28] भगवान् विष्णुका नारदजीसे मायाकी अजेयताका वर्णन करना, मुनि नारदको मायावश स्त्रीरूपकी प्राप्ति तथा राजा तालध्वजका उनसे प्रणय निवेदन करना
  29. [अध्याय 29] राजा तालध्वजसे स्त्रीरूपधारी नारदजीका विवाह, अनेक पुत्र-पौत्रोंकी उत्पत्ति और युद्धमें उन सबकी मृत्यु, नारदजीका शोक और भगवान् विष्णुकी कृपासे पुनः स्वरूपबोध
  30. [अध्याय 30] राजा तालध्वजका विलाप और ब्राह्मणवेशधारी भगवान् विष्णुके प्रबोधनसे उन्हें वैराग्य होना, भगवान् विष्णुका नारदसे मायाके प्रभावका वर्णन करना
  31. [अध्याय 31] व्यासजीका राजा जनमेजयसे भगवतीकी महिमाका वर्णन करना