इन्द्र बोले- पूर्वकालमें राजाने वरुणदेवसे यह प्रतिज्ञा की थी कि मैं अपने प्रिय पुत्रको यज्ञीय पशु बनाकर यज्ञ करूँगा - यह उन्होंने बड़ा साहस किया था ॥ 1 ॥
हे महामते! तुम्हारे वहाँ जानेपर रोगसे दुःखी तुम्हारे निर्दयी पिता तुम्हें यज्ञीय पशु बनाकर यूपमें बाँधकर मार डालेंगे ॥ 2 ॥
अमित तेजस्वी इन्द्रके द्वारा इस प्रकार रोक दिये जानेपर मायेश्वरीकी मायासे अत्यन्त मोहित होकर वह राजपुत्र वहीं रुक गया ॥ 3 ॥
इस प्रकार जब-जब वह पिताको रोगसे पीड़ित | सुनकर जानेका विचार करता था, तब-तब इन्द्र उसे | रोक देते थे ॥ 4 ॥एक दिन राजा हरिश्चन्द्रने अत्यन्त दुःखी होकर एकान्तमें बैठे हुए सर्वज्ञ और कल्याणकारी गुरु वसिष्ठके पास जाकर पूछा- ॥ 5 ॥
राजा बोले- हे भगवन्! मैं क्या करूँ? मैं अत्यन्त भयभीत और कष्टसे पीड़ित हूँ। इस महाव्याधिसे पीड़ित मुझ दुःखितचित्तकी रक्षा कीजिये ॥ 6 ॥
वसिष्ठजी बोले- हे राजन् ! सुनिये, रोगनाशका एक प्रशस्त उपाय है। धर्मशास्त्रमें तेरह प्रकारके पुत्र कहे गये हैं ॥ 7 ॥ इसलिये किसी ब्राह्मणके उत्तम बालकको उसका मनोभिलषित धन देकर क्रय करके उसे ले आइये
और उत्तम यज्ञको सम्पन्न कीजिये ॥ 8 ॥
हे राजन् ! इस प्रकार यज्ञ करनेसे आपका रोग नष्ट हो जायगा और वरुणदेव भी हर्षित होकर प्रसन्नचित्त हो जायँगे ॥ 9 ॥
व्यासजी बोले- उनकी ऐसी बात सुनकर राजाने मन्त्री से कहा- हे महामते ! सभी स्थानोंमें प्रयत्नपूर्वक पता लगाइये ॥ 10 ॥
यदि कोई लोभी पिता अपने पुत्रको देता है तो वह जितना धन माँगे, उतना देकर उसे ले आइये 11 सब प्रकारसे प्रयास करके यज्ञके लिये ब्राह्मणबालक लाना ही चाहिये। मेरे कार्यमें तुम्हें किसी भी प्रकारका बुद्धिशैथिल्य नहीं करना चाहिये ॥ 12 ॥
तुम्हें प्रत्येक ब्राह्मणसे प्रार्थना करनी चाहिये कि धन लेकर राजाको पुत्र दे दीजिये, उसे यज्ञके लिये यज्ञीय पशु बनाना है ॥ 13 ॥
उन राजासे यह आदेश प्राप्तकर मन्त्रीने यज्ञकार्यके लिये राज्यके प्रत्येक गाँव तथा घरमें पता लगाया ॥ 14 ॥ इस प्रकार राज्यमें पता लगाते हुए उसे अजीगर्त नामक एक दुःखी और निर्धन ब्राह्मण मिला, जिसके तीन पुत्र थे ॥ 15 ॥ उस ब्राह्मणने जितना धन माँगा, उतना देकर वह मन्त्रि श्रेष्ठ उसके मझले पुत्र शुनःशेपको ले आया ।। 16 ।।
कार्यकुशल मन्त्रीने पशुयोग्य ब्राह्मणपुत्र शुनःशेपको लाकर राजाको समर्पित कर दिया ॥ 17 ॥इससे अत्यन्त प्रसन्न होकर राजाने वेदज्ञ ब्राह्मणोंको बुलाकर यज्ञके लिये सामग्री एकत्र करवायी ।। 18 ।।
यज्ञके प्रारम्भ होनेपर महामुनि विश्वामित्रने वहाँ शुनःशेपको बँधा देखकर राजाको मना करते हुए कहा- ॥ 19 ॥
हे राजन्! ऐसा साहस न कीजिये, इस ब्राह्मणबालकको छोड़ दीजिये। हे आयुष्मन् ! मैं प्रार्थना करता हूँ, इससे आपको सुखकी प्राप्ति होगी ॥ 20 ॥
यह शुनःशेप क्रन्दन कर रहा है, अतः करुणा मुझे बहुत व्यथित कर रही है। हे राजेन्द्र ! मेरी बात मानिये; हे नृप दयावान् बनिये ॥ 21 ॥
पूर्वकालमें स्वर्गके इच्छुक, पवित्रव्रती तथा दयापरायण जो क्षत्रियगण थे, वे दूसरोंके शरीरकी रक्षाके लिये अपने प्राण दे देते थे और आप अपने | शरीरकी रक्षाके लिये बलपूर्वक ब्राह्मणपुत्रका वध कर रहे हैं। हे राजेन्द्र पाप मत कीजिये और इस बालकपर दयावान् होइए ॥ 22-23 ॥
हे राजन्! अपने देहके प्रति सभीको एक जैसी प्रीति होती है- यह बात आप स्वयं जानते हैं। यदि आप मेरी बातको प्रमाण मानते हैं तो इस बालकको छोड़ दीजिये ॥ 24 ॥ व्यासजी बोले – दुःखसे अत्यन्त पीड़ित राजाने
मुनिकी बातका अनादर करके उस बालकको नहीं छोड़ा; इससे वे तपस्वी मुनि उनके ऊपर अत्यन्त क्रुद्ध हो गये॥ 25 ॥
वेदवेत्ताओंमें श्रेष्ठ उन दयालु विश्वामित्रने शुनःशेपको पाशधारी वरुणदेवके मन्त्रका उपदेश दिया। अपने वधके भयसे व्याकुल शुनःशेप भी वरुणदेवका स्मरण करते हुए उच्च स्वरसे बार-बार मन्त्रका जप करने लगा ॥ 26-27 ॥
जलचरोंके अधिपति करुणासिन्धु वरुणदेवने वहाँ आकर स्तुति करते हुए उस ब्राह्मणपुत्र शुनःशेपको छुड़ा दिया और राजाको रोगमुक्त करके वे वरुणदेव अपने लोकको चले गये। विश्वामित्रने उस बालकको मृत्युसे मुक्ति प्रदान कर दी ।। 28-29 ll राजाने महात्मा विश्वामित्रकी बात नहीं मानी, | अतः वे गाधिपुत्र विश्वामित्र मन-ही-मन राजाके ऊपर बहुत क्रुद्ध हुए ।। 30 ।। एक समय राजा घोड़े पर सवार होकर वनमें गये। वे सूअरको मारनेकी इच्छासे ठीक दोपहरके समय कौशिकी नदीके तटपर पहुँचे ॥ 31 ॥ वहाँ विश्वामित्रने वृद्ध ब्राह्मणका वेश धारण करके छलपूर्वक उनका सर्वस्व माँग लिया और उनके महान् राज्यपर अपना अधिकार कर लिया ॥ 32 ॥ जिससे [ वसिष्ठके] यजमान राजा हरिश्चन्द्र अत्यन्त कष्ट पाने लगे। एक बार संयोगवश वनमें आये हुए विश्वामित्रसे वसिष्ठने कहा- हे क्षत्रियाधम! हे दुर्बुद्धे! तुमने व्यर्थ ही ब्राह्मणका वेश बना रखा है, बगुलेके समान वृत्तिवाले हे दाम्भिक ! तुम व्यर्थमें गर्व क्यों करते हो ? ।। 33-34 ll
हे जाल्म! तुमने मेरे यजमान नृपश्रेष्ठ हरिश्चन्द्रको बिना अपराधके महान् कष्टमें क्यों डाल दिया ? ।। 35 ।। तुम बगुलेके समान ध्यानपरायण हो। अतः तुम 'बक' (बगुला) हो जाओ। वसिष्ठके द्वारा इस प्रकार शापप्राप्त विश्वामित्रने उनसे कहा- हे आयुष्मन् ! जबतक मैं बक रहूँगा, तबतक तुम भी आडी पक्षी | बनकर रहोगे ॥ 363 ॥
व्यासजी बोले- इस प्रकार क्रोधसे व्याकुल उन दोनोंने एक-दूसरेको शाप दे दिया और एक सरोवरके समीप वे दोनों मुनि 'आडी' और 'बक' के रूपमें अण्डोंसे उत्पन्न हुए। दिव्य मानसरोवरके तटपर एक वृक्षपर घोंसला बनाकर बकरूपधारी विश्वामित्र और एक दूसरे वृक्षपर उत्तम घोंसला बनाकर आडीरूपधारी वसिष्ठ परस्पर द्वेषपरायण होकर रहने लगे। वे दोनों कोपाविष्ट होकर प्रतिदिन घोर क्रन्दन करते हुए सभी लोगोंके लिये दुःखदायी युद्ध करते थे। वे दोनों चोंच और पंखोंके प्रहार तथा नखोंके आघातसे परस्पर चोट | पहुँचाते थे। रक्तसे लथपथ वे दोनों खिले हुए किंशुकके फूल जैसे प्रतीत होते थे हे महाराज! इस प्रकार पक्षीरूपधारी दोनों मुनि शापरूपी पाशमें जकड़े हुए वहाँ बहुत वर्षोंतक पड़े रहे । 37-423 ॥
राजा बोले- हे विप्रर्षे। वे दोनों मुनिश्रेष्ठ वसिष्ठ और विश्वामित्र शापसे किस प्रकार मुक्त हुए, यह मुझे बताइये, मुझे बड़ा कौतूहल है ॥ 433 ॥व्यासजी बोले- लोकपितामह ब्रह्माजी उन दोनोंको युद्ध करते देखकर समस्त दयापरायण देवताओंक | साथ वहाँ आये। सृष्टिकर्ता ब्रह्माजीने उन दोनोंको समझाकर युद्धसे विरत करके परस्पर दिये गये शापसे भी मुक्त कर दिया ॥ 44-453 ॥
इसके बाद सभी देवगण अपने-अपने लोकोंको चले गये, कमलयोनि प्रतापी ब्रह्माजी शीघ्र हंसपर आरूढ़ होकर सत्यलोकको चले गये और प्रजापतिके उपदेशसे परस्पर स्नेह करके विश्वामित्र तथा वसिष्ठजी भी अपने अपने आश्रमोंको शीघ्र चले गये। हे राजन् ! इस प्रकार मैत्रावरुणि वसिष्ठने भी अकारण ही विश्वामित्रके साथ परस्पर दुःखप्रद युद्ध किया था ॥ 46 - 483 ॥
इस संसारमें मनुष्य, देवता या दैत्य-कौन ऐसा है, जो अहंकारपर विजय प्राप्तकर सदा सुखी रह सके। अतः हे राजन्! चित्तकी शुद्धि महापुरुषोंके लिये भी दुर्लभ है। उसे प्रयत्नपूर्वक शुद्ध करना चाहिये; उसके बिना तीर्थयात्रा, दान, तपस्या, सत्य आदि जो कुछ भी धर्मसाधन है; वह सब निरर्थक है ।। 49-51॥
(सबके देहोंमें तथा प्राणियोंके धर्मकर्मों में सात्त्विकी, | राजसी और तामसी - यह तीन प्रकारकी श्रद्धा कही गयी है। इनमें यथोक्त फल देनेवाली सात्त्विकी श्रद्धा जगत् सदा दुर्लभ होती है। विधिविधानसे युक्त राजसी श्रद्धा उसका आधा फल देनेवाली कही गयी है। हे राजन् ! काम-क्रोधके वशीभूत पुरुषोंकी श्रद्धा तामसी होती है। हे नृपश्रेष्ठ ! वह फलविहीन होती है और कीर्ति करनेवाली भी नहीं होती ।)
कलियुगके दोषोंसे भयभीत व्यक्तिको कथा श्रवण आदिके द्वारा चित्तको वासनारहित करके देवीकी पूजामें तत्पर रहते हुए, वाणीसे देवीके नामोंको ग्रहण करते हुए, उनके गुणोंका कीर्तन करते हुए तथा उनके चरण-कमलका ध्यान करते हुए तीर्थ आदिमें नित्य वास करना चाहिये ॥ 52-53 ॥
ऐसा करनेसे उसे कभी कलियुगका भय नहीं होगा, इससे पापी प्राणी भी अनायास ही संसारसे मुक्त हो जाता है ॥ 54 ॥