व्यासजी बोले [हे राजन्!] वरुणदेवके चले जानेपर राजा हरिश्चन्द्र [जलोदर] रोगसे अत्यन्त पीड़ित हुए; एक पर एक महान् कष्ट पाकर वे अति व्याकुल हो उठे ॥ 1 ॥
हे राजन् । वनमें स्थित राजकुमार रोहितने अपने पिताके [जलोदर] रोगसे पीड़ित होनेकी बात सुनकर स्नेहमें बँधे होनेके कारण [अयोध्या] लौट जानेका विचार किया ॥ 2 ॥
एक वर्ष बीतनेपर जब रोहितने अपने पिताका आदरपूर्वक दर्शन करनेके लिये अयोध्या जानेकी इच्छा | की तब यह जानकर इन्द्र उसके पास पहुँचे। शीघ्र ही ब्राह्मणका रूप धारण करके इन्द्रने अपने पिताके दर्शनार्थ जानेको उद्यत राजकुमारको युक्तिपूर्वक रोका 3-4 ॥इन्द्र बोले- हे राजपुत्र! आप अत्यन्त दुष्कर राजनीतिके विषयमें नहीं जानते, इसीलिये मूर्खताको प्राप्त आपने अयोध्या जानेका व्यर्थ ही विचार किया है ॥ 5 ॥
हे महाभाग ! [आपके वहाँ जानेपर] आपके पिता वेदोंक पारगामी ब्राह्मणोंक द्वारा कराये गये यज्ञमें प्रज्वलित अग्निमें आपकी आहुति दे देंगे ॥ 6 ॥ हे तात! अपना प्राण सभी जीवोंको अवश्य ही अत्यन्त प्रिय होता है। उसीकी रक्षाके लिये पुत्र, स्त्री और धन आदि प्रिय लगते हैं ॥ 7 ॥
अपने शरीरकी रक्षाके निमित्त आप जैसे प्रिय पुत्रका अग्निमें हवन करवाकर वे रोगसे मुक्त हो जायेंगे। अतएव हे राजपुत्र! इस समय आपको पिताके घर नहीं जाना चाहिये। पिताके मर जानेपर ही राज्य करनेके लिये आप वहाँ जायँ ॥ 8-9 ॥
[हे राजन्!] इस प्रकार इन्द्रके मना कर देनेपर राजकुमार रोहित उस वनमें एक वर्षतक रुके रह गये ॥ 10 ॥
इसके बाद राजकुमारने जब सुना कि मेरे पिता अब बहुत दुःखी हैं, तब उसने मर जानेका निश्चय करके उनके पास जानेका दृढ़ विचार कर लिया ॥ 11 ॥ तब इन्द्रने पुनः ब्राह्मणका रूप धारण करके वहाँ आकर राजकुमारको अपनी तर्कसंगत बातोंसे बार बार समझाकर उसे अयोध्या जानेसे रोक दिया ॥ 12 ॥ इधर, कष्टसे अत्यधिक पीड़ित राजा हरिश्चन्द्रने अपने पुरोहित वसिष्ठजीसे इस रोगके नाशका निश्चित उपाय पूछा 13 ॥
इसपर ब्रह्मापुत्र वसिष्ठजीने कहा- हे नृपश्रेष्ठ! अब आप धनके द्वारा खरीदे गये पुत्रसे यज्ञ कीजिये; इससे आप शापसे मुक्त हो जायँगे ॥ 14 ॥
हे नृपश्रेष्ठ! वेदके पारगामी ब्राह्मणोंने दस प्रकारके पुत्र बतलाये हैं। अतः आप अपने द्रव्यसे क्रीत एक बालकको ले आकर उसे अपना पुत्र बना लीजिये। इससे वरुणदेव भी प्रसन्न होकर आपके लिये सुखकारी हो जायँगे। आपके राज्यका | कोई-न-कोई द्विज धनके लोभसे अपना पुत्र बेच भी देगा ।। 15-16 ।महात्मा वसिष्ठजीकी बातसे परम प्रसन्नताको प्राप्त राजा हरिश्चन्द्रने वैसा बालक ढूँढ़नेके उद्देश्यसे अपने प्रधान अमात्यको भेज दिया ॥ 17 ॥ राजा हरिश्चन्द्रके राज्यमें अजीगर्त नामक कोई
ब्राह्मण रहता था। अति निर्धन उस ब्राह्मणके तीन पुत्र थे पुत्र खरीदनेके लिये गये हुए प्रधान सचिवने उस | दुर्बल ब्राह्मणसे कहा- मैं आपको एक सौ गायें दूंगा: आप अपना पुत्र यज्ञके लिये मुझे दे दीजिये। 'शुनःपुच्छ', 'शुनःशेप' तथा 'शुनोलांगूल' नामक जो आपके तीन पुत्र हैं, उनमेंसे कोई एक मुझे दे दीजिये और उसके बदले मैं आपको एक सौ गायें दे दूंगा। यह सुनकर भूखसे अत्यधिक व्याकुल अजीगर्तने उनमेंसे किसी एक पुत्रको बेच डालनेका मनमें निश्चय कर लिया ।। 18-21 ।।
ज्येष्ठ पुत्र पिण्डदान आदि कमका अधिकारी होता है-ऐसा सोचकर अजीगर्तने उसे नहीं दिया। कनिष्ठ पुत्रको ममताके कारण माताने यह कहकर नहीं दिया कि यह मेरा है। अतः अजीगर्तने एक सौ गायें लेकर अपने मँझले पुत्र शुनःशेपको बेच दिया। तब मन्त्री उसे राजाके पास ले गये और राजाने उसे यज्ञमें बलिपशु बनाया 22-23 ॥
यज्ञीय स्तम्भमें वधके निमित्त बाँधे गये उस बालकको रोते हुए, दुःखित, दीन, भयके मारे थर थर काँपते हुए तथा अत्यधिक व्याकुल देखकर उस समय ऋषिगण भी चिल्ला उठे ll 24 ॥
तभी राजा हरिश्चन्द्रने नरमेध यज्ञमें वध करनेके लिये उस बालकको पशुरूपसे शामित्र (वधकर्ता) - को सौंप दिया, किंतु उसने आलम्भनके लिये उसपर शस्त्र नहीं चलाया। उस समय उसने यह भी कहा "मैं दुःखित तथा करुण स्वरसे बहुत विलाप करते हुए इस ब्राह्मणपुत्रको धनके लोभमें आकर नहीं मारूँगा'। ऐसा कहकर वह उस घृणित कर्मसे विरत हो गया। तब राजा हरिश्चन्द्रने सभासदोंसे पूछा- 'हे विप्रगण ! अब क्या किया जाय ?' ।। 25-27 ll
उसी समय शुनःशेपके बड़े विचित्र ढंगसे करुण क्रन्दन करनेपर सभामें चीखती-चिल्लाती जनताके बीच हाहाकार मच गया ॥ 28 ॥तभी अजीगर्त उठकर उन 'नृपश्रेष्ठसे बोला | हे राजन्! आप निश्चिन्त रहें, मैं स्वयं आपका यह कार्य करूँगा। उस (वधकर्ता) को दिये जानेवाले | धनसे दूना धन मुझे दीजिये, तो मैं इस बलिपशुका वध अवश्य कर दूँगा। धन-लोलुप होनेके कारण मैं आज आपका यज्ञकार्य निश्चित रूपसे पूर्ण कर दूँगा: जो दुःखी है अथवा धनका लोभी है, उसके गुणोंमें भी दोष आ जाते हैं ।। 29-306 ।।
व्यासजी बोले- हे राजन् ! अजीगर्तकी यह बात सुनकर राजा हरिश्चन्द्र बहुत प्रसन्न हुए और उससे बोले कि मैं अभी एक सौ श्रेष्ठ गायें आपको दूँगा ॥ 313 ॥
उनकी यह बात सुनकर अजीगर्त अपने पुत्र शुनःशेपका वध करने हेतु तैयार हो गया। लोभके कारण उद्विग्न चित्तवाले अजीगर्तने शामिता बननेका पूर्ण निश्चय कर लिया ॥ 323 ॥
उसे हथियार उठाकर अपने पुत्रको मारनेहेतु उद्यत देखकर वहाँ उपस्थित सभासद्गण तथा सारी जनता दुःखसे विकल होकर चीखने-चिल्लाने लगी तथा हाय-हाय करते हुए कहने लगी कि ब्राह्मणके रूपमें यह पिशाच, महापापी तथा क्रूर कर्म करनेवाला है; यह अपने कुलको कलंकित करता हुआ स्वयं अपने ही पुत्रका वध करनेके लिये उद्यत है। हे चाण्डाल ! तुम्हें धिक्कार है, तुमने यह पापकर्म करनेकी इच्छा क्यों की? पुत्रका वध करनेके बाद धन प्राप्त करके तुम कौन-सा सुख पा जाओगे ? वेदोंमें कहा गया है कि पुत्ररूपमें अपनी आत्मा ही शरीरसे जन्म लेती है, इसलिये हे पापबुद्धि ! तुम अपनी ही आत्माका वध किसलिये करना चाहते हो ? । यज्ञस्थलमें इस प्रकारका कोलाहल होनेपर विश्वामित्रजी दयार्द्र हो गये और वे राजा हरिश्चन्द्रके पास जाकर उनसे कहने लगे ॥ 33-373 ॥
विश्वामित्र बोले- हे राजन्! अत्यधिक दुःखित होकर करुण क्रन्दन करते हुए इस शुनः शेपको आप पाशमुक्त कर दीजिये। ऐसा करने से एक तो यज्ञ पूरा होगा और आपका रोग भी दूर हो जायगा ॥ 383 ॥दयाके समान कोई पुण्य नहीं है और हिंसाके समान कोई पाप नहीं है। यज्ञोंमें हिंसा करनेका जो विधिवाद बना, उसका उद्देश्य जिह्यलोलुपेकि जिह्वास्वादकी पूर्तिके माध्यमसे उनमें यज्ञ करनेकी प्रवृत्ति बढ़ाना है, किंतु यथासम्भव हिंसासे विरत रहना ही शास्त्रका आशय है* ॥ 396 ॥
हे महाराज! सब प्रकारसे अपना कल्याण चाहनेवाले व्यक्तिको अपने शरीरकी रक्षाके लिये दूसरेके शरीरको विनष्ट नहीं करना चाहिये ॥ 403 ॥ | जो सभी प्राणियोंके प्रति दयाभाव रखता है, जो कुछ भी प्राप्त हो जाय; उसीसे सन्तोष करता और अपनी इन्द्रियोंको वशमें रखता है, उसके ऊपर जगत्पति भगवान् श्रीविष्णु शीघ्र प्रसन्न हो जाते हैं ॥ 413 ॥ हे नृपश्रेष्ठ ! सभी प्राणियोंमें आत्मभावका चिन्तन करना चाहिये। जिस प्रकार अपनेको देह प्रिय होती है, उसी प्रकार सभी जीवोंको अपना शरीर प्रिय होता है। आप इस शुनःशेप द्विजका वध करके शरीरको रोगमुक्त करके सुख प्राप्त करना चाहते हैं, तो यह बालक सुखके आश्रयस्वरूप अपने देहको क्यों नहीं बचाना चाहेगा ll 42-433 ॥
हे नृप ! इसके साथ आपका पूर्वजन्मका कोई वैर नहीं है, जो कि आप इस निरपराध द्विजपुत्रका वध करनेके इच्छुक हैं। जो व्यक्ति सदा अपनी कामनाकी पूर्तिके लिये बिना वैरभावके ही किसी प्राणीका वध करता है, दूसरी योनिमें जन्म लेकर वही जीव अपने संहर्ताका वध करता है ॥ 44-453 ॥ इस बालकका पिता अत्यन्त दुष्टात्मा, दुर्बुद्धि तथा पापाचारी है, जिसने धनके लोभमें अपने ही
पुत्रको आपके हाथों बेच डाला ॥ 463 ॥
लोगोंको यह इच्छा रखनी चाहिये कि मेरे बहुतसे पुत्र हों, जिससे उनमें से कोई एक भी पुत्र गयातीर्थ जाय, अश्वमेधयज्ञ करे अथवा नील वृषभ छोड़े ॥ 473 ॥[हे राजन् [] राज्यमें जो कोई भी व्यक्ति पापकर्म करता है तो उसके पापका छठाँ अंश राजाको भोगना पड़ता है; इसमें कोई सन्देह नहीं है। अतः राजाको चाहिये कि पापकर्म करनेके लिये उद्यत उस व्यक्तिको मना करे, तो फिर आपने पुत्रको बेचनेके लिये तत्पर उस अजीगर्तको क्यों नहीं रोका ? ॥। 48-493 ॥
हे राजन् । आप सूर्यवंशमें उत्पन्न हुए हैं और महाराज त्रिशंकुके कल्याणकारी पुत्र हैं। आप आर्य होकर भी अनार्यों-जैसा कर्म करना चाहते हैं ? ॥ 503 ॥
हे राजन् ! मेरी बात मानकर मुनिपुत्र शुनःशेषको बन्धनमुक्त कर देनेसे आपका देह अवश्य ही रोगमुक्त हो जायगा ॥ 51 ॥
महर्षि वसिष्ठके शापके कारण आपके पिता चाण्डाल हो गये थे, तब मैंने उसी देहसे उन्हें स्वर्गलोक पहुँचा दिया था। हे राजन्। उसी उपकारको समझकर आप मेरी बात मान लीजिये और अत्यधिक विलाप करते हुए इस दीन तथा भयाकुल बालकको मुक्त कर दीजिये ॥ 52-533 ॥
हे राजन्! आपके इस राजसूययज्ञमें मैं आपसे मात्र इसकी प्राण-रक्षाकी याचना कर रहा हूँ। क्या आप प्रार्थनाभंगसे होनेवाले दोषके विषयमें नहीं जानते? हे नृपश्रेष्ठ! इस राजसूययज्ञमें प्रार्थीको उसकी कामनाके अनुकूल वस्तु दी जानी चाहिये। यदि आप ऐसा नहीं करेंगे तो आपको पाप ही लगेगा; इसमें सन्देह नहीं है ॥ 54-553 ।।
व्यासजी बोले- [हे राजा जनमेजय । ] विश्वामित्रकी यह बात सुनकर राजाओंमें श्रेष्ठ हरिश्चन्द्रने मुनिवर विश्वामित्रसे कहा- गाधिपुत्र मुने! मैं जलोदर रोगसे बहुत पीड़ित हूँ, इसलिये इस बालकको नहीं छोड़ सकता। हे कौशिक! इसके अतिरिक्त आप दूसरी | वस्तु माँग लीजिये और मेरे इस कार्यमें किसी तरहकी बाधा मत उत्पन्न कीजिये ॥ 56-58 ॥
राजा हरिश्चन्द्रकी यह बात सुनकर तथा दुःखित ब्राह्मण-पुत्र शुनःशेपको देखकर मुनि विश्वामित्र अत्यधिक कुपित हो उठे ॥ 59 ॥