व्यासजी बोले- हे राजन्! हे अनघ! आपने मुझसे जो-जो पूछा था, वह मैंने आपको बता दिया, जिसे पूर्वमें नारायणने महात्मा नारदसे कहा था ॥ 1 ॥ महादेवीका यह परम अद्भुत पुराण सुनकर मनुष्य कृतकृत्य हो जाता है और वह भगवतीका प्रियतम हो जाता है ॥ 2 ॥
हे राजेन्द्र ! चूँकि अपने पिताकी दुर्गतिके विषयमें जानकर आप अत्यन्त विषादग्रस्त हैं, अतएव हे राजन् ! अब आप अपने पिताके उद्धारके निमित्त देवीयज्ञ कीजिये। आप विधि-विधानके अनुसार महादेवीके सर्वोत्तमोत्तम मन्त्रकी दीक्षा ग्रहण कीजिये, जो मनुष्य जन्मको सार्थक कर देता है ॥ 3-4 ॥
सूतजी बोले- उसे सुनकर नृपश्रेष्ठ जनमेजयने मुनीन्द्र व्याससे प्रार्थना करके उन्हींसे विधिपूर्वक देवीके प्रणवसंज्ञक महामन्त्रकी दीक्षा ग्रहण की।तत्पश्चात् महाराजने नवरात्रके आनेपर धौम्य आदि मुनियोंको बुलाकर धनकी कृपणता किये बिना शीघ्रतापूर्वक अम्बायज्ञ आरम्भ कर दिया। इसमें उन्होंने भगवती जगदम्बाकी प्रसन्नताके लिये उनके समक्ष ब्राह्मणोंके द्वारा इस परम उत्तम देवीभागवत | महापुराणका पाठ कराया ॥ 5 – 73 ॥
इस यज्ञमें उन्होंने असंख्य ब्राह्मणों, सुवासिनी स्त्रियों, कुमारी कन्याओं, ब्रह्मचारियों, दीनों तथा अनाथोंको भोजन कराया। तत्पश्चात् धन-दानके द्वारा उन सभीको पूर्ण सन्तुष्ट करनेके बाद पृथ्वीपति जनमेजय यज्ञ समाप्त करके ज्यों ही अपने स्थानपर विराजमान हुए, उसी समय प्रज्वलित अग्निकी शिखाके समान तेजवाले देवर्षि नारद अपनी महती नामक वीणा बजाते हुए आकाशसे उतरे ॥ 8 - 103 ॥
उन नारदमुनिको देखकर आश्चर्यचकित हो महाराज जनमेजय अपने आसनसे उठ खड़े हुए और उन्होंने आसन आदि उपचारोंसे उनका पूजन किया। तत्पश्चात् वे कुशल-क्षेमसम्बन्धी प्रश्न करके उनके आनेका कारण पूछने लगे ॥ 11-12 ॥
राजा बोले- हे साधो ! आप कहाँसे आ रहे हैं ? आप मुझे यह बताइये कि मैं आपकी क्या सेवा करूँ ? मैं आपके आगमनसे सनाथ और कृतार्थ हो गया हूँ ॥ 13 ॥ राजाकी यह बात सुनकर मुनिश्रेष्ठ नारदने कहा- हे नृपश्रेष्ठ! आज मैंने देवलोकमें एक आश्चर्यजनक घटना देखी है। उसीको बतानेके लिये मैं विस्मित होकर आपके पास आया हूँ ॥ 143 ॥
अपने विपरीत कर्मोंके कारण आपके पिताजी दुर्गतिमें पड़े हुए थे। वे ही अब दिव्य शरीर धारण करके श्रेष्ठ विमानपर चढ़कर श्रेष्ठ देवताओं तथा अप्सराओंसे चारों ओरसे भलीभाँति स्तुत होते हुए मणिद्वीपको चले गये हैं । 15-163 ॥
इस देवीभागवतके श्रवणजनितफल तथा देवीयज्ञके फलसे ही आपके पिताजी उत्तम गतिको प्राप्त हुए हैं। हे कुलभूषण ! आप धन्य तथा कृतकृत्य हो गये हैं और आपका जीवन सफल हो गया। आपने नरकसे अपने पिताजीका उद्धार कर दिया है और आज देवलोकमें आपकी महान् कीर्ति और अधिक विस्तृत हो गयी है ।। 17-19 ॥सूतजी बोले - [हे मुनीश्वरो!] नारदजीका यह वचन सुनकर महाराज जनमेजयका हृदय प्रेमसे गद्गद हो गया और वे अद्भुत कर्मोंवाले व्यासजीके चरण-कमलोंपर गिर पड़े। [वे कहने लगे- ] हे देव! आपकी कृपासे ही मैं कृतार्थ हुआ हूँ। हे महामुने। नमस्कारके अतिरिक्त मैं आपके लिये विशेष कर ही क्या सकता हूँ। हे मुने! आप मुझपर इसी प्रकार अनुग्रह सदा करते रहें ।। 20-213 ॥
राजाका यह वचन सुनकर भगवान् बादरायण व्यासने अपने आशीर्वचनोंसे उनका अभिनन्दनकर मधुर वाणीमें कहा हे राजन्! सब कुछ त्याग करके आप भगवतीके चरणकमलोंकी उपासना कीजिये और दत्तचित्त होकर नित्य देवीभागवतपुराणका पाठ कीजिये। साथ ही नित्य आलस्यरहित होकर भक्तिपूर्वक | देवीयज्ञका अनुष्ठान कीजिये उसके फलस्वरूप आप भव-बन्धनसे अनायास ही छूट जायँगे । ll 22 - 243 ॥
यद्यपि विष्णुपुराण तथा शिवपुराण आदि अनेक पुराण हैं, किंतु वे इस देवीभागवतपुराणकी सोलहवीं कलाकी भी समता नहीं कर सकते। यह देवीभागवत समस्त वेदों तथा पुराणोंका सारस्वरूप है । ll 25-26 ॥
हे नृपश्रेष्ठ! जिस देवीभागवतमें साक्षात् मूल प्रकृतिका ही प्रतिपादन किया गया है, उसके समान अन्य कोई पुराण भला कैसे हो सकता है ? ॥ 27 ॥ हे जनमेजय! जिस देवीभागवतपुराणका पाठ करनेसे वेद पाठके समान पुण्य प्राप्त होता है, उसका पाठ श्रेष्ठ विद्वानोंको प्रयत्नपूर्वक करना चाहिये ॥ 28 ॥
उन नृपश्रेष्ठ जनमेजयसे ऐसा कहकर मुनिराज व्यास चले गये। उसके बाद विमलात्मा धौम्य आदि मुनि भी अपने-अपने स्थानोंको चले गये। उन्होंने | देवीभागवतकी ही श्रेष्ठ प्रशंसा की। तदनन्तर सन्तुष्ट मनवाले महाराज जनमेजय देवीभागवतपुराणका निरन्तर पाठ तथा श्रवण करते हुए पृथ्वीका शासन करने लगे । ll29-30 ॥