श्रीनारायण बोले- [हे नारद!] सूर्यसे दस हजार योजन नीचे राहुमण्डल कहा गया है। यह | सिंहिकापुत्र राहु योग्य न होनेपर भी नक्षत्रकी भाँतिविचरण करता रहता है। चन्द्रमा तथा सूर्यको पीड़ित करनेवाले इस सिंहिकापुत्र राहुने भगवान्की कृपासे ही अमर होने तथा आकाशमें विचरण करनेका सामर्थ्य प्राप्त किया है ॥ 1-2 ll
तेरह हजार योजन विस्तारवाला यह असुर दस हजार योजन विस्तारके बिम्बमण्डलवाले तपते सूर्यका तथा बारह हजार योजन विस्तृत मण्डलवाले चन्द्रमाका आच्छादक कहा गया है। पूर्वकालमें अमृतपानके समयके वैरको याद करके वह राहु अमावास्या और पूर्णिमाके पर्व पर उनका आच्छादक होता है। दूरसे ही वह राहु सूर्य तथा चन्द्रमाको आच्छादित करनेके लिये तत्पर होता है। यह बात जानकर भगवान् विष्णुने विशाल ज्वालाओंसे युक्त अपना अत्यन्त भयानक सुदर्शन नामक चक्र उन दोनों (सूर्य तथा चन्द्रमा) के पास भेज दिया था। उसके दुःसह तेजसे सूर्य और चन्द्रमाका मण्डल चारों ओरसे घिरा रहता है। इससे खिन्न तथा चकित मनवाला वह राहु बिम्बके पास जाकर और वहाँ क्षणभर रुककर फिर सहसा लौट आता है। हे देवर्षे ! जगत्में इसीको उपराग (ग्रहण) कहा जाता है-ऐसा आप समझिये ॥ 3-73 ॥
हे श्रेष्ठ ! उस राहुमण्डलसे भी नीचे सिद्धों, चारणों और विद्याधरोंके परम पवित्र लोक कहे गये हैं पुण्यात्मा पुरुषोंद्वारा सेवित ये लोक दस हजार योजन विस्तारवाले बताये गये हैं॥ 8-9 ॥
हे देवर्षे इन लोकोंके भी नीचे यक्षों, राक्षसों, पिशाचों, प्रेतों एवं भूतोंके उत्तम विहार स्थल हैं। इसके नीचे जहाँतक वायु चलती है। और जहाँतक मेम दिखायी पड़ते हैं, जानी तथा विद्वान् लोगोंके द्वारा वह अन्तरिक्ष कहा गया है ॥ 10-11 ॥
हे द्विजश्रेष्ठ! उसके नीचे सौ योजनकी दूरीपर, जहाँतक गरुड, बाज, सारस और हंस आदि पृथ्वीपर होनेवाले पार्थिव पक्षी उड़ सकते हैं, पृथ्वी बतायी गयी है। पृथ्वीके परिमाण तथा स्थितिका वर्णन पहले ही किया जा चुका है ॥ 12-13 ॥हे देवर्षे! इस पृथ्वीके नीचे सात विवर बताये गये हैं। इनमें प्रत्येक विवरकी लम्बाई तथा चौड़ाई दस-दस हजार योजन है और ये एक दूसरेसे दस दस हजार योजनकी दूरीपर स्थित कहे गये हैं; ये सभी ऋतुओंमें सुखदायक होते हैं ॥ 143 ॥
इनमें पहलेको अतल, दूसरेको वितल, तीसरेको सुतल, चौथेको तलातल, पाँचवेंको महातल, छठेको रसातल और सातवेंको पाताल कहा गया है। हे विप्र ! इस प्रकार ये सात विवर बताये गये हैं । 15-163 ॥
ये विवर एक प्रकारसे स्वर्ग ही हैं। अनेक उद्यानों तथा विहारस्थलियोंवाले तथा काम, भोग, ऐश्वर्य, सुख तथा समृद्धिसे युक्त यहाँके भुवनोंमें स्वर्गसे भी बढ़कर सुख तथा आस्वाद उपलब्ध है ॥ 17-18 ॥
वहाँ निवास करनेवाले महाबली दैत्य, नाग तथा दानव अपने स्त्री, पुत्रों तथा बन्धुओंके साथ सदा आनन्दित तथा प्रफुल्लित रहते हैं। वे अपने-अपने घरोंके स्वामी होते हैं। मित्र तथा अनुचर आदि सदा उनके पास विद्यमान रहते हैं। ईश्वर भी जिनकी इच्छाको विफल नहीं कर सकते, ऐसे वे अत्यन्त | मायावी सदा हृष्ट-पुष्ट रहते हुए सभी ऋतुओंमें सुखी रहते हैं ।। 19-20 3 ॥
मायाके स्वामी मय नामक दानवने उनमें अनेक पुरियोंका निर्माण कराया, जो श्रेष्ठ मणियोंसे जटित हजारों अद्भुत भवनों, अट्टालिकाओं, गोपुरों, सभाभवनों, प्रांगणों तथा वृक्षसमूहों आदिसे सुशोभित हैं; वे पुरियाँ देवताओंके लिये भी अति दुर्लभ हैं। जिनकी कृत्रिम भूमि ( फर्श ) - पर नागों तथा असुरोंके जोड़े और कबूतर - मैना आदि पक्षी विहार करते हैं-ऐसे विवराधीश्वरोंके मनोहर भवनोंसे अलंकृत वे पुरियाँ अतीव सुशोभित हो रही हैं। उनमें मनको मुग्ध करनेवाले, बड़े-बड़े सुन्दर फलों तथा फूलोंसे लदे हुए वृक्षोंवाले और कामिनियोंके विलासयोग्य स्थानोंसे अत्यधिक शोभा पानेवाले विशाल उद्यान विद्यमान हैं। उन उद्यानोंमें स्वच्छ जलसे परिपूर्ण रहनेवाले विशाल जलाशय हैं, जो विविध पक्षियोंके समूहोंके कलरवसे तथा पाठीन नामक मछलियोंसे सुशोभित रहते हैं। जलचर जन्तुओंके क्रीड़ा करनेपर जलके क्षुब्धहोनेसे उसमें उगे हुए कुमुद, उत्पल, कहार, नीलकमल तथा रक्तकमल हिलने लगते हैं। उन उद्यानोंमें स्थान बनाकर रहनेवाले पक्षी अपने विहारों तथा इन्द्रियोंको उत्साहित करनेवाली अपनी विविध ध्वनियोंसे उन्हें सदा निनादित किये रहते हैं ।। 21-28 ॥
वे पुरियाँ देवताओंके श्रेष्ठ ऐश्वर्यसे भी बढ़कर हैं। जहाँ कालके अंगभूत दिन-रातका कोई भय नहीं रहता और जहाँ बड़े-बड़े सर्पोंके मस्तकपर स्थित मणियोंकी रश्मियोंसे प्रस्फुटित कान्तिके द्वारा अन्धकार सदा मिटा रहता है ।। 29-30 ॥
इनमें निवास करनेवाले लोगोंको दिव्य ओषधियों, रसायनों, रस, अन्नपान एवं स्नान आदिकी कोई आवश्यकता नहीं रहती; उन्हें किसी प्रकारके भी | मानसिक या शारीरिक रोग नहीं होते; झुर्रियाँ पड़ने, बाल पकने, बुढ़ापा आ जाने, शरीरके विरूपित होने, पसीनेसे दुर्गन्ध निकलने, उत्साहहीन हो जाने और आयुके अनुसार शारीरिक अवस्थाओंमें परिवर्तन आने आदि विकार उन्हें कभी बाधित नहीं करते। हे ब्रह्मपुत्र नारद! उन कल्याणमय लोगोंको भगवान् श्रीहरिके तेजस्वी सुदर्शन चक्रके अतिरिक्त अन्य किसीसे भी भय नहीं रहता; जिस चक्रके वहाँ प्रवेश करते ही भयके कारण प्रायः दैत्योंकी स्त्रियोंका गर्भपात - गर्भस्राव * हो जाता है ॥ 31-34॥