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देवी भागवत महापुराण ( देवी भागवत)

Devi Bhagwat Purana (Devi Bhagwat Katha)

स्कन्ध 11, अध्याय 4 - Skand 11, Adhyay 4

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रुद्राक्षकी उत्पत्ति तथा उसके विभिन्न स्वरूपोंका वर्णन

नारदजी बोले - हे अनघ ! इस प्रकारका यह आपका महान् अनुग्रह है जो आपने रुद्राक्षके विषयमें बताया यह महान् लोगोंके लिये पूज्य है, इसका क्या कारण है, इसे बताइये ॥ 1 ॥

श्रीनारायण बोले- [हे नारद!] इसी तरहसे पूर्व कालमें षडानन स्कन्दकुमारने गिरिशायी भगवान् रुद्रसे पूछा था तब उन्होंने उनसे जो कहा था, उसे आप सुनिये ॥ 2 ॥

ईश्वर बोले- हे षडानन ! सुनो, मैं [रुद्राक्षके विषयमें संक्षेपमें यथार्थरूपसे वर्णन कर रहा हूँ। प्राचीन कालमें सभी लोगोंसे अपराजेय त्रिपुर नामक एक दैत्य था ॥ 3 ॥

उसने ब्रह्मा, विष्णु आदि सभी देवताओंको जीत लिया था तब सभी देवताओंके द्वारा उसके विषयमें मुझसे बतानेपर मैं समस्त देवताओंकी शक्तिसे सम्पन्न,
दिव्य, प्रज्वलित, भयानक रूपवाले तथा मनोहर अघोर नामक एक महान् अस्त्रके विषयमें कल्पना करने लगा ॥ 4-5 ॥

उस त्रिपुरके संहार तथा देवताओंके उद्धारके लिये मैं समस्त विघ्नोंका नाश करनेवाले उस अघोरास्त्रके लिये चिन्तन करता रहा और दिव्य एक हजार वर्षोंतक मैं नेत्र खोले रह गया। तत्पश्चात् अत्यन्त | आकुल मेरे नेत्रोंसे जलकी बूँदें गिरने लगीं ॥ 6-7 ॥

उन अश्रु-बिन्दुओंसे रुद्राक्षके बड़े-बड़े वृक्ष उत्पन्न हो गये। हे महासेन! मेरी आज्ञासे सभी लोगोंके कल्याणार्थ वे अड़तीस प्रकारके रुद्राक्ष हुए। मेरे सूर्यनेत्र (दाहिने नेत्र) से उत्पन्न रुद्राक्ष कपिलवर्णके थे, वे बारह प्रकारके कहे गये हैं। मेरे चन्द्रनेत्र (बायें नेत्र) से उत्पन्न रुद्राक्ष श्वेतवर्णवाले थे, वे क्रमसेसोलह प्रकारके हैं। इसी प्रकार अग्निनेत्र (तीसरे नेत्र) से उत्पन्न रुद्राक्ष कृष्णवर्णके थे, उनके दस भेद हैं ॥ 8-10 ॥

श्वेतवर्णका रुद्राक्ष जातिसे ब्राह्मण, रक्तवर्णका रुद्राक्ष क्षत्रिय, मिश्रवर्णका रुद्राक्ष वैश्य तथा कृष्णवर्णका
रुद्राक्ष शूद्र कहा जाता है ॥ 11 ॥

एकमुखी रुद्राक्ष साक्षात् शिवस्वरूप है, वह ब्रह्महत्या- तकके पापको मिटा देता है दोमुखी रुद्राक्ष देवी-देवता इन दोनों का स्वरूप है, वह दो प्रकारके पापोंका शमन करता है। तीन मुखवाला रुद्राक्ष साक्षात् अग्निस्वरूप है, वह स्त्री-वधजनित पापको क्षणभर में भस्म कर डालता है। चार मुखवाला रुद्राक्ष साक्षात् ब्रह्मास्वरूप है, वह नरवधजनित पापको दूर करता है ।। 12-13

पंचमुखी रुद्राक्ष साक्षात् कालाग्नि नामवाले रुद्रका स्वरूप है। पंचमुखी रुद्राक्षके धारण करने से मनुष्य अभक्ष्य वस्तुओंके भक्षणसे उत्पन्न होनेवाले तथा अगम्या नारीके साथ सहवास करनेसे लगे हुए सभी प्रकारके पापोंसे मुक्त हो जाता है ।। 143 ll

छः मुखवाला रुद्राक्ष कार्तिकेयका स्वरूप है, उसे दाहिने हाथमें धारण करना चाहिये। इसे धारण करनेसे मनुष्य ब्रह्महत्या आदि पापोंसे मुक्त हो जाता है; इसमें सन्देह नहीं है ॥ 153 ॥

सप्तमुखी रुद्राक्ष अनंग नामवाले महाभाग्यशाली कामदेवका रूप है। उसे धारण करनेसे मनुष्य स्वर्णकी चोरी आदि पापोंसे मुक्त हो जाता है ॥ 163 ॥

हे महासेन! आठ मुखवाला रुद्राक्ष साक्षात् विनायक देव है। इसे धारण करनेसे अन्न, वस्त्र तथा स्वर्ण आदिकी विपुल मात्रामें प्राप्ति होती है। धारण करनेपर यह रुद्राक्ष दूषित कुलकी स्त्री तथा गुरुपत्नीके साथ संसर्ग करनेसे लगनेवाले पापों और इसी प्रकारके अन्यान्य पापको भी नष्ट कर देता है उस मनुष्यकी सभी विघ्न-बाधाएँ विनष्ट हो जाती हैं तथा अन्तमें वह परमपदको प्राप्त होता है। ये सभी गुण अष्टमुखी रुद्राक्षके धारण करनेसे | फलीभूत होते हैं । ll 17-193 ॥नौ मुखवाला द्राक्ष भैरवस्वरूप है, इसे बायाँ भुजापर धारण करना चाहिये। यह भोग तथा मोक्ष देनेवाला बताया गया है। इसे धारण करनेवाला मेरे समान बलवान् हो जाता है। हजारों भ्रूणहत्या तथा सैकड़ों ब्रह्महत्या के पाप इस नौमुखी रुद्राक्षके धारण करनेसे शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं । ll 20-213 ॥

दसमुखी रुद्राक्ष साक्षात् देवेश्वर जनार्दन है। इस दस मुखवाले रुद्राक्षके धारण करनेसे ग्रहों, पिशाचों, बेतालों, ब्रह्मराक्षसों तथा पन्नगोंसे उत्पन्न होनेवाले विघ्न शान्त हो जाते हैं । ll 22-23 ॥

ग्यारह मुखवाला रुद्राक्ष साक्षात् एकादश रुद्र है। जो मनुष्य इसे शिखामें धारण करता है, उसके पुण्यफलके विषयमें सुनो। मनुष्य हजारों अश्वमेधयज्ञ करने, वाजपेय यज्ञ करने और सम्यरूपसे लाखों गायोंके दान करनेसे जो फल प्राप्त करता है, वही फल उसे ग्यारहमुखी रुद्राक्ष धारण करनेसे शीघ्र ही प्राप्त हो जाता है ।। 24-253 ॥

बारह मुखवाले रुद्राक्षको कानमें धारण करनेसे द्वादश आदित्य प्रसन्न हो जाते हैं; क्योंकि वे रुद्राक्षके बारहों मुखपर विराजमान रहते हैं। अश्वमेध करनेसे जो फल मिलता है, वह फल केवल इसे धारण करनेमात्रसे मनुष्यको प्राप्त हो जाता है। उसे सॉंगवाले जानवरों, व्याघ्र आदि हिंसक पशुओं तथा शस्त्रधारी शत्रुओंका भय नहीं होता उसे शारीरिक तथा मानसिक कष्टका भी भय नहीं होता। उसे किसी तरहका रोग नहीं होता तथा वह कहींसे भी किसी तरहके भयसे ग्रस्त न रहते हुए सदा सुख तथा ऐश्वर्यसे सम्पन्न रहता है। द्वादशमुखी रुद्राक्ष धारण करनेवाला मनुष्य हाथी, घोड़े, मृग, बिल्ली, सर्प, चूहे, मेढक गर्दभ, कुत्ते, सियार तथा अनेक प्रकारके जानवरोंको मारनेसे लगनेवाले पापसे मुक्त हो जाता है इसमें संशय नहीं है ll 26-303 ॥

हे वत्स! तेरहमुखी रुद्राक्ष यदि प्राप्त हो जाय | तो उसे कार्तिकेयके सदृश जानना चाहिये। वह सभी प्रकारकी कामनाओं, अर्थों तथा सिद्धियोंको देनेवाला है। उसके लिये रस-रसायन-सब कुछ सिद्ध हो जाता है तथा समस्त प्रकारके भोग्य-पदार्थ उसे प्राप्त हो जाते हैं, इसमें सन्देह नहीं करना चाहिये। हेषडानन! अपने माता-पिता अथवा भाईका वध करनेवाला व्यक्ति भी उस रुद्राक्षको धारण करनेमात्रसे समस्त पापोंसे मुक्त हो जाता है ॥ 31-333 ॥

हे पुत्र ! यदि किसीको चौदह मुखवाला रुद्राक्ष मिल जाय और वह उसे निरन्तर अपने मस्तकपर धारण करे तो उसका शरीर साक्षात् शिवतुल्य हो जाता है ॥ 343 ॥

[ श्रीनारायण बोले- ] हे मुने! अधिक कहने तथा बार-बार वर्णन करनेसे क्या प्रयोजन ? देवतालोग भी उसकी निरन्तर पूजा करते हैं और अन्तमें उसे परमगति मिलती है ॥ 353 ॥

[शिवजी बोले- ] हे षडानन! उत्तम द्विजोंको भक्तिपूर्वक एक रुद्राक्ष सिरपर धारण करना चाहिये। छब्बीस रुद्राक्षोंकी माला बनाकर उसे सिरपर, पचास रुद्राक्षकी माला हृदयपर, सोलह रुद्राक्षकी माला बाहु-वलयपर तथा बारह रुद्राक्षकी माला मणिबन्धपर धारण करना चाहिये। एक सौ आठ रुद्राक्षोंकी माला अथवा पचास रुद्राक्षोंकी माला अथवा सत्ताईस रुद्राक्षोंकी माला बनाकर उसे धारण करने अथवा उससे जप करनेसे अनन्त फल प्राप्त होता है । ll 36-38 ॥

हे षडानन ! यदि कोई मनुष्य एक सौ आठ रुद्राक्षोंसे निर्मित माला धारण करता है, तो वह प्रतिक्षण अश्वमेध यज्ञ करनेका फल प्राप्त करता है |और अपनी इक्कीस पीढ़ियोंका उद्धार करके अन्तमें शिवलोक में प्रतिष्ठा प्राप्त करता है ॥ 39-40 ॥

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देवी भागवत महापुराण
Index


  1. [अध्याय 1] भगवान् नारायणका नारदजीसे देवीको प्रसन्न करनेवाले सदाचारका वर्णन
  2. [अध्याय 2] शौचाचारका वर्णन
  3. [अध्याय 3] सदाचार-वर्णन और रुद्राक्ष धारणका माहात्म्य
  4. [अध्याय 4] रुद्राक्षकी उत्पत्ति तथा उसके विभिन्न स्वरूपोंका वर्णन
  5. [अध्याय 5] जपमालाका स्वरूप तथा रुद्राक्ष धारणका विधान
  6. [अध्याय 6] रुद्राक्षधारणकी महिमाके सन्दर्भमें गुणनिधिका उपाख्यान
  7. [अध्याय 7] विभिन्न प्रकारके रुद्राक्ष और उनके अधिदेवता
  8. [अध्याय 8] भूतशुद्धि
  9. [अध्याय 9] भस्म - धारण ( शिरोव्रत )
  10. [अध्याय 10] भस्म - धारणकी विधि
  11. [अध्याय 11] भस्मके प्रकार
  12. [अध्याय 12] भस्म न धारण करनेपर दोष
  13. [अध्याय 13] भस्म तथा त्रिपुण्ड्र धारणका माहात्म्य
  14. [अध्याय 14] भस्मस्नानका महत्त्व
  15. [अध्याय 15] भस्म-माहात्यके सम्बन्धर्मे दुर्वासामुनि और कुम्भीपाकस्थ जीवोंका आख्यान, ऊर्ध्वपुण्ड्रका माहात्म्य
  16. [अध्याय 16] सन्ध्योपासना तथा उसका माहात्म्य
  17. [अध्याय 17] गायत्री-महिमा
  18. [अध्याय 18] भगवतीकी पूजा-विधिका वर्णन, अन्नपूर्णादेवीके माहात्म्यमें राजा बृहद्रथका आख्यान
  19. [अध्याय 19] मध्याह्नसन्ध्या तथा गायत्रीजपका फल
  20. [अध्याय 20] तर्पण तथा सायंसन्ध्याका वर्णन
  21. [अध्याय 21] गायत्रीपुरश्चरण और उसका फल
  22. [अध्याय 22] बलिवैश्वदेव और प्राणाग्निहोत्रकी विधि
  23. [अध्याय 23] कृच्छ्रचान्द्रायण, प्राजापत्य आदि व्रतोंका वर्णन
  24. [अध्याय 24] कामना सिद्धि और उपद्रव शान्तिके लिये गायत्रीके विविध प्रयोग