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देवी भागवत महापुराण ( देवी भागवत)

Devi Bhagwat Purana (Devi Bhagwat Katha)

स्कन्ध 9, अध्याय 6 - Skand 9, Adhyay 6

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लक्ष्मी, सरस्वती तथा गंगाका परस्पर शापवश भारतवर्षमें पधारना

श्रीनारायण बोले- हे मुने! साक्षात् भगवान् विष्णुके पास वैकुण्ठमें रहनेवाली सरस्वती कलहके कारण गंगाजीके द्वारा दिये गये शापसे भारतवर्षमें अपनी एक कलासे नदीरूपमें प्रतिष्ठित हैं। ये सरस्वती पुण्यदायिनी, पुण्यरूपिणी, पुण्यतीर्थस्वरूपिणी तथा पुण्यवान् मनुष्योंकी आश्रय हैं, अतः पुण्यात्मा लोगोंको इनका सेवन करना चाहिये ॥ 1-2॥

ये सरस्वती तपस्वियोंके लिये तपरूपिणी हैं और उनकी तपस्याका फल भी वे ही हैं। ये मनुष्यके द्वारा किये गये पापरूप ईंधनको दग्ध करनेके लिये प्रज्वलित अग्निस्वरूपा हैं ॥ 3 ॥

सरस्वतीकी महिमाको जानते हुए जो मनुष्य इनके जलमें अपना प्राण त्याग करते हैं, वे वैकुण्ठमें वास करते हुए दीर्घकालतक भगवान् श्रीहरिको सन्निधि प्राप्त करते हैं ॥ 4 ॥

भारतमें रहनेवाला कोई मनुष्य पाप कर लेनेके बाद खेल - खेलमें भी सरस्वतीमें स्नान कर लेनेमात्रसे सभी पापोंसे मुक्त हो जाता है और दीर्घकालतक विष्णुलोक में निवास करता है ॥ 5 ॥

जो मनुष्य चातुर्मास्यमें, पूर्णिमा तिथिपर, अक्षय नवमीके दिन, क्षयतिथिको तथा व्यतीपात या ग्रहणके अवसर अथवा अन्य किसी भी पुण्य दिन किसी हेतुसे अथवा श्रद्धापूर्वक सरस्वतीमें स्नान करता है, वह निश्चय ही वैकुण्ठलोकमें भगवान् विष्णुका सारूप्य प्राप्त कर लेता है ॥ 6-7 ॥जो मनुष्य एक महीनेतक प्रतिदिन सरस्वतीनदीके तटपर इनके मन्त्रका जप करता है, वह महान् मूर्ख होते हुए भी कवीश्वर हो जाता है, इसमें कोई सन्देह नहीं है ॥ 8 ॥

जो मनुष्य मुण्डन कराकर प्रतिदिन सरस्वतीके जलमें स्नान करता है, वह मनुष्य फिरसे माताके गर्भमें वास नहीं करता है ॥ 9 ॥

[हे नारद!] इस प्रकार मैंने सुख देनेवाले, मनोरथ पूर्ण करनेवाले तथा सारस्वरूप भगवतीके गुणकीर्तनका वर्णन आपसे कर दिया। अब आप और क्या सुनना चाहते हैं? ॥ 10 ॥

सूतजी बोले- हे शौनक ! भगवान् नारायणकी बात सुनकर मुनिश्रेष्ठ नारद अपनी इस शंकाके विषयमें पुनः शीघ्र उनसे पूछने लगे- ॥ 11 ॥

नारदजी बोले ये भगवती सरस्वती कलहके कारण गंगाजीके शापसे भारतवर्ष में अपनी कलासे पुण्यदायिनी नदीके रूपमें कैसे प्रकट हो गर्यो ? ॥ 12 ॥

वेदोंके सारस्वरूप कथानकोंको सुननेहेतु मेरा कौतूहल बढ़ गया है, इस कथामृतको सुनकर ही मुझे तृप्ति होगी। अपने कल्याणके विषयमें कौन सन्तुष्ट होता है ? ॥ 13 ॥

जो सर्वदा पुण्य तथा कल्याण प्रदान करनेवाली हैं, उन सत्त्वस्वरूपा गंगाने पूज्य सरस्वतीको शाप क्यों दे दिया? इन दोनों तेजस्विनी देवियोंक विवादका कारण निश्चय ही कानोंके लिये सुखकर होगा। पुराणोंमें अत्यन्त दुर्लभ उस वृत्तान्तको आप मुझे बतलाइये ।। 14-15 ।।

श्रीनारायण बोले- हे नारद! मैं यह प्राचीन कथा कह रहा हूँ, जिसके सुननेमात्रसे मनुष्य सभी पापोंसे हो जाता है; आप इसे सुनिये ॥ 16 ॥ लक्ष्मी, सरस्वती और गंगा-ये तीनों ही विष्णुकी भावाएँ हैं। ये बड़े प्रेमके साथ सर्वदा भगवान् विष्णुके समीप विराजमान रहती हैं ॥ 17 ll

एक बार गंगा कामातुर होकर मुसकराती हुई कटाक्षपूर्वक भगवान् विष्णुका मुख निहार रही थीं ॥ 18 ॥तब भगवान् विष्णु क्षणभर उनके मुखकी ओर देखकर मुसकराने लगे। उसे देखकर लक्ष्मीने तो सहन कर लिया, किंतु सरस्वतीने नहीं ॥ 19 ॥ उदारताको मूर्ति लक्ष्मीने हँसकर उन सरस्वतीको समझाया, किंतु अत्यन्त कोपाविष्ट वे सरस्वती शान्त नहीं हुई ॥ 20 ॥

उस समय लाल नेत्रों तथा मुखमण्डलवाली और कुपित तथा कामवेगके कारण निरन्तर काँपते हुए ओठोंवाली सरस्वती अपने पति भगवान् विष्णुसे कहने लगीं ॥ 21 ॥

सरस्वती बोलीं- एक धर्मनिष्ठ श्रेष्ठ तथा उत्तम पतिकी बुद्धि अपनी सभी पत्नियोंके प्रति समान हुआ करती है, किंतु दुष्ट पतिकी बुद्धि इसके विपरीत होती है ॥ 22 ॥

हे गदाधर! मुझे ज्ञात हो गया कि गंगापर आपका अधिक प्रेम रहता है और लक्ष्मीपर भी उसीके समान प्रेम रहता है। किंतु हे प्रभो ! मुझपर आपका थोड़ा भी प्रेम नहीं है ॥ 23 ॥

गंगा और लक्ष्मीके साथ आपकी प्रीति समान है, इसीलिये [गंगाके] इस विपरीत व्यवहारको भी लक्ष्मीने क्षमा कर दिया ॥ 24 ॥

अब यहाँपर मुझ अभागिनीके जीवित रहनेसे क्या लाभ? क्योंकि जो स्त्री अपने पतिके प्रेमसे वंचित है, उसका जीवन व्यर्थ है ॥ 25 ॥

जो विद्वान् लोग आपको सात्त्विक स्वरूपवाला कहते हैं, वे सब वेदज्ञ नहीं हैं अपितु मूर्ख हैं; वे | आपकी बुद्धिको नहीं जानते हैं ॥ 26 ॥

सरस्वतीकी यह बात सुनकर और उन्हें कोपाविष्ट | देखकर भगवान्ने मन-ही-मन कुछ सोचा और इसके बाद वे वहाँसे बाहर निकलकर सभामें चले गये॥ 27॥

भगवान् नारायणके चले जानेपर वाणीकी अधिष्ठातृ देवो उन सरस्वतीने कुपित होकर निर्भीकतापूर्वक गंगासे सुननेमें अत्यन्त कटु वचन कहा- ॥ 28 ॥

हे निर्लज्ज! हे सकाम ! तुम अपने पतिपर इतना गर्व क्यों कर रही हो ?'मेरे ऊपर पतिका अधिक प्रेम रहता है' - ऐसा तुम प्रदर्शित करना चाहती हो ॥ 29 ॥हे कान्तवल्लभे । आज मैं भगवान् विष्णुके सामने ही तुम्हारा अभिमान चूर्ण कर दूँगी; तुम्हारा वह पति मेरा क्या कर लेगा ? ॥ 30 ॥

ऐसा कहकर वे गंगाके बाल खींचनेके लिये उद्यत हुई; तब लक्ष्मीने दोनोंके बीचमें आकर उन सरस्वतीको ऐसा करनेसे रोक दिया ॥ 31 ॥

इससे महान् बलवती तथा सतीत्वमयी सरस्वतीने उन लक्ष्मीको शाप दे दिया कि तुम नदी और वृक्षके रूपवाली हो जाओगी, इसमें कोई सन्देह नहीं है ॥ 32 ॥

गंगाका विपरीत आचरण देखकर भी तुमने कुछ नहीं कहा और सभा बीचमें वृक्ष तथा नदीकी भाँति तुम जड़वत् बन गयी थी इसलिये तुम वही हो जाओ ॥ 33 ॥

यह शाप सुनकर भी लक्ष्मीने न तो शाप दिया और न क्रोध ही किया। वे सरस्वतीका हाथ पकड़कर दुःखित हो वहीं पर बैठी रह गयीं ॥ 34 ॥

कोपके कारण काँपते हुए ओठों तथा लाल नेत्रोंवाली और अत्यन्त असन्तुष्ट उस सरस्वतीको देखकर गंगा लक्ष्मीसे कहने लगीं ॥ 35 ॥

गंगा बोलीं- हे पद्ये तुम अत्यन्त उग्र | स्वभाववाली इस सरस्वतीको छोड़ दो। यह शीलरहित, मुखर, विनाशिनी तथा नित्य वाचाल रहनेवाली सरस्वती मेरा क्या कर लेगी ।। 36 ।।

वाणीकी अधिष्ठात्री देवी यह सरस्वती सर्वदा कलहप्रिय है। इसमें जितनी योग्यता तथा शक्ति हो, वह सब लगाकर यह आज मेरे साथ विवाद कर ले। यह दुर्मुखी अपने तथा मेरे बलका प्रदर्शन करना चाहती है तो सभी लोग आज दोनोंके प्रभाव तथा पराक्रमको जान लें ॥ 37-383 ॥

ऐसा कहकर गंगाने सरस्वतीको शाप दे दिया। [ और उन्होंने लक्ष्मीसे कहा-] जिस सरस्वतीने तुम्हें शाप दिया है, वह भी नदीरूप हो जाय। यह नीचे मृत्युलोकमें चली जाय, जहाँ पापीलोग निवास करते हैं। [वहाँ] यह कलियुगमें उन पापियोंके पाप ग्रहण करेगी; इसमें सन्देह नहीं है ।। 39-40 3 ॥गंगाकी यह बात सुनकर सरस्वतीने भी उसे शाप दे दिया कि तुम्हें भी धरातलपर जाना होगा और वहाँ पापियोंके पापको अंगीकार करना होगा ॥ 411 / 2 ॥ इसी बीच चार भुजाओंवाले भगवान् विष्णु चार भुजाओंवाले अपने चारों पार्षदोंके साथ वहाँ आ गये ॥ 423 ॥

सर्वज्ञ श्रीहरिने सरस्वतीका हाथ पकड़कर प्रेमपूर्वक उन्हें अपने वक्षसे लगा लिया और उन्हें शाश्वत तथा सर्वोत्कृष्ट ज्ञान प्रदान किया। उनके कलह तथा शापकी बात सुनकर प्रभु श्रीहरि उन दुःखित स्त्रियोंसे समयानुकूल बात कहने लगे ।। 43-443 ।।

श्रीभगवान् बोले- हे लक्ष्मि ! हे शुभे ! तुम अपने अंशसे पृथ्वीपर राजा धर्मध्वजके घर जाओ। तुम अयोनिजके रूपमें उनकी कन्या होकर प्रकट होओगी। वहींपर तुम दुर्भाग्यसे वृक्ष बन जाओगी। मेरे ही अंशसे उत्पन्न शंखचूड नामक असुरकी भार्या होनेके बाद ही पुनः तुम मेरी पत्नी बनोगी; इसमें सन्देह नहीं है। उस समय तीनों लोकोंको पवित्र करनेवाली तुलसीके नामसे भारतवर्षमें तुम प्रसिद्ध होओगी। हे वरानने! अब तुम सरस्वतीके शापसे अपने अंशसे नदीरूपमें प्रकट होकर भारतवर्षमें शीघ्र जाओ और वहाँ 'पद्मावती' नामसे प्रतिष्ठित होओ ।। 45-483 ॥

[ तत्पश्चात् उन्होंने गंगासे कहा-] हे गंगे! लक्ष्मीके पश्चात् तुम भी सरस्वतीके शापवश पापियोंका पाप भस्म करनेके लिये अपने ही अंशसे विश्वपावनी नदी बनकर भारतवर्ष में जाओ। हे सुकल्पिते ! राजा भगीरथकी तपस्यासे उनके द्वारा धरातलपर ले जायी गयी तुम पवित्र 'भागीरथी' नामसे प्रसिद्ध होओगी। हे सुरेश्वरि मेरी आज्ञाके अनुसार तुम मेरे ही अंशसे उत्पन्न समुद्रकी पत्नी और मेरी कलाके अंशसे उत्पन्न राजा शन्तनुकी भी पत्नी होना स्वीकार कर लेना ॥ 49 - 513 ॥

[ तदनन्तर उन्होंने सरस्वतीसे कहा-] हे भारति! | गंगाके शापको स्वीकार करके तुम अपनी कलासे भारतवर्ष में जाओ और दोनों सपत्नियों (गंगा तथालक्ष्मी) के साथ कलह करनेका फल भोगो। साथ ही हे अच्युते ! अपने पूर्ण अंशसे ब्रह्मसदनमें ब्रह्माकी भार्या बन जाओ ॥ 52-53 ॥

गंगाजी शिवके स्थानपर चली जायँ। यहाँपर | केवल शान्त स्वभाववाली, क्रोधरहित, मेरी भक्त, सत्त्वस्वरूपा, महान् साध्वी, अत्यन्त सौभाग्यवती, सुशील तथा धर्मका आचरण करनेवाली लक्ष्मी ही विराजमान रहें। जिनके एक अंशकी कलासे समस्त लोकोंमें सभी स्त्रियाँ धर्मनिष्ठ, पतिव्रता, शान्तरूपा तथा सुशील बनकर पूजित होती हैं ।। 54-553 ॥

[भगवान् बोले] विभिन्न स्वभाववाली तीन स्त्रियाँ, तीन नौकर तथा तीन बान्धवोंका एकत्र रहना वेदविरुद्ध है। अतः ये मंगलदायक नहीं हो सकते ॥ 563 ॥

जिन गृहस्थोंके घरमें स्त्री पुरुषकी भाँति व्यवहार करे और पुरुष स्त्रीके अधीन रहे, उनका जन्म निष्फल हो जाता है और पग-पगपर उनका अमंगल होता है ॥ 573 ॥

जिसकी स्त्री मुखदुष्टा (कुवचन बोलनेवाली), योनिदुष्य (व्यभिचारमें लिप्त रहनेवाली) तथा कलहप्रिया है, उस व्यक्तिको जंगलमें चले जाना चाहिये; क्योंकि उसके लिये बड़े-से-बड़ा जंगल भी घरसे बढ़कर श्रेयस्कर होता है; क्योंकि वहाँ उसे जल, स्थल और फल आदिकी निरन्तर प्राप्ति होती रहती है, किंतु घरपर ये सब नहीं मिल पाते ॥ 58-593 ॥

अग्निके पास रहना ठीक है अथवा हिंसक जन्तुओंके निकट रहनेपर भी सुख मिल सकता है, किंतु दुष्ट स्त्रीके सान्निध्यमें रहनेवाले पुरुषोंको अवश्य ही उससे भी अधिक दुःख भोगना पड़ता है । ll 603 ॥

हे वरानने! व्याधिज्वाला तथा विषज्वाला तो पुरुषोंके लिये ठीक हैं, किंतु दुष्ट स्त्रियोंके मुखकी ज्वाला मृत्युसे भी बढ़कर कष्टकारक होती है ॥ 613 ॥

स्त्रीके वशमें रहनेवाले पुरुषोंकी शुद्धि शरीरके | भस्म हो जानेपर भी निश्चित ही नहीं होती। ऐसा | व्यक्ति दिनमें जो पुण्यकर्म करता है, उसके फलकाभागी नहीं होता है। वह इस लोक तथा परलोकमें सर्वत्र निन्दित होता है और नरक प्राप्त करता है। जो यश और कीर्तिसे रहित है, वह जीते हुए भी मृतकके समान है ।। 62-633 ॥

किसी पुरुषकी बहुत-सी पत्नियोंका एक साथ रहना कल्याणप्रद नहीं है। एक भार्यावाला तो सुखी है ही नहीं, फिर अनेक भार्याओंवाला कैसे सुखी रह सकता है ? ॥ 643 ॥ हे गंगे! तुम शिवके स्थानपर जाओ और हे सरस्वति! तुम ब्रह्माके स्थानपर जाओ। यहाँ मेरे भवनमें उत्तम स्वभाववाली लक्ष्मी ही रहें ॥ 653 ॥

जिस पुरुषकी पत्नी सहजरूपसे अनुकूल हो जानेवाली, उत्तम स्वभाववाली तथा पतिव्रता होती है, उसे इस लोकमें तथा स्वर्गमें सुख तथा धर्म प्राप्त होते हैं और परलोकमें मोक्ष-पद प्राप्त होता है। जिसकी पत्नी पतिव्रता होती है, वह मुक्त, पवित्र तथा सुखी है। इसके विपरीत दुराचारिणी स्त्रीका पति जीते-जी मृतकके समान, अपवित्र तथा दुःखी है ॥ 66-67 ॥

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देवी भागवत महापुराण
Index


  1. [अध्याय 1] प्रकृतितत्त्वविमर्श प्रकृतिके अंश, कला एवं कलांशसे उत्पन्न देवियोंका वर्णन
  2. [अध्याय 2] परब्रह्म श्रीकृष्ण और श्रीराधासे प्रकट चिन्मय देवताओं एवं देवियोंका वर्णन
  3. [अध्याय 3] परिपूर्णतम श्रीकृष्ण और चिन्मयी राधासे प्रकट विराट्रूप बालकका वर्णन
  4. [अध्याय 4] सरस्वतीकी पूजाका विधान तथा कवच
  5. [अध्याय 5] याज्ञवल्क्यद्वारा भगवती सरस्वतीकी स्तुति
  6. [अध्याय 6] लक्ष्मी, सरस्वती तथा गंगाका परस्पर शापवश भारतवर्षमें पधारना
  7. [अध्याय 7] भगवान् नारायणका गंगा, लक्ष्मी और सरस्वतीसे उनके शापकी अवधि बताना तथा अपने भक्तोंके महत्त्वका वर्णन करना
  8. [अध्याय 8] कलियुगका वर्णन, परब्रह्म परमात्मा एवं शक्तिस्वरूपा मूलप्रकृतिकी कृपासे त्रिदेवों तथा देवियोंके प्रभावका वर्णन और गोलोकमें राधा-कृष्णका दर्शन
  9. [अध्याय 9] पृथ्वीकी उत्पत्तिका प्रसंग, ध्यान और पूजनका प्रकार तथा उनकी स्तुति
  10. [अध्याय 10] पृथ्वीके प्रति शास्त्र - विपरीत व्यवहार करनेपर नरकोंकी प्राप्तिका वर्णन
  11. [अध्याय 11] गंगाकी उत्पत्ति एवं उनका माहात्म्य
  12. [अध्याय 12] गंगाके ध्यान एवं स्तवनका वर्णन, गोलोकमें श्रीराधा-कृष्णके अंशसे गंगाके प्रादुर्भावकी कथा
  13. [अध्याय 13] श्रीराधाजीके रोषसे भयभीत गंगाका श्रीकृष्णके चरणकमलोंकी शरण लेना, श्रीकृष्णके प्रति राधाका उपालम्भ, ब्रह्माजीकी स्तुतिसे राधाका प्रसन्न होना तथा गंगाका प्रकट होना
  14. [अध्याय 14] गंगाके विष्णुपत्नी होनेका प्रसंग
  15. [अध्याय 15] तुलसीके कथा-प्रसंगमें राजा वृषध्वजका चरित्र- वर्णन
  16. [अध्याय 16] वेदवतीकी कथा, इसी प्रसंगमें भगवान् श्रीरामके चरित्रके एक अंशका कथन, भगवती सीता तथा द्रौपदी के पूर्वजन्मका वृत्तान्त
  17. [अध्याय 17] भगवती तुलसीके प्रादुर्भावका प्रसंग
  18. [अध्याय 18] तुलसीको स्वप्न में शंखचूड़का दर्शन, ब्रह्माजीका शंखचूड़ तथा तुलसीको विवाहके लिये आदेश देना
  19. [अध्याय 19] तुलसीके साथ शंखचूड़का गान्धर्वविवाह, शंखचूड़से पराजित और निर्वासित देवताओंका ब्रह्मा तथा शंकरजीके साथ वैकुण्ठधाम जाना, श्रीहरिका शंखचूड़के पूर्वजन्मका वृत्तान्त बताना
  20. [अध्याय 20] पुष्पदन्तका शंखचूड़के पास जाकर भगवान् शंकरका सन्देश सुनाना, युद्धकी बात सुनकर तुलसीका सन्तप्त होना और शंखचूड़का उसे ज्ञानोपदेश देना
  21. [अध्याय 21] शंखचूड़ और भगवान् शंकरका विशद वार्तालाप
  22. [अध्याय 22] कुमार कार्तिकेय और भगवती भद्रकालीसे शंखचूड़का भयंकर बुद्ध और आकाशवाणीका पाशुपतास्त्रसे शंखचूड़की अवध्यताका कारण बताना
  23. [अध्याय 23] भगवान् शंकर और शंखचूड़का युद्ध, भगवान् श्रीहरिका वृद्ध ब्राह्मणके वेशमें शंखचूड़से कवच माँग लेना तथा शंखचूड़का रूप धारणकर तुलसीसे हास-विलास करना, शंखचूड़का भस्म होना और सुदामागोपके रूपमें गोलोक पहुँचना
  24. [अध्याय 24] शंखचूड़रूपधारी श्रीहरिका तुलसीके भवनमें जाना, तुलसीका श्रीहरिको पाषाण होनेका शाप देना, तुलसी-महिमा, शालग्रामके विभिन्न लक्षण एवं माहात्म्यका वर्णन
  25. [अध्याय 25] तुलसी पूजन, ध्यान, नामाष्टक तथा तुलसीस्तवनका वर्णन
  26. [अध्याय 26] सावित्रीदेवीकी पूजा-स्तुतिका विधान
  27. [अध्याय 27] भगवती सावित्रीकी उपासनासे राजा अश्वपतिको सावित्री नामक कन्याकी प्राप्ति, सत्यवान् के साथ सावित्रीका विवाह, सत्यवान्की मृत्यु, सावित्री और यमराजका संवाद
  28. [अध्याय 28] सावित्री यमराज-संवाद
  29. [अध्याय 29] सावित्री धर्मराजके प्रश्नोत्तर और धर्मराजद्वारा सावित्रीको वरदान
  30. [अध्याय 30] दिव्य लोकोंकी प्राप्ति करानेवाले पुण्यकर्मोंका वर्णन
  31. [अध्याय 31] सावित्रीका यमाष्टकद्वारा धर्मराजका स्तवन
  32. [अध्याय 32] धर्मराजका सावित्रीको अशुभ कर्मोंके फल बताना
  33. [अध्याय 33] विभिन्न नरककुण्डों में जानेवाले पापियों तथा उनके पापोंका वर्णन
  34. [अध्याय 34] विभिन्न पापकर्म तथा उनके कारण प्राप्त होनेवाले नरकका वर्णन
  35. [अध्याय 35] विभिन्न पापकर्मोंसे प्राप्त होनेवाली विभिन्न योनियोंका वर्णन
  36. [अध्याय 36] धर्मराजद्वारा सावित्रीसे देवोपासनासे प्राप्त होनेवाले पुण्यफलोंको कहना
  37. [अध्याय 37] विभिन्न नरककुण्ड तथा वहाँ दी जानेवाली यातनाका वर्णन
  38. [अध्याय 38] धर्मराजका सावित्री से भगवतीकी महिमाका वर्णन करना और उसके पतिको जीवनदान देना
  39. [अध्याय 39] भगवती लक्ष्मीका प्राकट्य, समस्त देवताओंद्वारा उनका पूजन
  40. [अध्याय 40] दुर्वासाके शापसे इन्द्रका श्रीहीन हो जाना
  41. [अध्याय 41] ब्रह्माजीका इन्द्र तथा देवताओंको साथ लेकर श्रीहरिके पास जाना, श्रीहरिका उनसे लक्ष्मीके रुष्ट होनेके कारणोंको बताना, समुद्रमन्थन तथा उससे लक्ष्मीजीका प्रादुर्भाव
  42. [अध्याय 42] इन्द्रद्वारा भगवती लक्ष्मीका षोडशोपचार पूजन एवं स्तवन
  43. [अध्याय 43] भगवती स्वाहाका उपाख्यान
  44. [अध्याय 44] भगवती स्वधाका उपाख्यान
  45. [अध्याय 45] भगवती दक्षिणाका उपाख्यान
  46. [अध्याय 46] भगवती षष्ठीकी महिमाके प्रसंगमें राजा प्रियव्रतकी कथा
  47. [अध्याय 47] भगवती मंगलचण्डी तथा भगवती मनसाका आख्यान
  48. [अध्याय 48] भगवती मनसाका पूजन- विधान, मनसा-पुत्र आस्तीकका जनमेजयके सर्पसत्रमें नागोंकी रक्षा करना, इन्द्रद्वारा मनसादेवीका स्तवन करना
  49. [अध्याय 49] आदि गौ सुरभिदेवीका आख्यान
  50. [अध्याय 50] भगवती श्रीराधा तथा श्रीदुर्गाके मन्त्र, ध्यान, पूजा-विधान तथा स्तवनका वर्णन