श्रीनारायण बोले- [हे नारद!] उसके आगे लोकालोक नामक पर्वत है, जो प्रकाशित तथा अप्रकाशित- दो प्रकारके लोकोंका विभाग करनेके लिये उनके मध्यमें स्थित है ॥ 1 ॥
हे देवर्षे! मानसोत्तरपर्वतसे लेकर सुमेरुपर्वततक जितना अन्तर है, उतनी भूमि सुवर्णमयी तथा दर्पणके समान स्वच्छ है। वह भूमि सर्वसाधारण प्राणियोंसे रहित है। इसमें गिरी हुई कोई वस्तु फिर नहीं मिलती। अतः हे नारद! वह भूमि [ देवताओंके अतिरिक्त ] सभी प्राणिसमुदायसे रहित है। इस पर्वतको लोकालोक जो कहा गया है, वह इसीलिये; क्योंकि यह सूर्यसे प्रकाशित तथा अप्रकाशित दो भागोंके मध्य स्थित है । ll 2-43 ॥
भगवान्ने त्रिलोकीकी सीमा निर्धारित करनेके लिये उस पर्वतका निर्माण किया है। हे नारद! सूर्य आदिसे लेकर ध्रुवपर्यन्त सभी ग्रहोंकी किरणें उसके अधीन होनेके कारण उसके एक ओरसे तीनों लोकोंको प्रकाशित करती हैं और दूसरी ओरके लोक प्रकाशित नहीं हो पाते ॥ 5-63 ॥
यह अति विशाल पर्वतराज जितना ऊँचा है, उतना ही विस्तृत है। लोकोंका विस्तार इतना ही है। गणितशास्त्रके विद्वानोंने स्थिति, मान और लक्षणके अनुसार सम्पूर्ण भूगोलका परिमाण पचास करोड़ योजन निश्चित किया है। हे मुने! उस भूगोलकाचौथाई भाग (साढ़े बारह करोड़ योजन) केवल यह लोकालोकपर्वत ही है। उसके ऊपर चारों दिशाओंधें स्वयम्भू ब्रह्माजीने जिन चार दिग्गजोंको नियुक्त किया है, उनके नाम हैं-ऋषभ, पुष्पचूड, वामन और अपराजित। इन दिग्गजोंको समस्त लोकोंकी स्थितिका कारण कहा गया है ॥ 7-106 ॥
भगवान् श्रीहरि उन दिग्गजों तथा अपनी विभूतिस्वरूप इन्द्र आदि लोकपालोंकी विविध शक्तियोंके विकास और उनमें विशुद्ध गुण तथा ऐश्वर्यकी वृद्धि करनेके उद्देश्यसे आठों सिद्धियोंसहित विष्वक्सेन आदि पार्षदोंसे घिरे हुए सदा उस लोकालोकपर्वतपर विराजमान रहते हैं। सम्पूर्ण लोकके कल्याणके लिये चारों भुजाओंमें अपने शंख, चक्र, गदा तथा पद्म इन आयुधोंसे सुशोभित होते हुए भगवान् श्रीहरि वहाँ सर्वत्र विराजमान हैं। अपने मायारचित इस जगत्की रक्षाके लिये स्वयं साधनस्वरूप वे सनातन भगवान् अपने लीलामयरूपसे ऐसे वेषको धारण किये वहाँ कल्पपर्यन्त प्रतिष्ठित रहते हैं ॥ 11-14 ॥
लोकालोकपर्वतके अन्तर्वर्ती भागका जो विस्तार कहा गया है, इसीसे उसके दूसरी ओरके अलोक प्रदेशके परिमाणकी व्याख्या समझ लेनी चाहिये। विद्वान् लोग कहते हैं कि उसके आगे योगेश्वरोंकी ही विशुद्ध गति सम्भव है। पृथ्वी तथा स्वर्गके बीचमें जो ब्रह्माण्डका केन्द्र है, वही सूर्यकी स्थिति है। सूर्य तथा ब्रह्माण्डगोलकके बीच सभी ओर पचीस करोड़ योजनकी दूरी है। इस मृत ब्रह्माण्डमें सूर्यके विराजमान रहनेके कारण इनका नाम 'मार्तण्ड' पड़ा और हिरण्यमय ब्रह्माण्डसे उत्पन्न होनेके कारण इन्हें 'हिरण्यगर्भ' कहा जाता है। ll 15-173 ll
दिशा, आकाश, अन्तरिक्ष, पृथ्वी, स्वर्ग, अपवर्ग, नरक और पाताल इन सभीका भलीभाँति विभाजन सूर्यके ही द्वारा किया जाता है। देवता, पशु-पक्षी, मनुष्य, रेंगकर चलनेवाले जन्तुओं, वृक्ष तथा अन्य सभी प्रकारके जीवसमूहोंकी आत्मा सूर्य ही हैं। ये नेत्रेन्द्रियके स्वामी हैं। हे नारद! भूमण्डलका इतना ही विस्तार कहा गया है। इस विषयके जानकार लोग इसीके द्वारा स्वर्गलोकका भी विस्तारबतलाते हैं, जैसे कि चना मटर आदिके दो दलोंमेंसे एकका स्वरूप जान लेनेपर दूसरेका अनुमान कर लिया जाता है ॥ 18-21॥
उन द्युलोक तथा पृथ्वीलोकके मध्यमें अन्तरिक्ष स्थित है । अन्तरिक्ष उन दोनोंका सन्धिस्थान है। इसके मध्यमें स्थित रहकर तपनेवाले ग्रहोंमें श्रेष्ठ भगवान् सूर्य चमकते हुए अपनी ऊष्मासे तीनों लोकोंको प्रतप्त करते हैं ॥ 223 ॥
उत्तरायण होनेपर सूर्य मन्दगतिसे चलने लगते हैं। उत्तरायण उनका आरोहणस्थान है, जहाँ पहुँचनेपर दिनमें वृद्धि होने लगती है। दक्षिणायनकी स्थिति प्राप्त करके वे तीव्र गति धारण कर लेते हैं। दक्षिणायन उनका अवरोहस्थान है, जिसपर सूर्यके चलनेपर दिन छोटा होने लगता है ॥ 23-243 ॥
विषुवत् नामक स्थानपर पहुँचनेपर सूर्यकी गतिमें समानता आ जाती है। इस समस्थानपर सूर्यके आनेपर दिनके परिमाणमें समानता आ जाती है। जब वेदस्वरूप भगवान् सूर्य मेष और तुला राशिपर संचरण करते हैं, तब दिन और रात समान होने लगते हैं। जब सूर्य वृष आदि पाँच राशियोंपर होते हैं, तब दिन बढ़ने लगते हैं और रातें छोटी होने लगती हैं। इसी प्रकार जब सूर्य वृश्चिक आदि पाँच राशियों पर गति करते हैं, तब दिन और रातमें इसके विपरीत परिवर्तन होते हैं । ll 25-29 ॥