सूतजी बोले- हे ऋषियो! इस प्रकार विन्ध्यगिरिसे वार्तालाप करके परम स्वतन्त्र तथा स्वेच्छापूर्वक विचरण करनेवाले महामुनि देवर्षि | नारद ब्रह्मलोक चले गये ॥ 1 ॥मुनिवर नारदके चले जानेपर विन्ध्य निरन्तर चिन्तित रहने लगा। उसे शान्ति नहीं मिल पाती थी। वह अपने अन्तर्मनमें सदा यही सोचता कि अब मैं कौन-सा कार्य करूँ तथा किस प्रकारसे सुमेरुगिरिको जीत लूँ? इस समय मुझे न तो शान्ति मिल पा रही है और न तो मेरा मन ही सुस्थिर हो पा रहा है। (मेरे उत्साह, सम्मान, यश तथा कुलको धिक्कार है) मेरे बल तथा पुरुषार्थको धिक्कार है। पूर्वकालीन महात्माओंने भी ऐसा ही कहा है । 2-33 ॥ इस प्रकार चिन्तन करते हुए विन्ध्यगिरिके मनमें | कर्तव्यके निर्णयमें दोष उत्पन्न कर देनेवाली बुद्धिका उदय हो गया ॥ 43 ॥
सूर्य सभी ग्रह-नक्षत्रसमूहोंसे युक्त होकर सुमेरु पर्वतकी सदा परिक्रमा करते रहते हैं, जिससे यह सुमेरु-गिरि अभिमानमें चूर रहता है। मैं अपने शिखरोंसे उस सूर्यका मार्ग रोक दूँगा। तब इस प्रकार अवरुद्ध हुए ये सूर्य सुमेरुगिरिका परिक्रमण कैसे कर सकेंगे ? ॥ 5-63 ॥
इस प्रकार मेरे द्वारा सूर्यका मार्गावरोध कर दिये जानेसे उस दिव्य सुमेरुगिरिका अभिमान निश्चितरूपसे खण्डित हो जायगा ॥ 73 ॥
ऐसा निश्चय करके विन्ध्यगिरि अपने शिखरोंसे आकाशको छूता हुआ बढ़ने लगा और अत्युच्च श्रेष्ठ शिखरोंसे सम्पूर्ण आकाशको व्याप्त करके व्यवस्थित हो गया। वह प्रतीक्षा करने लगा कि कब सूर्य उदित हों और कब मैं उनका मार्ग अवरुद्ध करूँ ।। 8-9 ॥
इस प्रकार उसके सोचते-सोचते वह रात्रि व्यतीत हो गयी और विमल प्रभातका आगमन हो गया। अपनी किरणोंसे दिशाओंको अन्धकाररहित करते हुए भगवान् सूर्य उदयाचलपर उदित होनेके लिये प्रकट होने लगे। सूर्यकी शुभ किरणोंसे आकाश स्वच्छ प्रकाशित होने लगा, कमलिनी खिलने लगी और कुमुदिनी संकुचित होने लगी, सभी प्राणी अपने अपने कार्योंमें लग गये । 10 - 12 ॥ इस प्रकार पूर्वाह्न, अपराह्न तथा मध्याह्नके विभागसे देवताओंके लिये हव्य, कव्य तथा भूतबलिका संवर्धन करते हुए प्रभाके स्वामी सूर्य चिरकालीन विरहाग्निसे सन्तप्त तथा वियोगिनी कामिनीसदृश प्राची तथा आग्नेयी दिशाओंको आश्वासन देकर एवं पुनः अग्नि- दिशाको छोड़कर बड़ी तेजीसे दक्षिण दिशाकी ओर प्रस्थान करनेका प्रयास करने लगे। किंतु जब वे सूर्य आगे नहीं बढ़ सके, तब उनका सारथि अनूरु (अरुण) कहने लगा- ॥ 13 - 153 ॥
अनूरु बोला- हे सूर्य ! अत्यधिक अभिमानी विन्ध्यगिरि आपका मार्ग रोककर आकाशमें स्थित हो गया है। वह सुमेरुगिरिसे स्पर्धा करता है और आपके द्वारा सुमेरुकी की जानेवाली परिक्रमा प्राप्त करनेकी अभिलाषा रखता है ॥ 163 ॥
सूतजी बोले- अरुणका यह वचन सुनकर सूर्य सोचने लगे- अहो! आकाशका भी मार्ग अवरुद्ध हो गया, यह तो महान् आश्चर्य है । प्रायः कुमार्गपर चलनेवाला पराक्रमी व्यक्ति क्या नहीं कर सकता ।। 17-18 ॥
दैव बड़ा बलवान् होता है। आज मेरे घोड़ोंका मार्ग रोक दिया गया है। राहुकी भुजाओंमें जकड़े | जानेपर जो क्षणभरके लिये भी नहीं रुकता था, वही मैं चिरकालसे अवरुद्ध मार्गवाला हो गया हूँ। बलवान् विधाता अब न जाने क्या करेगा ? ॥ 193 ॥
इस प्रकार सूर्यका मार्ग अवरुद्ध हो जानेसे समस्त लोक तथा लोकेश्वर कहीं भी शरण नहीं प्राप्त कर सके और वे अपने-अपने कार्य सम्पादित करनेमें अक्षम हो गये ॥ 20 ॥
चित्रगुप्त आदि सभी लोग जिन सूर्यसे समयका ज्ञान करते थे, वे ही सूर्य आज विन्ध्यगिरिके द्वारा अवरुद्ध कर दिये गये। अहो! दैव भी कितना विपरीत हो जाता है ॥ 216 ॥
जब स्पर्धाके कारण विन्ध्यने सूर्यको रोक दिया, तब स्वाहा स्वधाकार नष्ट हो गये और सम्पूर्ण जगत् भी नष्टप्राय हो गया ॥ 223 ॥
पश्चिम तथा दक्षिणके प्राणी रात्रिके प्रभावमें थे और निद्रासे नेत्र बन्द किये हुए थे, साथ ही पूर्व तथा उत्तरके प्राणी सूर्यकी प्रचण्ड गर्मीसे दग्ध हो रहे थे।प्रजाओंका विनाश होने लगा । बहुत-से प्राणी मर गये, कितने ही नष्ट हो गये, कितने भग्न हो गये, सम्पूर्ण जगत्में हाहाकार मच गया और श्राद्ध तर्पणसे जगत् रहित हो गया । इन्द्रसहित सभी देवता व्याकुल होकर आपसमें कहने लगे कि अब हमलोग क्या करें ? ॥ 23-25॥