View All Puran & Books

देवी भागवत महापुराण ( देवी भागवत)

Devi Bhagwat Purana (Devi Bhagwat Katha)

स्कन्ध 9, अध्याय 37 - Skand 9, Adhyay 37

Previous Page 259 of 326 Next

विभिन्न नरककुण्ड तथा वहाँ दी जानेवाली यातनाका वर्णन

धर्मराज बोले- हे साध्वि! वे सभी नरककुण्ड पूर्ण चन्द्रमाकी भाँति गोलाकार तथा बहुत गहरे हैं। वे अनेक प्रकारके पत्थरोंसे बनाये गये हैं। वे कुण्ड नाशवान् नहीं हैं और प्रलयकालतक बने रहते हैं।भगवान्‌की इच्छासे उनकी रचना की गयी है, ये पापियोंको क्लेश देनेवाले हैं और अनेक रूपोंवाले हैं ॥ 1-2 ॥ चारों ओरसे एक कोसके विस्तारवाले, सौ हाथ ऊपरतक उठती हुई लपटोंवाले तथा प्रज्वलित अंगारके रूपवाले कुण्डको अग्निकुण्ड कहा गया है। भयानक चीत्कार करनेवाले पापियोंसे वह भरा रहता है। उन पापियोंको पीटनेवाले मेरे दूत निरन्तर उस कुण्डकी रक्षामें तत्पर रहते हैं ॥ 3-4 ॥

तप्तजल तथा हिंसक जन्तुओंसे भरा पड़ा, अत्यन्त भयंकर तथा आधे कोसके विस्तारवाला कुण्ड तप्तकुण्ड कहा गया है, जो मेरे सेवकों तथा दूतोंद्वारा पीटे जाते हुए पापियोंसे युक्त रहता है। उनके दृढ़ प्रहार करनेपर वे नारकी जीव उसमें चिल्लाते रहते हैं ॥ 53 ॥

तप्तक्षारोदकुण्ड एक कोश परिमाणवाला है, वह भयानक कुण्ड खौलते हुए खारे जलसे परिपूर्ण तथा कौवोंसे भरा पड़ा रहता है। मेरे दूतोंद्वारा पीटे जानेपर 'मेरी रक्षा करो'-ऐसे शब्दका जोर-जोरसे उच्चारण करते हुए पापियोंसे वह नरककुण्ड परिपूर्ण रहता है। आहार न मिलनेके कारण सूखे कण्ठ, ओष्ठ तथा तालुवाले पापी उस कुण्डमें इधर-उधर भागते फिरते हैं । ll 6-73 ।।

एक कोसके विस्तारवाला विटकुण्ड है। वह दारुण नरक विष्ठासे सदा पूर्ण रहता है, उसमें अत्यन्त दुर्गन्ध फैली रहती है। मेरे महानिर्दयी दूतोंके द्वारा पीटे जाते हुए, 'मेरी रक्षा करो'-ऐसे शब्द करके चिल्लाते हुए तथा विष्ठाका आहार करनेवाले पापियोंसे वह नरककुण्ड सदा भरा रहता है। विष्ठाके कीड़े उन पापियोंको सदा काटते रहते हैं ।। 8-93 ।।

मूत्रकुण्ड नामक नरक खौलते हुए मूत्रसे भरा रहता है। उसमें मूत्रके कीड़े सर्वत्र व्याप्त रहते हैं। दो कोसके विस्तारवाले तथा अन्धकारमय उस नरककुण्डमें मूत्रके कीड़ोंद्वारा निरन्तर काटे जाते हुए तथा मेरे भयानक दूतों द्वारा लगातार पीटे जानेके कारण जोर जोर चिल्लाते हुए और सूखे कण्ठ, ओष्ठ और | तालुवाले महापापी भरे पड़े रहते हैं ॥ 10-113 ॥श्लेष्मकुण्ड नामक नरक श्लेष्मा आदि अपवित्र वस्तुओं तथा उनके कीड़ोंसे सदा व्याप्त रहता है। वह नरककुण्ड श्लेष्माका ही निरन्तर भोजन करनेवाले पापीजनोंसे भरा पड़ा हुआ है ॥ 123 ॥

गरकुण्डका विस्तार आधे कोसका है, जो विपका भोजन करनेवाले पापियोंसे परिपूर्ण रहता है। सर्पके समान आकारवाले, वज्रमय दाँतोंसे युक्त, सूखे कण्ठवाले तथा अत्यन्त भयंकर विषैले जन्तुओंके द्वारा काटे जाते हुए और मेरे दूतोंके द्वारा पीटे जानेपर चीत्कार करते तथा अत्यन्त भयके मारे काँपते हुए पापियोंसे वह नरककुण्ड भरा पड़ा रहता है ॥ 13-146 ॥ आधे कोसके विस्तारवाला दूषिकाकुण्ड है, जो आँखोंके मल तथा कीटोंसे सदा भरा रहता है। कीड़ोंके काटनेपर व्याकुल होकर इधर-उधर सदा घूमते हुए पापियोंसे वह नरककुण्ड व्याप्त रहता है ॥ 156 ॥

वसारससे परिपूर्ण तथा चार कोसके विस्तारवाला वसाकुण्ड है, जो अत्यन्त दुःसह है वह नरककुण्ड मेरे दूतोंके द्वारा पीटे जाते हुए वसाभोजी पापियोंसे पूर्णतः भरा रहता है ॥ 163 ॥

एक कोसके विस्तारवाला शुक्रकुण्ड है। शुक्रके कीड़ोंसे वह व्याप्त रहता है। कीड़ोंके द्वारा काटे जाते हुए तथा इधर-उधर भागते हुए पापियोंसे वह कुण्ड सदा भरा रहता है ॥ 176 ॥

वापीके समान परिमाणवाला, दुर्गन्धित रक्तसे परिपूर्ण तथा अत्यन्त गहरा रक्तकुण्ड नामक नरक है। उसमें रक्तका पान करनेवाले पापी तथा उन्हें काटनेवाले कीड़े भरे रहते हैं ॥ 183 ॥

अश्रुकुण्ड नामक नरक चार बावलियोंके समान विस्तारवाला है। वह अत्यन्त तप्त तथा नेत्रके आँसुओंसे
परिपूर्ण रहता है एवं वहाँके कीड़ोंके काटनेपर रोते हुए
बहुत-से पापियोंसे भरा पड़ा रहता है ॥ 193 ॥ मनुष्यके शरीरके मलोंसे तथा मलका भक्षण करनेवाले पापियोंसे युक्त गात्रकुण्ड नामक नरक है। मेरे दूतोंके द्वारा पीटे जाते हुए तथा वहाँके कीटद्वारा काटे जाते हुए व्याकुल पापियोंसे वह कुण्ड व्याप्त रहता है॥ 203 llचार बावलियोंके समान विस्तारवाला कर्णविट् | कुण्ड है। वह कानोंकी मैलसे सदा भरा रहता है। उसी मैलको खानेवाले तथा कीड़ोंके काटनेपर चिल्लाते हुए पापियोंसे वह कुण्ड भरा रहता है ॥ 216 ॥

मनुष्योंकी मज्जासे भरा हुआ तथा अत्यन्त दुर्गन्धयुक्त
मज्जाकुण्ड है। चार बावलियोंके विस्तारवाला वह
नरककुण्ड महापापियोंसे व्याप्त रहता है ॥ 223 ॥

एक वापीके समान विस्तारवाला अत्यन्त भयानक मांसकुण्ड है। वह कुण्ड गीले मांसों तथा मेरे दूतोंके द्वारा पीटे जाते हुए पापियोंसे भरा रहता है। कन्याका विक्रय करनेवाले वे पापी वहाँ रहकर उसी मांसका भक्षण करते हैं और भयानक कीड़ोंके काटनेपर अत्यन्त भयभीत होकर 'बचाओ-बचाओ'- इस शब्दको बोलते रहते हैं ॥ 23-243 ।।

चार बावलियोंके विस्तारवाले नखादि चार कुण्ड हैं। मेरे दूतोंके द्वारा निरन्तर पीटे जाते हुए पापियोंसे वे कुण्ड भरे पड़े रहते हैं ॥ 253 ॥

ताम्रमयी उल्कासे युक्त तथा जलते हुए ताँबेके सदृश ताम्रकुण्ड है। वह ताँबेकी लाखों अतितप्त प्रतिमाओंसे परिपूर्ण रहता है। दो कोसके विस्तारवाला वह कुण्ड मेरे दूतोंके द्वारा पीटे जाते हुए तथा प्रत्येक प्रतिमासे सटानेपर रोते हुए पापियोंसे व्याप्त रहता है ।। 26-273 ।।

प्रज्वलित लोहधार तथा दहकते हुए अंगारोंसे युक्त लोहकुण्ड लोहेकी प्रतिमाओंसे चिपके हुए तथा रोते हुए पापियोंसे भरा रहता है। वहाँ निरन्तर दग्ध होते हुए तथा प्रत्येक प्रतिमासे श्लिष्ट और मेरे दूतोंके द्वारा पीटे जानेपर भयभीत होकर 'रक्षा करो, रक्षा करो'-ऐसे शब्द करनेवाले महा पापियोंसे भरे पड़े, भयानक, दो कोसके विस्तारवाले तथा अन्धकारमय उस कुण्डको लोहकुण्ड कहा गया है । 28-303 ॥

चर्मकुण्ड और तप्तसुराकुण्ड आधी बावलीके प्रमाणवाले हैं। चर्म खाते हुए तथा सुरापान करते हुए | और मेरे दूतोंद्वारा पीटे जाते हुए पापियोंसे वे कुण्ड सदा व्याप्त रहते हैं ॥ 313 ।।कण्टकमय वृक्षोंसे भरा शाल्मलीकुण्ड है। एक कोसके विस्तारवाले उस दुःखप्रद कुण्डमें लाखों पुरुष समा सकते हैं। वहाँ शाल्मलीवृक्षसे गिरकर तथा मेरे दूतोंद्वारा गिराये जाकर धनुषकी लम्बाईवाले अत्यन्त तीखे काँटे बिछे रहते हैं। एक-एक करके सभी पापियोंके अंग काँटोंसे छिद उठते हैं। सूखे तालुवाले वे पापी 'मुझे जल दो'- ऐसा शब्द करते रहते हैं। जिस प्रकार प्रतप्त तेलमें पड़नेपर जीव छटपटा उठते हैं, वैसे ही मेरे दूतोंके इण्डोंके प्रहारसे भग्न सिरवाले वे महापापी महान् भयसे अत्यधिक व्याकुल होकर चकराने लगते हैं ।। 32-353 ।।

विषोदकुण्ड एक कोसके परिमाणवाला है। वह कुण्ड तक्षकके समान विषधर जीवों, मेरे दूतोंके द्वारा पीटे जाते हुए और उसी विषका भक्षण करनेवाले पापियोंसे भरा रहता है ।। 363 ॥

प्रतप्ततैलकुण्डमें सदा खौलता हुआ तेल भरा रहता है। उसमें कीड़े आदि नहीं रहते। चारों ओर जलते हुए अंगारोंसे घिरा हुआ वह नरककुण्ड मेरे दूतोंके द्वारा पीटे जानेसे चीत्कार करते हुए तथा इधर-उधर भागते हुए महापापियोंसे भरा रहता है। एक कोसके विस्तारवाला वह नरककुण्ड बड़ा ही भयानक, क्लेशप्रद तथा अन्धकारपूर्ण है ll 37-383 ll

कुन्तकुण्ड त्रिशूलके समान आकारवाले तथा अत्यन्त तीखी धारवाले लौहके अस्त्रोंसे परिपूर्ण है। चार कोसके विस्तारवाला वह नरक कुण्ड शस्त्रोंकी शय्याके समान प्रतीत होता है। मेरे दूतोंके द्वारा पीटे जाते हुए, भालोंसे बिंधे हुए, सूखे कंठ; ओठ तथा तालुवाले पापियोंसे वह कुण्ड भरा रहता है ॥ 39-406 ॥

हे साध्वि ! शंकु तथा सर्पके आकार-प्रकारवाले, भयंकर, तीक्ष्ण दाँतोंवाले तथा विकृत कीड़ोंसे युक्त कृमिकुण्ड है वह अन्धकारमय कुण्ड मेरे दूतोंद्वारा पीटे जाते हुए महापापियोंसे परिपूर्ण रहता है ।। 41-42 ।।

पूयकुण्ड चार कोसके विस्तारवाला कहा गया है मेरे दूतोंद्वारा पीटे जाते हुए पूयभक्षी पापियोंसे वह कुण्ड परिपूर्ण रहता है॥ 43 llसर्पकुण्ड ताड़के वृक्षके समान लम्बाईवाले करोड़ों सर्पोंसे युक्त है। सर्पोंसे जकड़े हुए शरीरवाले, सर्पोंके द्वारा डँसे जाते हुए तथा मेरे दूतोंके द्वारा पीटे जानेपर चीत्कार करते हुए पापियोंसे वह कुण्ड सदा भरा रहता है ॥ 446 ॥

मशक आदि जन्तुओंसे पूर्ण मशककुण्ड, दंशकुण्ड और गरलकुण्ड- ये तीन नरक हैं। उन नरकोंका विस्तार आधे-आधे कोसका है। जिनके हाथ बँधे रहते हैं, रुधिरसे सभी अंग लाल रहते हैं तथा जो मेरे दूतोंके द्वारा पीटे जानेपर 'हा-हा' - ऐसा शब्द करते रहते हैं—उन महापापियोंसे वे कुण्ड भरे रहते हैं । ll45-463 ॥

वज्र तथा बिच्छुओंसे परिपूर्ण वज्रकुण्ड तथा वृश्चिककुण्ड है। आधी वापीके विस्तारवाले वे कुण्ड वज्र तथा बिच्छुओंसे निरन्तर डँसे जाते हुए पापियोंसे भरे रहते हैं ।। 473 ll

शरकुण्ड, शूलकुण्ड और खड्गकुण्ड- ये तीन नरककुण्ड उन्हीं शर, शूल और खड्गसे परिपूर्ण हैं। आधी वापीके परिमाणवाले वे कुण्ड उन तीनों अस्त्रोंसे बँधे तथा रक्तसे लोहित शरीरवाले पापियोंसे व्याप्त रहते हैं ।। 483 ॥

गोलकुण्ड तप्त जलसे भरा हुआ तथा अन्धकारसे पूर्ण रहता है। आधी वापीके विस्तारवाला वह नरककुण्ड शंकुके समान आकारवाले कीड़ोंसे भक्षित होनेवाले पापियोंसे भरा रहता है। वह कुण्ड कीड़ोंके काटने तथा मेरे दूतोंके मारनेपर भयभीत तथा व्याकुल होकर रोते हुए पापियोंसे सदा व्याप्त रहता है ॥ 49-503 ।।

अत्यन्त दुर्गन्धसे युक्त तथा पापियोंको निरन्तर दुःख देनेवाला नक्रकुण्ड है। नक्र आदि करोड़ों भयानक तथा विकृत आकारवाले जलचर जन्तुओंके द्वारा खाये जाते हुए पापियोंसे आधी वापीके परिमाण वाला वह कुण्ड भरा रहता है ॥ 51-52 ॥

काककुण्ड भयानक तथा विकृत आकारवाले कौओंके द्वारा नोचे जाते हुए तथा विष्ठा, मूत्र, श्लेष्मभोजी सैकड़ों-करोड़ों पापियोंसे सदा परिपूर्ण रहता है ॥ 53 ॥मन्थानकुण्ड तथा बीजकुण्ड-इन्हीं दोनों मन्थान तथा बीज नामक कीटोंसे भरे रहते हैं। इन कुण्डोंका परिमाण सौ धनुषके बराबर है। कोड़ोंके काटनेपर निरन्तर चीत्कार करनेवाले पापियोंसे वे कुण्ड व्याप्त रहते हैं ॥ 54 ॥ हाहाकार करनेवाले पापियोंसे व्याप्त वज्रकुण्ड है वज्रके समान दाँतवाले जन्तुओंसे युक्त तथा अत्यन्त घने अन्धकारसे आच्छादित उस नरककुण्डका विस्तार सौ धनुषके परिमाणके बराबर है ll 55 ll

दो वापीके समान विस्तारवाला, अत्यन्त तप्त पत्थरोंसे निर्मित तथा जलते हुए अंगारके सदृश है तप्तपाषाणकुण्ड है। वह व्याकुल होकर इधर-उधर भागते हुए पापियोंसे व्याप्त रहता है ॥ 56 ॥

छुरेकी धारके समान तीक्ष्ण पाषाणोंसे बना हुआ विशाल तीक्ष्णपाषाणकुण्ड है वह महापापियोंसे परिपूर्ण रहता है। रक्तसे लथपथ जीवोंसे भरा हुआ लालाकुण्ड है। कोसभरकी गहराईवाला यह कुण्ड मेरे दूतोंसे निरन्तर पीटे जाते हुए पापियोंसे परिपूर्ण रहता है। इसी प्रकार सौ धनुषके परिमाणवाला मसीकुण्ड है, वह काजलके समान वर्णवाले तप्त पत्थरोंसे बना हुआ है। मेरे दूतोंके द्वारा पीटे जाते हुए तथा इधर-उधर भागते हुए पापियोंसे वह कुण्ड पूर्णरूपसे भरा रहता है ॥ 57-583 ॥

तपे हुए बालूसे परिपूर्ण एक कोसके विस्तारवाला चूर्णकुण्ड है [ अत्यन्त दहकते हुए बालूसे] दग्ध उसी बालूका भोजन करनेवाले तथा मेरे दूतोंके द्वारा पीटे जाते हुए पापियोंसे वह कुण्ड पूरित रहता है ॥ 593 ॥

कुम्हारके चक्रकी भाँति निरन्तर घूमता हुआ, अत्यन्त तीक्ष्ण तथा सोलह अरोंवाला चक्रकुण्ड क्षत विक्षत अंगोंवाले पापियोंसे भरा रहता है। चार कोसके विस्तारवाला, कन्दराके आकारवाला, अत्यन्त गहरा, टेढ़ा-मेढ़ा तथा सदा खौलते हुए जलसे परिपूर्ण वक्रकुण्ड है। अत्यन्त भयानक तथा अन्धकारसे परिपूर्ण वह कुण्ड जल-जन्तुओंके काटने तथा तप्त जलसे दग्ध होनेके कारण चीत्कार करते हुए महा पापियोंसे भरा रहता है ॥ 60-623 ॥विकृत आकारवाले अत्यन्त भयानक करोड़ों कच्छपोंसे भरा हुआ कूर्मकुण्ड है। जलमें रहनेवाले | कछुए वहाँके पापियोंको नोंचते रहते हैं। प्रज्वलित मालाओंसे व्याप्त ज्वालाकुण्ड है, जो एक कोमके विस्तारमें है वह क्लेशप्रद कुण्ड चीखते-चिल्लाते हुए पापियोंसे सदा भरा रहता है ।। 63-646 ।।

एक कोसकी गहराईवाला भस्मकुण्ड है। उस कुण्डमें अत्यन्त तपता हुआ भस्म व्याप्त रहता है। जलते भरमको खानेके कारण वहाँके पापियोंके अंगोंमें निरन्तर दाह उत्पन्न होता रहता है। जो तप्त पाषाण तथा लोहेके समूहोंसे परिपूर्ण तथा जले हुए शरीरवाले पापियोंसे युक्त नरक है, उसे दग्धकुण्ड कहा गया है। वह अत्यन्त भयंकर, गहरा, एक कोसके विस्तारवाला तथा अन्धकारमय कुण्ड मेरे दूतोंद्वारा पीटे जाते हुए तथा जलाये जाते हुए शुष्क तालुवाले पापियोंसे भरा रहता है ॥ 65- 676 ॥

जो बड़ी-बड़ी लहरोंवाले खौलते हुए खारे जल तथा नाना प्रकारके शब्द करनेवाले जल जंतुओंसे युक्त है, चार कोसके विस्तारमें फैला हुआ है, अत्यन्त गहरा तथा अन्धकारपूर्ण है, जल जन्तुओंके काटनेपर चीत्कार करनेवाले तथा तापसे जलते रहनेवाले और घोर अन्धकारके कारण एक दूसरेको न देख पानेवाले पापियोंसे सदा भरा रहता है, उस भयानक कुण्डको प्रतप्तसूचीकुण्ड कहा गया है । ll 68-703॥

तलवारकी धारके समान तीखे पत्तोंवाले ऊँचे ऊँचे ताड़के वृक्षोंके नीचे स्थित, एक कोसके | परिमाणवाले, उन वृक्षोंसे गिरे हुए पत्तोंसे परिपूर्ण, वृक्षोंके अग्रभागसे गिराये जानेपर 'रक्षा करो-रक्षा करो'- ऐसा शब्द करनेवाले अधम पापियोंके रकसे भरे हुए, अत्यन्त गहरे, अन्धकारपूर्ण, रक्तके कीड़ोंसे व्याप्त तथा अत्यन्त भयानक कुण्डको असिपत्रकुण्ड कहा गया है। ll71733॥

क्षुरधारकुण्ड सौ धनुषके बराबर विस्तार वाला चुरेकी धारके समान तीखे अस्त्रोंसे युक्त, पापियोंके रक्तसे परिपूर्ण और बड़ा ही भयानक है ।। 743 ।।सूईकी नोंकवाले अस्त्रोंसे युक्त, पापियोंके रक्तसे सदा परिपूर्ण, पचास धनुषके बराबर विस्तारवाले तथा क्लेशप्रद कुण्डको सूचीमुखकुण्ड कहा गया है ।। 753 ।। जो कुण्ड 'गोका' नामक जन्तुविशेषके मुखके समान आकृतिवाला, कुएँके समान गहरा, बीस धनुष के बराबर विस्तारवाला तथा महापापियोंके लिये अत्यन्त कष्टदायक है, वह गोकामुखकुण्ड है। उस नरकके कीड़ोंके काटनेसे वहाँके पापी जीव सदा अपना मुख नीचे किये रहते हैं ll 76-773 ll

नक्र (मगर) के मुखके समान आकृतिवाले कुण्डको नक्रमुखकुण्ड कहते हैं। वह सोलह धनुषके बराबर विस्तारवाला, गहरा, कुएँके सदृश तथा पापियोंसे परिपूर्ण है। गजदंशकुण्डको सौ धनुषके बराबर विस्तारवाला बताया गया है ।। 78-79 ।। तीस धनुषके बराबर विस्तृत, गोके मुखकी आकृतिके तुल्य और पापियोंको निरन्तर क्लेश प्रदान करनेवाले कुण्डको गोमुखकुण्ड कहा गया है ॥ 80 ll

कुम्भीपाककुण्ड कालचक्रसे युक्त होकर निरन्तर चक्कर काटनेवाला तथा कुम्भके समान आकारवाला है। अत्यन्त भयानक तथा अन्धकारपूर्ण इस कुण्डका विस्तार चार कोसमें है। हे साध्वि! यह नरक एक लाख पौरुष (पोरसा) मानके बराबर गहरा तथा विस्तृत है। उसमें कहीं-कहीं तप्ततैल तथा ताम्रकुण्ड आदि अनेक कुण्ड हैं। उस कुण्डमें बड़े-बड़े पापी अचेत होकर पड़े रहते हैं। भयंकर कीड़ोंके काटनेपर चीत्कार करते हुए वे पापी एक-दूसरेको देखतक नहीं पाते हैं मूसलों तथा मुद्गरोंसे मेरे दूतोंद्वारा पीटे जाते हुए वे क्षण-क्षणमें कभी चक्कर 'खाने लगते हैं, कभी गिर पड़ते हैं और कभी मूच्छित हो जाते हैं। वे पापी क्षण प्रतिक्षण यमदूतोंके द्वारा गिराये जानेपर रोने लगते हैं। हे सुन्दरि ! जितने पापी अन्य सभी कुण्डोंमें हैं, उनसे चौगुने पापी केवल इस अति दुःखप्रद कुम्भीपाक नरकमें हैं। दीर्घकालतक यातना पानेपर भी उन भोगदेहोंका विनाश नहीं होता। वह कुम्भीपाक समस्त कुण्डों में मुख्य कहा गया है ll 81-866 ।।जहाँ कालके द्वारा निर्मित सूत्रसे बँधे हुए | प्राणी निवास करते हैं, वे मेरे दूतोंके द्वारा क्षणभरमें | ऊपर उठाये जाते हैं तथा क्षणभरमें डुबो दिये जाते हैं। उनकी साँसें बहुत देरतक बन्द रहती हैं, पुनः वे अचेत हो जाते हैं तथा हे सुन्दरि ! देहभोगके कारण पापियाँको जहाँ महान् क्लेश प्राप्त होता है तथा जो खौलते जलसे युक्त है, उसे कालसूत्रकुण्ड कहा गया है ।। 87-89 ॥

अवट नामक एक कूप है, उसीको मत्स्योदकुण्ड कहा गया है। चौबीस धनुषके बराबर विस्तारवाला वह कुण्ड प्रतप्त जलसे सदा परिपूर्ण रहता है। मेरे दूतोंके द्वारा निरन्तर पीटे जाते हुए, दग्ध अंगोंवाले महापापियोंसे युक्त उस नरकको अवटोदकुण्ड भी कहा गया है । ll90-91 ॥

सौ धनुषकी लम्बाईके बराबर विस्तारवाले जिस नरककुण्डके जलका स्पर्श होते ही उसमें अकस्मात् गिरे हुए पापियोंको सभी व्याधियाँ ग्रस्त कर लेती हैं तथा जो अरुन्तुद नामक भयानक कीड़ोंके काटने से हाहाकार मचाते हुए पापी जीवोंसे सदा परिपूर्ण रहता है, उसे अरुन्तुदकुण्ड कहा गया है ॥ 92-93 ॥

पांसुकुण्ड अत्यन्त तपी हुई धूलसे भरा रहता है। उसका विस्तार सौ धनुषके बराबर है। जलती हुई धूलसे दग्ध त्वचावाले तथा उसी धूलका भक्षण करनेवाले पापियोंसे वह कुण्ड भरा रहता है ॥ 94 ॥

जिसमें गिरते ही पापी पाशसे आवेष्टित हो जाता है तथा जिसका विस्तार कोसभरका है, उसे | पाशवेष्टनकुण्ड कहा गया है ।। 95 ।।

जिसमें गिरते ही पापी शूलसे जकड़ उठता है तथा जिसका विस्तार बीस धनुषके परिमाणके बराबर है, उसे शूलप्रोतकुण्ड कहा गया है ॥ 96 ॥

जिस नरककुण्डमें गिरनेवाले पापियोंके शरीरमें कँपकँपी उठने लगती है, उसे प्रकम्पन कुण्ड कहा जाता है। आधे कोसके विस्तारवाला वह कुण्ड सदा बर्फके समान अत्यन्त शीतल जलसे भरा रहता है ॥ 97 ॥जिस नरकमे रहनेवाले पापियोंके मुखमै मेरे दूत जलती हुई लकड़ी डाल देते हैं, वह उल्कामुखकुण्ड है। जलती हुई लकड़ियोंसे युक्त उस कुण्डका विस्तार बीस धनुषके बराबर है ॥ 98 ll

एक लाख पोरसेके बराबर गहरे, सौ धनुषके बराबर विस्तृत, भयानक, अनेक प्रकारके कीड़ोंसे युक्त, कुएँके समान गोलाकार तथा सदा अन्धकारसे व्याप्त नरकको अन्धकूप कहा गया है। वह कीड़ोंके काटनेपर परस्पर लड़नेवाले, खौलते हुए जलसे दग्ध शरीरवाले, कौड़ोंके द्वारा निरन्तर काटे जाते हुए और अन्धकारके कारण नेत्रोंसे देखने में असमर्थ पापियोंसे युक्त रहता है । 99 - 101 ॥

जहाँ पापियोंको अनेक प्रकारके शस्त्रास्त्रोंसे वेधा जाता है तथा जिसका विस्तार बीस धनुषके प्रमाणके बराबर है, उसे वेधनकुण्ड कहा गया है ॥ 102 ॥ जहाँ मेरे दूतोंके द्वारा पापीलोग पीटे जाते हैं तथा जो सोलह धनुषोंके प्रमाणवाला है, वह दण्डताडनकुण्ड है ॥ 103 ॥

जहाँ जाते ही पापी मछलियोंकी भाँति बड़े-बड़े जालोंमें फँस जाते हैं तथा जो बीस धनुष प्रमाणवाला है, वह जालरन्ध्रकुण्ड कहा गया है ॥ 104 ॥ जिस कुण्डमें गिरनेवाले पापियोंकी देह चूर-चूर हो जाती है, जहाँके पापियोंके पैरमें लोहेकी बेड़ियाँ पड़ी रहती हैं, जो करोड़ पोरसा गहरा तथा बीस धनुषके बराबर विस्तृत है, जो पूर्णरूपसे अन्धकारसे व्याप्त है तथा जहाँ पापी जीव मूच्छित होकर जड़की भाँति पड़े रहते है-उसे देहचूर्णकुण्ड कहा गया है ।। 105-106 ll

जहाँ मेरे दूत पापियोंको कुचलते तथा पीटते हैं तथा जो सोलह धनुषके विस्तारमें है, उसे दलनकुण्ड कहा गया है ॥ 107 ॥

प्रतप्त बालूसे व्याप्त होनेके कारण जहाँ गिरते ही पापीके कण्ठ, ओठ और तालु सूख जाते हैं; जो तीस धनुषके परिमाणके विस्तारवाला तथा सौ पोरसा गहरा है, जो सदा अन्धकारसे आच्छादित रहता है तथा पापियोंको महान् कष्ट पहुँचानेवाला है, उसे शोषणकुण्ड कहा गया है ।। 108-109 ।।जो अनेक प्रकारके चर्मोंके कषाय (कसैले) जलसे परिपूर्ण रहता है, जिसका विस्तार सौ धनुषके बराबर है, जो दुर्गन्धसे भरा रहता है तथा जो चमड़ेके आहारपर रहनेवाले पापियोंसे सदा पूरित रहता है, उसे कषकुण्ड कहा गया है ॥ 110 ॥

हे साध्वि! जिस कुण्डका मुख सूपके आकारका है, जिसका विस्तार बारह धनुषके बराबर है, जो तपते हुए लौहकणोंसे व्याप्त रहता है, जहाँ सर्वत्र पापी भरे रहते हैं, जो दुर्गन्धसे परिपूर्ण रहता है तथा जो उसी लोहबालुकाका भक्षण करनेवाले पापियोंसे भरा रहता है, उसे शूर्पकुण्ड कहा जाता है ।। 111-112 ॥

हे सुन्दरि ! जो प्रतप्त बालूसे भरा रहता है, महान् पापियोंसे युक्त रहता है, जिसके भीतर आगकी लपटें उठती रहती हैं, जिसका मुखभाग ज्वालाओंसे सदा व्याप्त रहता है, जिसका विस्तार बीस धनुषके बराबर है, जो ज्वालाओंसे दग्ध शरीरवाले पापियोंसे सदा पूरित रहता है, निरन्तर महान् कष्ट प्रदान करनेवाले उस कुण्डको ज्वालामुखकुण्ड कहा गया है ॥ 113 - 1143

जिसमें गिरते ही पापी मनुष्य मूच्छित हो जाता है, जिसका भीतरी भाग तपती हुई ईंटोंसे युक्त है, जो आधी बावड़ीके विस्तारवाला है, वह जिह्मकुण्ड है। धुएँके कारण अन्धकारसे युक्त, धूम्रसे अन्धे हो जानेवाले पापियोंसे सदा भरे रहनेवाले, सौ धनुषके बराबर परिमाणवाले तथा श्वास लेनेहेतु बहुतसे छिद्रोंसे युक्त नरककुण्डको धूम्रान्धकुण्ड कहा गया है। जहाँ जाते ही पापी नागोंके द्वारा लपेट लिये जाते हैं, जो सौ धनुषके तुल्य परिमाणवाला है तथा जो नागोंसे सदा परिपूर्ण रहता है, उसे नागवेष्टनकुण्ड कहा गया है। [हे सावित्रि!] सुनो, मैंने इन छियासी नरककुण्डों तथा इनके लक्षणोंका वर्णन कर दिया; अब तुम क्या सुनना चाहती हो ? ।। 115 - 118 ॥

Previous Page 259 of 326 Next

देवी भागवत महापुराण
Index


  1. [अध्याय 1] प्रकृतितत्त्वविमर्श प्रकृतिके अंश, कला एवं कलांशसे उत्पन्न देवियोंका वर्णन
  2. [अध्याय 2] परब्रह्म श्रीकृष्ण और श्रीराधासे प्रकट चिन्मय देवताओं एवं देवियोंका वर्णन
  3. [अध्याय 3] परिपूर्णतम श्रीकृष्ण और चिन्मयी राधासे प्रकट विराट्रूप बालकका वर्णन
  4. [अध्याय 4] सरस्वतीकी पूजाका विधान तथा कवच
  5. [अध्याय 5] याज्ञवल्क्यद्वारा भगवती सरस्वतीकी स्तुति
  6. [अध्याय 6] लक्ष्मी, सरस्वती तथा गंगाका परस्पर शापवश भारतवर्षमें पधारना
  7. [अध्याय 7] भगवान् नारायणका गंगा, लक्ष्मी और सरस्वतीसे उनके शापकी अवधि बताना तथा अपने भक्तोंके महत्त्वका वर्णन करना
  8. [अध्याय 8] कलियुगका वर्णन, परब्रह्म परमात्मा एवं शक्तिस्वरूपा मूलप्रकृतिकी कृपासे त्रिदेवों तथा देवियोंके प्रभावका वर्णन और गोलोकमें राधा-कृष्णका दर्शन
  9. [अध्याय 9] पृथ्वीकी उत्पत्तिका प्रसंग, ध्यान और पूजनका प्रकार तथा उनकी स्तुति
  10. [अध्याय 10] पृथ्वीके प्रति शास्त्र - विपरीत व्यवहार करनेपर नरकोंकी प्राप्तिका वर्णन
  11. [अध्याय 11] गंगाकी उत्पत्ति एवं उनका माहात्म्य
  12. [अध्याय 12] गंगाके ध्यान एवं स्तवनका वर्णन, गोलोकमें श्रीराधा-कृष्णके अंशसे गंगाके प्रादुर्भावकी कथा
  13. [अध्याय 13] श्रीराधाजीके रोषसे भयभीत गंगाका श्रीकृष्णके चरणकमलोंकी शरण लेना, श्रीकृष्णके प्रति राधाका उपालम्भ, ब्रह्माजीकी स्तुतिसे राधाका प्रसन्न होना तथा गंगाका प्रकट होना
  14. [अध्याय 14] गंगाके विष्णुपत्नी होनेका प्रसंग
  15. [अध्याय 15] तुलसीके कथा-प्रसंगमें राजा वृषध्वजका चरित्र- वर्णन
  16. [अध्याय 16] वेदवतीकी कथा, इसी प्रसंगमें भगवान् श्रीरामके चरित्रके एक अंशका कथन, भगवती सीता तथा द्रौपदी के पूर्वजन्मका वृत्तान्त
  17. [अध्याय 17] भगवती तुलसीके प्रादुर्भावका प्रसंग
  18. [अध्याय 18] तुलसीको स्वप्न में शंखचूड़का दर्शन, ब्रह्माजीका शंखचूड़ तथा तुलसीको विवाहके लिये आदेश देना
  19. [अध्याय 19] तुलसीके साथ शंखचूड़का गान्धर्वविवाह, शंखचूड़से पराजित और निर्वासित देवताओंका ब्रह्मा तथा शंकरजीके साथ वैकुण्ठधाम जाना, श्रीहरिका शंखचूड़के पूर्वजन्मका वृत्तान्त बताना
  20. [अध्याय 20] पुष्पदन्तका शंखचूड़के पास जाकर भगवान् शंकरका सन्देश सुनाना, युद्धकी बात सुनकर तुलसीका सन्तप्त होना और शंखचूड़का उसे ज्ञानोपदेश देना
  21. [अध्याय 21] शंखचूड़ और भगवान् शंकरका विशद वार्तालाप
  22. [अध्याय 22] कुमार कार्तिकेय और भगवती भद्रकालीसे शंखचूड़का भयंकर बुद्ध और आकाशवाणीका पाशुपतास्त्रसे शंखचूड़की अवध्यताका कारण बताना
  23. [अध्याय 23] भगवान् शंकर और शंखचूड़का युद्ध, भगवान् श्रीहरिका वृद्ध ब्राह्मणके वेशमें शंखचूड़से कवच माँग लेना तथा शंखचूड़का रूप धारणकर तुलसीसे हास-विलास करना, शंखचूड़का भस्म होना और सुदामागोपके रूपमें गोलोक पहुँचना
  24. [अध्याय 24] शंखचूड़रूपधारी श्रीहरिका तुलसीके भवनमें जाना, तुलसीका श्रीहरिको पाषाण होनेका शाप देना, तुलसी-महिमा, शालग्रामके विभिन्न लक्षण एवं माहात्म्यका वर्णन
  25. [अध्याय 25] तुलसी पूजन, ध्यान, नामाष्टक तथा तुलसीस्तवनका वर्णन
  26. [अध्याय 26] सावित्रीदेवीकी पूजा-स्तुतिका विधान
  27. [अध्याय 27] भगवती सावित्रीकी उपासनासे राजा अश्वपतिको सावित्री नामक कन्याकी प्राप्ति, सत्यवान् के साथ सावित्रीका विवाह, सत्यवान्की मृत्यु, सावित्री और यमराजका संवाद
  28. [अध्याय 28] सावित्री यमराज-संवाद
  29. [अध्याय 29] सावित्री धर्मराजके प्रश्नोत्तर और धर्मराजद्वारा सावित्रीको वरदान
  30. [अध्याय 30] दिव्य लोकोंकी प्राप्ति करानेवाले पुण्यकर्मोंका वर्णन
  31. [अध्याय 31] सावित्रीका यमाष्टकद्वारा धर्मराजका स्तवन
  32. [अध्याय 32] धर्मराजका सावित्रीको अशुभ कर्मोंके फल बताना
  33. [अध्याय 33] विभिन्न नरककुण्डों में जानेवाले पापियों तथा उनके पापोंका वर्णन
  34. [अध्याय 34] विभिन्न पापकर्म तथा उनके कारण प्राप्त होनेवाले नरकका वर्णन
  35. [अध्याय 35] विभिन्न पापकर्मोंसे प्राप्त होनेवाली विभिन्न योनियोंका वर्णन
  36. [अध्याय 36] धर्मराजद्वारा सावित्रीसे देवोपासनासे प्राप्त होनेवाले पुण्यफलोंको कहना
  37. [अध्याय 37] विभिन्न नरककुण्ड तथा वहाँ दी जानेवाली यातनाका वर्णन
  38. [अध्याय 38] धर्मराजका सावित्री से भगवतीकी महिमाका वर्णन करना और उसके पतिको जीवनदान देना
  39. [अध्याय 39] भगवती लक्ष्मीका प्राकट्य, समस्त देवताओंद्वारा उनका पूजन
  40. [अध्याय 40] दुर्वासाके शापसे इन्द्रका श्रीहीन हो जाना
  41. [अध्याय 41] ब्रह्माजीका इन्द्र तथा देवताओंको साथ लेकर श्रीहरिके पास जाना, श्रीहरिका उनसे लक्ष्मीके रुष्ट होनेके कारणोंको बताना, समुद्रमन्थन तथा उससे लक्ष्मीजीका प्रादुर्भाव
  42. [अध्याय 42] इन्द्रद्वारा भगवती लक्ष्मीका षोडशोपचार पूजन एवं स्तवन
  43. [अध्याय 43] भगवती स्वाहाका उपाख्यान
  44. [अध्याय 44] भगवती स्वधाका उपाख्यान
  45. [अध्याय 45] भगवती दक्षिणाका उपाख्यान
  46. [अध्याय 46] भगवती षष्ठीकी महिमाके प्रसंगमें राजा प्रियव्रतकी कथा
  47. [अध्याय 47] भगवती मंगलचण्डी तथा भगवती मनसाका आख्यान
  48. [अध्याय 48] भगवती मनसाका पूजन- विधान, मनसा-पुत्र आस्तीकका जनमेजयके सर्पसत्रमें नागोंकी रक्षा करना, इन्द्रद्वारा मनसादेवीका स्तवन करना
  49. [अध्याय 49] आदि गौ सुरभिदेवीका आख्यान
  50. [अध्याय 50] भगवती श्रीराधा तथा श्रीदुर्गाके मन्त्र, ध्यान, पूजा-विधान तथा स्तवनका वर्णन