View All Puran & Books

देवी भागवत महापुराण ( देवी भागवत)

Devi Bhagwat Purana (Devi Bhagwat Katha)

स्कन्ध 9, अध्याय 35 - Skand 9, Adhyay 35

Previous Page 257 of 326 Next

विभिन्न पापकर्मोंसे प्राप्त होनेवाली विभिन्न योनियोंका वर्णन

धर्मराज बोले- हे साध्वि! देवताओंकी उपासना के बिना कर्म-बन्धनसे मुक्ति नहीं होती। शुद्ध कर्मका बीज शुद्ध होता है और कुकर्मसे नरककी प्राप्ति होती है ॥ 1 ॥

हे पतिव्रते ! जो ब्राह्मण पुंश्चली स्त्रीका अन्न खाता है अथवा जो इसके साथ भोग करता है, वह मरनेके पश्चात् अत्यन्त कष्टदायक कालसूत्र नामक नरकमें जाता है और उस कालसूत्रमें सौ वर्षोंतक पड़ा रहता है। तत्पश्चात् मानवयोनिमें जन्म लेकर वह सदा रोगी रहता है। उसके बाद वह द्विज शुद्ध हो जाता है । ll 2-3 ॥

एक पतिवाली स्त्री पतिव्रता तथा दो पतिवाली स्त्री कुलटा कही गयी है। तीन पतिवाली स्त्री धर्षिणी, चार पतिवाली पुंश्चली, पाँच-छः पतिवाली वेश्या तथा सात-आठ पतिवाली स्त्रीको पुंगी जानना चाहिये। इससे अधिक पुरुषोंसे सम्बन्ध रखनेवाली स्त्रीको महावेश्या कहा गया है, वह सभी जातिके लोगोंके लिये अस्पृश्य है ॥ 4-5 ॥

जो द्विज कुलटा, धर्षिणी, पुंश्चली, पुंगी, वेश्या तथा महावेश्याके साथ समागम करता है; वह निश्चित रूपसे मत्स्योद नामक नरकमें जाता है। उस नरकमें कुलटागामी सौ वर्षोंतक, धर्षिणीगामी उससे चार गुने अर्थात् चार सौ वर्षोंतक, पुंश्चलीगामी छः सौ वर्षोंतक, वेश्यागामी आठ सौ वर्षोंतक और पुंगीगामी एक हजार वर्षोंतक निवास करता है, महावेश्याके साथ गमन करनेवाले कामुक व्यक्तिकोदस हजार वर्षोंतक वहाँ रहना पड़ता है; इसमें संशय नहीं है। वहाँपर यमदूतसे पीटा जाता हुआ वह तरह तरहकी यातना भोगता है। उसके बाद कुलटागामी तीतर, धर्षिणीगामी कौवा, पुंश्चलीगामी कोयल, वेश्यागामी भेड़िया और पुंगीगामी सूअरकी योनिमें भारतवर्षमें सात जन्मोंतक पैदा होते रहते हैं—ऐसा कहा गया है। महावेश्यासे समागम करनेवाला मनुष्य सेमरका वृक्ष होता है । ll 6 – 103 ॥

जो अज्ञानी मनुष्य चन्द्रग्रहण और सूर्यग्रहणके अवसरपर भोजन करता है, वह अन्नके दानोंकी संख्याके बराबर वर्षोंतक अरुन्तुद नामक नरककुण्डमें जाता है। तत्पश्चात् वह मनुष्ययोनिमें उत्पन्न होता है। उस समय वह उदररोगसे पीड़ित, प्लीहारोगसे ग्रस्त, काना तथा दन्तविहीन हो जाता है; उसके बाद उसकी शुद्धि हो जाती है ॥ 11-123 ॥

। जो अपनी कन्याका वाग्दान करके उसे किसी अन्य पुरुषको प्रदान कर देता है, वह पांसुकुण्ड नामक नरकमें सौ वर्षोंतक वास करता है और उसी धूलराशिका भोजन करता है। हे साध्वि! जो मनुष्य अपनी कन्याके धनका हरण करता है, वह पांशुवेष्ट नामक नरककुण्डमें सौ वर्षोंतक वास करता है। वह | वहाँ बाणोंकी शय्यापर लेटा रहता है और मेरे दूत उसे पीटते रहते हैं ॥ 13-143 ॥

जो विप्र भक्तिपूर्वक पार्थिव शिवलिंगकी पूजा नहीं करता, वह त्रिशूल धारण करनेवाले भगवान् शिवके प्रति अपराधजन्य पापके कारण शूलप्रोत नामक अत्यन्त भयानक नरककुण्डमें जाता है। वहाँ सौ वर्ष तक रहनेके पश्चात् वह सात जन्मोंतक वन्य पशु होता है। उसके बाद सात जन्मोंतक देवल होता है, फिर उसकी शुद्धि हो जाती है । ll15-163 ॥

जो किसी विप्रको कुण्ठित कर देता है और उसके भयसे वह काँपने लगता है, वह उस द्विजके शरीरमें जितने रोम होते हैं, उतने वर्षोंतक प्रकम्पनकुण्डमें निवास करता ll 173 ॥

कोपाविष्ट मुखवाली जो स्त्री अपने पतिको | क्रोधभरी दृष्टिसे देखती है और कटु वाणीमें उससे | बात करती है, वह उल्मुक नामक नरककुण्डमें जातीहै वहाँ पर मेरे दूत उसके मुखमें निरन्तर प्रज्वलित अंगार डालते रहते हैं और उसके सिरपर डंडेसे प्रहार करते रहते हैं। उसके पतिके शरीरमें जितने रोम होते हैं, उतने वर्षोंतक उस स्त्रीको उस नरक कुण्डमें रहना पड़ता है। उसके बाद मानवजन्म प्राप्त करके वह सात जन्मोंतक विधवा रहती है। विधवाका जीवन व्यतीत करनेके पश्चात् वह रोगसे ग्रस्त हो जाती है, तत्पश्चात् उसकी शुद्धि हो जाती है ।। 18-20 ।।

जो ब्राह्मणी शुद्रके साथ भोग करती है, वह अन्धकूप नामक नरककुण्डमें जाती है। अन्धकारमय तथा तप्त शौचजलयुक्त उस कुण्डमें वह दिन-रात पड़ी रहती है और उसी तप्त शौचजलका भोजन करती है। मेरे दूतोंके द्वारा पीटी जाती हुई वह वहाँ अत्यन्त सन्तप्त रहती है। वह स्त्री चौदह इन्द्रोंकी स्थितिपर्यन्त उस शौचजलमें डूबी रहती है। तत्पश्चात् वह एक हजार जन्मतक कौवी, एक सौ जन्मतक सूकरी, एक सौ जन्मतक सियारिन, एक सौ जन्मतक कुक्कुटी, सात जन्मतक कबूतरी और सात जन्मतक वानरी होती है। इसके बाद वह भारतवर्षमें सर्वभोग्या चाण्डाली होती है, उसके बाद वह व्यभिचारिणी धोबिन होती है और सदा यक्ष्मारोगसे ग्रस्त रहती है। तत्पश्चात् वह कोड़रोगसे युक्त तैलकारी ( तेलिन) होती है और उसके बाद शुद्ध हो जाती है । ll21 - 253 ॥

वेश्या वेधनकुण्डमें, पुंगी दण्डताडनकुण्डमें, महावेश्या जलरन्ध्रकुण्डमें, कुलटा देहचूर्णकुण्डमें, स्वैरिणी दलनकुण्डमें और धृष्टा शोषणकुण्डमें वास करती है। हे साध्वि मेरे दूतसे पीटी जाती हुई वह वहाँ यातना भोगती रहती है। उसे एक मन्वन्तरतक निरन्तर विष्ठा और मूत्रका भक्षण करना पड़ता है। उसके बाद वह एक लाख वर्षतक विष्ठाके कीटके रूपमें रहती है और फिर उसकी शुद्धि हो जाती है ।। 26-286 ॥

यदि ब्राह्मण किसी परायी ब्राह्मणीके साथ, क्षत्रिय क्षत्राणीके साथ, वैश्य किसी वैश्याके साथ और शूद्र किसी शूद्राके साथ भोग करता है तो अपनेही वर्णकी परायी स्त्रियोंके साथ भोग करनेवाले वे पुरुष कषाय नामक नरकमें जाते हैं। वहाँ वे कषाय (खारा) तथा गर्म जल पीते हुए सौ वर्षतक पढ़े रहते हैं। उसके बाद वे ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि पुरुष शुद्ध होते हैं। उसी प्रकार यातनाएँ भोगकर वे ब्राह्मणी आदि स्त्रियाँ भी शुद्ध होती है-ऐसा पितामह ब्रह्माने कहा है ।। 29-313 ॥

हे पतिव्रते जो क्षत्रिय अथवा वैश्य किसी ब्राह्मणीके साथ समागम करता है, वह मातृगामी होता है और वह शूर्प नामक नरकमें वास करता है। ब्राह्मणीसहित वह मनुष्य सूपके आकारके कीड़ोंके द्वारा नोचा जाता है। वहाँ वह अत्यन्त गर्म मूत्रका सेवन करता है और मेरे दूत उसे पीटते हैं वहाँपर । वह चौदह इन्द्रोंके आयुपर्यन्त यातना भोगता है। उसके बाद वह सात जन्मोंतक सूअर और सात जन्मोंतक बकरा होता है, तत्पश्चात् वह शुद्ध हो जाता है ll32-343 ॥

जो मनुष्य हाथमें तुलसीदल लेकर की गयी प्रतिज्ञाका पालन नहीं करता अथवा मिथ्या शपथ लेता है, वह ज्वालामुख नामक नरकमें जाता है। उसी प्रकार जो मनुष्य अपने हाथमें गंगाजल, शालग्रामशिला अथवा किसी देवताकी प्रतिमा लेकर की गयी प्रतिज्ञाका पालन नहीं करता, वह भी ज्वालामुख नरकमें जाता है। जो मनुष्य किसी दूसरे व्यक्तिके 'दाहिने हाथमें अपना दायाँ हाथ रखकर अथवा किसी देवालयमें स्थित होकर की गयी प्रतिज्ञाको पूर्ण नहीं करता, वह भी ज्वालामुख नरकमें जाता है। जो द्विज किसी ब्राह्मण अथवा गायका स्पर्श करके की गयी प्रतिज्ञाका पालन नहीं करता, वह ज्वालामुख नामक नरक में जाता है। उसी तरह जो मनुष्य अपने मित्रके साथ द्रोह करता है, कृतघ्न है, विश्वासघात करता है और झूठी गवाही देता है, वह भी ज्वालामुख नरकमें जाता है। ये लोग उस नरकमें चौदह इन्द्रोंकी स्थितिपर्यन्त निवास करते हैं। मेरे दूत अंगारोंसे उन्हें दागते हैं और बहुत पीटते हैं ।। 35-403 ॥तुलसीका स्पर्श करके मिथ्या शपथ लेनेवाला सात जन्मतक चाण्डाल होता है, उसके बाद उसकी शुद्धि होती है। गंगाजलका स्पर्श करके की गयी प्रतिज्ञाका पालन न करनेवाला पाँच जन्मतक म्लेच्छ होता है, उसके बाद वह शुद्ध होता है। हे सुन्दरि ! शालग्रामशिलाका स्पर्श करके की गयी प्रतिज्ञाका पालन न करनेवाला सात जन्मतक विष्ठाका कीड़ा होता है। किसी देवप्रतिमाका स्पर्श करके जो मिथ्या प्रतिज्ञा करता है, वह सात जन्मतक ब्राह्मण गृहस्थके घर कीड़ा होता है, इसके बाद उसकी शुद्धि हो जाती है किसीके दाहिने हाथपर अपना दाहिना हाथ रखकर मिथ्या शपथ लेनेवाला सात जन्मतक सर्प होता है। उसके बाद ब्रह्मज्ञानविहीन मानव होता है, पुनः शुद्ध हो जाता है जो देवमन्दिरमें मिध्या वचन बोलता है, वह सात जन्मतक देवल होता है। ब्राह्मण आदिको स्पर्श करके झूठी प्रतिज्ञा करनेवाला निश्चितरूपसे बाघयोनिमें जन्म लेता है। उसके बाद वह तीन जन्मतक गूँगा और फिर तीन जन्मतक बहरा होता है वह भार्यारहित बन्धुबान्धवोंसे विहीन तथा निःसन्तान रहता है, तत्पश्चात् शुद्ध हो जाता है। जो मित्रके साथ द्रोह करता है, वह नेवला होता है; जो दूसरोंका उपकार नहीं मानता, वह गैंडा होता है; जो विश्वासघाती होता है, वह सात जन्मतक भारतवर्षमें बाघ होता है और जो झूठी गवाही देता है, वह सात जन्मतक मेढक होता है। वह अपनी सात पीढ़ी पहले तथा सात पीढ़ी बादके पुरुषोंका अध: पतन करा देता है ॥ 41-473 ॥

जो द्विज नित्यक्रियासे विहीन तथा जड़तासे युक्त है, वेदवाक्योंमें जिसकी आस्था नहीं है, जो कपटपूर्वक उनका सदा उपहास करता है, जो व्रत तथा उपवास नहीं करता और दूसरोंके उत्तम विचारोंकी निन्दा करता है, वह धूम्रान्ध नामक नरकमें धूमका ही भक्षण करते हुए एक सौ वर्षतक निवास करता है। उसके बाद वह क्रमसे सौ जन्मोंतक अनेक प्रकारका जलजन्तु होता है। तत्पश्चात् वह अनेक प्रकारकी मत्स्ययोनिमें जन्म लेता है, उसके बाद उसकी शुद्धि हो जाती है ॥ 48-506 ॥जो मनुष्य देवता तथा ब्राह्मणकी सम्पत्तिका उपहास करता है, वह अपनी दस पीढ़ी पहले तथा | दस पीढ़ी बादके पुरुषोंका पतन कराकर स्वयं धूम्र तथा अन्धकारसे युक्त धूम्रान्ध नामक नरकमें जाता है। वहाँपर धुएँसे कष्ट सहते हुए तथा धुएँका ही भोजन करते हुए वह चार सौ वर्षतक रहता है। उसके बाद वह भारतवर्षमें सात जन्मतक चूहेकी योनिमें जन्म पाता है। तदनन्तर वह अनेक प्रकारके पक्षियों तथा कीड़ोंकी योनिमें जाता है, उसके बाद अनेकविध वृक्ष तथा पशु होनेके अनन्तर वह मनुष्ययोनिमें जन्म ग्रहण करता है ॥ 51-54 ॥

जो विप्र ज्योतिषविद्यासे अपनी आजीविका चलाता है, वैद्य होकर चिकित्सावृत्तिसे आजीविका चलाता है, लाख-लोहा आदिका व्यापार करता और रस आदिका विक्रय करता है; वह नागोंसे व्याप्त नागवेष्टन नामक नरकमें जाता है और नागोंसे आबद्ध होकर अपने शरीरके रोमप्रमाण वर्षोंतक वहाँ निवास करता है, तत्पश्चात् उसे नानाविध पक्षी-योनियाँ मिलती हैं और उसके बाद वह मनुष्य होता है, तत्पश्चात् वह सात जन्मतक गणक और सात जन्मतक वैद्य होता है। पुनः गोप, कर्मकार और | रंगकार होकर शुद्ध होता है ॥ 55-573 ॥

हे पतिव्रते! मैंने प्रसिद्ध नरककुण्डोंका वर्णन कर दिया। इनके अतिरिक्त और भी छोटे-छोटे कुण्ड हैं, जो प्रसिद्ध नहीं हैं, अपने कर्मोंका फल भोगनेके लिये पापी लोग वहाँ जाते हैं और विविध योनियोंमें भ्रमण करते रहते हैं, अब तुम और क्या सुनना चाहती हो ? ।। 58-59 ।।

Previous Page 257 of 326 Next

देवी भागवत महापुराण
Index


  1. [अध्याय 1] प्रकृतितत्त्वविमर्श प्रकृतिके अंश, कला एवं कलांशसे उत्पन्न देवियोंका वर्णन
  2. [अध्याय 2] परब्रह्म श्रीकृष्ण और श्रीराधासे प्रकट चिन्मय देवताओं एवं देवियोंका वर्णन
  3. [अध्याय 3] परिपूर्णतम श्रीकृष्ण और चिन्मयी राधासे प्रकट विराट्रूप बालकका वर्णन
  4. [अध्याय 4] सरस्वतीकी पूजाका विधान तथा कवच
  5. [अध्याय 5] याज्ञवल्क्यद्वारा भगवती सरस्वतीकी स्तुति
  6. [अध्याय 6] लक्ष्मी, सरस्वती तथा गंगाका परस्पर शापवश भारतवर्षमें पधारना
  7. [अध्याय 7] भगवान् नारायणका गंगा, लक्ष्मी और सरस्वतीसे उनके शापकी अवधि बताना तथा अपने भक्तोंके महत्त्वका वर्णन करना
  8. [अध्याय 8] कलियुगका वर्णन, परब्रह्म परमात्मा एवं शक्तिस्वरूपा मूलप्रकृतिकी कृपासे त्रिदेवों तथा देवियोंके प्रभावका वर्णन और गोलोकमें राधा-कृष्णका दर्शन
  9. [अध्याय 9] पृथ्वीकी उत्पत्तिका प्रसंग, ध्यान और पूजनका प्रकार तथा उनकी स्तुति
  10. [अध्याय 10] पृथ्वीके प्रति शास्त्र - विपरीत व्यवहार करनेपर नरकोंकी प्राप्तिका वर्णन
  11. [अध्याय 11] गंगाकी उत्पत्ति एवं उनका माहात्म्य
  12. [अध्याय 12] गंगाके ध्यान एवं स्तवनका वर्णन, गोलोकमें श्रीराधा-कृष्णके अंशसे गंगाके प्रादुर्भावकी कथा
  13. [अध्याय 13] श्रीराधाजीके रोषसे भयभीत गंगाका श्रीकृष्णके चरणकमलोंकी शरण लेना, श्रीकृष्णके प्रति राधाका उपालम्भ, ब्रह्माजीकी स्तुतिसे राधाका प्रसन्न होना तथा गंगाका प्रकट होना
  14. [अध्याय 14] गंगाके विष्णुपत्नी होनेका प्रसंग
  15. [अध्याय 15] तुलसीके कथा-प्रसंगमें राजा वृषध्वजका चरित्र- वर्णन
  16. [अध्याय 16] वेदवतीकी कथा, इसी प्रसंगमें भगवान् श्रीरामके चरित्रके एक अंशका कथन, भगवती सीता तथा द्रौपदी के पूर्वजन्मका वृत्तान्त
  17. [अध्याय 17] भगवती तुलसीके प्रादुर्भावका प्रसंग
  18. [अध्याय 18] तुलसीको स्वप्न में शंखचूड़का दर्शन, ब्रह्माजीका शंखचूड़ तथा तुलसीको विवाहके लिये आदेश देना
  19. [अध्याय 19] तुलसीके साथ शंखचूड़का गान्धर्वविवाह, शंखचूड़से पराजित और निर्वासित देवताओंका ब्रह्मा तथा शंकरजीके साथ वैकुण्ठधाम जाना, श्रीहरिका शंखचूड़के पूर्वजन्मका वृत्तान्त बताना
  20. [अध्याय 20] पुष्पदन्तका शंखचूड़के पास जाकर भगवान् शंकरका सन्देश सुनाना, युद्धकी बात सुनकर तुलसीका सन्तप्त होना और शंखचूड़का उसे ज्ञानोपदेश देना
  21. [अध्याय 21] शंखचूड़ और भगवान् शंकरका विशद वार्तालाप
  22. [अध्याय 22] कुमार कार्तिकेय और भगवती भद्रकालीसे शंखचूड़का भयंकर बुद्ध और आकाशवाणीका पाशुपतास्त्रसे शंखचूड़की अवध्यताका कारण बताना
  23. [अध्याय 23] भगवान् शंकर और शंखचूड़का युद्ध, भगवान् श्रीहरिका वृद्ध ब्राह्मणके वेशमें शंखचूड़से कवच माँग लेना तथा शंखचूड़का रूप धारणकर तुलसीसे हास-विलास करना, शंखचूड़का भस्म होना और सुदामागोपके रूपमें गोलोक पहुँचना
  24. [अध्याय 24] शंखचूड़रूपधारी श्रीहरिका तुलसीके भवनमें जाना, तुलसीका श्रीहरिको पाषाण होनेका शाप देना, तुलसी-महिमा, शालग्रामके विभिन्न लक्षण एवं माहात्म्यका वर्णन
  25. [अध्याय 25] तुलसी पूजन, ध्यान, नामाष्टक तथा तुलसीस्तवनका वर्णन
  26. [अध्याय 26] सावित्रीदेवीकी पूजा-स्तुतिका विधान
  27. [अध्याय 27] भगवती सावित्रीकी उपासनासे राजा अश्वपतिको सावित्री नामक कन्याकी प्राप्ति, सत्यवान् के साथ सावित्रीका विवाह, सत्यवान्की मृत्यु, सावित्री और यमराजका संवाद
  28. [अध्याय 28] सावित्री यमराज-संवाद
  29. [अध्याय 29] सावित्री धर्मराजके प्रश्नोत्तर और धर्मराजद्वारा सावित्रीको वरदान
  30. [अध्याय 30] दिव्य लोकोंकी प्राप्ति करानेवाले पुण्यकर्मोंका वर्णन
  31. [अध्याय 31] सावित्रीका यमाष्टकद्वारा धर्मराजका स्तवन
  32. [अध्याय 32] धर्मराजका सावित्रीको अशुभ कर्मोंके फल बताना
  33. [अध्याय 33] विभिन्न नरककुण्डों में जानेवाले पापियों तथा उनके पापोंका वर्णन
  34. [अध्याय 34] विभिन्न पापकर्म तथा उनके कारण प्राप्त होनेवाले नरकका वर्णन
  35. [अध्याय 35] विभिन्न पापकर्मोंसे प्राप्त होनेवाली विभिन्न योनियोंका वर्णन
  36. [अध्याय 36] धर्मराजद्वारा सावित्रीसे देवोपासनासे प्राप्त होनेवाले पुण्यफलोंको कहना
  37. [अध्याय 37] विभिन्न नरककुण्ड तथा वहाँ दी जानेवाली यातनाका वर्णन
  38. [अध्याय 38] धर्मराजका सावित्री से भगवतीकी महिमाका वर्णन करना और उसके पतिको जीवनदान देना
  39. [अध्याय 39] भगवती लक्ष्मीका प्राकट्य, समस्त देवताओंद्वारा उनका पूजन
  40. [अध्याय 40] दुर्वासाके शापसे इन्द्रका श्रीहीन हो जाना
  41. [अध्याय 41] ब्रह्माजीका इन्द्र तथा देवताओंको साथ लेकर श्रीहरिके पास जाना, श्रीहरिका उनसे लक्ष्मीके रुष्ट होनेके कारणोंको बताना, समुद्रमन्थन तथा उससे लक्ष्मीजीका प्रादुर्भाव
  42. [अध्याय 42] इन्द्रद्वारा भगवती लक्ष्मीका षोडशोपचार पूजन एवं स्तवन
  43. [अध्याय 43] भगवती स्वाहाका उपाख्यान
  44. [अध्याय 44] भगवती स्वधाका उपाख्यान
  45. [अध्याय 45] भगवती दक्षिणाका उपाख्यान
  46. [अध्याय 46] भगवती षष्ठीकी महिमाके प्रसंगमें राजा प्रियव्रतकी कथा
  47. [अध्याय 47] भगवती मंगलचण्डी तथा भगवती मनसाका आख्यान
  48. [अध्याय 48] भगवती मनसाका पूजन- विधान, मनसा-पुत्र आस्तीकका जनमेजयके सर्पसत्रमें नागोंकी रक्षा करना, इन्द्रद्वारा मनसादेवीका स्तवन करना
  49. [अध्याय 49] आदि गौ सुरभिदेवीका आख्यान
  50. [अध्याय 50] भगवती श्रीराधा तथा श्रीदुर्गाके मन्त्र, ध्यान, पूजा-विधान तथा स्तवनका वर्णन