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देवी भागवत महापुराण ( देवी भागवत)

Devi Bhagwat Purana (Devi Bhagwat Katha)

स्कन्ध 11, अध्याय 7 - Skand 11, Adhyay 7

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विभिन्न प्रकारके रुद्राक्ष और उनके अधिदेवता

श्रीनारायण बोले- हे नारद! इस प्रकार गिरिशायी भगवान् शिवने षडाननको रुद्राक्षके विषयमें बताया और इस रुद्राक्षमहिमाको जानकर वे भी कृतार्थ हो गये। इस प्रकारके माहात्म्यवाले रुद्राक्षके विषयमें मैंने आपसे वर्णन कर दिया। अब सदाचारके प्रसंगमें रुद्राक्षसम्बन्धी अन्य बातें एकाग्रचित्त होकर सुनिये ॥ 1-2 ॥ जिस प्रकार मैंने अनन्त पुण्य प्रदान करनेवाली रुद्राक्ष महिमाका वर्णन किया है, उसी प्रकार मैं | रुद्राक्षके लक्षण तथा मन्त्र- विन्यासका वर्णन आपसे करूँगा ॥ 3 ॥

रुद्राक्षके दर्शनसे एक लाख गुना तथा स्पर्शसे करोड़ गुना पुण्य होता है। रुद्राक्ष धारण कर लेनेपर मनुष्य उसका करोड़ गुना पुण्य प्राप्त करता है ॥ 4 ॥ रुद्राक्ष धारण करनेकी अपेक्षा उसके द्वारा जपसे मनुष्य एक सौ लाख करोड़ गुना और हजार लाख करोड़ गुना पुण्य प्राप्त करता है ॥ 5 ॥

भद्राक्ष धारण करनेकी अपेक्षा रद्राक्ष धारण करनेका महान् फल होता है। जो रुद्राक्ष आँवलेके फलके परिमाणका होता है, वह श्रेष्ठ माना गया है ॥ 6 ॥ विद्वानोंने बेरके फलके परिमाणवाले रुद्राक्षको मध्यम तथा चनेके परिमाण तुल्य रुद्राक्षको अधम कहा है; यह एक सिद्धान्त है, जिसका वर्णन मैंने आपसे किया है ॥ 7 ॥

शिवजीकी आज्ञासे पृथ्वीतलपर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र-भेदानुसार उन-उन जातियोंवाले रुद्राक्षके श्रेष्ठ वृक्ष उत्पन्न हुए। श्वेत रुद्राक्षोंको ब्राह्मण, रक्त वर्णके रुद्राक्षको क्षत्रिय तथा पीले वर्णके रुद्राक्षोंको वैश्य जानना चाहिये। इसी प्रकार काले रंगके रुद्राक्ष शूद्र कहे जाते हैं॥ 8-9 ॥

ब्राह्मणको श्वेत वर्ण तथा राजा (क्षत्रिय) को लाल वर्णके रुद्राक्ष धारण करने चाहिये। इसी तरह वैश्यको पीले वर्ण तथा शूद्रको काले वर्णके रुद्राक्ष धारण करने चाहिये ॥ 10 ॥

समरूप, चिकने, दृढ़ तथा स्पष्टरूपसे कंटक (काँटों) की रेखाओंसे युक्त रुद्राक्ष श्रेष्ठ होते हैं; किंतु कीड़ोंद्वारा खाये गये, टूटे हुए, फूटे हुए, काँटोंकी रेखाओंसे रहित, व्रणयुक्त तथा परतसे आवृत - इन छ: तरहके रुद्राक्षोंको नहीं धारण करना चाहिये ॥ 113 ॥

जिस रुद्राक्षमें स्वयं ही छिद्र बना हो, वह उत्तम रुद्राक्ष होता है और जिसमें मनुष्यके प्रयत्नसे छिद्र किया गया हो, वह मध्यम रुद्राक्ष होता है। सब ओरसे समान, चिकने, मजबूत और गोल रुद्राक्षोंको | रेशमके डोरेमें पिरोकर धारण करना चाहिये। शरीरकेसभी (पूर्वोक्त) अंगोंपर उन्हें समानरूपसे धारण करना चाहिये। जिस रुद्राक्षको घिसनेसे समान तथा अति विलक्षण स्वर्ण रेखाकी आभाके समान रेखा दिखायी दे, वह उत्तम रुद्राक्ष होता है। उसे शिवभक्तोंको अवश्य धारण करना चाहिये ॥ 12-143 ॥

एक रुद्राक्ष शिखामें, तीस रुद्राक्ष सिरपर, छत्तीस रुद्राक्ष गलेमें, दोनों भुजाओंपर सोलह-सोलह, मणि बन्धमें बारह तथा कन्धेपर पचास रुद्राक्ष धारण करना चाहिये ।। 15-16 ॥

एक सौ आठ रुद्राक्षोंकी मालाका यज्ञोपवीत धारण करना चाहिये और दो लड़ी या तीन लड़ीवाली रुद्राक्षकी माला गलेमें पहननी चाहिये ॥ 17 ॥

मनुष्यको कुण्डलमें, मुकुटमें, कर्णिकामें, हारमें, केयूरमें कटक तथा करधनीमें शयन तथा भोजनपानादि सभी कालोंमें रुद्राक्ष धारण करना चाहिये ।। 183 ll

तीन सौ रुद्राक्षोंका धारण करना अधम तथा पाँच सौ रुद्राक्षोंका धारण करना मध्यम कहा जाता है और एक हजार रुद्राक्षोंका धारण करना उत्तम कहा गया है। इस प्रकार उत्तम, मध्यम तथा अधम भेदसे रुद्राक्ष धारण करना चाहिये ॥ 193 ॥

पचास रुद्राक्षोंकी माला बनाकर ईशानमन्त्रसे सिरपर, तत्पुरुषमन्त्रसे कानमें, अघोरमन्त्रसे ललाट तथा हृदयपर और अघोरबीजमन्त्रसे दोनों हाथोंपर और वामदेवमन्त्रसे उदरपर धारण करना चाहिये। इस प्रकार ईशान आदि पाँच ब्रह्ममन्त्र तथा छ: षडंग मन्त्रसे रुद्राक्ष धारण करना चाहिये। मूलमन्त्रका उच्चारण करके गूँथे गये सभी रुद्राक्षोंको धारण करना चाहिये ll 20 - 223 ॥

एकमुखी रुद्राक्ष परमतत्त्वका प्रकाशक है। अतः इस परमतत्त्वमय एकमुखी रुद्राक्षके धारणसे उस ब्रह्मका साक्षात्कार हो जाता है ॥ 233 ॥

हे मुनिश्रेष्ठ। दो मुखवाला रुद्राक्ष अर्धनारीश्वर होता है। इसे धारण करनेसे उस व्यक्तिपर भगवान् अर्धनारीश्वर सदा प्रसन्न रहते हैं ॥ 243 ॥

तीनमुखी रुद्राक्ष साक्षात् अग्निस्वरूप होता है। यह स्त्री-हत्याके पापको क्षणभरमें भस्म कर देता है। यह तीनमुखी रुद्राक्ष अग्नित्रय (गार्हपत्य, आहवनीय, दक्षिणाग्नि) - के भी स्वरूपवाला है। उसे धारण करनेसे उस व्यक्तिपर अग्निदेवता सदा प्रसन्न रहते हैं । 25-26 ॥चतुर्मुखी रुद्राक्ष ब्रह्मास्वरूप है। उसे धारण करनेसे महान् वैभव, अत्यन्त उत्तम आरोग्य तथा विशद ज्ञान- सम्पदाकी प्राप्ति होती है। मनुष्यको आत्मशुद्धिके लिये इसे धारण करना चाहिये ॥ 273॥ पंचमुखी रुद्राक्ष साक्षात् पंचब्रह्म-स्वरूप है। उसके धारणमात्रसे ही महेश्वर शिव उस व्यक्तिपर प्रसन्न हो जाते हैं ॥ 283 ॥

छ: मुखी रुद्राक्षके अधिदेवता कार्तिकेय हैं और कुछ मनीषिगण विनायक गणेशको भी इस रुद्राक्षके देवतारूपमें बताते हैं ॥ 293 ॥

सातमुखी रुद्राक्षकी अधिदेवी सात मातृकाएँ हैं। इसके अधिदेवता सूर्य तथा सप्तर्षि भी हैं। इसे धारण करनेसे विपुल सम्पदा, उत्तम आरोग्य तथा महान् ज्ञान-राशिकी प्राप्ति होती है। पवित्र होकर ही मनुष्यको इसे धारण करना चाहिये ॥ 30-313 ॥

आठमुखी रुद्राक्षके अधिदेवता अष्टमातृकाएँ हैं। यह शुभ रुद्राक्ष आठों वसुओं तथा गंगाके लिये प्रीतिकर है। उसे धारण करनेसे ये सत्यवादी देवता प्रसन्न हो जाते हैं ॥ 32-33 ॥ नौमुखी रुद्राक्ष साक्षात् यमदेवके तुल्य माना गया है। उसे धारण करनेसे यमका कोई भय नहीं रहता ॥ 34 ॥ दसमुखी रुद्राक्षके देवता दसों दिशाएँ कही गयी हैं। उसे धारण करनेसे मनुष्य दसों दिशाओंके लिये प्रीतिजनक होता है, इसमें सन्देह नहीं है ॥ 35 ॥

ग्यारहमुखी रुद्राक्षके अधिदेवता एकादश रुद्र हैं। कुछ लोग इन्द्रको भी निरन्तर सौख्यकी वृद्धि करनेवाले इस रुद्राक्षका देवता कहते हैं ॥ 36 ॥

बारहमुखी रुद्राक्ष महाविष्णुका स्वरूप है। इसके अधिदेवता बारह सूर्य हैं। ये देवगण उसे धारण करनेवालेका सदा भरण-पोषण करते हैं ॥ 37 ॥

तेरह मुखवाला रुद्राक्ष समस्त मनोरथोंको पूर्ण करनेवाला, सिद्धियाँ प्रदान करनेवाला तथा कल्याण करनेवाला है। उसे धारण करनेमात्रसे कामदेव प्रसन्न हो जाते हैं ॥ 38 ॥

चौदह मुखवाला रुद्राक्ष भगवान् शंकरके नेत्रसे उत्पन्न हुआ है। यह सभी प्रकारकी व्याधियोंको नष्ट करने वाला तथा सर्वविध आरोग्य प्रदान करनेवाला है ॥ 39 ॥रुद्राक्ष धारण करनेवालेको मद्य, मांस, लहसुन, प्याज, सहिजन, लिसोडा तथा विड्वराहका आहारमें त्याग कर देना चाहिये। ग्रहणके समय, सूर्यके विषुवत् रेखापर, संक्रमणकालमें, उत्तरायण तथा दक्षिणायनके संक्रान्तिकालमें, अमावास्या तथा पूर्णिमाके समय तथा अन्यान्य पुण्य दिवसोंमें रुद्राक्ष धारण करनेसे मनुष्य | शीघ्र समस्त पापोंसे मुक्त हो जाता है ॥ 40-41 ॥

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देवी भागवत महापुराण
Index


  1. [अध्याय 1] भगवान् नारायणका नारदजीसे देवीको प्रसन्न करनेवाले सदाचारका वर्णन
  2. [अध्याय 2] शौचाचारका वर्णन
  3. [अध्याय 3] सदाचार-वर्णन और रुद्राक्ष धारणका माहात्म्य
  4. [अध्याय 4] रुद्राक्षकी उत्पत्ति तथा उसके विभिन्न स्वरूपोंका वर्णन
  5. [अध्याय 5] जपमालाका स्वरूप तथा रुद्राक्ष धारणका विधान
  6. [अध्याय 6] रुद्राक्षधारणकी महिमाके सन्दर्भमें गुणनिधिका उपाख्यान
  7. [अध्याय 7] विभिन्न प्रकारके रुद्राक्ष और उनके अधिदेवता
  8. [अध्याय 8] भूतशुद्धि
  9. [अध्याय 9] भस्म - धारण ( शिरोव्रत )
  10. [अध्याय 10] भस्म - धारणकी विधि
  11. [अध्याय 11] भस्मके प्रकार
  12. [अध्याय 12] भस्म न धारण करनेपर दोष
  13. [अध्याय 13] भस्म तथा त्रिपुण्ड्र धारणका माहात्म्य
  14. [अध्याय 14] भस्मस्नानका महत्त्व
  15. [अध्याय 15] भस्म-माहात्यके सम्बन्धर्मे दुर्वासामुनि और कुम्भीपाकस्थ जीवोंका आख्यान, ऊर्ध्वपुण्ड्रका माहात्म्य
  16. [अध्याय 16] सन्ध्योपासना तथा उसका माहात्म्य
  17. [अध्याय 17] गायत्री-महिमा
  18. [अध्याय 18] भगवतीकी पूजा-विधिका वर्णन, अन्नपूर्णादेवीके माहात्म्यमें राजा बृहद्रथका आख्यान
  19. [अध्याय 19] मध्याह्नसन्ध्या तथा गायत्रीजपका फल
  20. [अध्याय 20] तर्पण तथा सायंसन्ध्याका वर्णन
  21. [अध्याय 21] गायत्रीपुरश्चरण और उसका फल
  22. [अध्याय 22] बलिवैश्वदेव और प्राणाग्निहोत्रकी विधि
  23. [अध्याय 23] कृच्छ्रचान्द्रायण, प्राजापत्य आदि व्रतोंका वर्णन
  24. [अध्याय 24] कामना सिद्धि और उपद्रव शान्तिके लिये गायत्रीके विविध प्रयोग