व्यासजी बोले- राजन् ! किसी समय राजा हरिश्चन्द्र आखेट करनेके लिये वनमें गये हुए थे। उन्होंने वहाँ मनोहर नेत्रोंवाली रोती हुई एक सुन्दर युवतीको देखा ॥ 1 ॥
करुणामय महाराज हरिश्चन्द्रने उस कामिनीसे पूछा— कमलपत्रके समान विशाल नेत्रोंवाली है वरानने! तुम क्यों रो रही हो, तुम्हें किसने कष्ट दिया है, तुम्हें कौन-सा अपार दुःख आ पड़ा है, |इस निर्जन वनमें रहनेवाली तुम कौन हो और तुम्हारे पिता तथा पति कौन हैं? यह सब मुझे शीघ्र बताओ ।। 2-3 ।।हे कान्ते! मेरे राज्यमें तो राक्षस भी परायी स्त्रीको कष्ट नहीं पहुँचाते। हे सुन्दरि जो व्यक्ति तुम्हें पीड़ित करता होगा, उसे मैं अभी मार डालूँगा। हे वरारोहे! तुम मुझे अपना दुःख बताओ और निश्चिन्त हो जाओ। हे कृशोदरि ! हे सुमध्यमे। मेरे राज्यमें दुराचारी व्यक्ति नहीं रह सकता ll 4-5 ॥
उनकी यह बात सुनकर वह स्त्री अपने मुखमण्डलके आँसू पोंछकर उन नृपश्रेष्ठ राजा हरिश्चन्द्रसे कहने लगी ॥ 6 ॥ नारी बोली- हे राजन् मेरे लिये बनमें रहकर जो घोर तपस्या कर रहे हैं, वे महामुनि विश्वामित्र मुझे बहुत कष्ट दे रहे हैं; उत्तम व्रतका पालन करनेवाले हे राजन् आपके राज्यमें मैं इसी कारणसे दुःखी हैं। उन मुनिके द्वारा अत्यधिक सतायी जानेवाली मुझ स्त्रीको आप 'कमना' नामवाली जान लीजिये ।। 7-8 ॥
राजा बोले- हे विशाल नयनोंवाली तुम प्रसन्नचित रहो, अब तुम्हें कष्ट नहीं होगा। तपस्यायें तत्पर रहनेवाले उन मुनिको मैं मना कर दूंगा ॥ 9 ॥ उस स्त्रीको यह आश्वासन देकर पृथ्वीपति राजा हरिश्चन्द्र शीघ्र ही मुनिके पास गये और नम्रतापूर्वक सिर झुकाकर प्रणाम करके उनसे बोले हे स्वामिन्! आप ऐसी कठिन तपस्यासे अपने शरीरको अत्यधिक पीड़ित क्यों कर रहे हैं? हे महामते। किस प्रयोजनसे आप यह करनेके लिये उद्यत हैं? सच-सच बताइये ॥ 10-11 ॥
हे गाधितनय! मैं आपकी अभिलाषा अवश्य पूर्ण करूंगा अब इसी समय उठ जाइये और आगे तपस्या करनेका विचार त्याग दीजिये। हे सर्वज्ञ मेरे राज्यमें रहकर कभी किसीको भी अत्यन्त भीषण, | लोकके लिये पीड़ाकारक तथा उग्र तप नहीं करना चाहिये ।। 12-13 ॥ इस प्रकार विश्वामित्रजीको तपस्यासे रोककर राजा हरिश्चन्द्र अपने भवन चले गये और उनके इस कृत्यसे मुनि विश्वामित्र भी मन-ही-मन कुपित होकर वहाँसे चल दिये ॥ 14 ॥घर जाकर विश्वामित्रजी राजा हरिश्चन्द्रके अनुचित कृत्य, वसिष्ठकी कही हुई बात तथा तपस्यासे विरत कर दिये जानेके विषयमें सोचने लगे। एक वे कोपाविष्ट मनसे बदला लेनेके लिये तत्पर हो गये। बनाकर | इस प्रकार मनमें बहुत प्रकारसे सोचकर उन्होंने भयानक शरीरवाले दानवको सूअरके रूपमें उसे राजाके यहाँ भेजा ।। 15-163 ॥
महाकालके समान प्रतीत होनेवाला तथा विशाल शरीरवाला वह सूअर अत्यन्त भयावह शब्द करता हुआ राजा हरिश्चन्द्रके उपवन में पहुँच गया। रक्षकोंको भयभीत करते हुए, मालतीकी तथा कदम्बोंकी लताको एवं जूहीसमूहोंको बार-बार रौंदते हुए और अपने दाँतसे जमीनको खोदते हुए उस सूअरने बड़े-बड़े वृक्षोंको जड़से उखाड़ डाला; उसने चम्पक, केतकी, मल्लिका, कनेर तथा उशीरके सुन्दर तथा कोमल पौधोंको बींध डाला तथा मुचुकुन्द, अशोक, मौलसिरी एवं तिलक आदि वृक्षोंको उखाड़कर उस सूअरने उपवनको विनष्ट कर दिया ।। 17-21 ॥
हाथोंमें शस्त्र लिये हुए उस उपवनकी रखवाली करनेवाले सभी रक्षक वहाँसे भाग चले और अत्यन्त भयभीत मालियोंने हाय-हायकी ध्वनि करते हुए चिल्लाना आरम्भ कर दिया ॥ 22 ॥
साक्षात् कालके समान तेजवाला वह सूअर जब बाणोंसे मारे जानेपर भी त्रस्त नहीं हुआ और रक्षकोंको पीड़ित करता रहा, तब वे अत्यन्त भयाक्रान्त होकर राजा हरिश्चन्द्रकी शरणमें गये। भयसे व्याकुल तथा थर-थर काँपते हुए वे रक्षकगण 'रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये' - ऐसा उनसे कहने लगे ।। 23-24 ॥
तब भयसे घबड़ाये हुए उन रक्षकोंको समक्ष उपस्थित देखकर राजाने उनसे पूछा- आपलोगों को क्या भय है और किसलिये आप सब यहाँ आये हुए हैं? मुझे यह बताइये। हे रक्षको! मैं देवताओं तथा राक्षसों-किसीसे भी नहीं डरता। यह भय किससे उत्पन्न हुआ है, मेरे सामने उसे बताओ, मैउस अभागे शत्रुको एक ही बाणसे अभी मार डालता हूँ। जो पापबुद्धि तथा दुष्ट इस लोकमें मेरे शत्रुके रूपमें उत्पन्न हुआ हो, चाहे वह देवता हो या दानव, वह चाहे कहीं भी रहता हो, कैसे भी रूपवाला हो तथा कितना भी बलवान् हो, उसे मैं अपने तीक्ष्ण बाणोंसे मार डालूँगा ll 25-28 ॥
मालाकार बोले- हे राजन्! वह न देवता है, न दैत्य है, न यक्ष है और न तो किन्नर ही है। विशाल शरीरवाला एक सूअर उपवनमें आया हुआ है। उसने अपने दाँतसे अत्यन्त कोमल पुष्पमय वृक्षोंको उखाड़ डाला है। अत्यन्त तीव्र गतिवाले उस सूअरने सारे उपवनको तहस-नहस कर दिया है। हे महाराज ! बाणों, पत्थरों और लाठियोंसे हमलोगोंके प्रहार करनेपर भी वह भयभीत नहीं हुआ और हमें मारनेके लिये दौड़ पड़ा ॥ 29-31 ॥
व्यासजी बोले- उनकी यह बात सुनते ही राजा हरिश्चन्द्र कुपित हो उठे और उसी क्षण घोड़े पर सवार होकर उपवनकी ओर शीघ्रतापूर्वक चल पड़े ॥ 32 ॥
हाथी, घोड़े, रथ और पैदल चलनेवाले सैनिकोंसे युक्त एक विशाल सेनाके साथ वे उस श्रेष्ठ उपवनमें | पहुँच गये ॥ 33 ॥
वहाँ उन्होंने एक विशाल शरीरवाले भयानक सूअरको घुरघुराते हुए देखा उसके द्वारा उजाड़े गये उपवनको देखकर राजा कुपित हो उठे। फिर ये धनुषपर बाण चढ़ाकर तथा धनुषको खींचकर उस दुष्ट सूअरको मारनेके लिये वेगपूर्वक आगे बढ़े ।। 34-35 ।।
हाथमें धनुष लिये हुए कोपाविष्ट राजा हरिश्चन्द्रको देखकर वह सूअर अत्यन्त भयानक शब्द करता हुआ तुरंत उनके सामने आ गया ll36 ll
उस विकृत मुखवाले सूअरको सामने आता हुआ देखकर राजा हरिश्चन्द्रने उसे मार डालनेकी इच्छासे उसपर बाण छोड़ा ॥ 37 ॥
तब उस बाणसे अपनेको बचाकर वह सूअर राजाको बड़े वेगसे लाँघकर बलपूर्वक शीघ्रताके साथ वहाँसे निकल भागा ॥ 38 llउसे भागते हुए देखकर राजा हरिश्चन्द्र होकर धनुष खींचकर सावधानीपूर्वक उसपर तीक्ष्ण बाण छोड़ने लगे ॥ 39 ॥
वह सूअर किसी क्षण दिखायी पड़ता था, दूसरे क्षण आँखोंसे ओझल हो जाता था और क्षणभरमें ही | अनेक प्रकारके शब्द करता हुआ राजाके पास पहुँच जाता था ॥ 40 ॥
तब राजा हरिश्चन्द्र वायुके समान तीव्रगामी अश्वपर सवार होकर और धनुष खींचकर अत्यन्त | क्रोधके साथ उस सूअरका पीछा करने लगे। तत्पश्चात् उनकी सेना इधर-उधर उनके साथ दौड़ती हुई दूसरे वनमें चली गयी और राजा उस भागते हुए सूअरका अकेले ही पीछा करते रहे । 41-42 ॥
इस तरह राजा मध्याह्नकालमें एक निर्जन बनमें जा पहुँचे। वे अत्यधिक भूख तथा प्याससे व्याकुल हो गये तथा उनका वाहन बहुत थक गया ॥ 43 ॥
सूअर आँखोंसे ओझल हो चुका था, अतः वे चिन्तासे व्यग्र हो गये। उस घने जंगलमें मार्गज्ञान न होनेके कारण वे रास्तेसे भटक भी गये; उनकी दशा बड़ी दयनीय हो गयी थी। वे सोचने लगे कि अब मैं क्या करूँ और कहाँ जाऊँ? इस वनमें मेरा कोई सहायक भी नहीं है। अब अपना मार्ग भूल जानेके कारण मैं किधर जाऊँ ? ॥। 44-45 ॥
इस प्रकार उस निर्जन वनमें सोचते हुए चिन्तातुर राजा हरिश्चन्द्रकी दृष्टि एक स्वच्छ जलवाली नदीपर पड़ गयी ॥ 46
उसे देखकर राजा बहुत हर्षित हुए। घोड़ेसे उतरकर उन्होंने उसे स्वादिष्ट जल पिलाकर स्वयं भी पीया । जल पी लेनेपर राजाको बड़ी शान्ति मिली। अब वे अपने नगर जानेकी इच्छा करने लगे, किंतु दिशाज्ञान न रहनेसे उनको बुद्धि भ्रमित हो | गयी ।। 47-48 ।।
इतने में विश्वामित्रजी एक वृद्ध ब्राह्मणका रूप धारण करके वहाँ आ गये। उस श्रेष्ठ ब्राह्मणको | देखकर राजा हरिश्चन्द्रने आदरपूर्वक उन्हें प्रणाम किया ।। 49 ।।प्रणाम करते हुए उन नृपश्रेष्ठ राजा हरिश्चन्द्रसे विश्वामित्र कहने लगे-हे महाराज! आपका कल्याण हो। आप यहाँ किसलिये आये हुए हैं? हे राजन् ! इस निर्जन वनमें अकेले आनेका आपका क्या उद्देश्य है ? हे नृपश्रेष्ठ ! शान्तचित्त होकर अपने आगमनका सारा कारण बताइये ॥ 50-51 ॥
राजा बोले- विशाल शरीरवाला एक बलशाली सूअर मेरे पुष्पोद्यानमें पहुँचकर वहाँके कोमल पुष्पमय वृक्षोंको रौंदने लगा। हे मुनिश्रेष्ठ! उसी दुष्टको रोकनेके लिये हाथमें धनुष लेकर मैं सेनासहित अपने नगरसे निकल पड़ा ॥ 52-53 ॥
अब वह पापी तथा मायावी सूअर वेगपूर्वक मेरी आँखोंसे ओझल होकर न जाने कहाँ चला गया ! मैं भी उसके पीछे-पीछे यहाँ आ गया तथा मेरी सेना कहीं और निकल गयी 54 ॥
सेनाका साथ छूट जानेपर भूख तथा प्याससे व्याकुल होकर मैं यहाँ आ पहुँचा। हे मुने! मुझे अपने | नगरके मार्गका ज्ञान नहीं रहा और मेरी सेना किधर गयी - यह भी मैं नहीं जानता। हे विभो ! आप मुझे मार्ग दिखा दीजिये, जिससे मैं अपने नगर चला जाऊँ; मेरे सौभाग्यसे आप इस निर्जन वनमें पधारे हुए हैं ॥ 55-56 ॥
मैं अयोध्याका राजा हूँ और हरिश्चन्द्र नामसे विख्यात हूँ। मैं राजसूययज्ञ कर चुका हूँ और याचना करनेवालोंको उनकी हर अभिलषित वस्तु सर्वदा प्रदान करता हूँ। हे ब्रह्मन्! हे द्विजश्रेष्ठ यदि आपको भी यज्ञके निमित्त धनकी आवश्यकता हो तो अयोध्या आयें, मैं आपको प्रचुर धन प्रदान करूँगा ।। 57-58 ॥