व्यासजी बोले- राजन्! अत्यन्त दुःखित तथा करुण- क्रन्दन करते हुए बालक शुनः नःशेपको देखकर महर्षि विश्वामित्रको बड़ी दया आयी और वे उसके पास जाकर यह बोले-'हे पुत्र ! मैं तुम्हें वरुणदेवका मन्त्र बतला रहा हूँ। तुम मनमें उनका स्मरण करते हुए इस मन्त्रका जप करो। मेरी आज्ञासे इसका जप करनेसे तुम्हारा कल्याण अवश्य होगा' ॥ 1-2 ॥
दुःखसे अत्यन्त व्यग्र शुनःशेप मुनि विश्वा | मित्रकी बात सुनकर उनके द्वारा बताये गये स्पष्ट अक्षरोंवाले उस मन्त्रका मन-ही-मन जप करने लगा ॥ 3 ॥
हे राजन् शुनःशेपके जप करते ही कृपानिधान वरुणदेव उस बालकपर प्रसन्न होकर शीघ्र ही प्रकट हो गये ॥ 4 ॥
इस प्रकार वहाँ प्रकट हुए वरुणदेवको देखकर सभी लोग अत्यन्त आश्चर्यमें पड़ गये। उनके दर्शनसे आनन्दित होकर वे सब उनकी स्तुति करने लगे ॥ 5 ॥
जलोदर रोगसे पीड़ित राजा हरिश्चन्द्र अतीव विस्मित होकर उनके चरणोंमें प्रणाम करने लगे और दोनों हाथ जोड़कर ने अपने सम्मुख स्थित वरुणदेवकी स्तुति करने लगे ॥ 6 ॥
हरिश्चन्द्र बोले- हे देवदेव! हे कृपासागर! आप परमेश्वरने यहाँ आकर मुझ पापात्मा, अत्यन्त मन्दबुद्धि, अपराधी तथा भाग्यहीनको आज पवित्र कर दिया है ॥ 7 ll
मैं पुत्रके अभावमें दुःखित था और आपकी कृपासे पुत्र होनेपर आपकी अवहेलना की। अतः आप प्रभु मेरे द्वारा किये गये अपराधको क्षमा कर दें; क्योंकि भ्रष्ट बुद्धिवालेका दोष ही क्या ? ॥ 8 ॥हे देवदेव | स्वार्थपरायण व्यक्तिको अपने दोषका ज्ञान नहीं रहता इसीलिये पुत्र पानेका स्वाथी मैं | अपना दोष नहीं देख सका और हे विभो ! नरकमें पड़नेके भयसे आपको धोखा देता रहा। पुत्रहीन व्यक्तिको गति नहीं होती और उसे स्वर्ग नहीं | मिलता इस शास्त्रवचनसे मैं डर गया था, इसीलिये मैंने आपकी अवहेलना की ॥ 9-10 ॥
हे विभो। आप ज्ञानसम्पन्न हैं, अतः मुझ अज्ञानीके अपराधपर ध्यान न दें। इस समय मैं बहुत दुःखित तथा भयंकर रोग से ग्रस्त हूँ और अपने पुत्रसे वंचित हो गया हूँ ॥ 11 ॥
हे महाराज हे प्रभो! मुझे ज्ञात नहीं कि मेरा कहाँ चला गया है। हे कृपानिधे ! ऐसा प्रतीत पुत्र होता है कि मारे जानेके डरसे वह मुझे धोखा देकर वनमें चला गया है। तब मैंने धन देकर इस ब्राह्मण बालकको खरीदा और फिर आपको सन्तुष्ट करनेके लिये इस क्रीतपुत्रसे यह यज्ञ आरम्भ कर दिया। अब आपका दर्शन प्राप्त हो जानेसे मेरा महान् दुःख दूर हो गया और आपके प्रसन्न हो जानेपर [भयंकर ] जलोदर रोगसे होनेवाला सारा कष्ट भी समाप्त हो जायगा ॥ 12-14 ॥
व्यासजी बोले- रोगग्रस्त राजा हरिश्चन्द्रकी यह बात सुनकर देवदेवेश्वर दयालु वरुण नृपश्रेष्ठ हरिश्चन्द्रसे कहने लगे- ॥ 15 ॥
वरुण बोले- हे राजन् । अत्यन्त दुःखी होकर मेरी स्तुति करते हुए इस शुनःशेपको आप मुक्त कर दें। अब आपका यह यज्ञ भलीभाँति पूरा हो जायगा और आप रोगसे भी मुक्त हो जायेंगे ॥ 16 ll
यह कहकर वरुणदेवने वहाँ यज्ञमण्डपमें स्थित राजा हरिश्चन्द्रको सभी सभासदोंके समक्ष ही रोगरहित कर दिया ॥ 17 ॥
महात्मा वरुणदेवके द्वारा उस ब्राह्मणपुत्रके बन्धनमुक्त करा देने पर वहाँ यज्ञमण्डपमें जय-जयकारकी ध्वनि होने लगी ॥ 18 ll
अत्यन्त भीषण रोगसे तत्काल मुक्त हो जानेपर राजा हरिश्चन्द्र बहुत प्रसन्न हुए और शुनःशेप भी यज्ञस्तम्भसे | मुक्त होकर अत्यन्त स्वस्थचित्त हो गया ॥ 19 ॥तत्पश्चात् राजा हरिश्चन्द्रने अत्यन्त विनम्रतापूर्वक इस यज्ञको सम्पन्न किया। इसके बाद शुनःशेपने हाथ जोड़कर सभासदों से कहा- हे सभासद्गण आपलोग धर्मशास्त्र के पूर्ण ज्ञाता तथा यथार्थवादी हैं; अतः आपलोग वेदशास्त्रानुसार धर्मका निर्णय कीजिये ।। 20-21 ॥
हे सर्वज्ञ [ ऋषिगण]! अब मैं किसका पुत्र हुआ और आगे मेरा पिता कौन होगा ? आपलोगोंके वचनानुसार ही मैं उसीको शरणमें जाऊँगा। शुनःशेपके द्वारा यह वचन कहे जानेपर सभी सभासद् आपसमें | परामर्श करने लगे ॥ 223 ॥
सभासद् बोले- यह तो अजीगर्तका पुत्र है, तब यह अन्य किसका पुत्र हो सकता है ? यह उसीके अंगसे उत्पन्न हुआ है तथा उसीने स्नेहपूर्वक इसका लालन-पालन किया है तो फिर यह अन्य किस व्यक्तिका पुत्र हो सकता है, हमलोगोंका यही निर्णय है । ll 23-24 ॥
यह निर्णय सुनकर महर्षि वामदेवने उन सभासदोंसे कहा कि उस पिताने धनके लोभसे अपने पुत्रको बेच दिया है, इसलिये अब यह बालक धन देकर क्रय करनेवाले राजा हरिश्चन्द्रका पुत्र हुआ; इसमें संशय नहीं है। अथवा यह वरुणदेवका पुत्र हुआ; क्योंकि इन्होंने ही इसे बन्धनसे मुक्त कराया है। ll 25-26 ।।
अन्न प्रदान करनेवाला, भयसे बचानेवाला, विद्याका दान करनेवाला, धन प्रदान करनेवाला और जन्म देनेवाला ये पाँच पिता कहे गये हैं॥ 27 ॥ उस समय कुछ सभासदोंने उसे पिता अजीगर्तका पुत्र, कुछ सभासदोंने राजा हरिश्चन्द्रका पुत्र और अन्यने उसे वरुणदेवका पुत्र बतलाया। इस प्रकार परस्पर बातचीतमें वे किसी निर्णयपर नहीं पहुँचे ll 28 ॥
इस तरहकी सन्देहकी स्थिति उत्पन्न हो जानेपर सर्वज्ञ तथा सर्वपूजित महर्षि वसिष्ठने वहाँ परस्पर विवाद करते हुए सभासदोंसे यह बात कही-हे महाभाग ! अब आपलोग मेरा वेदानुकूल निर्णय सुनिये - जिस समय इसके पिता अजीगर्तने स्नेहका त्याग करके इस बालकको बेच दिया था, उसी समय धन लेते ही अपने पुत्रसे उसका सम्बन्ध समाप्त हो | गया और यह राजा हरिश्चन्द्रका क्रीतपुत्र हो गया।बादमें जब राजाने यज्ञके स्तम्भमें इस बालककी दिया, तब यह उनका भी पुत्र नहीं रहा। जब इसने | वरुणदेवकी स्तुति की, तब उन्होंने प्रसन्न होकर इसे बन्धनमुक्त करा दिया, अतः हे महाभाग सभासद्गण । | यह वरुणदेवका भी पुत्र नहीं हो सकता। इसका कारण यह है कि जब जो व्यक्ति महामन्त्रोंके द्वारा जिस देवताकी स्तुति करता है, तभी वह प्रसन्न होकर | उस व्यक्तिकी कामनाके अनुसार उसे धन, प्राण, पशु, राज्य तथा मोक्ष प्रदान करता है। वास्तवमें यह बालक मुनि विश्वामित्रका पुत्र हुआ, जिन्होंने विषम प्राण-संकटके समय परम शक्तिशाली वरुणमन्त्र देकर इसकी रक्षा की है ।। 29-343 ।।
व्यासजी बोले- हे राजन्! महर्षि वसिष्ठकी बात सुनकर सभासदोंने 'बहुत ठीक' ऐसा कहकर उनका समर्थन कर दिया। तब मुनि विश्वामित्र प्रेमसे पूरित हो उठे। 'हे पुत्र ! अब तुम मेरे आश्रम में चलो'- ऐसा कहकर उन्होंने उसका दाहिना हाथ पकड़ लिया। तब शुनःशेप भी तुरंत उनके साथ शीघ्रतापूर्वक चल दिया और वरुणदेव भी प्रसन्नचित्त होकर अपने लोकको चले गये सभी ऋत्विक और | सभासद् भी अपने-अपने भवनोंके लिये प्रस्थित हो गये 35-373 ॥
राजा हरिश्चन्द्र भी जलोदर रोगसे मुक्त हो जानेसे परम आनन्दित हो गये। वे अत्यन्त प्रसन्न मनसे प्रजापालनमें तत्पर हो गये ।। 383 ॥
इधर, वरुणदेवसम्बन्धी सारा वृत्तान्त सुनकर राजकुमार रोहितको बड़ी प्रसन्नता हुई और वे दुर्गम वनों तथा पर्वतोंको पार करते हुए अपने राजमहलके पास आ पहुँचे ॥ 393 ॥
तब दूतोंने राजाके पास जाकर उनसे पुत्रके आ जानेकी बात बतायी। यह सुनते ही कोसलराज हरिश्चन्द्र बहुत प्रसन्न हुए और वे शीघ्र उसके समीप पहुँच गये ॥ 403 ॥
पिताको आया हुआ देखकर रोहितका प्रेम उमड़ पड़ा और वे बड़े सम्मानपूर्वक भूमिपर दण्डकी भाँति गिर पड़े। शोकके कारण रोहितका मुखमण्डल अधुसे भीग गया ॥ 493 llराजा हरिश्चन्द्रने भी उन्हें उठाकर हृदयसे लगा लिया और आनन्दपूर्वक पुत्रका मस्तक सूँघकर उससे कुशल-क्षेम पूछा। राजकुमार रोहितको गोदमें बिठाकर हर्षसे परिपूर्ण पृथ्वीपति हरिश्चन्द्रने प्रेमातिरेकके कारण नेत्रोंसे गिरते हुए उष्ण अश्रुओंसे उनका अभिषेक कर दिया। वे अपने परम प्रिय पुत्र रोहितके साथ राज्यका शासन करने लगे। बादमें उन्होंने राजकुमारसे यज्ञकी सारी बातें विस्तारपूर्वक बतलायीं ॥ 42 - 443 ॥
कुछ दिनोंके अनन्तर नृपश्रेष्ठ हरिश्चन्द्रने सभी यज्ञोंमें उत्तम राजसूययज्ञ प्रारम्भ किया। राजाने गुरु वसिष्ठकी पूजा करके उन्हें उस यज्ञका 'होता' बनाया ।। 453 ।।
उस सर्वश्रेष्ठ यज्ञके समाप्त होनेपर वसिष्ठजीका बहुत अधिक सम्मान किया गया। तदनन्तर मुनि वसिष्ठ श्रद्धापूर्वक इन्द्रकी रमणीक नगरी अमरावतीपुरीमें गये 463
वहीं पर विश्वामित्र भी वसिष्ठजीको मिल गये। मिलनेके बाद वे दोनों महर्षि देवसभामें एक साथ | बैठे। तब ऐसी विशेष पूजा पाये हुए महर्षि वसिष्ठको देखकर विश्वामित्रके मनमें महान आश्चर्य हुआ और वे हे मुनिश्रेष्ठ ! ऐसा सम्बोधन करके शचीपति इन्द्रकी सभामें ही उनसे पूछने लगे ॥ 47-483 ॥ विश्वामित्र बोले- हे मुनिश्रेष्ठ आपने इतना बड़ा सम्मान कहाँ पाया ? हे महाभाग ! आपकी ऐसी पूजा किसने की; आप मुझे यह बात सच - सच बतलाइये ॥ 493 ॥
वसिष्ठजी बोले- परम प्रतापी राजा हरिश्चन्द्र मेरे यजमान हैं। उन्होंने प्रचुर दक्षिणावाला राजसूययज्ञ किया है। उनके जैसा सत्यवादी, दृढव्रती, दानी, धर्मपरायण तथा प्रजाको प्रसन्न रखनेवाला दूसरा राजा नहीं है। हे विश्वामित्र! उन्हींके यज्ञमें मुझे यह पूजा प्राप्त हुई है। (हे द्विज! आप मुझसे बार-बार क्या पूछ रहे हैं मैं आपसे सत्य तथा यथार्थ कह रहा हूँ।) हरिश्चन्द्रके समान सत्यवादी, दानी, पराक्रमी तथा परम धार्मिक राजा न तो हुआ है और न होगा ॥ 50- 53 ॥व्यासजी बोले- हे राजन् ! उनकी यह बात सुनकर विश्वामित्रजी बहुत कुपित हो उठे और क्रोधसे आँखें लाल करके उनसे कहने लगे- ॥ 54 ॥
विश्वामित्र बोले- आप ऐसे मिथ्याभाषी तथा कपटी राजाकी प्रशंसा कर रहे हैं, जिसने पुत्रप्राप्तिका वर पाकर प्रतिज्ञा करके भी वरुणदेवको बार-बार धोखा दिया ॥ 55 ॥
हे महामते ! इस जन्ममें मेरे द्वारा किये गये तप तथा वेदाध्ययनके फलस्वरूप संचित पुण्य तथा अपने महान् तपकी शर्त लगा लीजिये। यदि मैं आपके द्वारा अति प्रशंसित किये गये राजा हरिश्चन्द्रको शीघ्र ही मिथ्याभाषी, दान न देनेवाला तथा महादुष्ट न प्रमाणित कर दूँ तो सम्पूर्ण जन्मका मेरा संचित पुण्य नष्ट हो जाय; अन्यथा आपके द्वारा उपार्जित सारा पुण्य नष्ट हो जाय - इसी बातकी हम दोनों शर्त लगा लें ॥ 56-58 ॥
तब यह शर्त लगाकर अत्यधिक कुपित हुए वे दोनों मुनि परस्पर विवाद करते हुए स्वर्गलोकसे अपने-अपने आश्रमको लौट गये ॥ 59 ॥