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देवी भागवत महापुराण ( देवी भागवत)

Devi Bhagwat Purana (Devi Bhagwat Katha)

स्कन्ध 7, अध्याय 17 - Skand 7, Adhyay 17

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विश्वामित्रका शुनःशेपको वरुणमन्त्र देना और उसके जपसे वरुणका प्रकट होकर उसे बन्धनमुक्त तथा राजाको रोगमुक्त करना, राजा हरिश्चन्द्रकी प्रशंसासे विश्वामित्रका वसिष्ठपर क्रोधित होना

व्यासजी बोले- राजन्! अत्यन्त दुःखित तथा करुण- क्रन्दन करते हुए बालक शुनः‍ नःशेपको देखकर महर्षि विश्वामित्रको बड़ी दया आयी और वे उसके पास जाकर यह बोले-'हे पुत्र ! मैं तुम्हें वरुणदेवका मन्त्र बतला रहा हूँ। तुम मनमें उनका स्मरण करते हुए इस मन्त्रका जप करो। मेरी आज्ञासे इसका जप करनेसे तुम्हारा कल्याण अवश्य होगा' ॥ 1-2 ॥

दुःखसे अत्यन्त व्यग्र शुनःशेप मुनि विश्वा | मित्रकी बात सुनकर उनके द्वारा बताये गये स्पष्ट अक्षरोंवाले उस मन्त्रका मन-ही-मन जप करने लगा ॥ 3 ॥

हे राजन् शुनःशेपके जप करते ही कृपानिधान वरुणदेव उस बालकपर प्रसन्न होकर शीघ्र ही प्रकट हो गये ॥ 4 ॥

इस प्रकार वहाँ प्रकट हुए वरुणदेवको देखकर सभी लोग अत्यन्त आश्चर्यमें पड़ गये। उनके दर्शनसे आनन्दित होकर वे सब उनकी स्तुति करने लगे ॥ 5 ॥

जलोदर रोगसे पीड़ित राजा हरिश्चन्द्र अतीव विस्मित होकर उनके चरणोंमें प्रणाम करने लगे और दोनों हाथ जोड़कर ने अपने सम्मुख स्थित वरुणदेवकी स्तुति करने लगे ॥ 6 ॥

हरिश्चन्द्र बोले- हे देवदेव! हे कृपासागर! आप परमेश्वरने यहाँ आकर मुझ पापात्मा, अत्यन्त मन्दबुद्धि, अपराधी तथा भाग्यहीनको आज पवित्र कर दिया है ॥ 7 ll

मैं पुत्रके अभावमें दुःखित था और आपकी कृपासे पुत्र होनेपर आपकी अवहेलना की। अतः आप प्रभु मेरे द्वारा किये गये अपराधको क्षमा कर दें; क्योंकि भ्रष्ट बुद्धिवालेका दोष ही क्या ? ॥ 8 ॥हे देवदेव | स्वार्थपरायण व्यक्तिको अपने दोषका ज्ञान नहीं रहता इसीलिये पुत्र पानेका स्वाथी मैं | अपना दोष नहीं देख सका और हे विभो ! नरकमें पड़नेके भयसे आपको धोखा देता रहा। पुत्रहीन व्यक्तिको गति नहीं होती और उसे स्वर्ग नहीं | मिलता इस शास्त्रवचनसे मैं डर गया था, इसीलिये मैंने आपकी अवहेलना की ॥ 9-10 ॥

हे विभो। आप ज्ञानसम्पन्न हैं, अतः मुझ अज्ञानीके अपराधपर ध्यान न दें। इस समय मैं बहुत दुःखित तथा भयंकर रोग से ग्रस्त हूँ और अपने पुत्रसे वंचित हो गया हूँ ॥ 11 ॥

हे महाराज हे प्रभो! मुझे ज्ञात नहीं कि मेरा कहाँ चला गया है। हे कृपानिधे ! ऐसा प्रतीत पुत्र होता है कि मारे जानेके डरसे वह मुझे धोखा देकर वनमें चला गया है। तब मैंने धन देकर इस ब्राह्मण बालकको खरीदा और फिर आपको सन्तुष्ट करनेके लिये इस क्रीतपुत्रसे यह यज्ञ आरम्भ कर दिया। अब आपका दर्शन प्राप्त हो जानेसे मेरा महान् दुःख दूर हो गया और आपके प्रसन्न हो जानेपर [भयंकर ] जलोदर रोगसे होनेवाला सारा कष्ट भी समाप्त हो जायगा ॥ 12-14 ॥

व्यासजी बोले- रोगग्रस्त राजा हरिश्चन्द्रकी यह बात सुनकर देवदेवेश्वर दयालु वरुण नृपश्रेष्ठ हरिश्चन्द्रसे कहने लगे- ॥ 15 ॥

वरुण बोले- हे राजन् । अत्यन्त दुःखी होकर मेरी स्तुति करते हुए इस शुनःशेपको आप मुक्त कर दें। अब आपका यह यज्ञ भलीभाँति पूरा हो जायगा और आप रोगसे भी मुक्त हो जायेंगे ॥ 16 ll

यह कहकर वरुणदेवने वहाँ यज्ञमण्डपमें स्थित राजा हरिश्चन्द्रको सभी सभासदोंके समक्ष ही रोगरहित कर दिया ॥ 17 ॥

महात्मा वरुणदेवके द्वारा उस ब्राह्मणपुत्रके बन्धनमुक्त करा देने पर वहाँ यज्ञमण्डपमें जय-जयकारकी ध्वनि होने लगी ॥ 18 ll

अत्यन्त भीषण रोगसे तत्काल मुक्त हो जानेपर राजा हरिश्चन्द्र बहुत प्रसन्न हुए और शुनःशेप भी यज्ञस्तम्भसे | मुक्त होकर अत्यन्त स्वस्थचित्त हो गया ॥ 19 ॥तत्पश्चात् राजा हरिश्चन्द्रने अत्यन्त विनम्रतापूर्वक इस यज्ञको सम्पन्न किया। इसके बाद शुनःशेपने हाथ जोड़कर सभासदों से कहा- हे सभासद्गण आपलोग धर्मशास्त्र के पूर्ण ज्ञाता तथा यथार्थवादी हैं; अतः आपलोग वेदशास्त्रानुसार धर्मका निर्णय कीजिये ।। 20-21 ॥

हे सर्वज्ञ [ ऋषिगण]! अब मैं किसका पुत्र हुआ और आगे मेरा पिता कौन होगा ? आपलोगोंके वचनानुसार ही मैं उसीको शरणमें जाऊँगा। शुनःशेपके द्वारा यह वचन कहे जानेपर सभी सभासद् आपसमें | परामर्श करने लगे ॥ 223 ॥

सभासद् बोले- यह तो अजीगर्तका पुत्र है, तब यह अन्य किसका पुत्र हो सकता है ? यह उसीके अंगसे उत्पन्न हुआ है तथा उसीने स्नेहपूर्वक इसका लालन-पालन किया है तो फिर यह अन्य किस व्यक्तिका पुत्र हो सकता है, हमलोगोंका यही निर्णय है । ll 23-24 ॥

यह निर्णय सुनकर महर्षि वामदेवने उन सभासदोंसे कहा कि उस पिताने धनके लोभसे अपने पुत्रको बेच दिया है, इसलिये अब यह बालक धन देकर क्रय करनेवाले राजा हरिश्चन्द्रका पुत्र हुआ; इसमें संशय नहीं है। अथवा यह वरुणदेवका पुत्र हुआ; क्योंकि इन्होंने ही इसे बन्धनसे मुक्त कराया है। ll 25-26 ।।

अन्न प्रदान करनेवाला, भयसे बचानेवाला, विद्याका दान करनेवाला, धन प्रदान करनेवाला और जन्म देनेवाला ये पाँच पिता कहे गये हैं॥ 27 ॥ उस समय कुछ सभासदोंने उसे पिता अजीगर्तका पुत्र, कुछ सभासदोंने राजा हरिश्चन्द्रका पुत्र और अन्यने उसे वरुणदेवका पुत्र बतलाया। इस प्रकार परस्पर बातचीतमें वे किसी निर्णयपर नहीं पहुँचे ll 28 ॥

इस तरहकी सन्देहकी स्थिति उत्पन्न हो जानेपर सर्वज्ञ तथा सर्वपूजित महर्षि वसिष्ठने वहाँ परस्पर विवाद करते हुए सभासदोंसे यह बात कही-हे महाभाग ! अब आपलोग मेरा वेदानुकूल निर्णय सुनिये - जिस समय इसके पिता अजीगर्तने स्नेहका त्याग करके इस बालकको बेच दिया था, उसी समय धन लेते ही अपने पुत्रसे उसका सम्बन्ध समाप्त हो | गया और यह राजा हरिश्चन्द्रका क्रीतपुत्र हो गया।बादमें जब राजाने यज्ञके स्तम्भमें इस बालककी दिया, तब यह उनका भी पुत्र नहीं रहा। जब इसने | वरुणदेवकी स्तुति की, तब उन्होंने प्रसन्न होकर इसे बन्धनमुक्त करा दिया, अतः हे महाभाग सभासद्गण । | यह वरुणदेवका भी पुत्र नहीं हो सकता। इसका कारण यह है कि जब जो व्यक्ति महामन्त्रोंके द्वारा जिस देवताकी स्तुति करता है, तभी वह प्रसन्न होकर | उस व्यक्तिकी कामनाके अनुसार उसे धन, प्राण, पशु, राज्य तथा मोक्ष प्रदान करता है। वास्तवमें यह बालक मुनि विश्वामित्रका पुत्र हुआ, जिन्होंने विषम प्राण-संकटके समय परम शक्तिशाली वरुणमन्त्र देकर इसकी रक्षा की है ।। 29-343 ।।

व्यासजी बोले- हे राजन्! महर्षि वसिष्ठकी बात सुनकर सभासदोंने 'बहुत ठीक' ऐसा कहकर उनका समर्थन कर दिया। तब मुनि विश्वामित्र प्रेमसे पूरित हो उठे। 'हे पुत्र ! अब तुम मेरे आश्रम में चलो'- ऐसा कहकर उन्होंने उसका दाहिना हाथ पकड़ लिया। तब शुनःशेप भी तुरंत उनके साथ शीघ्रतापूर्वक चल दिया और वरुणदेव भी प्रसन्नचित्त होकर अपने लोकको चले गये सभी ऋत्विक और | सभासद् भी अपने-अपने भवनोंके लिये प्रस्थित हो गये 35-373 ॥

राजा हरिश्चन्द्र भी जलोदर रोगसे मुक्त हो जानेसे परम आनन्दित हो गये। वे अत्यन्त प्रसन्न मनसे प्रजापालनमें तत्पर हो गये ।। 383 ॥

इधर, वरुणदेवसम्बन्धी सारा वृत्तान्त सुनकर राजकुमार रोहितको बड़ी प्रसन्नता हुई और वे दुर्गम वनों तथा पर्वतोंको पार करते हुए अपने राजमहलके पास आ पहुँचे ॥ 393 ॥

तब दूतोंने राजाके पास जाकर उनसे पुत्रके आ जानेकी बात बतायी। यह सुनते ही कोसलराज हरिश्चन्द्र बहुत प्रसन्न हुए और वे शीघ्र उसके समीप पहुँच गये ॥ 403 ॥

पिताको आया हुआ देखकर रोहितका प्रेम उमड़ पड़ा और वे बड़े सम्मानपूर्वक भूमिपर दण्डकी भाँति गिर पड़े। शोकके कारण रोहितका मुखमण्डल अधुसे भीग गया ॥ 493 llराजा हरिश्चन्द्रने भी उन्हें उठाकर हृदयसे लगा लिया और आनन्दपूर्वक पुत्रका मस्तक सूँघकर उससे कुशल-क्षेम पूछा। राजकुमार रोहितको गोदमें बिठाकर हर्षसे परिपूर्ण पृथ्वीपति हरिश्चन्द्रने प्रेमातिरेकके कारण नेत्रोंसे गिरते हुए उष्ण अश्रुओंसे उनका अभिषेक कर दिया। वे अपने परम प्रिय पुत्र रोहितके साथ राज्यका शासन करने लगे। बादमें उन्होंने राजकुमारसे यज्ञकी सारी बातें विस्तारपूर्वक बतलायीं ॥ 42 - 443 ॥

कुछ दिनोंके अनन्तर नृपश्रेष्ठ हरिश्चन्द्रने सभी यज्ञोंमें उत्तम राजसूययज्ञ प्रारम्भ किया। राजाने गुरु वसिष्ठकी पूजा करके उन्हें उस यज्ञका 'होता' बनाया ।। 453 ।।

उस सर्वश्रेष्ठ यज्ञके समाप्त होनेपर वसिष्ठजीका बहुत अधिक सम्मान किया गया। तदनन्तर मुनि वसिष्ठ श्रद्धापूर्वक इन्द्रकी रमणीक नगरी अमरावतीपुरीमें गये 463

वहीं पर विश्वामित्र भी वसिष्ठजीको मिल गये। मिलनेके बाद वे दोनों महर्षि देवसभामें एक साथ | बैठे। तब ऐसी विशेष पूजा पाये हुए महर्षि वसिष्ठको देखकर विश्वामित्रके मनमें महान आश्चर्य हुआ और वे हे मुनिश्रेष्ठ ! ऐसा सम्बोधन करके शचीपति इन्द्रकी सभामें ही उनसे पूछने लगे ॥ 47-483 ॥ विश्वामित्र बोले- हे मुनिश्रेष्ठ आपने इतना बड़ा सम्मान कहाँ पाया ? हे महाभाग ! आपकी ऐसी पूजा किसने की; आप मुझे यह बात सच - सच बतलाइये ॥ 493 ॥

वसिष्ठजी बोले- परम प्रतापी राजा हरिश्चन्द्र मेरे यजमान हैं। उन्होंने प्रचुर दक्षिणावाला राजसूययज्ञ किया है। उनके जैसा सत्यवादी, दृढव्रती, दानी, धर्मपरायण तथा प्रजाको प्रसन्न रखनेवाला दूसरा राजा नहीं है। हे विश्वामित्र! उन्हींके यज्ञमें मुझे यह पूजा प्राप्त हुई है। (हे द्विज! आप मुझसे बार-बार क्या पूछ रहे हैं मैं आपसे सत्य तथा यथार्थ कह रहा हूँ।) हरिश्चन्द्रके समान सत्यवादी, दानी, पराक्रमी तथा परम धार्मिक राजा न तो हुआ है और न होगा ॥ 50- 53 ॥व्यासजी बोले- हे राजन् ! उनकी यह बात सुनकर विश्वामित्रजी बहुत कुपित हो उठे और क्रोधसे आँखें लाल करके उनसे कहने लगे- ॥ 54 ॥

विश्वामित्र बोले- आप ऐसे मिथ्याभाषी तथा कपटी राजाकी प्रशंसा कर रहे हैं, जिसने पुत्रप्राप्तिका वर पाकर प्रतिज्ञा करके भी वरुणदेवको बार-बार धोखा दिया ॥ 55 ॥

हे महामते ! इस जन्ममें मेरे द्वारा किये गये तप तथा वेदाध्ययनके फलस्वरूप संचित पुण्य तथा अपने महान् तपकी शर्त लगा लीजिये। यदि मैं आपके द्वारा अति प्रशंसित किये गये राजा हरिश्चन्द्रको शीघ्र ही मिथ्याभाषी, दान न देनेवाला तथा महादुष्ट न प्रमाणित कर दूँ तो सम्पूर्ण जन्मका मेरा संचित पुण्य नष्ट हो जाय; अन्यथा आपके द्वारा उपार्जित सारा पुण्य नष्ट हो जाय - इसी बातकी हम दोनों शर्त लगा लें ॥ 56-58 ॥

तब यह शर्त लगाकर अत्यधिक कुपित हुए वे दोनों मुनि परस्पर विवाद करते हुए स्वर्गलोकसे अपने-अपने आश्रमको लौट गये ॥ 59 ॥

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देवी भागवत महापुराण
Index


  1. [अध्याय 1] पितामह ब्रह्माकी मानसी सृष्टिका वर्णन, नारदजीका दक्षके पुत्रोंको सन्तानोत्पत्तिसे विरत करना और दक्षका उन्हें शाप देना, दक्षकन्याओंसे देवताओं और दानवोंकी उत्पत्ति
  2. [अध्याय 2] सूर्यवंशके वर्णनके प्रसंगमें सुकन्याकी कथा
  3. [अध्याय 3] सुकन्याका च्यवनमुनिके साथ विवाह
  4. [अध्याय 4] सुकन्याकी पतिसेवा तथा वनमें अश्विनीकुमारोंसे भेंटका वर्णन
  5. [अध्याय 5] अश्विनीकुमारोंका च्यवनमुनिको नेत्र तथा नवयौवनसे सम्पन्न बनाना
  6. [अध्याय 6] राजा शर्यातिके यज्ञमें च्यवनमुनिका अश्विनीकुमारोंको सोमरस देना
  7. [अध्याय 7] क्रुद्ध इन्द्रका विरोध करना; परंतु च्यवनके प्रभावको देखकर शान्त हो जाना, शर्यातिके बादके सूर्यवंशी राजाओंका विवरण
  8. [अध्याय 8] राजा रेवतकी कथा
  9. [अध्याय 9] सूर्यवंशी राजाओंके वर्णनके क्रममें राजा ककुत्स्थ, युवनाश्व और मान्धाताकी कथा
  10. [अध्याय 10] सूर्यवंशी राजा अरुणद्वारा राजकुमार सत्यव्रतका त्याग, सत्यव्रतका वनमें भगवती जगदम्बाके मन्त्र जपमें रत होना
  11. [अध्याय 11] भगवती जगदम्बाकी कृपासे सत्यव्रतका राज्याभिषेक और राजा अरुणद्वारा उन्हें नीतिशास्त्रकी शिक्षा देना
  12. [अध्याय 12] राजा सत्यव्रतको महर्षि वसिष्ठका शाप तथा युवराज हरिश्चन्द्रका राजा बनना
  13. [अध्याय 13] राजर्षि विश्वामित्रका अपने आश्रममें आना और सत्यव्रतद्वारा किये गये उपकारको जानना
  14. [अध्याय 14] विश्वामित्रका सत्यव्रत (त्रिशंकु ) - को सशरीर स्वर्ग भेजना, वरुणदेवकी आराधनासे राजा हरिश्चन्द्रको पुत्रकी प्राप्ति
  15. [अध्याय 15] प्रतिज्ञा पूर्ण न करनेसे वरुणका क्रुद्ध होना और राजा हरिश्चन्द्रको जलोदरग्रस्त होनेका शाप देना
  16. [अध्याय 16] राजा हरिश्चन्द्रका शुनःशेषको स्तम्भमें बाँधकर यज्ञ प्रारम्भ करना
  17. [अध्याय 17] विश्वामित्रका शुनःशेपको वरुणमन्त्र देना और उसके जपसे वरुणका प्रकट होकर उसे बन्धनमुक्त तथा राजाको रोगमुक्त करना, राजा हरिश्चन्द्रकी प्रशंसासे विश्वामित्रका वसिष्ठपर क्रोधित होना
  18. [अध्याय 18] विश्वामित्रका मायाशूकरके द्वारा हरिश्चन्द्रके उद्यानको नष्ट कराना
  19. [अध्याय 19] विश्वामित्रकी कपटपूर्ण बातोंमें आकर राजा हरिश्चन्द्रका राज्यदान करना
  20. [अध्याय 20] हरिश्चन्द्रका दक्षिणा देनेहेतु स्वयं, रानी और पुत्रको बेचनेके लिये काशी जाना
  21. [अध्याय 21] विश्वामित्रका राजा हरिश्चन्द्रसे दक्षिणा माँगना और रानीका अपनेको विक्रयहेतु प्रस्तुत करना
  22. [अध्याय 22] राजा हरिश्चन्द्रका रानी और राजकुमारका विक्रय करना और विश्वामित्रको ग्यारह करोड़ स्वर्णमुद्राएँ देना तथा विश्वामित्रका और अधिक धनके लिये आग्रह करना
  23. [अध्याय 23] विश्वामित्रका राजा हरिश्चन्द्रको चाण्डालके हाथ बेचकर ऋणमुक्त करना
  24. [अध्याय 24] चाण्डालका राजा हरिश्चन्द्रको श्मशानघाटमें नियुक्त करना
  25. [अध्याय 25] सर्पदंशसे रोहितकी मृत्यु, रानीका करुण विलाप, पहरेदारोंका रानीको राक्षसी समझकर चाण्डालको सौंपना और चाण्डालका हरिश्चन्द्रको उसके वधकी आज्ञा देना
  26. [अध्याय 26] रानीका चाण्डालवेशधारी राजा हरिश्चन्द्रसे अनुमति लेकर पुत्रके शवको लाना और करुण विलाप करना, राजाका पत्नी और पुत्रको पहचानकर मूर्च्छित होना और विलाप करना
  27. [अध्याय 27] चिता बनाकर राजाका रोहितको उसपर लिटाना और राजा-रानीका भगवतीका ध्यानकर स्वयं भी पुत्रकी चितामें जल जानेको उद्यत होना, ब्रह्माजीसहित समस्त देवताओंका राजाके पास आना, इन्द्रका अमृत वर्षा करके रोहितको जीवित करना और राजा-रानीसे स्वर्ग चलनेके लिये आग्रह करना, राजाका सम्पूर्ण अयोध्यावासियोंके साथ स्वर्ग जानेका निश्चय
  28. [अध्याय 28] दुर्गम दैत्यकी तपस्या; वर-प्राप्ति तथा अत्याचार, देवताओंका भगवतीकी प्रार्थना करना, भगवतीका शताक्षी और शाकम्भरीरूपमें प्राकट्य, दुर्गमका वध और देवगणोंद्वारा भगवतीकी स्तुति
  29. [अध्याय 29] व्यासजीका राजा जनमेजयसे भगवतीकी महिमाका वर्णन करना और उनसे उन्हींकी आराधना करनेको कहना, भगवान् शंकर और विष्णुके अभिमानको देखकर गौरी तथा लक्ष्मीका अन्तर्धान होना और शिव तथा विष्णुका शक्तिहीन होना
  30. [अध्याय 30] शक्तिपीठोंकी उत्पत्तिकी कथा तथा उनके नाम एवं उनका माहात्म्य
  31. [अध्याय 31] तारकासुरसे पीड़ित देवताओंद्वारा भगवतीकी स्तुति तथा भगवतीका हिमालयकी पुत्रीके रूपमें प्रकट होनेका आश्वासन देना
  32. [अध्याय 32] देवीगीताके प्रसंगमें भगवतीका हिमालयसे माया तथा अपने स्वरूपका वर्णन
  33. [अध्याय 33] भगवतीका अपनी सर्वव्यापकता बताते हुए विराट्रूप प्रकट करना, भयभीत देवताओंकी स्तुतिसे प्रसन्न भगवतीका पुनः सौम्यरूप धारण करना
  34. [अध्याय 34] भगवतीका हिमालय तथा देवताओंसे परमपदकी प्राप्तिका उपाय बताना
  35. [अध्याय 35] भगवतीद्वारा यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा तथा कुण्डलीजागरणकी विधि बताना
  36. [अध्याय 36] भगवतीके द्वारा हिमालयको ज्ञानोपदेश - ब्रह्मस्वरूपका वर्णन
  37. [अध्याय 37] भगवतीद्वारा अपनी श्रेष्ठ भक्तिका वर्णन
  38. [अध्याय 38] भगवतीके द्वारा देवीतीर्थों, व्रतों तथा उत्सवोंका वर्णन
  39. [अध्याय 39] देवी- पूजनके विविध प्रकारोंका वर्णन
  40. [अध्याय 40] देवीकी पूजा विधि तथा फलश्रुति