व्यासजी बोले- हे नृप [जनमेजय]। हरिश्चन्द्रकी यह बात सुनकर मुनि विश्वामित्र हँस करके उनसे कहने लगे ॥1॥हे राजन् ! यह तीर्थ अत्यन्त पुण्यमय, पवित्र तथा पापनाशक है। हे महाभाग ! इसमें स्नान करो और पितरोंका तर्पण करो ॥ 2 ॥
हे भूपते ! यह समय भी अति उत्तम है; इसलिये इस पुण्यमय तथा परम पावन तीर्थमें स्नान करके आप इस समय अपनी सामर्थ्य के अनुसार दान दीजिये ॥ 3 ॥ 'जो परम पवित्र तीर्थमें पहुँचकर बिना स्नान किये ही लौट जाता है, वह आत्मघाती होता है' ऐसा स्वायम्भुव मनुने कहा है ॥ 4 ॥
अतएव हे राजन्! आप इस सर्वोत्तम तीर्थमें अपनी शक्तिके अनुसार पुण्यकर्म कीजिये। इससे [ प्रसन्न होकर ] मैं आपको मार्ग दिखा दूँगा और तब आप | अपने नगरको चले जाइयेगा। हे अनघ ! हे काकुत्स्थ ! आपके दानसे प्रसन्न होकर आपको मार्ग दिखानेके लिये इसी समय मैं आपके साथ चलूँगा ॥ 5-6 ॥
मुनिकी यह कपटभरी वाणी सुनकर राजा हरिश्चन्द्र घोड़ेको एक वृक्षमें बाँधकर तथा अपने वस्त्र उतारकर विधिवत् स्नान करनेके लिये नदीके तटपर आ गये। होनहारके प्राबल्यके कारण उस समय राजा हरिश्चन्द्र मुनिके वाक्यसे मोहित होकर | उनके वशीभूत हो गये थे ॥ 7-8 ॥
विधिपूर्वक स्नान करनेके पश्चात् पितरों तथा देवताओंका तर्पण करके राजाने विश्वामित्रसे यह कहा- हे स्वामिन्! अब मैं आपको दान देता हूँ। हे महाभाग ! इस समय आप जो चाहते हैं, उसे मैं आपको दूँगा। गाय, भूमि, सोना, हाथी, घोड़ा, रथ, वाहन आदि कुछ भी मेरे लिये अदेय नहीं है-ऐसी प्रतिज्ञा मैं पूर्वकालमें सर्वोत्तम राजसूययज्ञमें मुनियोंके समक्ष कर चुका हूँ। अतः हे मुने! आपकी जो आकांक्षा हो उसे बताइये; मैं आपकी वह अभिलषित वस्तु आपको दूँगा; क्योंकि आप इस सर्वोत्तम तीर्थमें पधारे हुए हैं । ll 9-12 ॥
विश्वामित्र बोले- हे राजन्! संसारमें व्याप्त आपकी विपुल कीर्तिके विषयमें मैं बहुत पहले सुन चुका हूँ। महर्षि वसिष्ठने भी कहा था कि पृथ्वीतलपर उनके समान कोई दानी नहीं है। राजाओंमें श्रेष्ठ वे | राजा हरिश्चन्द्र सूर्यवंशमें उत्पन्न हुए हैं। जैसे दानीतथा परम उदार त्रिशंकुपुत्र महाराज हरिश्चन्द्र हैं, |वैसा राजा पृथ्वीपर पहले न हुआ है और न तो आगे होगा। हे महाभाग हे पार्थिव ! आज मेरे पुत्रका विवाह होनेवाला है, अतः मैं आपसे प्रार्थना कर रहा हूँ कि इसके लिये आप मुझे धन प्रदान करें ।। 13-153 ॥
राजा बोले- हे विप्रेन्द्र! आप विवाह कीजिये, मैं आपकी अभिलषित वस्तु दूँगा। आप अधिकसे अधिक जितना धन चाहते हैं, मैं उसे अवश्य दूँगा ॥ 166 ॥
व्यासजी बोले- हरिश्चन्द्रके ऐसा कहनेपर उन्हें ठगनेके लिये तत्पर मुनि विश्वामित्रने गान्धर्वी माया रचकर राजाके समक्ष एक सुकुमार पुत्र और दस वर्षकी कन्या उपस्थित कर दी और कहा- हे नृपश्रेष्ठ! आज इन्हीं दोनोंका विवाह सम्पन्न करना है किसी गृहस्थकी सन्तानका विवाह करा देनेका पुण्य राजसूययज्ञसे भी बढ़कर होता है अतः आज ही इस विप्रपुत्रका विवाह सम्पन्न करा देनेसे आपको महान् पुण्य होगा। ll 17-193 ll
6 विश्वामित्रकी बात सुनकर उनकी मायासे मोहित हुए राजा हरिश्चन्द्र 'वैसा ही करूंगा' यह प्रतिज्ञा करके आगे कुछ भी नहीं बोले। इसके बाद मुनिके द्वारा मार्ग दिखा दिये जानेपर वे अपने नगरको चले गये और राजाको ठगकर विश्वामित्र भी अपने आश्रमके लिये प्रस्थान कर गये । ll 20-213 ॥
विवाह कार्य पूर्ण होने के पूर्व विश्वामित्रने राजा हरिश्चन्द्रसे कहा है राजन्। अब आप हवनवेदीके मध्य मुझे अभिलषित दान दीजिये ॥ 223 ॥
राजा बोले- हे द्विज। आपकी क्या अभिलाषा है, उसे बताइए मैं आपको अभिलषित वस्तु अवश्य दूंगा। इस संसारमें मेरे लिये कुछ भी अदेय नहीं है। अब मैं केवल यश प्राप्त करना चाहता हूँ; क्योंकि वैभव प्राप्त करके भी जिसने परलोकमें सुख देनेवाले पवित्र यशका उपार्जन नहीं किया, उसका जीवन व्यर्थ है। ll 23-243 ll
विश्वामित्र बोले- हे राजन्! इस परम पुनीत हवनवेदी के मध्य आप हाथी, घोड़े रथ रन और अनुचरोंसे युक्त सम्पूर्ण राज्य वरको दे दीजिये॥ 256 ॥व्यासजी बोले – मुनिकी बात सुनते ही उनकी मायासे मोहित होनेके कारण बिना कुछ सोचे-विचारे राजाने अकस्मात् कह दिया- 'सारा राज्य आपको दे दिया। तत्पश्चात् परम निष्ठुर विश्वामित्रने उनसे कहा 'मैंने पा लिया और हे राजेन्द्र ! हे महामते ! अब दानकी सांगता-सिद्धिके लिये उसके योग्य दक्षिणा भी दे दीजिये, क्योंकि मनुने कहा है कि दक्षिणारहित दान व्यर्थ होता है। अतएव दानका पूर्ण फल प्राप्त करनेके लिये आप यथोचित दक्षिणा भी दीजिये ' ॥ 26-283 ॥
मुनिके यह कहनेपर राजा हरिश्चन्द्र उस समय बड़े आश्चर्यमें पड़ गये। उन्होंने मुनिसे कहा है स्वामिन्! आप यह तो बताइये कि इस समय कितना धन आपको और देना है। हे साधो! दक्षिणाके रूपमें निष्क्रय - द्रव्यका परिमाण बता दीजिये। हे तपोधन। आप निश्चिन्त रहिये; दानकी पूर्णताके लिये मैं वह दक्षिणा अवश्य दूँगा ॥ 29-303 ।।
यह सुनकर विश्वामित्रने राजा हरिश्चन्द्रसे कहा कि आप दक्षिणाके रूपमें ढाई भार सोना अभी दीजिये।
तत्पश्चात् 'आपको दूँगा' - यह प्रतिज्ञा विश्वामित्रसे करके राजा बड़े विस्मयमें पड़ गये ॥ 31-32 ॥
उसी समय उनके सभी सैनिक भी उन्हें खोजते हुए वहाँ आ गये। राजाको देखकर वे बहुत हर्षित हुए और उन्हें चिन्तित देखकर सान्त्वना देने लगे ॥ 33 ॥
व्यासजी बोले- [ हे जनमेजय!] उनकी बात सुनकर राजा हरिश्चन्द्र शुभाशुभ कुछ भी उत्तर न देकर अपने किये हुए कार्यपर विचार करते हुए अन्तः पुरमें चले गये ॥ 34 ॥
यह मैंने कैसा दान देना स्वीकार कर लिया, जो कि मैंने अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया। इस ब्राह्मणने तो ठगोंकी भाँति वनमें मुझे बड़ा धोखा दिया। सामग्रियों सहित सम्पूर्ण राज्य उस ब्राह्मणको देनेके लिये मैंने | प्रतिज्ञा कर ली थी और फिर साथमें ढाई भार स्वर्णकी भी प्रतिज्ञा कर ली है। अब मैं क्या करूँ? मेरी तो बुद्धि ही भ्रष्ट हो गयी है। मुनिके कपटको मैं नहीं | जान पाया और उस तपस्वी ब्राह्मणने मुझे अकस्मात् ही उग लिया। विधिका विधान में बिलकुल नहीं समझ पा रहा हूँ। हा दैव। पता नहीं भविष्यमें क्या होनेवाला है - इसी चिन्तामें पड़े हुए अत्यन्त क्षुब्धचित्त राजा हरिश्चन्द्र अपने महलमें पहुँचे ॥ 35-38 ॥अपने पति राजा हरिश्चन्द्रको चिन्ताग्रस्त देखकर रानीने इसका कारण पूछा- हे प्रभो! इस समय आप उदास क्यों दिखायी दे रहे हैं, आपको कौन-सी चिन्ता है ? मुझे बताइये ॥ 39 ॥
अब तो आपका पुत्र भी वनसे लौट आया है। और आपने बहुत पहले ही राजसूययज्ञ भी सम्पन्न कर लिया है, तो फिर आप किसलिये शोक कर रहे हैं? हे राजेन्द्र अपनी चिन्ताका कारण बताइये ॥ 40 ll
| इस समय बलशाली अथवा बलहीन आपका कोई शत्रु भी कहीं नहीं है। वरुणदेव भी आपसे परम सन्तुष्ट हैं। आपने संसारमें अपने सारे मनोरथ सफल कर लिये हैं। हे बुद्धिमान् नृपश्रेष्ठ! चिन्तासे शरीर क्षीण हो जाता है, चिन्ताके समान तो मृत्यु भी नहीं है; इसलिये आप चिन्ता छोड़िये और स्वस्थ रहिये ।। 41-42 ।।
[हे जनमेजय !] अपनी पत्नीकी बात सुनकर राजाने प्रेमपूर्वक उन्हें चिन्ताका शुभाशुभ थोड़ा-बहुत कारण बतला दिया ॥ 43 ॥
उस समय चिन्तासे आकुल राजा हरिश्चन्द्रने भोजनतक नहीं किया। सुन्दर शय्यापर लेटे रहनेपर भी राजाको निद्रा नहीं आयी ll 44 ll
चिन्ताग्रस्त राजा हरिश्चन्द्र प्रातः काल उठकर जब सन्ध्या-वन्दन आदि क्रियाएँ कर रहे थे, उसी समय मुनि विश्वामित्र वहाँ आ पहुँचे ।। 45 ।।
राजाका सर्वस्व हरण कर लेनेवाले मुनिके आनेकी सूचना द्वारपालने राजाको दी। तब मुनि विश्वामित्र उनके पास गये और बार-बार प्रणाम करते हुए राजासे कहने लगे- ॥ 46
विश्वामित्र बोले- हे राजन् अपना राज्य छोड़िये और अपने वचनसे संकल्पित इस राज्यको मुझे दे दीजिये हे राजेन्द्र अब प्रतिज्ञा की हुई सुवर्णकी दक्षिणा भी दीजिये और सत्यवादी बनिये ।। 47 ।।
हरिश्चन्द्र बोले- हे स्वामिन्। मेरा यह राज्य अब आपका है; क्योंकि मैंने इसे आपको दे दिया है। हे कौशिक इसे छोड़कर अब मैं अन्यत्र चला जाऊँगा, आप चिन्ता न करें ॥ 48 ॥हे ब्रह्मन् ! मेरा सर्वस्व तो विधिपूर्वक आपने ग्रहण कर लिया है, अतः हे विभो ! इस समय में आपको स्वर्ण-दक्षिणा देनेमें असमर्थ हूँ। हे द्विज! जब मेरे पास धन हो जायगा, तब मैं आपको दक्षिणा दे दूँगा और यदि दैवयोगसे धन उपलब्ध हो गया, तो उसी समय मैं आपकी दक्षिणा चुका दूँगा ।। 49-50 ॥
विश्वामित्रसे यह कहकर राजा हरिश्चन्द्रने | अपने पुत्र रोहित तथा पत्नी माधवीसे कहा- हाथी, घोड़े, रथ, स्वर्ण तथा रत्न आदिसहित अपना सारा विस्तृत राज्य मैं विवाहवेदीपर इन ब्राह्मणदेवको दान कर चुका हूँ; केवल हमलोगोंके इन तीन शरीरोंको छोड़कर और सब कुछ इन्हें समर्पित कर दिया है। अतः अब मैं अयोध्या छोड़कर किसी वनकी गुफामें चला जाऊँगा। अब ये मुनि इस सर्वसमृद्धिशाली राज्यको भलीभाँति ग्रहण करें ॥ 51-53 ॥
[हे जनमेजय!] अपने पुत्र तथा पत्नीसे यह कहकर परम धार्मिक राजा हरिश्चन्द्र द्विजश्रेष्ठ विश्वामित्रको सम्मान देते हुए अपने भवनसे निकल पड़े ॥ 54 ॥
राजाको जाते देखकर उनकी पत्नी माधवी तथा पुत्र रोहित चिन्तित हो गये तथा उनके मुखपर उदासी छा गयी। वे दोनों भी उनके पीछे-पीछे चल दिये ॥ 55 ॥
उन सभीको इस स्थितिमें देखकर नगरमें बड़ा हाहाकार मच गया। अयोध्यामें रहनेवाले सभी प्राणी चीख-चीखकर रोने लगे-हा राजन् ! आपने यह कैसा कर्म कर डाला! आपके ऊपर यह संकट कहाँसे आ पड़ा। हे महाराज! यह निश्चय है कि आप विवेकहीन विधाताद्वारा उग लिये गये हैं । ll 56-57 ॥
महात्मा पुत्र रोहित तथा भार्या माधवीके सहित उन राजा हरिश्चन्द्रको इस दशामें देखकर सभी वर्णके लोग बहुत दुःखी हुए ॥ 58 ॥
'यह महान् धूर्त है'-ऐसा कहते हुए नगरवासी ब्राह्मण आदि लोग दुःखसे व्याकुल होकर उस दुराचारी ब्राह्मण (विश्वामित्र) - की निन्दा करने लगे ।। 59 ।।महाराज हरिश्चन्द्र अभी नगरसे निकलकर जा ही रहे थे कि इतनेमें विश्वामित्र पुनः उनके सम्मुख आकर उनसे यह निष्ठुर वचन कहने लगे-हे राजन् ! मेरी सुवर्ण दक्षिणा देकर आप जाइये अथवा यह कह दीजिये कि मैं नहीं दूँगा तो मैं वह सुवर्ण छोड़ दूँगा । हे राजन् ! यदि आपके हृदयमें लोभ हो तो आप अपना सारा राज्य वापस ले लीजिये और यदि आप यह मानते हैं कि 'मैं वस्तुतः दान दे चुका हूँ' तो जिस सुवर्णकी आप प्रतिज्ञा कर चुके हैं, उसे मुझको दे दीजिये ॥ 60 - 62॥
विश्वामित्रके यह कहनेपर अत्यन्त उदास मनवाले राजा हरिश्चन्द्र उन्हें दण्डवत् प्रणाम करके दोनों हाथ | जोड़कर कहने लगे ॥ 63 ॥