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देवी भागवत महापुराण ( देवी भागवत)

Devi Bhagwat Purana (Devi Bhagwat Katha)

स्कन्ध 6, अध्याय 3 - Skand 6, Adhyay 3

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वृत्रासुरका देवलोकपर आक्रमण, बृहस्पतिद्वारा इन्द्रकी भर्त्सना करना और वृत्रासुरको अजेय बतलाना, इन्द्रकी पराजय, त्वष्टाके निर्देशसे वृत्रासुरका ब्रह्माजीको प्रसन्न करनेके लिये तपस्यारत होना

व्यासजी बोले - [ हे राजन्!] वेदोंमें पारंगत ब्राह्मणोंसे स्वस्तिवाचन कराकर महाबली वृत्रासुर रथपर सवार हो इन्द्रको मारनेके लिये चला ॥ 1 ॥ उस समय बहुत से क्रूर राक्षस जो पहले देवताओंसे पराजित हो गये थे, वृत्रासुरको महान् बलशाली जानकर उसकी सेवाके लिये आ गये ॥ 2 ॥इन्द्रके दूत उसे युद्धके लिये आया देखकर

शीघ्रतापूर्वक [ इन्द्रके पास ] आकर सम्पूर्ण वृत्तान्त और उसकी गतिविधि बताने लगे ॥ 3 ॥ दूत बोले- हे स्वामिन्! वृत्र नामका आपका बलवान् और दुर्धर्ष शत्रु रथपर आरूढ़ होकर राक्षसोंके साथ शीघ्र ही यहाँ आ रहा है; पुत्रशोक सन्तप्त और क्रोधाभिभूत त्वष्टाने आपके नाशके लिये अभिचारकर्मसे उसे उत्पन्न किया है ।। 4-5 ॥

हे महाभाग ! शीघ्र ही [रक्षाका] उपाय कीजिये । सुमेरु और मन्दराचलके समान अत्यन्त भयंकर प्रतीत होनेवाला वह (वृत्रासुर) घोर गर्जन करता हुआ अब शीघ्र यहाँ आ रहा है ॥ 6 ॥ इसी बीच अत्यन्त भयभीत देवगण वहाँ आ करके दूतोंकी बात सुन रहे देवराज इन्द्रसे इस प्रकार कहने लगे ॥ 7 ॥

गण बोले- हे इन्द्र ! इस समय स्वर्गमें अनेक प्रकारके अपशकुन हो रहे हैं पक्षियोंके बहुत ही डरावने शब्द हो रहे हैं। कौए, गिद्ध, बाज और चील आदि क्रूर पक्षी भवनोंके ऊपर बैठकर भयानक स्वरोंमें रोते हैं और अन्य पक्षी भी बार-बार चीची कुची-ऐसे शब्द कर रहे हैं [हाथी, घोड़े आदि ] वाहनोंकी आँखोंसे लगातार जल (अनु) की धाराएँ नीचे गिर रही हैं। हे महाभाग ! भवनोंके ऊपरी भागमें रातमें रोती हुई राक्षसियोंका महाभयानक शब्द सुनायी देता है। हे मानद। हवाके बिना ही ध्वजाएँ टूट टूटकर गिर पड़ती हैं स्वर्ग, पृथ्वी और आकाशमें महान् उत्पात हो रहे हैं। काले वस्त्र धारण की हुई |भवानक मुखवाली स्त्रियाँ निकल जाओ; घरसे शीघ्र निकल जाओ' ऐसा कहती हुई घर घरमें घूमती हैं। रातमें अपने घरमें सोयी हुई स्त्रियोंको भयभीत करती हुई भयानक राक्षसियों स्वप्नोंमें उनके बाल नोचती हैं ॥ 8- 14 ॥ हे देवेन्द्र! इसी प्रकार भूकम्प और उल्कापात आदि उपद्रव भी हो रहे हैं, रात्रिमें हमारे भवनोंके आँगनमें सियार रुदन करते हैं। गिरगिटोंके समूह घर घरमें उत्पन्न हो रहे हैं, सर्वथा अनिष्टके सूचक अंग प्रस्फुरण आदि भी होते हैं ll 15-16 llव्यासजी बोले- उन लोगोंका यह वचन सुनकर इन्द्र चिन्तित हो उठे और बृहस्पतिको बुलाकर उन्होंने अपनी मनोगत बात पूछी ॥ 17 ॥

इन्द्र बोले—हे ब्रह्मन् ! ये भयानक अपशकुन क्यों हो रहे हैं? भयानक आँधियाँ चलती हैं और आकाशसे उल्कापात होते हैं। हे महाभाग ! आप सर्वज्ञ, विघ्नका नाश करनेमें समर्थ, बुद्धिमान्, शास्त्रोंके तत्त्वोंको जाननेवाले और देवताओंके गुरु हैं। इसलिये हे विधानज्ञ! आप हमारी शान्तिके लिये शत्रुओंका नाश करनेवाला कोई शान्तिकर्म कीजिये। जिस प्रकार मुझे दुःख न हो, आप वैसा कार्य कीजिये ॥ 18-20 ॥

बृहस्पति बोले—हे सहस्र नेत्रोंवाले इन्द्र! मैं क्या करूँ? तुमने बहुत बड़ा पाप कर डाला है। निरपराध मुनिको मारकर तुमने क्या लाभ प्राप्त कर लिया ? ॥ 21 ॥

पुण्य और पापका अत्यन्त उग्र फल शीघ्र ही प्राप्त होता है, इसलिये ऐश्वर्यकी इच्छा रखनेवालोंको विचारपूर्वक कार्य करना चाहिये। दूसरेको कष्ट पहुँचानेका कृत्य कभी नहीं करना चाहिये। दूसरेको कष्ट देनेमें संलग्न प्राणी कभी सुख नहीं पाता ।। 22-23 ॥

हे इन्द्र ! तुमने मोह और लोभके वशीभूत होकर ब्रह्महत्या कर डाली, उसी पापका यह फल आज सहसा उपस्थित हो गया है ॥ 24 ॥ वृत्र नामवाला यह असुर जन्मसे ही देवताओंसे अवध्य है; बहुत-से दानवोंसे घिरा हुआ वह तुम्हें मारनेके लिये चला आ रहा है ।। 25 ।।

हे इन्द्र! त्वष्टाके द्वारा दिये हुए उन सभी वज्रतुल्य तथा दिव्य आयुधों को लेकर वह उपस्थित हो रहा है ।। 26 ।

दुर्धर्ष तथा प्रतापी वह रथपर आरूढ़ होकर प्रलय मचाते हुए चला आ रहा है। हे देवेन्द्र! उसकी मृत्यु नहीं होगी ॥ 27 ॥

बृहस्पति ऐसा कह ही रहे थे कि वहाँ कोलाहल मच गया। गन्धर्व, किन्नर, यक्ष, मुनि, तपस्वी और सभी देवता अपने-अपने भवन छोड़कर भाग चले। उस महान् आश्चर्यको देखकर इन्द्र चिन्तित हो उठे ॥ 28-29 ।।तब उन्होंने सेवकोंको सेना तैयार करनेका आदेश दिया। 'वसुओं, रुद्रों, अश्विनीकुमारों, आदित्यों, पूषा, भग, वायु, कुबेर, वरुण और यमको बुलाओ। सभी श्रेष्ठ देवता आयुधोंके साथ विमानोंपर आरूढ़ होकर यहाँ शीघ्र आ जायें; क्योंकि अब शत्रु आने ही वाला है' ऐसी आज्ञा देकर देवराज अपने श्रेष्ठ गजराज ऐरावतपर सवार होकर बृहस्पतिको आगे करके अपने भवनसे बाहर निकले ॥ 30-326 ॥

वैसे ही अन्य सभी देवता भी हाथोंमें शस्त्र लेकर अपने-अपने वाहनोंपर सवार होकर युद्धका संकल्प करके चल पड़े। उधर वृत्रासुर भी विशाल दानवी सेनाके साथ वृक्षोंसे सुशोभित, रमणीय तथा देवताओंसे सेवित मानसरोवरके उत्तरवर्ती पर्वतपर आ गया। बृहस्पतिको आगे करके सभी देवताओंके साथ इन्द्रने भी उस मानसोत्तर पर्वतपर आकर संग्राम | किया 33 - 353 ॥

तब गदा, तलवार, परिघ, पाश, बाण, शक्ति और परशु आदि युद्धास्त्रोंके द्वारा वृत्रासुर और इन्द्रमें भयानक युद्ध हुआ। मनुष्यों और विशुद्ध हृदयवाले ऋषियोंके लिये अत्यन्त भयकारी वह युद्ध मानववर्षकी गणनासे सौ वर्षोंतक चला ।। 36-373 ॥

उस युद्ध में सबसे पहले वरुण और उसके बाद मरुद्गण पलायन कर गये। इसी प्रकार यम, अग्नि, इन्द्र - जो भी थे वे सभी युद्धसे निकल भागे । इन्द्र आदि प्रमुख देवताओंको भागकर जाते देखकर वृत्रासुर भी प्रसन्नतापूर्वक आश्रमस्थित अपने पिताके पास गया और उन्हें प्रणाम करके बोला- हे पिताजी! मैंने [आपका] कार्य कर दिया ।। 38-40 ॥

युद्धभूमिमें आये हुए इन्द्रसहित सभी देवता मुझसे पराजित हो गये। वे सब उसी प्रकार भयभीत होकर अपने स्थानोंको भाग गये, जैसे सिंहसे डरकर हाथी और मृग भाग जाते हैं। इन्द्र तो पैदल ही भाग गये; मैं हाथियोंमें श्रेष्ठ इस ऐरावतको ले आया हूँ। हे भगवन्! आप इस गजश्रेष्ठको ग्रहण करें ।। 41-42 ।।

मैंने उन सबको इसलिये नहीं मारा; क्योंकि डरे हुएको मारना अनुचित होता है। हे तात! आप पुनः आज्ञा कीजिये कि मैं आपका कौन-सा इच्छित कार्य करूँ ? ।। 43 ।।सभी देवता भयभीत और युद्धश्रमसे क्लान्त
होकर भाग गये; भयभीत इन्द्र भी ऐरावत छोड़कर भाग गया ।। 44 ।

व्यासजी बोले- पुत्रका यह वचन सुनकर त्वष्टाने प्रसन्न होकर कहा—आज मैं पुत्रवान् हो गया हूँ मेरा जीवन सफल हो गया ।। 45 ।।

हे पुत्र ! तुमने आज मुझे पवित्र कर दिया; मेरा मानसिक सन्ताप चला गया। तुम्हारे अद्भुत पराक्रमको देखकर मेरा मन शान्त हो गया ॥ 46 ॥

हे पुत्र सुनो, अब मैं तुम्हारे हितकी बात कह रहा हूँ। हे महाभाग ! अब तुम दृढ़तापूर्वक आसनपर बैठकर सावधान होकर तपस्या करो ॥ 47 ॥

किसीका भी विश्वास मत करना। वह तुम्हारा शत्रु इन्द्र छल करनेवाला तथा अनेक प्रकारकी भेदनीतिमें निपुण है ।। 48 ।।

तपसे लक्ष्मीकी प्राप्ति होती है, तपसे उत्तम राज्यकी प्राप्ति होती है। तपसे बलकी वृद्धि होती है और संग्राममें विजयकी प्राप्ति होती है ।। 49 ।।

भगवान् ब्रह्माको आराधना करके उनसे उत्तम वर प्राप्तकर तुम उस दुराचारी और ब्राह्मणके हत्यारे इन्द्रको मार डालो ॥ 50 ॥

तुम सावधान और स्थिर होकर कल्याणकारी तथा वरदाता ब्रह्माजीकी आराधना करो। प्रसन्न होनेपर चार मुखवाले वे ब्रह्माजी तुम्हें अभीष्ट वरदान देंगे ॥ 51 ॥

विश्वकी सृष्टि करनेवाले अमिततेजस्वी ब्रह्माजीको प्रसन्न करके अमरत्व प्राप्तकर तुम अपराधी इन्द्रको मार डालो ॥ 52 ॥

हे पुत्र ! मेरे मनमें उस पुत्रघातीके प्रति वैर बना हुआ है, न मुझे शान्ति प्राप्त होती है और न ही मैं सुखसे सो पाता हूँ ॥53॥

उस पापीने मेरे निर्दोष तपस्वी पुत्रको मार डाला है, इसलिये मुझे शान्ति नहीं मिलती। हे वृत्र! तुम | मुझ दुःखीका उद्धार करो ॥ 54 ॥

व्यासजी बोले- तब पिताका वचन सुनकर वृत्रासुर कुपित हो उठा। पितासे आज्ञा लेकर वह | प्रसन्नतापूर्वक तपस्या करनेके लिये चला गया ॥ 55॥

गन्धमादनपर्वतपर पहुँचकर पवित्र और मंगलकारिणी देवनदी गंगाजीमें स्नान करके कुशका आसन बिछाकर वह दृढ़तापूर्वक बैठ गया ॥ 56 ॥ अन्न और जलका त्याग करके योगाभ्यासमें तत्पर होकर मनमें विश्वस्रष्टा ब्रह्माजीका ध्यान करता हुआ वह दृढ़भावसे आसनपर बैठा रहा ॥ 57 ॥

उसे तपस्या करता हुआ जानकर इन्द्र चिन्तासे व्यग्र हो उठे। तब [ उसके तपमें] विघ्न डालनेके लिये इन्द्रने गन्धर्वों, अत्यन्त ओजस्वी यक्षों, नागों, सर्पों, किन्नरों, विद्याधरों, अप्सराओं और अनेक देवदूतोंको भेजा। उन मायावियोंद्वारा तपमें विघ्नके लिये भलीभाँति उपाय किये गये, किंतु परम तपस्वी त्वष्टापुत्र वृत्र ध्यानसे विचलित नहीं हुआ ॥ 58-60 ॥

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देवी भागवत महापुराण
Index


  1. [अध्याय 1] त्रिशिराकी तपस्यासे चिन्तित इन्द्रद्वारा तपभंगहेतु अप्सराओंको भेजना
  2. [अध्याय 2] इन्द्रद्वारा त्रिशिराका वध, क्रुद्ध त्वष्टाद्वारा अथर्ववेदोक्त मन्त्रोंसे हवन करके वृत्रासुरको उत्पन्न करना और उसे इन्द्रके वधके लिये प्रेरित करना
  3. [अध्याय 3] वृत्रासुरका देवलोकपर आक्रमण, बृहस्पतिद्वारा इन्द्रकी भर्त्सना करना और वृत्रासुरको अजेय बतलाना, इन्द्रकी पराजय, त्वष्टाके निर्देशसे वृत्रासुरका ब्रह्माजीको प्रसन्न करनेके लिये तपस्यारत होना
  4. [अध्याय 4] तपस्यासे प्रसन्न होकर ब्रह्माजीका वृत्रासुरको वरदान देना, त्वष्टाकी प्रेरणासे वृत्रासुरका स्वर्गपर आक्रमण करके अपने अधिकारमें कर लेना, इन्द्रका पितामह ब्रह्मा और भगवान् शंकरके साथ वैकुण्ठधाम जाना
  5. [अध्याय 5] भगवान् विष्णुकी प्रेरणासे देवताओंका भगवतीकी स्तुति करना और प्रसन्न होकर भगवतीका वरदान देना
  6. [अध्याय 6] भगवान् विष्णुका इन्द्रको वृत्रासुरसे सन्धिका परामर्श देना, ऋषियोंकी मध्यस्थतासे इन्द्र और वृत्रासुरमें सन्धि, इन्द्रद्वारा छलपूर्वक वृत्रासुरका वध
  7. [अध्याय 7] त्वष्टाका वृत्रासुरकी पारलौकिक क्रिया करके इन्द्रको शाप देना, इन्द्रको ब्रह्महत्या लगना, नहुषका स्वर्गाधिपति बनना और इन्द्राणीपर आसक्त होना
  8. [अध्याय 8] इन्द्राणीको बृहस्पतिकी शरणमें जानकर नहुषका क्रुद्ध होना, देवताओंका नहुषको समझाना, बृहस्पतिके परामर्शसे इन्द्राणीका नहुषसे समय मांगना, देवताओंका भगवान् विष्णुके पास जाना और विष्णुका उन्हें देवीको प्रसन्न करनेके लिये अश्वमेधयज्ञ करने को कहना, बृहस्पतिका शचीको भगवतीकी आराधना करनेको कहना, शचीकी आराधनासे प्रसन्न होकर देवीका प्रकट होना और शचीको इन्द्रका दर्शन होना
  9. [अध्याय 9] शचीका इन्द्रसे अपना दुःख कहना, इन्द्रका शचीको सलाह देना कि वह नहुषसे ऋषियोंद्वारा वहन की जा रही पालकीमें आनेको कहे, नहुषका ऋषियोंद्वारा वहन की जा रही पालकीमें सवार होना और शापित होकर सर्प होना तथा इन्द्रका पुनः स्वर्गाधिपति बनना
  10. [अध्याय 10] कर्मकी गहन गतिका वर्णन तथा इस सम्बन्धमें भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुनका उदाहरण
  11. [अध्याय 11] युगधर्म एवं तत्सम्बन्धी व्यवस्थाका वर्णन
  12. [अध्याय 12] पवित्र तीर्थोका वर्णन, चित्तशुद्धिकी प्रधानता तथा इस सम्बन्धमें विश्वामित्र और वसिष्ठके परस्पर वैरकी कथा, राजा हरिश्चन्द्रका वरुणदेवके शापसे जलोदरग्रस्त होना
  13. [अध्याय 13] राजा हरिश्चन्द्रका शुनःशेपको यज्ञीय पशु बनाकर यज्ञ करना, विश्वामित्रसे प्राप्त वरुणमन्त्र जपसे शुनःशेपका मुक्त होना, परस्पर शापसे विश्वामित्र और वसिष्ठका बक तथा आडी होना
  14. [अध्याय 14] राजा निमि और वसिष्ठका एक-दूसरेको शाप देना, वसिष्ठका मित्रावरुणके पुत्रके रूपमें जन्म लेना
  15. [अध्याय 15] भगवतीकी कृपासे निमिको मनुष्योंके नेत्र पलकोंमें वासस्थान मिलना तथा संसारी प्राणियोंकी त्रिगुणात्मकताका वर्णन
  16. [अध्याय 16] हैहयवंशी क्षत्रियोंद्वारा भृगुवंशी ब्राह्मणोंका संहार
  17. [अध्याय 17] भगवतीकी कृपासे भार्गव ब्राह्मणीकी जंघासे तेजस्वी बालककी उत्पत्ति, हैहयवंशी क्षत्रियोंकी उत्पत्तिकी कथा
  18. [अध्याय 18] भगवती लक्ष्मीद्वारा घोड़ीका रूप धारणकर तपस्या करना
  19. [अध्याय 19] भगवती लक्ष्मीको अश्वरूपधारी भगवान् विष्णुके दर्शन और उनका वैकुण्ठगमन
  20. [अध्याय 20] राजा हरिवर्माको भगवान् विष्णुद्वारा अपना हैहयसंज्ञक पुत्र देना, राजाद्वारा उसका 'एकवीर' नाम रखना
  21. [अध्याय 21] आखेटके लिये वनमें गये राजासे एकावलीकी सखी यशोवतीकी भेंट, एकावलीके जन्मकी कथा
  22. [अध्याय 22] यशोवतीका एकवीरसे कालकेतुद्वारा एकावलीके अपहृत होनेकी बात बताना
  23. [अध्याय 23] भगवतीके सिद्धिप्रदायक मन्यसे दीक्षित एकवीरद्वारा कालकेतुका वध, एकवीर और एकावलीका विवाह तथा हैहयवंशकी परम्परा
  24. [अध्याय 24] धृतराष्ट्रके जन्मकी कथा
  25. [अध्याय 25] पाण्डु और विदुरके जन्मकी कथा, पाण्डवोंका जन्म, पाण्डुकी मृत्यु, द्रौपदीस्वयंवर, राजसूययज्ञ, कपटद्यूत तथा वनवास और व्यासजीके मोहका वर्णन
  26. [अध्याय 26] देवर्षि नारद और पर्वतमुनिका एक-दूसरेको शाप देना, राजकुमारी दमयन्तीका नारदसे विवाह करनेका निश्चय
  27. [अध्याय 27] वानरमुख नारदसे दमयन्तीका विवाह, नारद तथा पर्वतका परस्पर शापमोचन
  28. [अध्याय 28] भगवान् विष्णुका नारदजीसे मायाकी अजेयताका वर्णन करना, मुनि नारदको मायावश स्त्रीरूपकी प्राप्ति तथा राजा तालध्वजका उनसे प्रणय निवेदन करना
  29. [अध्याय 29] राजा तालध्वजसे स्त्रीरूपधारी नारदजीका विवाह, अनेक पुत्र-पौत्रोंकी उत्पत्ति और युद्धमें उन सबकी मृत्यु, नारदजीका शोक और भगवान् विष्णुकी कृपासे पुनः स्वरूपबोध
  30. [अध्याय 30] राजा तालध्वजका विलाप और ब्राह्मणवेशधारी भगवान् विष्णुके प्रबोधनसे उन्हें वैराग्य होना, भगवान् विष्णुका नारदसे मायाके प्रभावका वर्णन करना
  31. [अध्याय 31] व्यासजीका राजा जनमेजयसे भगवतीकी महिमाका वर्णन करना