व्यासजी बोले - [ हे राजन्!] वेदोंमें पारंगत ब्राह्मणोंसे स्वस्तिवाचन कराकर महाबली वृत्रासुर रथपर सवार हो इन्द्रको मारनेके लिये चला ॥ 1 ॥ उस समय बहुत से क्रूर राक्षस जो पहले देवताओंसे पराजित हो गये थे, वृत्रासुरको महान् बलशाली जानकर उसकी सेवाके लिये आ गये ॥ 2 ॥इन्द्रके दूत उसे युद्धके लिये आया देखकर
शीघ्रतापूर्वक [ इन्द्रके पास ] आकर सम्पूर्ण वृत्तान्त और उसकी गतिविधि बताने लगे ॥ 3 ॥ दूत बोले- हे स्वामिन्! वृत्र नामका आपका बलवान् और दुर्धर्ष शत्रु रथपर आरूढ़ होकर राक्षसोंके साथ शीघ्र ही यहाँ आ रहा है; पुत्रशोक सन्तप्त और क्रोधाभिभूत त्वष्टाने आपके नाशके लिये अभिचारकर्मसे उसे उत्पन्न किया है ।। 4-5 ॥
हे महाभाग ! शीघ्र ही [रक्षाका] उपाय कीजिये । सुमेरु और मन्दराचलके समान अत्यन्त भयंकर प्रतीत होनेवाला वह (वृत्रासुर) घोर गर्जन करता हुआ अब शीघ्र यहाँ आ रहा है ॥ 6 ॥ इसी बीच अत्यन्त भयभीत देवगण वहाँ आ करके दूतोंकी बात सुन रहे देवराज इन्द्रसे इस प्रकार कहने लगे ॥ 7 ॥
गण बोले- हे इन्द्र ! इस समय स्वर्गमें अनेक प्रकारके अपशकुन हो रहे हैं पक्षियोंके बहुत ही डरावने शब्द हो रहे हैं। कौए, गिद्ध, बाज और चील आदि क्रूर पक्षी भवनोंके ऊपर बैठकर भयानक स्वरोंमें रोते हैं और अन्य पक्षी भी बार-बार चीची कुची-ऐसे शब्द कर रहे हैं [हाथी, घोड़े आदि ] वाहनोंकी आँखोंसे लगातार जल (अनु) की धाराएँ नीचे गिर रही हैं। हे महाभाग ! भवनोंके ऊपरी भागमें रातमें रोती हुई राक्षसियोंका महाभयानक शब्द सुनायी देता है। हे मानद। हवाके बिना ही ध्वजाएँ टूट टूटकर गिर पड़ती हैं स्वर्ग, पृथ्वी और आकाशमें महान् उत्पात हो रहे हैं। काले वस्त्र धारण की हुई |भवानक मुखवाली स्त्रियाँ निकल जाओ; घरसे शीघ्र निकल जाओ' ऐसा कहती हुई घर घरमें घूमती हैं। रातमें अपने घरमें सोयी हुई स्त्रियोंको भयभीत करती हुई भयानक राक्षसियों स्वप्नोंमें उनके बाल नोचती हैं ॥ 8- 14 ॥ हे देवेन्द्र! इसी प्रकार भूकम्प और उल्कापात आदि उपद्रव भी हो रहे हैं, रात्रिमें हमारे भवनोंके आँगनमें सियार रुदन करते हैं। गिरगिटोंके समूह घर घरमें उत्पन्न हो रहे हैं, सर्वथा अनिष्टके सूचक अंग प्रस्फुरण आदि भी होते हैं ll 15-16 llव्यासजी बोले- उन लोगोंका यह वचन सुनकर इन्द्र चिन्तित हो उठे और बृहस्पतिको बुलाकर उन्होंने अपनी मनोगत बात पूछी ॥ 17 ॥
इन्द्र बोले—हे ब्रह्मन् ! ये भयानक अपशकुन क्यों हो रहे हैं? भयानक आँधियाँ चलती हैं और आकाशसे उल्कापात होते हैं। हे महाभाग ! आप सर्वज्ञ, विघ्नका नाश करनेमें समर्थ, बुद्धिमान्, शास्त्रोंके तत्त्वोंको जाननेवाले और देवताओंके गुरु हैं। इसलिये हे विधानज्ञ! आप हमारी शान्तिके लिये शत्रुओंका नाश करनेवाला कोई शान्तिकर्म कीजिये। जिस प्रकार मुझे दुःख न हो, आप वैसा कार्य कीजिये ॥ 18-20 ॥
बृहस्पति बोले—हे सहस्र नेत्रोंवाले इन्द्र! मैं क्या करूँ? तुमने बहुत बड़ा पाप कर डाला है। निरपराध मुनिको मारकर तुमने क्या लाभ प्राप्त कर लिया ? ॥ 21 ॥
पुण्य और पापका अत्यन्त उग्र फल शीघ्र ही प्राप्त होता है, इसलिये ऐश्वर्यकी इच्छा रखनेवालोंको विचारपूर्वक कार्य करना चाहिये। दूसरेको कष्ट पहुँचानेका कृत्य कभी नहीं करना चाहिये। दूसरेको कष्ट देनेमें संलग्न प्राणी कभी सुख नहीं पाता ।। 22-23 ॥
हे इन्द्र ! तुमने मोह और लोभके वशीभूत होकर ब्रह्महत्या कर डाली, उसी पापका यह फल आज सहसा उपस्थित हो गया है ॥ 24 ॥ वृत्र नामवाला यह असुर जन्मसे ही देवताओंसे अवध्य है; बहुत-से दानवोंसे घिरा हुआ वह तुम्हें मारनेके लिये चला आ रहा है ।। 25 ।।
हे इन्द्र! त्वष्टाके द्वारा दिये हुए उन सभी वज्रतुल्य तथा दिव्य आयुधों को लेकर वह उपस्थित हो रहा है ।। 26 ।
दुर्धर्ष तथा प्रतापी वह रथपर आरूढ़ होकर प्रलय मचाते हुए चला आ रहा है। हे देवेन्द्र! उसकी मृत्यु नहीं होगी ॥ 27 ॥
बृहस्पति ऐसा कह ही रहे थे कि वहाँ कोलाहल मच गया। गन्धर्व, किन्नर, यक्ष, मुनि, तपस्वी और सभी देवता अपने-अपने भवन छोड़कर भाग चले। उस महान् आश्चर्यको देखकर इन्द्र चिन्तित हो उठे ॥ 28-29 ।।तब उन्होंने सेवकोंको सेना तैयार करनेका आदेश दिया। 'वसुओं, रुद्रों, अश्विनीकुमारों, आदित्यों, पूषा, भग, वायु, कुबेर, वरुण और यमको बुलाओ। सभी श्रेष्ठ देवता आयुधोंके साथ विमानोंपर आरूढ़ होकर यहाँ शीघ्र आ जायें; क्योंकि अब शत्रु आने ही वाला है' ऐसी आज्ञा देकर देवराज अपने श्रेष्ठ गजराज ऐरावतपर सवार होकर बृहस्पतिको आगे करके अपने भवनसे बाहर निकले ॥ 30-326 ॥
वैसे ही अन्य सभी देवता भी हाथोंमें शस्त्र लेकर अपने-अपने वाहनोंपर सवार होकर युद्धका संकल्प करके चल पड़े। उधर वृत्रासुर भी विशाल दानवी सेनाके साथ वृक्षोंसे सुशोभित, रमणीय तथा देवताओंसे सेवित मानसरोवरके उत्तरवर्ती पर्वतपर आ गया। बृहस्पतिको आगे करके सभी देवताओंके साथ इन्द्रने भी उस मानसोत्तर पर्वतपर आकर संग्राम | किया 33 - 353 ॥
तब गदा, तलवार, परिघ, पाश, बाण, शक्ति और परशु आदि युद्धास्त्रोंके द्वारा वृत्रासुर और इन्द्रमें भयानक युद्ध हुआ। मनुष्यों और विशुद्ध हृदयवाले ऋषियोंके लिये अत्यन्त भयकारी वह युद्ध मानववर्षकी गणनासे सौ वर्षोंतक चला ।। 36-373 ॥
उस युद्ध में सबसे पहले वरुण और उसके बाद मरुद्गण पलायन कर गये। इसी प्रकार यम, अग्नि, इन्द्र - जो भी थे वे सभी युद्धसे निकल भागे । इन्द्र आदि प्रमुख देवताओंको भागकर जाते देखकर वृत्रासुर भी प्रसन्नतापूर्वक आश्रमस्थित अपने पिताके पास गया और उन्हें प्रणाम करके बोला- हे पिताजी! मैंने [आपका] कार्य कर दिया ।। 38-40 ॥
युद्धभूमिमें आये हुए इन्द्रसहित सभी देवता मुझसे पराजित हो गये। वे सब उसी प्रकार भयभीत होकर अपने स्थानोंको भाग गये, जैसे सिंहसे डरकर हाथी और मृग भाग जाते हैं। इन्द्र तो पैदल ही भाग गये; मैं हाथियोंमें श्रेष्ठ इस ऐरावतको ले आया हूँ। हे भगवन्! आप इस गजश्रेष्ठको ग्रहण करें ।। 41-42 ।।
मैंने उन सबको इसलिये नहीं मारा; क्योंकि डरे हुएको मारना अनुचित होता है। हे तात! आप पुनः आज्ञा कीजिये कि मैं आपका कौन-सा इच्छित कार्य करूँ ? ।। 43 ।।सभी देवता भयभीत और युद्धश्रमसे क्लान्त
होकर भाग गये; भयभीत इन्द्र भी ऐरावत छोड़कर भाग गया ।। 44 ।
व्यासजी बोले- पुत्रका यह वचन सुनकर त्वष्टाने प्रसन्न होकर कहा—आज मैं पुत्रवान् हो गया हूँ मेरा जीवन सफल हो गया ।। 45 ।।
हे पुत्र ! तुमने आज मुझे पवित्र कर दिया; मेरा मानसिक सन्ताप चला गया। तुम्हारे अद्भुत पराक्रमको देखकर मेरा मन शान्त हो गया ॥ 46 ॥
हे पुत्र सुनो, अब मैं तुम्हारे हितकी बात कह रहा हूँ। हे महाभाग ! अब तुम दृढ़तापूर्वक आसनपर बैठकर सावधान होकर तपस्या करो ॥ 47 ॥
किसीका भी विश्वास मत करना। वह तुम्हारा शत्रु इन्द्र छल करनेवाला तथा अनेक प्रकारकी भेदनीतिमें निपुण है ।। 48 ।।
तपसे लक्ष्मीकी प्राप्ति होती है, तपसे उत्तम राज्यकी प्राप्ति होती है। तपसे बलकी वृद्धि होती है और संग्राममें विजयकी प्राप्ति होती है ।। 49 ।।
भगवान् ब्रह्माको आराधना करके उनसे उत्तम वर प्राप्तकर तुम उस दुराचारी और ब्राह्मणके हत्यारे इन्द्रको मार डालो ॥ 50 ॥
तुम सावधान और स्थिर होकर कल्याणकारी तथा वरदाता ब्रह्माजीकी आराधना करो। प्रसन्न होनेपर चार मुखवाले वे ब्रह्माजी तुम्हें अभीष्ट वरदान देंगे ॥ 51 ॥
विश्वकी सृष्टि करनेवाले अमिततेजस्वी ब्रह्माजीको प्रसन्न करके अमरत्व प्राप्तकर तुम अपराधी इन्द्रको मार डालो ॥ 52 ॥
हे पुत्र ! मेरे मनमें उस पुत्रघातीके प्रति वैर बना हुआ है, न मुझे शान्ति प्राप्त होती है और न ही मैं सुखसे सो पाता हूँ ॥53॥
उस पापीने मेरे निर्दोष तपस्वी पुत्रको मार डाला है, इसलिये मुझे शान्ति नहीं मिलती। हे वृत्र! तुम | मुझ दुःखीका उद्धार करो ॥ 54 ॥
व्यासजी बोले- तब पिताका वचन सुनकर वृत्रासुर कुपित हो उठा। पितासे आज्ञा लेकर वह | प्रसन्नतापूर्वक तपस्या करनेके लिये चला गया ॥ 55॥
गन्धमादनपर्वतपर पहुँचकर पवित्र और मंगलकारिणी देवनदी गंगाजीमें स्नान करके कुशका आसन बिछाकर वह दृढ़तापूर्वक बैठ गया ॥ 56 ॥ अन्न और जलका त्याग करके योगाभ्यासमें तत्पर होकर मनमें विश्वस्रष्टा ब्रह्माजीका ध्यान करता हुआ वह दृढ़भावसे आसनपर बैठा रहा ॥ 57 ॥
उसे तपस्या करता हुआ जानकर इन्द्र चिन्तासे व्यग्र हो उठे। तब [ उसके तपमें] विघ्न डालनेके लिये इन्द्रने गन्धर्वों, अत्यन्त ओजस्वी यक्षों, नागों, सर्पों, किन्नरों, विद्याधरों, अप्सराओं और अनेक देवदूतोंको भेजा। उन मायावियोंद्वारा तपमें विघ्नके लिये भलीभाँति उपाय किये गये, किंतु परम तपस्वी त्वष्टापुत्र वृत्र ध्यानसे विचलित नहीं हुआ ॥ 58-60 ॥