श्रीनारायण बोले- हे मुने! उन दोनोंने कठिन तपस्याद्वारा भगवती लक्ष्मीकी आराधना करके अपना मनोवांछित वर प्राप्त कर लिया ॥ 1 ॥ महालक्ष्मीके वरदानसे ही वे धर्मध्वज और कुशध्वज महान् पुण्यशाली तथा पुत्रवान् राजा हो गये ॥ 2 ॥कुशध्वजको मालावती नामक साध्वी भार्या थी। उस देवीने दीर्घकाल बीतनेपर यथासमय | लक्ष्मीके अंशसे सम्पन्न एक साध्वी कन्याको जन्म दिया। उसे जन्मसे ही ज्ञान प्राप्त था। वह कन्या स्पष्ट वाणीमें वेद-मन्त्रोंका उच्चारणकर सूतिकागृहसे बाहर निकल आयी। उस कन्याने जन्म लेते ही वेदध्वनि की थी, इसलिये विद्वान लोग उसे 'वेदवती' कहने लगे ॥ 3-5 ॥
जन्म लेते ही उस कन्याने विधिवत् स्नान किया और तपस्याके लिये वनको प्रस्थान कर दिया; यद्यपि सभी लोगोंने श्रीहरिके चिन्तनमें तत्पर रहनेवाली उस कन्याको ऐसा करनेसे प्रयत्नपूर्वक रोका था ॥ 6 ॥ उस तपस्विनी कन्याने एक मन्वन्तरतक पुष्कर क्षेत्रमें रहकर लीलापूर्वक अत्यन्त कठोर तप किया, फिर भी वह दुर्बल नहीं हुई; अपितु स्वस्थ और नवयौवनसे सम्पन्न बनी रही ॥ 73 ॥
उसने सहसा स्पष्ट शब्दोंवाली यह आकाशवाणी सुनी हे सुन्दरि दूसरे जन्ममें स्वयं भगवान् श्रीहरि तुम्हारे पति होंगे। ब्रह्मा आदिके द्वारा भी बड़ी कठिनतासे प्रसन्न होनेवाले भगवान् श्रीहरिको तुम पतिरूपमें प्राप्त करोगी ।। 8-9 ।।
यह आकाशवाणी सुनकर वह कन्या अत्यन्त प्रसन्न हो गयी और गन्धमादनपर्वतपर निर्जन स्थानमें पुनः तप करने लगी ॥ 10 ॥ वहाँ दीर्घकालतक तपश्चर्या करती हुई वह निश्चिन्त होकर रहती थी एक बार उसने अपने समक्ष उपस्थित ढीठ रावणको देखा ॥ 11 ॥
उसे देखकर वेदवतीने अतिथिभक्तिसे युक्त होकर उसे पाद्य, परम स्वादिष्ट फल और शीतल जल प्रदान किया। उन्हें ग्रहण करके वह पापी रावण उसके पास बैठ गया और उससे यह प्रश्न करने लगा 'हे कल्याणि ! तुम कौन हो ?' ॥ 12-13 ॥
स्थूल नितम्बदेश तथा वक्षःस्थलवाली, शरतुके विकसित कमलकी भाँति प्रसन्न मुखवाली, मुसकानयुक्त तथा स्वच्छ दाँतोंवाली उस परम साध्वी सुन्दरीको देखकर कामबाणसे आहत होकर वह नीच रावण मूच्छित हो गया। वह वेदवतीको हाथसे खींचकर शृंगारिक चेष्टाएँ करने लगा ll 14-15 llयह देखकर वह साध्वी अत्यन्त क्रोधित हो उठी और उसने [तपोबलसे] उसे स्तम्भित कर | दिया। वह हाथों तथा पैरोंसे निश्चेष्ट हो गया और कुछ भी बोल सकने में समर्थ नहीं रहा ॥ 16 ॥
वह मन ही मन उस कमलनयनी देवीकी शरणमें | गया और उसने उसका स्तवन किया। देवी वेदवती उसपर प्रसन्न हो गयी और [ परलोकमें] उसे स्तुतिका फल | देना स्वीकार कर लिया। साथ ही उसने यह शाप भी दिया- 'तुम मेरे ही कारण अपने बान्धवोंसहित विनष्ट हो जाओगे; क्योंकि काम भावनासे तुमने मेरा स्पर्श किया है। अब तुम मेरा बल देख लो ' ॥ 17-18 ॥
ऐसा कहकर उसने योगबलसे अपने शरीरका त्याग कर दिया। इसके बाद रावणने उसे गंगामें छोड़कर अपने घरकी ओर प्रस्थान किया-'अहो, इस समय मैंने यह कैसा अद्भुत दृश्य देखा है, इस देवीने इस समय क्या कर डाला ऐसा सोच-सोचकर वह रावण बार-बार विलाप करता रहा । ll 19-20 ॥
[हे मुने!] वही साध्वी वेदवती दूसरे जन्ममें जनककी पुत्रीके रूपमें आविर्भूत हुई और वे देवी 'सीतादेवी' – इस नामसे विख्यात हुई, जिनके कारण रावण मारा गया पूर्वजन्मकी तपस्याके प्रभावसे उस | महान् तपस्विनी वेदवतीने परिपूर्णतम भगवान् श्रीरामको पतिरूपमें प्राप्त किया। तपस्याके द्वारा उस देवीने अत्यन्त कठिनतासे सन्तुष्ट होनेवाले तथा सबके आराध्य जगत्पति श्रीरामको प्राप्त किया था। उस सुन्दरी सीताने अत्यन्त दीर्घ कालतक भगवान् श्रीरामके साथ विलास किया ॥ 21 - 23 ॥
उसे पूर्वजन्मकी बातोंका स्मरण था, फिर भी पूर्व समयमें तपस्याके कष्टपर उसने ध्यान नहीं दिया। उसने सुखपूर्वक उस क्लेशका त्याग कर दिया था क्योंकि परिणामके उत्तम होनेपर दुःख भी सुखके रूपमें हो जाता है ॥ 24 ॥
उन सुकुमार श्रीरामको प्राप्त करके उस नवयौवना साध्वीने दीर्घकालतक नाना प्रकारके ऐश्वर्यको प्राप्त किया। उसने अपनी अभिलाषाके • अनुरूप ही गुणवान्, रसिक, शान्त, कमनीय, स्त्रियोंके लिये कामदेवतुल्य मनोहर एवं सर्वश्रेष्ठ देवको प्राप्त किया था ॥ 25-26 ॥तदनन्तर रघुकुलकी वृद्धि करनेवाले सत्यसंकल्प श्रीराम बलवान् कालसे प्रेरित होकर अपने पिताके वचनको सत्य करनेके लिये वनमें चले गये ॥ 27 ॥
वे सीता और लक्ष्मणके साथ समुद्रके समीप स्थित थे। उसी समय भगवान्ने विप्ररूपधारी अग्निदेवको वहाँ देखा । तब श्रीरामको दुःखित देखकर अग्नि भी बहुत दुःखी हुए। इसके बाद सत्यपरायण वे अग्निदेव सत्यप्रेमी भगवान् श्रीरामसे यह सत्यवचन कहने लगे ।। 28-29 ।।
द्विज बोले- हे भगवन्! हे श्रीराम ! सुनिये, यह जो काल आपके समक्ष उपस्थित है, वह सीता हरणके समयके रूपमें ही आया हुआ है। दैवका प्रतिकार अत्यन्त कठिन है, उस दैवसे बढ़कर बलवान् अन्य कोई नहीं है। अतः आप इस समय जगज्जननी सीताको मुझमें स्थापित करके छायामयी सीताको अपने साथ रख लीजिये। इनकी परीक्षाका समय आनेपर मैं इन सीताको पुनः आपको सौंप दूँगा। मैं ब्राह्मण नहीं हूँ, अपितु इसी कार्यहेतु देवताओंके द्वारा भेजा गया साक्षात् अग्निदेव हूँ ॥ 30-32 ॥ श्रीरामने उनकी यह बात सुनकर लक्ष्मणको
बताये बिना ही अत्यन्त दुःखी मनसे वह वचन स्वीकार कर लिया ॥ 33 ॥
हे नारद! तत्पश्चात् अग्निदेवने योगबलसे सीताके ही समान एक माया-सीताकी रचना की। इसके बाद अग्निने गुण और स्वरूपमें उस सीताके ही तुल्य माया- सीताको श्रीरामको सौंप दिया ॥ 34 ॥
श्रीराम इस गुप्त रहस्यको प्रकट करनेका निषेध | करके माया-सीताको साथ लेकर चल पड़े। लक्ष्मणतक इस रहस्यको नहीं जान पाये तो दूसरेकी बात ही क्या ।। 35 ।।
इसी बीच श्रीरामने एक स्वर्णमृग देखा। तब सीता जिस किसी भी यत्नसे उसे लानेके लिये श्रीरामको प्रेरित करने लगीं ॥ 36 ॥
श्रीराम उस वनमें सीताकी रक्षाके लिये लक्ष्मणको वहीं पर नियुक्त करके स्वयं शीघ्रतापूर्वक मृगकी ओर दौड़ पड़े और बाणसे उसका वध कर दिया ॥ 37 ॥उस मायामृगने 'हा लक्ष्मण'- यह शब्द करके अपने समक्ष भगवान् श्रीहरिका दर्शन प्राप्त करके उनका स्मरण करते हुए सहसा अपने प्राण त्याग दिये ॥ 38 ॥
मृगका शरीर त्यागकर दिव्य स्वरूप धारण करके वह रत्ननिर्मित विमानसे वैकुण्ठ चला गया। वह मारीच पूर्वजन्ममें दोनों द्वारपालोंके सेवकके रूपमें | वैकुण्ठके द्वारपर रहता था। अब द्वारपालोंकि आदेशानुसार वह फिर वैकुण्ठके द्वारपर पहुँच गया ॥ 39-40 ॥
इधर 'हा लक्ष्मण'- यह आर्तनाद सुनकर सीताने रामके पास जानेके लिये लक्ष्मणको प्रेरित किया ॥ 41 ॥ रामके पास लक्ष्मणके चले जानेपर अत्यन्त दुर्धर्ष वह रावण अपनी मायासे सीताका हरण करके लंकाकी ओर चल दिया ॥ 42 ॥
लक्ष्मणको वनमें देखकर श्रीराम विषादग्रस्त हो गये। अपने आश्रमपर तत्काल पहुँचकर जब उन्होंने सीताको नहीं देखा तब वे मूच्छित हो गये और पुनः [चेतना आनेपर ] उन्होंने बार-बार बहुत विलाप किया। इसके बाद सीताको खोजते हुए वे बार-बार इधर-उधर भटकने लगे । 43-44 ॥
कुछ समय पश्चात् गोदावरीनदीके तटपर सीताका समाचार मिलनेपर भगवान् श्रीरामने वानरोंको अपना सहायक बनाकर समुद्रपर पुल बाँधा ll 45 ll
पुनः समय आनेपर लंका जाकर उन रघुश्रेष्ठ रामने बाणसे रावणको मार डाला। इस प्रकार बान्धवसहित उस रावणका वध करके श्रीरामने तत्काल उन सीताकी अग्निपरीक्षा करायी। उसी समय अग्निदेवने वास्तविक सीता श्रीरामको सौंप दी । ll 46-47॥
तब छायामयी सीताने विनम्र होकर अग्निदेव और श्रीरामसे कहा- अब मैं क्या करूँ ? मुझे वह उपाय बताइये ॥ 48 ॥
श्रीराम और अग्निदेव बोले- हे देवि! तुम तपस्या करनेके लिये अत्यन्त पुण्यप्रद पुष्करक्षेत्र में जाओ। वहाँ तपस्या करके तुम स्वर्गलक्ष्मी बनोगी। | वे यह वचन सुनकर पुष्करक्षेत्रमें जाकर दिव्य तीन लाख वर्षोंतक कठिन तपस्या करके स्वर्गलक्ष्मीके रूपमें प्रतिष्ठित हो गयीं ॥ 49-50 ॥कालक्रमसे वे ही देवी तपस्याके प्रभावसे यज्ञकुण्डसे उत्पन्न होकर महाराज द्रुपदकी पुत्री तथा पाण्डवोंकी प्रिया द्रौपदी बनीं ॥ 51 ॥
इस प्रकार सत्ययुगमें कुशध्वजकी वही कन्या कल्याणमयी वेदवती त्रेतायुगमें जनककी पुत्री सीता हुई और बादमें वे श्रीरामकी पत्नी बनीं। पुनः वही छायासीता द्वापरमें द्रुपदकी पुत्री देवी द्रौपदीके रूपमें आविर्भूत हुईं। अतः तीनों युगोंमें विद्यमान रहनेवाली उस देवीको 'त्रिहायणी' भी कहा गया है ।। 52-53 ॥
नारदजी बोले - शंकाओंका समाधान करनेवाले हे मुनिश्रेष्ठ! उस द्रौपदीके पाँच पति कैसे हुए? मेरे मनका यह सन्देह दूर कीजिये ॥ 54 ॥
श्रीनारायण बोले- हे नारद! जब लंकामें वास्तविक सीता भगवान् रामको प्राप्त हो गयीं, तब रूप एवं यौवनसे सम्पन्न छायासीता महान् चिन्तासे व्याकुल हो उठी ॥ 55 ॥
तदनन्तर भगवान् श्रीराम और अग्निकी आज्ञाके अनुसार वह भगवान् शंकरकी उपासनामें तत्पर हो गयी। कामातुर वह पतिप्राप्तिके लिये व्यग्र होकर बार-बार यही प्रार्थना करने लगी- 'हे त्रिलोचन ! मुझे पति प्रदान कीजिये'। ऐसा उसने पाँच बार कहा था ।। 56-57 ॥
उस प्रार्थनाको सुनकर रसिकेश्वर शंकरने हँसकर यह वर दे दिया- 'हे प्रिये! तुम्हारे पाँच पति होंगे'। [हे नारद!] इसीलिये वे छायासीता [द्वापरमें] पाँचों पाण्डवोंकी प्रिय भार्या हुईं। इस प्रकार मैंने आपको यह सब बता दिया, अब वास्तविक प्रसंग सुनिये ॥ 58-59 ॥
भगवान् श्रीराम लंकामें मनोहारिणी सीताको पा जानेके अनन्तर वह लंका विभीषणको सौंपकर अयोध्या वापस चले गये और भारतवर्षमें ग्यारह | हजार वर्षोंतक राज्य करके समस्त पुरवासियों सहित वैकुण्ठ चले गये। लक्ष्मीके अंशसे प्रादुर्भूत वह वेदवती लक्ष्मीके विग्रहमें समाविष्ट हो गयी ॥ 60-613 ॥इस प्रकार मैंने यह पवित्र, पुण्यदायक तथा पापनाशक आख्यान आपसे कह दिया। मूर्तिमान् रूपमें चारों वेद उसकी जिह्वाके अग्रभागपर निरन्तर विराजमान रहते थे, इसीलिये वह वेदवती नामसे प्रसिद्ध थी। अब मैं आपको धर्मध्वजकी कन्याका आख्यान बता रहा हूँ; ध्यानपूर्वक सुनिये ॥ 62-64 ॥