श्रीनारायण बोले- [हे नारद!] राजा वैवस्वत
सातवें मनु कहे गये हैं। समस्त राजाओंमें मान्य तथा | दिव्य आनन्दका भोग करनेवाले वे श्राद्धदेव भी कहे जाते हैं ॥ 1 ॥ वे वैवस्वत मनु पराम्बा भगवतीकी तपस्या करके | उनके अनुग्रहसे मन्वन्तरके अधिपति बन गये ॥ 2 ॥
आठवें मनु भूलोकमें सावर्णि नामसे विख्यात हुए। पूर्वजन्ममें देवीकी आराधना करके तथा उनसे वरदान प्राप्तकर वे मन्वन्तरके अधिपति हो गये। वे सभी राजाओंसे पूजित, धीर, महापराक्रमी तथा | देवीभक्तिपरायण थे ॥ 3-4 ॥
नारदजी बोले - उन सावर्णि मनुने पूर्वजन्ममें भगवतीकी पार्थिव मूर्तिकी किस प्रकार आराधना की थी; इसे मुझे बतानेकी कृपा करें ॥ 5 ॥
श्रीनारायण बोले- स्वारोचिष मन्वन्तरमें चैत्रवंशमें उत्पन्न सुरथ नामसे विख्यात एक राजा हुए। वे महान् बल तथा पराक्रमसे सम्पन्न, गुणग्राही, धनुर्धर, माननीय, श्रेष्ठ, कवि, कुशल, धनसंग्रहकरनेवाले तथा याचकोंको दान देनेवाले, शत्रुओंका दमन करनेवाले, मानी, सभी अस्त्रोंके संचालनमें परम दक्ष तथा बलवान् थे ॥ 6-73 ॥
एक बार कोलाविध्वंसी' नामक क्षत्रिय राजा उनके शत्रु हो गये। महान् बलशाली शत्रुओंने सेनाके साथ चढ़ाई करके सम्मानके धनी उन राजा सुरथकी नगरीको घेर लिया ।। 8-9 ।।
तत्पश्चात् शत्रुओंका विनाश करनेवाले वे राजा सुरथ सेनासे सुसज्जित होकर अपने नगरसे निकल पड़े ॥ 10 ॥
वे राजा सुरथ बुद्धमें शत्रुओंके द्वारा जीत लिये गये। उनके अमात्यों तथा मन्त्रियोंने अवसर पाकर उनके कोषमें स्थित सम्पूर्ण धनका पूरी तरहसे हरण कर लिया। इससे राजाको महान् सन्ताप हुआ। वे परम तेजस्वी राजा सुरथ नगरसे निष्कासित कर दिये गये ॥ 11-12 ॥
तत्पश्चात् वे एक अश्वपर चढ़कर आखेट करनेके बहाने बनमें गये और भ्रमित चित्तवाले वे उस निर्जन वनमें अकेले घूमने लगे ॥ 13 ॥
पुनः शान्त स्वभाववाले पशुओंसे युक्त तथा मुनिशिष्योंसे परिपूर्ण [सुमेधा] मुनिके आश्रममें पहुँच जानेपर उनके चित्तको शान्ति मिली ॥ 14 ॥ उन राजाने दूरदृष्टिवाले मुनिवर सुमेधाऋषिके परम
रमणीक आश्रममें कुछ कालतक निवास किया ॥ 15 ॥ एक दिन राजा सुरथ मुनिके पूजनकृत्यकी समाप्तिपर शीघ्र उनके पास पहुँचकर प्रणाम करके विनम्रतापूर्वक उनसे पूछने लगे ॥ 16 ॥
हे मुने! मेरा मन अत्यधिक मानसिक कष्टके कारण सदा सन्तप्त रहता है। हे भूदेव ! इस दुःखने | सभी तत्त्वोंके ज्ञाता होनेपर भी मुझे अज्ञानी-सा बना दिया है। मैं शत्रुओंसे पराजित कर दिया गया हूँ तथा राज्यच्युत हो गया हूँ, फिर भी उनके प्रति मेरे मनमें बार-बार ममता उत्पन्न हो रही है ॥ 17-18 ॥
हे मुने! मैं क्या करूँ, कहाँ जाऊँ तथा किस प्रकार शान्ति प्राप्त करूँ? हे वेदवेत्ताओंमें श्रेष्ठ ! अब तो मैं एकमात्र आपसे ही अनुग्रहको आशा करता हूँ। इस कष्टके निवारणका कोई उपाय बताइये ॥ 19 ॥मुनि बोले- हे राजन् ! आप अत्यन्त विस्मयकारी, अनुपम तथा सभी कामनाओंको पूर्ण करनेवाले श्रेष्ठ | देवी माहात्म्यका श्रवण कीजिये ॥ 20 ॥
वे विश्वमयी महामाया ब्रह्मा, विष्णु तथा महेशको भी उत्पन्न करनेवाली हैं। वे ही प्राणियोंके | मनको बलपूर्वक आकृष्ट करके मोहित कर देती हैं; हे राजन् ! इस रहस्यको आप भलीभाँति जान लीजिये। हे पृथ्वीपते ! वे ही समग्र विश्वका सृजन करती हैं, सर्वदा पालन करती हैं तथा अन्तमें रुद्ररूपसे संहार करती हैं। वे महामाया सभी मनोरथ पूर्ण करनेवाली, विश्वका संहार करनेवाली तथा दुर्धर्ष कालरात्रिरूपा साक्षात् काली हैं और वे ही कमल निवासिनी महालक्ष्मी हैं। यह जगत् उन्हींसे उत्पन्न हुआ है, उन्हींमें स्थित भी है और अन्तमें उन्हींमें विलीन भी हो जायगा, अतएव वे भगवती परात्परा हैं। हे राजन् ! उन भगवतीकी कृपा जिसके ऊपर हो जाती है, वही इस मोहजालसे मुक्त होता है; हे भूपते ! | इसमें सन्देह नहीं है | 21–25 ॥