ऋषिगण बोले- हे सूतजी ! आपने हमें पहले ही बतला दिया है कि असीम तेजवाले व्यासजीने कल्याणकारी समस्त पुराणोंकी रचना करके उन्हें शुकदेवजीको पढ़ाया ॥ 1 ॥
व्यासजीने घोर तप करके शुकदेवजीको किस प्रकार पुत्ररूपमें प्राप्त किया? व्यासजीके मुखसे आपने जो कुछ सुना है, वह सब हमसे विस्तारपूर्वक कहिये ॥ 2 ॥
सूतजी बोले- सत्यवतीपुत्र व्यासजीसे जिस प्रकार योगिजनोंमें श्रेष्ठ साक्षात् मुनिस्वरूप शुकदेवजी उत्पन्न हुए, उत्पत्तिके उस इतिहासको मैं आपलोगोंको बता रहा हूँ ॥ 3 ॥
सत्यवतीके पुत्र महर्षि व्यास पुत्र-प्राप्तिके लिये दृढ संकल्पकर अत्यन्त मनोहर सुमेरुपर्वतके शिखरपर कठोर तपस्या करने लगे ॥ 4 ॥
नारदजीसे सुने गये एकाक्षर वाग्बीज मन्त्रका जप करते हुए तपोनिधि व्यासजी पुत्र-प्राप्तिकी कामनासे परात्परा महामायामें अपना ध्यान केन्द्रित किये हुए मन-ही-मन सोच रहे थे कि अग्नि, भूमि, वायु एवं आकाश - इनकी शक्तिसे सम्पन्न पुत्रकी मुझे प्राप्ति हो । 5-6 ॥
इस प्रकार प्रभुतासम्पन्न वे व्यासजी निराहार रहते हुए सौ वर्षोंतक शंकर एवं सदाशिवा भगवतीकी आराधनामें लीन रहे ।। 7 ।। अनेकशः विचार करते हुए महर्षि व्यास इस निष्कर्षपर पहुँचे कि शक्ति ही सर्वत्र पूजनीया है। निर्बल प्राणी लोकमें निन्दाका पात्र होता है और | शक्तिशालीकी पूजा की जाती है ॥ 8 ॥
जहाँ पर्वत-शिखरपर कर्णिकार पुष्पके अद्भुत वनमें देवता एवं महातपस्वी मुनिवृन्द विहार करते हैं; जहाँ सूर्य, वसु, रुद्र, पवन, अश्विनीकुमारद्वय एवं ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ अन्य मुनिजन निवास करते हैं; मधुर संगीतकी ध्वनिसे मुखरित उसी सुमेरुपर्वतकी चोटीपर सत्यवतीनन्दन धर्मात्मा व्यासजीने तपस्या की ॥ 9 - 11 ॥
उनके इस तपश्चरणके प्रभावसे समग्र चराचर जगत् व्याप्त हो गया और महामेधासम्पन्न पराशरपुत्र व्यासजीकी जटा अग्निवर्ण हो गयी ॥ 12 ॥ तदनन्तर व्यासजीका यह तेज देखकर इन्द्र भयभीत हो गये। तब इन्द्रको भयाक्रान्त तथा व्याकुल | देखकर भगवान् शंकरजी उनसे कहने लगे- ॥ 133 ॥ शंकरजी बोले- हे सुरेश्वर ! आपको क्या दुःख है ? हे इन्द्र ! आज आप इस तरह भयग्रस्त क्यों हैं? तपस्वियोंसे कभी भी ईर्ष्या नहीं करनी चाहिये; क्योंकि मुनिगण मुझे शक्तिसम्पन्न जानकर ही तपस्या करते हैं। ये तपस्वी मुनिलोग कभी भी किसीका अपकार नहीं चाहते हैं। शंकरजीके ऐसा कहनेपर इन्द्र उनसे बोले - व्यासजी ऐसा तप किसलिये कर रहे हैं, उनकी क्या मनोकामना है ? ॥। 14 - 163 ॥
शिवजी बोले - व्यासजी पुत्र-प्राप्तिकी कामनासे यह कठोर तप कर रहे हैं। इन्हें तपस्या करते हुए पूरे एक सौ वर्ष हो चुके हैं, अतः मैं इन्हें कल्याणकारी पुत्र प्रदान करूँगा ॥ 173 ॥
सूतजी बोले- दयाभावसे युक्त प्रसन्न मुखवाले जगद्गुरु भगवान् शंकर इन्द्रसे ऐसा कहकर मुनि | व्यासजीके पास जाकर बोले-हे वासवीपुत्र ! उठो, तुम्हें कल्याणकारी पुत्र अवश्य प्राप्त होगा । है निष्पाप ! तुम्हारा वह पुत्र सभी प्रकारके तेजोंसे सम्पन्न, ज्ञानवान्, यशस्वी और सभी लोगोंका सदा अतिशय प्रिय, समस्त सात्त्विक गुणोंसे सम्पन्न तथा सत्यरूपी पराक्रमसे युक्त होगा ॥ 18 - 203 ॥ सूतजी बोले- तब शूलपाणि शंकरजीका मधुर | वचन सुनकर उन्हें प्रणामकर द्वैपायन व्यासजीने अपने | आश्रमके लिये प्रस्थान किया। वहाँ पहुँचकर कई 1 वर्षोंतक घोर तप करनेके कारण अतिशय श्रान्त महर्षि व्यास अरणीमें समाहित अग्निको प्रकट करनेकी कामनासे अरणि-मन्थन करने लगे। मन्धन कर रखे व्यासजीके मनमें उस समय महान् चिन्ता हो रही थी । 21 - 23 ॥
मन्धन तथा अरणिके पारस्परिक संयोग प्रकटित अग्निको देखकर व्यासजीके मनमें अचानक पुत्रोत्पत्तिका विचार आया कि अरणि-मन्धनजनित अग्निकी भाँति मुझे पुत्र कैसे उत्पन्न हो ? क्योंकि पुत्र प्रदान करनेवाली अरणी रूपी वह रूपवती उत्तम कुलमें उत्पन्न तथा पतिव्रता युवती स्त्री मेरे पास है नहीं, साथ ही पैरोंकी श्रृंखलाके समान | स्त्रीको मैं कैसे अंगीकार करूँ? पुत्र उत्पन्न करने में कुशल और पातिव्रत्य धर्ममें सदा तत्पर रहनेवाली पत्नी मुझे कैसे मिले? पतिपरायणा, निपुण, रूपवती - कैसी भी स्त्री हो; वह सदा बन्धनकी कारण ही बनी रहती है। स्त्री सदा अपनी इच्छाके अनुसार सुख प्राप्त करना चाहती है। शंकरजी भी नित्य स्त्रीके मोहपाशमें फँसे हुए रहते हैं। अतः अब मैं अत्यन्त विषम गृहस्थाश्रम - धर्मको किस प्रकार अंगीकार करूँ?॥24– 283
व्यासजी ऐसा विचार कर ही रहे थे कि आकाशमें समीपमें ही स्थित घृताची नामक अप्सरा उन्हें दृष्टि गोचर हुई। चंचल कटाक्षोंवाली उस श्रेष्ठ अप्सराको पासमें ही स्थित देखकर कठोर नियम-संयम धारण करनेवाले व्यासजी शीघ्र ही कामबाणसे आहत अंगोंवाले हो गये और सोचने लगे कि अब इस विषम संकटके समय मैं क्या करूँ ? ।। 29-31
धर्मके समक्ष इस दुर्जय कामवासनाके वशीभूत होकर यदि मैं छलनेके लिये यहाँ उपस्थित हुई इस अप्सराको स्वीकार करता हूँ, तब ऐसी स्थितिमें | महात्मा तथा तपस्वीगण मुझ कामासक्तिसे विह्वलका यह उपहास करेंगे कि सौ वर्षोंतक कठिन तपस्या | करनेके पश्चात् भी एक अप्पाराको देखकर महातपस्वी व्यास इतने विवश कैसे हो गये ? और फिर यदि इसमें अतुलनीय सुख हो तो ऐसी निन्दा भी होती रहे। अर्थात् उसकी उपेक्षा भी की जा सकती है ॥ 32-34॥
गृहस्थाश्रम पुत्र प्राप्तिकी कामना पूर्ण करनेवाला, स्वर्गकी प्राप्ति करानेवाला तथा ज्ञानियोंको मोक्ष देनेवाला कहा गया है। किंतु वैसा सुख इस देवकन्यासे नहीं प्राप्त होगा। पूर्वकालमें मैंने नारदजीसे एक कथा सुनी थी जिसमें राजा पुरूरवा उर्वशीके वशीभूत होकर अत्यन्त संकटमें पड़ गये थे ॥ 35-36 ॥