View All Puran & Books

देवी भागवत महापुराण ( देवी भागवत)

Devi Bhagwat Purana (Devi Bhagwat Katha)

स्कन्ध 4, अध्याय 4 - Skand 4, Adhyay 4

Previous Page 71 of 326 Next

व्यासजीद्वारा जनमेजयको मायाकी प्रबलता समझाना

राजा बोले- हे महाभाग ! इस आख्यानको सुनकर मैं बड़े आश्चर्यमें पड़ गया हूँ। हे महामते ! यह संसार पापका मूर्तरूप है। इसके बन्धनसे मनुष्य किस प्रकार मुक्त हो सकता है ? ॥ 1 ॥

जब तीनों लोकोंका वैभव पास रखते हुए भी कश्यपमुनिकी संतान इन्द्रने ऐसा पापकर्म कर डाला, तब कौन मनुष्य पाप नहीं कर सकता ? ॥ 2 ॥

अद्भुत शपथ लेकर सेवाके बहाने माताके गर्भमें प्रविष्ट होकर बालककी हत्या करना तो बड़ा भयानक पाप है ! ॥ 3 ॥

सबके शासक, धर्मके रक्षक और तीनों लोकोंके स्वामी इन्द्रने जब ऐसा निन्दित कर्म कर डाला, तब फिर दूसरा कौन नहीं करेगा ? ॥ 4 ॥

हे जगद्गुरो मेरे पितामह लोगोंने भी कुरुक्षेत्रके संग्राममें ऐसा ही विस्मयकारी दारुण और निन्दित कर्म किया था भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य, कर्ण तथा धर्मक अंशरूप युधिष्ठिर इन सभी भगवान् कृष्णको प्रेरणासे धर्मविरुद्ध कर्म किया था ll 5-6 ll

संसारकी असारता जानते हुए भी उन प्रतिभाशाली तथा देवांशसे उत्पन्न धर्मपरायण पाण्डवोंने भी ऐसा गर्हित कर्म क्यों किया ? ॥ 7 ॥

हे द्विजेन्द्र यदि ऐसी बात है तो धर्मपर किसकी आस्था होगी और धर्मके विषयमें सैद्धान्तिक प्रमाण ही क्या रह जायगा ? यह वृत्तान्त सुनकर तो मेरा मन चंचल हो उठा है ॥ 8 ॥यदि आप्त वचनको प्रमाण मानें, तो फिर कौन पुरुष आप्त है? विषयासक्त मनुष्यमें राग आ ही जाता है और अपना स्वार्थ भंग होनेपर उसमें निःसन्देह राग-द्वेपकी बहुलता हो जाती है। द्वेषके कारण अपनी स्वार्थसिद्धिके लिये असत्य भाषण है। करना पड़ता है । 9-10 ॥

परम ज्ञानी और सत्त्वगुणके मूर्तस्वरूप भगवान् श्रीकृष्णने भी जरासन्धके बधके लिये छलसे ब्राह्मणका वेष धारण किया था। जब सत्त्वमूर्ति भी इस प्रकारके होते हैं, तब किस आप्त पुरुषको प्रमाण माना जाय ? उसी प्रकार [राजसूय] यज्ञके अवसरपर अर्जुनने भी वैसा ही कर्म किया था ।। 11-12 ।।

जिस यज्ञमें अशान्तिका वातावरण रहा, उस यज्ञको किस श्रेणीका यज्ञ कहा जाय ? वह यज्ञ | परलोकमें परमपदकी प्राप्तिके लिये किया गया था अथवा सुयश पानेके लिये किया गया था या अन्य किसी कार्यकी सिद्धिके लिये किया गया था ? ॥ 13 ॥

श्रुतिका यह वचन है कि धर्मका प्रथम चरण सत्य, दूसरा चरण पवित्रता, तीसरा चरण दया तथा चतुर्थ चरण दान है। पुराणवेत्ता भी यही कहते हैं। इन चारोंके बिना परम आदृत धर्म कैसे टिक सकता है ? ।। 14-15 ॥

तब मेरे पूर्वजोंके द्वारा किया गया वह धर्मविहीन यज्ञ-कर्म [उत्तम] फल देनेवाला कैसे हो सकता था? इससे तो यही प्रतीत होता है कि उस समय किसीका भी कहीं भी धर्ममें अटल विश्वास नहीं था ॥ 16 ॥

जगत्प्रभु भगवान् विष्णुने भी छलनेहेतु वामनका रूप धारण किया था, जिन्होंने वामनरूपसे राजा बलिको ठग लिया था ।। 17 ।।

महाराज बलि सौ यज्ञोंका अनुष्ठान करनेवाले, वेदोंकी आज्ञाका पालन करनेवाले, धर्मात्मा, दानी, | सत्यवादी एवं जितेन्द्रिय थे। ऐसे महापुरुषको परम प्रभावशाली भगवान् विष्णुने अकस्मात् पदच्युत कर | दिया। अतः हे कृष्णद्वैपायन! उन दोनोंमें कौन जीता? वंचना करके छलकर्ममें निपुण भगवान् वामनको विजय हुई या छले गये राजा बलिकी; इस विषय में मुझे महान् सन्देह है। हे द्विजश्रेष्ठ! मुझे सत्य बात बताइये क्योंकि आप पुराणोंके रचयिता, धर्मज्ञ तथा | महान् बुद्धिसम्पन्न हैं । 18 - 203 ।।व्यासजी बोले- हे राजन्! उस राजा बलिकी ही विजय हुई, जिसने समस्त भूमण्डलका दान कर दिया था। हे राजन्! जो त्रिविक्रम नामसे विख्यात थे, वे भगवान् विष्णु वामन बने। हे नरेन्द्र उन्होंने छल करनेके लिये यह वामनरूप धारण किया था और इसी छलके परिणामस्वरूप उन श्रीहरिको राजा बलिका द्वारपाल बनना पड़ा। अतः हे राजन् ! सत्यसे बढ़कर धर्मका मूल और कुछ नहीं है । 21-23॥

हे राजन् ! सम्यक् प्रकारसे सत्यका पालन करना प्राणियोंके लिये अत्यन्त दुष्कर है। अनेक रूप धारण करनेवाली त्रिगुणात्मिका माया बड़ी बलवती है, जिसने तीनों गुणोंसे सम्मिश्रित इस विश्वकी रचना की है। अतः हे राजन् ! छल-कपट करनेवालेसे बिना प्रभावित हुए यह सत्य कैसे रह सकता है ? ।। 24-25 ॥

सत्त्व, रज और तम — इन्हीं तीनों गुणोंके मेलसे संसारका प्रादुर्भाव हुआ, यही सृष्टिका सनातन नियम है। केवल अनासक्त, प्रतिग्रहशून्य, रागरहित और तृष्णाविहीन वानप्रस्थ तथा मुनिजन अवश्य सत्यपरायण होते हैं, किंतु वैसे लोग केवल दृष्टान्त दिखानेके लिये ही बनाये गये हैं । 26-27॥

हे राजन् उनके अतिरिक्त सब कुछ सत्त्व, रज एवं तम- इन तीनों गुणोंसे ओत-प्रोत है। हे नृपश्रेष्ठ ! पुराणों, वेदों, धर्मशास्त्रों, वेदांगों और सगुण प्राणियोंद्वारा रचित ग्रन्थोंमें भी कहीं एकवाक्यता नहीं | मिलती; सगुण प्राणी ही सगुण कार्य करता है, निर्गुणसे सगुण कार्य नहीं हो सकता; क्योंकि वे सभी गुण मिश्रित हैं, वे पृथक् पृथक् नहीं रहते। इसी कारण किसीकी भी बुद्धि सत्य तथा सनातनधर्ममें टिक नहीं पाती ॥ 28-30 ॥

हे महाराज! संसारकी सृष्टिके समय मायासे मोहित मनुष्यकी इन्द्रियाँ अत्यन्त चंचल हो जाती हैं और उनमें आसक्त मन उन गुणोंसे प्रेरित होकर विविध प्रकारके भाव प्रकट करने लगता है। हे राजन्। ब्रह्मासे लेकर तृणपर्यन्त स्थावर-जंगम सभी प्राणी मायाके वशीभूत रहते हैं और वह माया उनके साथ क्रीडा करती रहती है। यह माया सभीको मोहमें डाल देती है और जगत्में निरन्तर विकार उत्पन्न किया करती है ।। 31-33 ॥हे राजन्! सर्वप्रथम अपना कार्य सिद्ध करनेके लिये मनुष्य असत्यका सहारा लेता है। उस समय इन्द्रियोंके विषयोंका चिन्तन करते हुए जब मनुष्य | अपना अभीष्ट नहीं पाता, तो वह उसके लिये छल करने लगता है। इस प्रकार छलके कारण वह पापमें प्रवृत्त हो जाता है। काम, क्रोध और लोभ मनुष्योंके सबसे बड़े शत्रु हैं। इनके वशमें होनेके कारण प्राणी कर्तव्य-अकर्तव्यको नहीं जान पाते। ऐश्वर्य बढ़ | जानेपर अहंकार और भी बढ़ जाता है। अहंकारसे | मोह उत्पन्न होता है और मोहसे विनाश हो जाता है। मोहके कारण मनुष्य के मनमें अनेक प्रकारके संकल्प विकल्प होने लगते हैं। उस समय मनमें ईर्ष्या, असूया तथा द्वेष उत्पन्न हो जाते हैं। प्राणियोंके हृदयमें आशा तृष्णा, दीनता, दम्भ और अधार्मिक बुद्धि ये सब उत्पन्न हो जाते हैं ये भावनाएँ प्राणियों में मोहसे ही उत्पन्न होती हैं। यज्ञ, दान, तीर्थ, व्रत और नियम जो कुछ भी सत्कर्म हैं, उन्हें भी मनुष्य अहंकारके ही वशीभूत होकर निरन्तर करता है, उनका अहंभावसे किया गया सारा कार्य वैसा नहीं होता, जैसा कि शुद्ध अन्तःकरणसे किया जाता है। आसक्ति एवं लोभसे किया हुआ कोई भी कर्म सर्वथा अशुद्ध होता है ॥ 34-403 ॥

बुद्धिमान् मनुष्योंको चाहिये कि वे सर्वप्रथम द्रव्य शुद्धिपर विचार कर लें द्रोहरहित कर्म करके अर्जित किया हुआ धन धर्मकार्यमें प्रशस्त माना गया है। हे नृपश्रेष्ठ ! द्रोहपूर्वक उपार्जित किये हुए द्रव्यके द्वारा मनुष्य जो उत्तम कार्य करता है, समय आनेपर उसका विपरीत फल प्राप्त होता है। जिसका मन परम पवित्र है, वही पूर्ण फलका अधिकारी होता है और मनके विकारपूर्ण रहनेपर उसे यथार्थ फल नहीं | मिलता ॥ 41-433 ॥

जब कर्म करानेवाले ऋत्विक्, आचार्य आदि | लोगोंका चित्त शुद्ध रहता है, तभी पूर्ण फल प्राप्त होता है। यदि देश, काल, क्रिया, द्रव्य, कर्ता और मन्त्र इन सबकी शुद्धता रहती है, तभी कर्मोंका पूरा फल प्राप्त होता है जो मनुष्य शत्रुनाश तथा अपनी अभिवृद्धिक उद्देश्यसे पुण्यकर्म करता है तो उसे भी वैसा हीविपरीत फल मिलता है। स्वार्थमें लिप्त मनुष्य शुभाशुभका ज्ञान नहीं रख पाता और दैवाधीन होकर सदा पाप ही किया करता है, पुण्य नहीं ॥ 44-4 - 473 ll

प्रजापति ब्रह्मासे ही देवता उत्पन्न हुए हैं और उन्हींसे असुरोंकी भी उत्पत्ति हुई है। वे सब-के-सब स्वार्थमें लिप्त होकर एक-दूसरेके विरुद्ध काम करते हैं। वेदोंमें कहा गया है कि सत्त्वगुणसे सभी देवता, रजोगुणसे मनुष्य तथा तमोगुणसे पशु-पक्षी आदि तिर्यक्योनिके जीव उत्पन्न होते हैं। अतएव जब सत्त्वगुणसे उत्पन्न देवताओंमें भी निरन्तर आपसमें वैरभाव रहता है तब पशु-पक्षियोंमें परस्पर जातिवैर उत्पन्न होनेमें क्या आश्चर्य! देवता भी सदैव द्रोहमें तत्पर रहते हैं और तपस्यामें विघ्न डाला करते हैं। हे नृप ! वे सदा असन्तुष्ट रहते हुए द्वेषपरायण होकर आपसमें विरोधभाव रखते हैं। अतः हे राजन् ! जब यह संसार ही अहंकारसे उत्पन्न हुआ है, तब वह राग-द्वेषसे हीन हो ही कैसे सकता है ? ।। 48- 53 ॥

Previous Page 71 of 326 Next

देवी भागवत महापुराण
Index


  1. [अध्याय 1] वसुदेव, देवकी आदिके कष्टोंके कारणके सम्बन्धमें जनमेजयका प्रश्न
  2. [अध्याय 2] व्यासजीका जनमेजयको कर्मकी प्रधानता समझाना
  3. [अध्याय 3] वसुदेव और देवकीके पूर्वजन्मकी कथा
  4. [अध्याय 4] व्यासजीद्वारा जनमेजयको मायाकी प्रबलता समझाना
  5. [अध्याय 5] नर-नारायणकी तपस्यासे चिन्तित होकर इन्द्रका उनके पास जाना और मोहिनी माया प्रकट करना तथा उससे भी अप्रभावित रहनेपर कामदेव, वसन्त और अप्सराओंको भेजना
  6. [अध्याय 6] कामदेवद्वारा नर-नारायणके समीप वसन्त ऋतुकी सृष्टि, नारायणद्वारा उर्वशीकी उत्पत्ति, अप्सराओंद्वारा नारायणसे स्वयंको अंगीकार करनेकी प्रार्थना
  7. [अध्याय 7] अप्सराओंके प्रस्तावसे नारायणके मनमें ऊहापोह और नरका उन्हें समझाना तथा अहंकारके कारण प्रह्लादके साथ हुए युद्धका स्मरण कराना
  8. [अध्याय 8] व्यासजीद्वारा राजा जनमेजयको प्रह्लादकी कथा सुनाना इस प्रसंग में च्यवनॠषिके पाताललोक जानेका वर्णन
  9. [अध्याय 9] प्रह्लादजीका तीर्थयात्राके क्रममें नैमिषारण्य पहुँचना और वहाँ नर-नारायणसे उनका घोर युद्ध, भगवान् विष्णुका आगमन और उनके द्वारा प्रह्लादको नर-नारायणका परिचय देना
  10. [अध्याय 10] राजा जनमेजयद्वारा प्रह्लादके साथ नर-नारायणके बुद्धका कारण पूछना, व्यासजीद्वारा उत्तरमें संसारके मूल कारण अहंकारका निरूपण करना तथा महर्षि भृगुद्वारा भगवान् विष्णुको शाप देनेकी कथा
  11. [अध्याय 11] मन्त्रविद्याकी प्राप्तिके लिये शुक्राचार्यका तपस्यारत होना, देवताओंद्वारा दैत्योंपर आक्रमण, शुक्राचार्यकी माताद्वारा दैत्योंकी रक्षा और इन्द्र तथा विष्णुको संज्ञाशून्य कर देना, विष्णुद्वारा शुक्रमाताका वध
  12. [अध्याय 12] महात्मा भृगुद्वारा विष्णुको मानवयोनिमें जन्म लेनेका शाप देना, इन्द्रद्वारा अपनी पुत्री जयन्तीको शुक्राचार्यके लिये अर्पित करना, देवगुरु बृहस्पतिद्वारा शुक्राचार्यका रूप धारणकर दैत्योंका पुरोहित बनना
  13. [अध्याय 13] शुक्राचार्यरूपधारी बृहस्पतिका दैत्योंको उपदेश देना
  14. [अध्याय 14] शुक्राचार्यद्वारा दैत्योंको बृहस्पतिका पाखण्डपूर्ण कृत्य बताना, बृहस्पतिकी मायासे मोहित दैत्योंका उन्हें फटकारना, क्रुद्ध शुक्राचार्यका दैत्योंको शाप देना, बृहस्पतिका अन्तर्धान हो जाना, प्रह्लादका शुक्राचार्यजीसे क्षमा माँगना और शुक्राचार्यका उन्हें प्रारब्धकी बलवत्ता समझाना
  15. [अध्याय 15] देवता और दैत्योंके युद्धमें दैत्योंकी विजय, इन्द्रद्वारा भगवतीकी स्तुति, भगवतीका प्रकट होकर दैत्योंके पास जाना, प्रह्लादद्वारा भगवतीकी स्तुति, देवीके आदेशसे दैत्योंका पातालगमन
  16. [अध्याय 16] भगवान् श्रीहरिके विविध अवतारोंका संक्षिप्त वर्णन
  17. [अध्याय 17] श्रीनारायणद्वारा अप्सराओंको वरदान देना, राजा जनमेजयद्वारा व्यासजीसे श्रीकृष्णावतारका चरित सुनानेका निवेदन करना
  18. [अध्याय 18] पापभारसे व्यथित पृथ्वीका देवलोक जाना, इन्द्रका देवताओं और पृथ्वीके साथ ब्रह्मलोक जाना, ब्रह्माजीका पृथ्वी तथा इन्द्रादि देवताओंसहित विष्णुलोक जाकर विष्णुकी स्तुति करना, विष्णुद्वारा अपनेको भगवतीके अधीन बताना
  19. [अध्याय 19] देवताओं द्वारा भगवतीका स्तवन, भगवतीद्वारा श्रीकृष्ण और अर्जुनको निमित्त बनाकर अपनी शक्तिसे पृथ्वीका भार दूर करनेका आश्वासन देना
  20. [अध्याय 20] व्यासजीद्वारा जनमेजयको भगवतीकी महिमा सुनाना तथा कृष्णावतारकी कथाका उपक्रम
  21. [अध्याय 21] देवकीके प्रथम पुत्रका जन्म, वसुदेवद्वारा प्रतिज्ञानुसार उसे कंसको अर्पित करना और कंसद्वारा उस नवजात शिशुका वध
  22. [अध्याय 22] देवकीके छः पुत्रोंके पूर्वजन्मकी कथा, सातवें पुत्रके रूपमें भगवान् संकर्षणका अवतार, देवताओं तथा दानवोंके अंशावतारोंका वर्णन
  23. [अध्याय 23] कंसके कारागारमें भगवान् श्रीकृष्णका अवतार, वसुदेवजीका उन्हें गोकुल पहुँचाना और वहाँसे योगमायास्वरूपा कन्याको लेकर आना, कंसद्वारा कन्याके वधका प्रयास, योगमायाद्वारा आकाशवाणी करनेपर कंसका अपने सेवकोंद्वारा नवजात शिशुओंका वध कराना
  24. [अध्याय 24] श्रीकृष्णावतारकी संक्षिप्त कथा, कृष्णपुत्रका प्रसूतिगृहसे हरण, कृष्णद्वारा भगवतीकी स्तुति, भगवती चण्डिकाद्वारा सोलह वर्षके बाद पुनः पुत्रप्राप्तिका वर देना
  25. [अध्याय 25] व्यासजीद्वारा शाम्भवी मायाकी बलवत्ताका वर्णन, श्रीकृष्णद्वारा शिवजीकी प्रसन्नताके लिये तप करना और शिवजीद्वारा उन्हें वरदान देना