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देवी भागवत महापुराण ( देवी भागवत)

Devi Bhagwat Purana (Devi Bhagwat Katha)

स्कन्ध 9, अध्याय 24 - Skand 9, Adhyay 24

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शंखचूड़रूपधारी श्रीहरिका तुलसीके भवनमें जाना, तुलसीका श्रीहरिको पाषाण होनेका शाप देना, तुलसी-महिमा, शालग्रामके विभिन्न लक्षण एवं माहात्म्यका वर्णन

नारदजी बोले –भगवान् नारायणने कौन-सा रूप धारणकर तुलसी में वीर्याधान किया था, उसे मुझे बताइये ॥ 1 ॥

श्रीनारायण बोले [हे नारद!] देवताओंका कार्य सिद्ध करनेमें सदा तत्पर रहनेवाले भगवान् श्रीहरि वैष्णवी मायाके द्वारा शंखचूड़का कवच लेकर और फिर उसी शंखचूड़का रूप धारणकर उसकी पत्नीका पातिव्रत्य नष्ट करके शंखचूड़को मारनेकी इच्छासे साध्वी तुलसीके घर गये थे ॥ 2-3 ॥

उन्होंने तुलसीके भवनके द्वारके पास दुन्दुभि बजवायी और उस द्वारपर जयकार लगवाकर सुन्दरी तुलसीको यह ज्ञात कराया कि उसके पति विजयी होकर आ गये हैं॥ 4 ॥

वह ध्वनि सुनकर साध्वी तुलसी परम आनन्दित हुई और अत्यन्त आदरके साथ [पतिदर्शनकी कामनासे] खिड़कीमेंसे राजमार्गकी ओर देखने लगी ॥ 5 ॥

तत्पश्चात् उसने ब्राह्मणोंको धन प्रदान करके मंगलाचार करवाया और बन्दीजनों, भिक्षुकों तथा सूत - -मागधोंको [न्यौछावरस्वरूप] धन दिया ॥ 6 ॥ तदनन्तर भगवान् श्रीहरि रथसे उतरकर देवी तुलसीके सुन्दर, अत्यन्त मनोहर तथा अमूल्य रत्ननिर्मित भवनमें गये ॥ 7 ॥

अपने कान्तिमान् पतिको समक्ष देखकर वह बहुत प्रसन्न हुई। उसने प्रेमपूर्वक उनका चरण धोया, फिर उन्हें प्रणाम किया और वह रोने लगी ॥ 8 ॥

तत्पश्चात् उस कामिनी तुलसीने उन्हें अत्यन्त मनोहर रत्नमय सिंहासनपर बैठाया, पुनः उसने कपूर आदिसे सुगन्धित ताम्बूल उन्हें प्रदान किया। [इसके बाद तुलसीने कहा-] आज |मेरा जन्म तथा जीवन-ये दोनों सफल हो गये; क्योंकि मैं युद्धभूमिमें गये हुए अपने प्राणनाथको फिरसे घरमें देख रही हूँ। 9-10 ॥तत्पश्चात् मुसकानयुक्त, तिरछी दृष्टिसे देखती हुई, काममदसे विहल और पुलकित अंगोंवाली तुलसी अपने प्राणनाथसे मधुर वाणीमें युद्धसम्बन्धी समाचार पूछने लगी ll 11 ll

तुलसी बोली- प्रभो। असंख्य ब्रह्माण्डौंका संहार करनेवाले शिवजीके साथ हुए युद्धमें आपकी विजय कैसे हुई ? हे कृपानिधे। इसे मुझे बताइये 12 तुलसीका वचन सुनकर शंखचूड़रूपधारी लक्ष्मीकान्त श्रीहरि उस तुलसीसे हँसकर अमृतमय वाणीमें कहने लगे ॥ 13 ॥

श्रीभगवान् बोले- हे प्रिये। हम दोनोंका युद्ध पूरे एक वर्षतक होता रहा। हे कामिनि। उस युद्धमें सभी दानवोंका विनाश हो गया। तब स्वयं ब्रह्माजीने हम दोनोंमें प्रेम करवा दिया और फिर उनकी आज्ञासे मैंने देवताओंको उनका सम्पूर्ण अधिकार लौटा दिया। इसके बाद मैं अपने घर चला आया और शिवजी अपने लोकको चले गये । ll 14-156 ॥

हे नारद। यह कहकर जगन्नाथ रमापति श्रीहरि शय्यापर सो गये और जब उस रमणीके साथ विहार करने लगे, तब उस साध्वी तुलसीने अपने मनमें विचार करके सब कुछ जान लिया और 'तुम कौन हो ?' - ऐसा वह उनसे पूछने लगी ॥ 16-173 ।।

तुलसी बोली- हे मायेश! तुम कौन हो, यह मुझे बताओ। तुमने छलपूर्वक मेरा सतीत्व नष्ट किया, अतः मैं तुम्हें शाप देती हूँ ॥ 183 ॥

हे ब्रह्मन् तुलसीका वचन सुनकर भगवान् श्रीहरिने शापके भयसे लीलापूर्वक अपना मनोहर विष्णुरूप धारण कर लिया ॥ 193 ॥

तब देवी तुलसीने नूतन मेघके समान श्याम वर्णवाले, शरत्कालीन कमलके समान नेत्रोंवाले, करोड़ों कामदेवके समान सुन्दर प्रतीत होनेवाले, रत्नमय आभूषणोंसे अलंकृत, मन्द मन्द मुसकानसे युक्त प्रसन्न मुख-मण्डलवाले, पीताम्बर धारण किये हुए तथा अनुपम शोभासम्पन्न देवाधिदेव सनातन श्रीहरिको अपने समक्ष देखा। उन्हें देखकर कामिनी तुलसी लीलापूर्वक पूर्णतः मूच्छित हो गयी और कुछ देर बाद चेतना प्राप्त करके वह उन श्रीहरिसे पुनः कहने लगी ।। 20 - 223 ॥तुलसी बोली हे नाथ। आप पाषाणसदृश हो गये हैं, आपमें दया नहीं है। आपने छलपूर्वक मेरा धर्म नष्ट करके मेरे स्वामीको मार डाला। हे प्रभो। आप पाषाण हृदयवाले हैं तथा दयाहीन हो गये हैं. अतः हे देव । आप इसी समय लोकमें पाषाणरूप हो | जायें जो लोग आपको साधु कहते हैं, वे भ्रमित हैं; इसमें सन्देह नहीं है। दूसरेका हित साधनेके लिये आपने अपने भक्तको क्यों मार डाला ? ॥ 23-256 ॥

[हे नारद।] इस प्रकार शोक सन्तप्त तुलसीने बहुत रुदन तथा बार-बार विलाप किया। तदनन्तर करणारसके सागर कमलापति श्रीहरि तुलसीकी कारुणिक अवस्था देखकर नीतियुक्त वचनोंसे उसे समझाते हुए कहने लगे ॥ 26-27॥

श्रीभगवान् बोले- हे भद्रे तुमने भारतमें रहकर मेरे लिये बहुत समयतक तपस्या की है, साथ ही इस शंखचूड़ने भी उस समय तुम्हारे लिये दीर्घ समयतक तपस्या की थी ॥ 28 ॥

तुम्हें पत्नीरूपमें प्राप्त करके उसने तपस्याका फल प्राप्त करके तुम्हारे साथ विहार किया है। अब तुम्हें तुम्हारेद्वारा की गयी तपस्याका फल देना उचित है ॥ 29 ॥

हे रामे ! अब तुम इस शरीरको त्यागकर तथा दिव्य देह धारण करके मेरे साथ आनन्द करो और [मेरे लिये] लक्ष्मी के समान हो जाओ ॥ 30 ॥ तुम्हारा यह शरीर गण्डकीनदीके रूपमें प्रसिद्ध होगा। वह पवित्र नदी पुण्यमय भारतवर्षके मनुष्योंको उत्तम पुण्य देनेवाली होगी ॥ 31 ॥ तुम्हारा केशसमूह पुण्य वृक्षके रूपमें प्रतिष्ठित होगा। तुम्हारे केशसे उत्पन्न वह वृक्ष तुलसी नामसे प्रसिद्ध होगा ॥ 32 ॥

हे वरानने। देवपूजनमें प्रयुक्त होनेवाले त्रिलोकीके समस्त पुष्पों तथा पत्रोंमें तुलसी प्रधानरूपवाली मानी जायगी ।। 33 ।।

स्वर्गलोक, मृत्युलोक, पाताल तथा गोलोक - | इन सभी स्थानोंमें तुम मेरे सान्निध्यमें रहोगी। वृक्षश्रेष्ठ उत्तम तुलसी नामसे तुम पुष्योंकि मध्य सदा प्रतिष्ठित रहोगी ॥ 34 ॥गोलोक, विरजानदीके तट, रासमण्डल, वृन्दावन, भाण्डीरवन, चम्पकवन, मनोहर चन्दनवन, माधवी, केतकी, कुन्द, मालिका, मालतीवन-इन सभी पुण्यमय स्थानोंमें तुम्हारा पुण्यप्रद वास होगा ।। 35-36 ।।

तुलसीवृक्षके मूलके सान्निध्यवाले पुण्यमय स्थानों में समस्त तीर्थोंका पुण्यप्रद अधिष्ठान होगा। हे वरानने। तुलसी के पत्र अपने ऊपर पड़े इस उद्देश्यसे वहाँपर मेरा तथा सभी देवताओंका निवास होगा ॥ 37-38 ll

तुलसी पत्रके जलसे जो व्यक्ति स्नान करता है, उसने मानो सभी तीर्थोंमें स्नान कर लिया और वह सभी यज्ञोंमें दीक्षित हो गया ।। 39 ।।

हजारों अमृतकलशोंसे भगवान् श्रीहरिको जो सन्तुष्टि होती है, वह उन्हें तुलसीका एक पत्र अर्पण करनेसे अवश्य ही मिल जाती है ll 40 ll

जो फल दस हजार गायोंका दान करनेसे होता है, वही फल कार्तिकमासमें तुलसीके पत्रके दानसे प्राप्त हो जाता है ll 41 ॥

जिस व्यक्तिको मृत्युके अवसरपर तुलसीपत्रका जल सुलभ हो जाता है, वह सभी पापोंसे मुक्त होकर विष्णु लोकमें प्रतिष्ठा प्राप्त करता है ॥ 42 ll

जो मनुष्य प्रतिदिन भक्तिपूर्वक तुलसीका जल ग्रहण करता है, वह एक लाख अश्वमेधयज्ञोंसे होनेवाला पुण्य प्राप्त कर लेता है ॥ 43 ॥

जो मनुष्य हाथमें तुलसी लेकर या शरीरमें इसे धारणकर तीर्थोंमें प्राण त्यागता है, वह विष्णुलोक जाता है ll 44 ॥

जो मनुष्य तुलसी-काष्ठसे निर्मित मालाको धारण करता है, वह पद-पदपर अश्वमेधयज्ञका फल निश्चय ही प्राप्त करता है ।। 45 ।।

जो मनुष्य तुलसीको अपने हाथपर रखकर अपने प्रतिज्ञा-वचनकी रक्षा नहीं करता, वह कालसूत्रनरकमें पड़ता है और वहाँपर चन्द्रमा तथा सूर्यकी स्थितिपर्यन्त वास करता है। ll 46 ll

जो मनुष्य इस लोकमें तुलसीके समीप झूठी प्रतिज्ञा करता है, वह कुम्भीपाकनरकमें जाता है और चौदहों इन्द्रोंकी स्थितितक वहाँ पड़ा रहता है ।। 47 ।।मृत्युके समय जिस मनुष्य के मुखमें तुलसी जलका एक कण भी पहुँच जाता है, वह रत्नमय | विमानपर आरूढ़ होकर निश्चय ही विष्णुलोकको जाता है ॥ 48 ॥

पूर्णिमा, अमावास्या, द्वादशी, सूर्य संक्रान्ति मध्याह्काल रात्रि, दोनों सन्ध्याएँ, अशीच तथा अपवित्र समयोंमें, रातके कपड़े पहने हुए तथा शरीरमें तेल लगाकर जो लोग तुलसीके पत्र तोड़ते हैं वे साक्षात् श्रीहरिका मस्तक ही काटते हैं ।। 49-50 ॥

श्राद्ध, व्रत, दान, प्रतिष्ठा तथा देवार्चनके लिये तुलसीपत्र बासी होनेपर भी तीन राततक शुद्ध बना रहता है ॥ 51 ॥

पृथ्वीपर पड़ा हुआ अथवा जलमें गिरा हुआ या श्रीविष्णुको चढ़ाया हुआ तुलसीपत्र धो देनेपर दूसरे कार्योंके लिये शुद्ध होता है ॥ 52 ॥

वृक्षोंकी अधिष्ठात्री देवी बनकर तुम शाश्वत गोलोकमें मुझे कृष्णके साथ सदा विहार करोगी। उसी प्रकार भारतवर्षमें नदियोंकी जो अत्यन्त पुण्यदायिनी अधिष्ठात्री देवी हैं, उस रूपमें भी तुम मेरे ही | अंशस्वरूप लवणसमुद्रकी पत्नी बनोगी ॥ 53-54॥

स्वयं महासाध्वी तुम वैकुण्ठलोकमें मेरे सन्निकट लक्ष्मीके समान भार्याके रूपमें सदा विराजमान रहोगी; इसमें सन्देह नहीं है ll 55 ll

मैं भी तुम्हारे शापसे पाषाण बनकर भारतवर्षमें गण्डकी नदीके तटके समीप निवास करूँगा। वहाँ रहनेवाले करोड़ों कीट अपने तीक्ष्ण दाँतरूपी श्रेष्ठ आयुधोंसे काट-काटकर उस शिलाके में मेरे चक्रका चिह्न बनायेंगे ॥ 56-57 ॥

जिसमें एक द्वारका चिह्न होगा, चार चक्र होंगे और जो वनमालासे विभूषित होगा, वह नवीन मेघके समान वर्णवाला पाषाण 'लक्ष्मीनारायण' नाम से प्रसिद्ध होगा ॥ 58 ॥

जिसमें एक द्वारका चिह्न तथा चक्रके चिह्न होंगे, किंतु जो वनमालाकी रेखासे रहित होगा, उस नवीन मेघके समान श्यामवर्ण वाले पाषाणको 'लक्ष्मी- जनार्दन' नामवाला समझना चाहिये ॥ 59 ॥दो द्वार तथा चार चक्रसे युक्त, गायके खुरसे सुशोभित तथा वनमालासे रहित पाषाणको 'रघुनाथ' नामसे जानना चाहिये ॥ 60 ॥

जिसमें बहुत सूक्ष्म दो चक्रके चिह्न हों और वनमालाकी रेखा न हो, उस नवीन मेघके सदृश वर्णवाले पाषाणको भगवान् 'वामन' नामसे मानना चाहिये ॥ 61 ॥

जिस पाषाणमें अत्यन्त सूक्ष्म आकारके दो चक्र हों तथा जो वनमालासे सुशोभित हो, गृहस्थोंको सदा श्री प्रदान करनेवाले उस पाषाणको भगवान् 'श्रीधर' का ही स्वरूप समझना चाहिये ll 62 ll

स्थूल, गोलाकार, वनमालासे रहित तथा अत्यन्त स्पष्ट दो चक्रोंसे अंकित पाषाणको भगवान्का 'दामोदर' नामवाला स्वरूप जानना चाहिये ॥ 63 ॥ जो मध्यम गोलाईके आकारवाला हो, जिसमें दो चक्र बने हों, जिसपर बाण तथा तरकशका चिह्न अंकित हो और जिसके ऊपर बाणसे कट जानेका चिह्न हो, उस पाषाणको रणमें शोभा पानेवाले भगवान् 'राम' का विग्रह समझना चाहिये ॥ 64 ॥

मध्यम आकारवाले, सात चक्रोंके चिह्नोंसे अंकित, छत्र तथा आभूषण से अलंकृत पाषाणको भगवान् 'राजराजेश्वर' समझना चाहिये। वह पाषाण मनुष्योंको विपुल राजसम्पदा प्रदान करनेवाला है ॥ 65 ॥

जो पाषाण स्थूल हो, चौदह चक्रोंसे सुशोभित तथा नवीन मेघसदृश प्रभावाला हो; उस धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष-इन चारों प्रकारके फल प्रदान करनेवाले पाषाणको भगवान् 'अनन्त' का स्वरूप जानना चाहिये 66 ॥

जो चक्रके आकारवाला हो; जिसमें दो चक्र, श्री और गोखुरके चिह्न सुशोभित हों, ऐसे मध्यम तथा नवीन मेघ के समान वर्णवाले पाषाणको भगवान् 'मधुसूदन' का विग्रह समझना चाहिये ।। 67 ।।

सुन्दर दर्शनवाले तथा केवल एक गुप्त चक्रसे युक्त पाषाणको भगवान् 'गदाधर' तथा दो चक्रसे बुक एवं अश्वके मुखकी आकृतिवाले पाषाणको भगवान् 'हयग्रीव' का विग्रह कहा गया है ll 68 ॥जो अत्यन्त विस्तृत मुखवाला हो, दो चक्रके चिह्नोंसे सुशोभित हो, जो देखनेमें बड़ा विकट लगता हो, मनुष्योंको शीघ्र वैराग्य प्रदान करनेवाले ऐसे पाषाणको भगवान् 'नरसिंह' का स्वरूप समझना चाहिये ॥ 69 ॥

जिसमें दो चक्र हों, जो विस्तृत मुखवाला हो। तथा वनमालासे सुशोभित हो, गृहस्थोंको सुख प्रदान करनेवाले ऐसे पाषाणको 'लक्ष्मीनृसिंह' का स्वरूप समझना चाहिये ॥ 70 ॥

जिसके द्वारदेशमें दो चक्र तथा 'श्री' का चिह्न स्पष्ट रूपसे अंकित हो, समस्त कामनाओंका फल प्रदान करनेवाले उस पाषाणको भगवान् 'वासुदेव' का विग्रह जानना चाहिये ॥ 71 ॥

जो सूक्ष्म चक्र के चिह्नसे युक्त हो, नवीन मेघके समान श्यामवर्णका हो और जिसके मुखपर बहुत से छोटे-छोटे छिद्र विद्यमान हों, गृहस्थोंको सुख प्रदान करनेवाले उस पाषाणको 'प्रद्युम्न' का स्वरूप जानना चाहिये ॥ 72 ॥

जिसमें परस्पर सटे हुए दो चक्रोंके चिह्न विद्यमान हों तथा जिसका पृष्ठभाग विशाल हो, गृहस्थोंको निरन्तर सुख प्रदान करनेवाले उस पाषाणको भगवान् 'संकर्षण' का ही रूप समझना चाहिये ॥ 73

जो अत्यन्त सुन्दर, गोलाकार तथा पीत आभावाला हो, गृहस्थोंको सुख प्रदान करनेवाले उस पाषाणको विद्वान् पुरुष भगवान् 'अनिरुद्ध' का स्वरूप कहते हैं ॥ 74 ॥

जहाँ शालग्रामकी शिला रहती है, वहाँ भगवान् श्रीहरि विराजमान रहते हैं और वहींपर भगवती लक्ष्मी भी सभी तीर्थोंको साथ लेकर सदा निवास करती हैं ।। 75 ।।

ब्रह्महत्या आदि जो भी पाप हैं, वे सब शालग्रामकी शिलाके पूजनसे नष्ट हो जाते हैं ॥ 76 ॥

छत्राकार शालग्रामके पूजनसे राज्य, शालग्रामके पूजनसे महालक्ष्मी, शकटके आकारवाले गोलाकार शालग्रामके पूजनसे कष्ट तथा शूलके समान अग्रभागवाले शालग्रामके पूजनसे निश्चितरूपसे मृत्यु होती है ॥ 77 ॥विकृत मुखवाले शालग्रामसे दरिद्रता, पिंगलवर्ण वालेसे हानि, खण्डित चक्रवालेसे व्याधि तथा विदीर्ण शालग्रामसे निश्चय ही मरण होता है ॥ 78 ॥

व्रत, स्नान, प्रतिष्ठा, श्राद्ध तथा देवपूजन आदि जो भी कर्म शालग्रामकी सन्निधिमें किया जाता है, वह प्रशस्त माना जाता है और वह कर्ता मानो सभी तीर्थोंमें स्नान कर चुका और सभी यज्ञोंमें दीक्षित हो गया। इस प्रकार उसे सम्पूर्ण यज्ञों, तीर्थों, व्रतों और तपस्याओंका फल मिल जाता है । ll 79-80 ॥

चारों वेदोंके पढ़ने तथा तपस्या करनेसे जो पुण्य प्राप्त होता है, वह पुण्य शालग्रामकी शिलाके पूजनसे
निश्चितरूपसे सुलभ हो जाता है ॥ 81 ॥ (जो मनुष्य शालग्रामशिलाके जलसे नित्य अभिषेक करता है, वह सभी दान करने तथा पृथ्वीकी प्रदक्षिणा करनेसे जो पुण्य होता है, उसे प्राप्त कर लेता है।) जो मनुष्य शालग्रामशिलाके जलका नित्य पान करता है, वह देवाभिलषित प्रसाद प्राप्त कर लेता है. इसमें सन्देह नहीं है। समस्त तीर्थ उसका स्पर्श करना चाहते हैं। वह जीवन्मुक्त तथा परम पवित्र मनुष्य अन्तमें भगवान् श्रीहरिके लोक चला जाता है। वहाँपर वह भगवान् श्रीहरिके साथ असंख्य प्राकृत प्रलयपर्यन्त रहता है। वह वहाँ भगवान्‌का दास्यभाव प्राप्त कर लेता है और उनके सेवाकार्यमें नियुक्त हो जाता है ॥ 82-84 ॥

ब्रह्महत्यासदृश जो कोई भी पाप हों, वे भी उस व्यक्तिको देखते ही उसी प्रकार भाग जाते हैं, जैसे गरुड़को देखकर सर्प ॥ 85 ॥

उस मनुष्यके चरणकी रजसे पृथ्वीदेवी तुरन्त पवित्र हो जाती हैं और उसके जन्मसे उसके लाखों पितरोंका उद्धार हो जाता है ॥ 86 ॥

जो मनुष्य मृत्युके समय शालग्रामशिलाके जलका पान कर लेता है, वह समस्त पापोंसे मुक्त होकर विष्णुलोकको चला जाता है। इस प्रकार वह | सभी कर्मभोगों से मुक्त होकर निर्वाणमुक्ति प्राप्त कर लेता है और भगवान् विष्णु के चरणोंमें लीन हो जाता है; इसमें संशय नहीं है । ll 87-88 ।।शालग्रामशिलाको हाथमें लेकर जो मनुष्य मिथ्या वचन बोलता है, वह कुम्भीपाकनरकमें जाता है और ब्रह्माको आयुपर्यन्त वहाँ निवास करता है ॥ 89 ॥

जो शालग्रामशिलाको हाथमें लेकर अपने द्वारा की गयी प्रतिज्ञाका पालन नहीं करता, वह असिपत्र नामक नरकमें जाता है और वहाँ एक लाख मन्वन्तरकी अवधितक रहता है ॥ 90 ॥

हे कान्ते! जो मनुष्य शालग्रामशिलासे तुलसीपत्रको हटा देता है, वह दूसरे जन्ममें स्त्रीसे वियुक्त हो जाता है उसी प्रकार जो पुरुष शंखसे तुलसीपत्रको अलग करता है, वह भी सात जन्मोंतक भार्याविहीन तथा रोगयुक्त रहता है ।। 91-92 ॥

जो महाज्ञानी व्यक्ति शालग्राम, तुलसी और शंखको एकत्र रखता है, वह भगवान् श्रीहरिके लिये अत्यन्त प्रिय हो जाता है ॥ 93 ॥

जो पुरुष एक बार भी जिस किसी स्त्रीके साथ एकान्तवास कर लेता है, वियोग होनेपर उसका दुःख उन दोनोंको परस्पर होता है। तुम एक मन्वन्तरकी अवधितक शंखचूड़की भार्या रह चुकी हो, अतः उसके साथ तुम्हारा वियोग कष्टदायक तो होगा ही ।। 94-95 ll

हे नारद! उस तुलसीसे ऐसा कहकर भगवान् श्रीहरि चुप हो गये। तुलसी अपना वह शरीर त्यागकर और दिव्य रूप धारण करके श्रीहरिके वक्ष स्थलपर लक्ष्मीकी भाँति सुशोभित होने लगी। इसके बाद वे लक्ष्मीपति श्रीहरि उसके साथ वैकुण्ठलोक चले गये ।। 96-97 ॥

हे नारद! इस प्रकार लक्ष्मी, सरस्वती, गंगा और तुलसी – ये चारों देवियाँ भगवान् श्रीहरिकी पत्नियाँ हुई ॥ 98 ॥

उसी समय तुरन्त तुलसीके शरीरसे गण्डकी नदी उत्पन्न हुई और भगवान् श्रीहरि उसीके तटपर | मनुष्योंके लिये पुण्यप्रद शालग्राम बन गये ॥ 99 ।।

हे मुने। वहाँ रहनेवाले कीट शिलाको काट काटकर उन्हें अनेक प्रकारके रूपोंवाला बना देते हैं। जो-जो शिलाएँ जलमें गिरती है, वे निश्चितरूपसे | उत्तम फल देनेवाली होती हैं जो शिलाएँ धरतीपरगिरी रहती हैं, वे सूर्यके तापके कारण पीली पड़ जाती हैं, उन्हें पिंगला शिला समझना चाहिये। इस प्रकार मैंने सारा प्रसंग कह दिया, अब पुनः क्या सुनना चाहते हैं ? ॥ 100-101॥

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देवी भागवत महापुराण
Index


  1. [अध्याय 1] प्रकृतितत्त्वविमर्श प्रकृतिके अंश, कला एवं कलांशसे उत्पन्न देवियोंका वर्णन
  2. [अध्याय 2] परब्रह्म श्रीकृष्ण और श्रीराधासे प्रकट चिन्मय देवताओं एवं देवियोंका वर्णन
  3. [अध्याय 3] परिपूर्णतम श्रीकृष्ण और चिन्मयी राधासे प्रकट विराट्रूप बालकका वर्णन
  4. [अध्याय 4] सरस्वतीकी पूजाका विधान तथा कवच
  5. [अध्याय 5] याज्ञवल्क्यद्वारा भगवती सरस्वतीकी स्तुति
  6. [अध्याय 6] लक्ष्मी, सरस्वती तथा गंगाका परस्पर शापवश भारतवर्षमें पधारना
  7. [अध्याय 7] भगवान् नारायणका गंगा, लक्ष्मी और सरस्वतीसे उनके शापकी अवधि बताना तथा अपने भक्तोंके महत्त्वका वर्णन करना
  8. [अध्याय 8] कलियुगका वर्णन, परब्रह्म परमात्मा एवं शक्तिस्वरूपा मूलप्रकृतिकी कृपासे त्रिदेवों तथा देवियोंके प्रभावका वर्णन और गोलोकमें राधा-कृष्णका दर्शन
  9. [अध्याय 9] पृथ्वीकी उत्पत्तिका प्रसंग, ध्यान और पूजनका प्रकार तथा उनकी स्तुति
  10. [अध्याय 10] पृथ्वीके प्रति शास्त्र - विपरीत व्यवहार करनेपर नरकोंकी प्राप्तिका वर्णन
  11. [अध्याय 11] गंगाकी उत्पत्ति एवं उनका माहात्म्य
  12. [अध्याय 12] गंगाके ध्यान एवं स्तवनका वर्णन, गोलोकमें श्रीराधा-कृष्णके अंशसे गंगाके प्रादुर्भावकी कथा
  13. [अध्याय 13] श्रीराधाजीके रोषसे भयभीत गंगाका श्रीकृष्णके चरणकमलोंकी शरण लेना, श्रीकृष्णके प्रति राधाका उपालम्भ, ब्रह्माजीकी स्तुतिसे राधाका प्रसन्न होना तथा गंगाका प्रकट होना
  14. [अध्याय 14] गंगाके विष्णुपत्नी होनेका प्रसंग
  15. [अध्याय 15] तुलसीके कथा-प्रसंगमें राजा वृषध्वजका चरित्र- वर्णन
  16. [अध्याय 16] वेदवतीकी कथा, इसी प्रसंगमें भगवान् श्रीरामके चरित्रके एक अंशका कथन, भगवती सीता तथा द्रौपदी के पूर्वजन्मका वृत्तान्त
  17. [अध्याय 17] भगवती तुलसीके प्रादुर्भावका प्रसंग
  18. [अध्याय 18] तुलसीको स्वप्न में शंखचूड़का दर्शन, ब्रह्माजीका शंखचूड़ तथा तुलसीको विवाहके लिये आदेश देना
  19. [अध्याय 19] तुलसीके साथ शंखचूड़का गान्धर्वविवाह, शंखचूड़से पराजित और निर्वासित देवताओंका ब्रह्मा तथा शंकरजीके साथ वैकुण्ठधाम जाना, श्रीहरिका शंखचूड़के पूर्वजन्मका वृत्तान्त बताना
  20. [अध्याय 20] पुष्पदन्तका शंखचूड़के पास जाकर भगवान् शंकरका सन्देश सुनाना, युद्धकी बात सुनकर तुलसीका सन्तप्त होना और शंखचूड़का उसे ज्ञानोपदेश देना
  21. [अध्याय 21] शंखचूड़ और भगवान् शंकरका विशद वार्तालाप
  22. [अध्याय 22] कुमार कार्तिकेय और भगवती भद्रकालीसे शंखचूड़का भयंकर बुद्ध और आकाशवाणीका पाशुपतास्त्रसे शंखचूड़की अवध्यताका कारण बताना
  23. [अध्याय 23] भगवान् शंकर और शंखचूड़का युद्ध, भगवान् श्रीहरिका वृद्ध ब्राह्मणके वेशमें शंखचूड़से कवच माँग लेना तथा शंखचूड़का रूप धारणकर तुलसीसे हास-विलास करना, शंखचूड़का भस्म होना और सुदामागोपके रूपमें गोलोक पहुँचना
  24. [अध्याय 24] शंखचूड़रूपधारी श्रीहरिका तुलसीके भवनमें जाना, तुलसीका श्रीहरिको पाषाण होनेका शाप देना, तुलसी-महिमा, शालग्रामके विभिन्न लक्षण एवं माहात्म्यका वर्णन
  25. [अध्याय 25] तुलसी पूजन, ध्यान, नामाष्टक तथा तुलसीस्तवनका वर्णन
  26. [अध्याय 26] सावित्रीदेवीकी पूजा-स्तुतिका विधान
  27. [अध्याय 27] भगवती सावित्रीकी उपासनासे राजा अश्वपतिको सावित्री नामक कन्याकी प्राप्ति, सत्यवान् के साथ सावित्रीका विवाह, सत्यवान्की मृत्यु, सावित्री और यमराजका संवाद
  28. [अध्याय 28] सावित्री यमराज-संवाद
  29. [अध्याय 29] सावित्री धर्मराजके प्रश्नोत्तर और धर्मराजद्वारा सावित्रीको वरदान
  30. [अध्याय 30] दिव्य लोकोंकी प्राप्ति करानेवाले पुण्यकर्मोंका वर्णन
  31. [अध्याय 31] सावित्रीका यमाष्टकद्वारा धर्मराजका स्तवन
  32. [अध्याय 32] धर्मराजका सावित्रीको अशुभ कर्मोंके फल बताना
  33. [अध्याय 33] विभिन्न नरककुण्डों में जानेवाले पापियों तथा उनके पापोंका वर्णन
  34. [अध्याय 34] विभिन्न पापकर्म तथा उनके कारण प्राप्त होनेवाले नरकका वर्णन
  35. [अध्याय 35] विभिन्न पापकर्मोंसे प्राप्त होनेवाली विभिन्न योनियोंका वर्णन
  36. [अध्याय 36] धर्मराजद्वारा सावित्रीसे देवोपासनासे प्राप्त होनेवाले पुण्यफलोंको कहना
  37. [अध्याय 37] विभिन्न नरककुण्ड तथा वहाँ दी जानेवाली यातनाका वर्णन
  38. [अध्याय 38] धर्मराजका सावित्री से भगवतीकी महिमाका वर्णन करना और उसके पतिको जीवनदान देना
  39. [अध्याय 39] भगवती लक्ष्मीका प्राकट्य, समस्त देवताओंद्वारा उनका पूजन
  40. [अध्याय 40] दुर्वासाके शापसे इन्द्रका श्रीहीन हो जाना
  41. [अध्याय 41] ब्रह्माजीका इन्द्र तथा देवताओंको साथ लेकर श्रीहरिके पास जाना, श्रीहरिका उनसे लक्ष्मीके रुष्ट होनेके कारणोंको बताना, समुद्रमन्थन तथा उससे लक्ष्मीजीका प्रादुर्भाव
  42. [अध्याय 42] इन्द्रद्वारा भगवती लक्ष्मीका षोडशोपचार पूजन एवं स्तवन
  43. [अध्याय 43] भगवती स्वाहाका उपाख्यान
  44. [अध्याय 44] भगवती स्वधाका उपाख्यान
  45. [अध्याय 45] भगवती दक्षिणाका उपाख्यान
  46. [अध्याय 46] भगवती षष्ठीकी महिमाके प्रसंगमें राजा प्रियव्रतकी कथा
  47. [अध्याय 47] भगवती मंगलचण्डी तथा भगवती मनसाका आख्यान
  48. [अध्याय 48] भगवती मनसाका पूजन- विधान, मनसा-पुत्र आस्तीकका जनमेजयके सर्पसत्रमें नागोंकी रक्षा करना, इन्द्रद्वारा मनसादेवीका स्तवन करना
  49. [अध्याय 49] आदि गौ सुरभिदेवीका आख्यान
  50. [अध्याय 50] भगवती श्रीराधा तथा श्रीदुर्गाके मन्त्र, ध्यान, पूजा-विधान तथा स्तवनका वर्णन