श्रीनारायण बोले- [ हे नारद!] छहों अंगोंसहित अधीत किये गये वेद भी आचारविहीन व्यक्तिको पवित्र नहीं कर सकते। पढ़े गये छन्द (वेद) ऐसे आचारहीन प्राणीको उसी भाँति मृत्युकालमें छोड़ देते हैं, जैसे पंख निकल आनेपर पक्षी अपना घोंसला त्याग देते हैं ॥ 1 ॥
विद्वान् पुरुषको ब्राह्ममुहूर्तमें उठकर आचारसम्बन्धी सभी कर्मोंको भलीभाँति सम्पादित करना चाहिये और रातके अन्तिम प्रहरमें वेदाभ्यास करना चाहिये। तत्पश्चात् योगी पुरुष कुछ समय अपने इष्टदेवका चिन्तन करे और पुनः पूर्वोक्त मार्गसे ब्रह्मका ध्यान करे ।। 2-3 ॥
हे नारद! ऐसा निरन्तर करनेसे जब जीव तथा ब्रह्ममें ऐक्य स्थापित हो जाता है, तब उसी क्षण वह जीवन्मुक्त हो जाता है ॥ 4 ॥
रात्रिके अन्तमें पचपन घड़ीके बाद उषःकाल, सत्तावन घड़ीके बाद अरुणोदयकाल तथा अट्ठावन | घड़ीके बाद प्रातःकाल होता है। इसके बादवाला शेष समय सूर्योदयकाल कहा गया है ॥ 5 ॥
श्रेष्ठ द्विजको प्रातः काल उठकर नैर्ऋत्यदिशामें धनुषसे छोड़े गये बाणद्वारा तय की गयी दूरीसे भी आगेकी भूमिपर जाकर मल-मूत्रका त्याग करना चाहिये ॥ 6 ॥ब्रह्मचर्य आश्रम स्थित द्विजको मल-मूत्र त्यागते समय यज्ञोपवीत अपने कानपर रख लेना चाहिये। वानप्रस्थ तथा गृहस्थ यज्ञोपवीतको आगे लटकाकर पीठपर कर ले ॥ 7 ॥
गृहस्थको यज्ञोपवीत कण्ठीके समान पीठकी ओर लटकाकर और प्रथम आश्रम में स्थित ब्रह्मचारीको यज्ञोपवीत कानपर रखकर मल-मूत्रका त्याग करना चाहिये ॥ 8 ॥
तृणोंसे भूमिको ढँककर, सिरको वस्त्रसे आच्छादित करके, मौन हो करके, थूकने तथा श्वासक्रियासे रहित होकर मल-मूत्रका त्याग करना चाहिये ॥ 9 ॥
जोती हुई भूमिपर, जलमें, चिताके स्थानपर, पर्वतपर, जीर्ण देवस्थलोंपर, वल्मीक (बिमौट) - पर तथा हरी घासपर, मल-मूत्र नहीं करना चाहिये। | मल-मूत्रका त्याग न तो जीव-जन्तुवाले गड्डोंमें, न तो चलते हुए और न तो रास्तेमें स्थित होकर ही करे ॥ 103 ॥
दोनों सन्ध्याओंमें, जपकालमें, भोजनके समय, दन्तधावन करते समय, पितृ तथा देव-कार्य सम्पन्न करते समय, मल-मूत्रके उत्सर्गके समय, हर्षातिरेककी स्थितिमें, मैथुन करते समय, गुरुकी सन्निधिमें, यज्ञ करते समय, दान देते समय तथा ब्रह्मयज्ञ ( स्वाध्याय) के समय द्विजको मौन धारण किये रहना चाहिये ll 11-123 ॥
शौचसे पूर्व ऐसा उच्चारण करना चाहिये-सभी देवता, ऋषि, पिशाच, नाग, राक्षस तथा भूत-समुदाय यहाँसे चले जायँ; क्योंकि मैं यहाँ मल त्याग करना चाहता हूँ। इस प्रकार प्रार्थना करके विधिपूर्वक शौच करना चाहिये ॥ 13-14 ॥
वायु, अग्नि, ब्राह्मण, सूर्य, जल तथा गौको देखते हुए मल-मूत्रका त्याग कभी नहीं करना चाहिये। दिनमें उत्तर दिशाकी ओर तथा रातमें दक्षिण दिशाकी ओर मुख करके मल-मूत्रका त्याग करना चाहिये। तत्पश्चात् मल-मूत्रको मिट्टीके ढेलों, पत्तों, तृण आदिसे ढँक करके पुनः उठकर जननेन्द्रियको पकड़े हुए जलके निकट जाना चाहिये। पात्रमें जल लेकर वहाँसे दूसरे स्थानपर जाना चाहिये ॥ 15 - 17 ॥शुद्धिके लिये जलाशयके तटसे श्रेष्ठ ब्राह्मणको श्वेत, क्षत्रियको लाल, वैश्यको पीली तथा शूद्रको काली मिट्टी लेनी चाहिये अथवा जिस स्थानपर जो मिट्टी उपलब्ध हो जाय; उत्तम द्विजको वही ले लेनी चाहिये। पानीके अन्दरसे, देवालयसे, वल्मीकसे तथा चूहेके बिलसे गृहीत और शौचसे अवशिष्ट-ये पाँच मिट्टियाँ ग्राह्य नहीं हैं ॥ 18-193 ॥
मूत्र त्यागकी अपेक्षा मल-त्यागमें दोगुनी तथा मैथुनके बाद तीन गुनी शुद्धि कही गयी है। मूत्र त्यागके पश्चात् लिंगमें एक बार, बायें हाथमें तीन बार और पुनः दोनों हाथोंमें दो बार मिट्टी लगाना बताया गया है; इसे मूत्र शौच कहा गया है। मल - शौचमें यही क्रिया दोगुनी कही गयी है । मल त्यागके पश्चात् शुद्धिहेतु लिंगमें दो बार, गुदामें पाँच बार तथा दोनों हाथोंमें ग्यारह बार मिट्टी लगानी चाहिये ॥ 20-22 ॥
उत्तम बुद्धिवाले पुरुषको पहले अपने बायें पैर तथा बादमें दाहिने पैरमें- इस प्रकार प्रत्येकमें चार चार बार मिट्टी लगाकर शुद्धि करनी चाहिये ॥ 23 ॥
शुद्धि सम्बन्धी यह नियम गृहस्थोंके लिये है। ब्रह्मचारीको इससे दुगुनी, वानप्रस्थको तीन गुनी तथा संन्यासीको चार गुनी शुद्धि करनेका विधान है ll 24 ॥
शौचकर्ममें प्रत्येक बार आर्द्र आँवलेके बराबर मिट्टी सदा लेनी चाहिये, इससे कम कभी नहीं लेनी चाहिये। दिनमें मल त्यागके बादकी | शुद्धिका यही नियम है। रात्रिमें इससे आधे, रोगीके लिये उससे आधे तथा मार्गमें स्थित व्यक्तिके लिये उससे भी आधे परिमाणमें शुद्धिका विधान बताया गया है ।। 25-26 ॥
स्त्रियों, शूद्रों, अशक्तजनों तथा बालकोंके लिये शौचकर्ममें मिट्टी लगानेकी कोई संख्या नहीं है। जितनी बारमें दुर्गन्ध समाप्त हो जाय, उतनी बार मिट्टी लगानी चाहिये। जबतक दुर्गन्धि मिट नहीं जाती, तबतक बार-बार मिट्टीके अनुलेपनसे शुद्धि कर्म करनेका विधान है। यह नियम सभी वर्णोंके लिये है-ऐसा भगवान् मनुने कहा है ।। 27-28 ॥शुद्धि-कार्य दाहिने हाथसे न करके सदा बायें हाथसे ही करना चाहिये। नाभिसे नीचे बायें हाथ तथा इससे ऊपर दाहिने हाथका प्रयोग करना चाहिये। शौचकर्मके सम्बन्धमें श्रेष्ठ द्विजोंको यही नियम समझना चाहिये, इसके विपरीत नहीं ॥ 293 ॥
मल-मूत्रका त्याग करते समय विद्वान्को जलपात्र हाथमें नहीं लिये रहना चाहिये। यदि अज्ञानतावश लेता है तो बादमें प्रायश्चित्त करना चाहिये। मोह अथवा आलस्यवश यदि वह अपनी शुद्धि नहीं करता तो [ इसके प्रायश्चित्तस्वरूप] तीन रात केवल जलके आहारपर रहना चाहिये। इसके बाद गायत्रीजपसे शुद्धि हो जाती है ॥ 30-313 ॥
देश, काल, द्रव्य, शक्ति तथा अपने साधनोंपर भलीभाँति विचार करके शुद्धिकार्य करना चाहिये; इसमें आलस्य नहीं करना चाहिये ॥ 323 ॥
मल-त्यागके उपरान्त शुद्धिके लिये बारह बार तथा मूत्र त्यागके उपरान्त चार बार कुल्ला करना चाहिये; इससे कम कभी नहीं करना चाहिये मनुष्यको चाहिये कि मुख नीचे करके कुल्लेका जल धीरे-धीरे अपने बायीं ओर फेंके ॥ 33-34 ॥
तत्पश्चात् आचमन करके सावधानीपूर्वक दन्त धावन करना चाहिये। इसके लिये काँटे तथा दूधवाले वृक्षसे बारह अंगुलके प्रमाणवाली, छिद्ररहित, कनिष्ठिका अँगुलीके अग्र भागके सदृश मोटाईवाली तथा आधे भागतक कूर्चके समान बनायी गयी दातौन लेनी चाहिये। करंज, गूलर, आम, कदम्ब, लोध, चम्पा तथा बेरके वृक्ष दन्तधावनके लिये उत्तम कहे गये हैं ॥ 35-36 ॥
[उस समय ऐसी प्रार्थना करे] अन्न आदिको सुपाच्य बनाने तथा विघ्नोंको दूर करनेके लिये स्वयं ये [वनस्पतियोंके] राजा सोम यहाँ आये हुए हैं। वे अपने तेज तथा ऐश्वर्यसे मेरे मुखका प्रक्षालन करें। हे वनस्पते! आप मुझे आयु, बल, यश, तेज, प्रजा, पशु, धन, ब्रह्मज्ञान तथा मेधा प्रदान करें ।। 37-38 ॥ दन्तकाष्ठके अभावमें अथवा निषिद्ध तिथियोंमें जलसे बारह बार कुल्ला कर लेनेसे दन्तधावनकी | विधि पूर्ण हो जाती है ॥ 39 ॥जो मनुष्य रविवारको दन्तधावन करता है, उसने मानो सूर्यका ही भक्षण कर लिया तथा अपने कुलका स्वयं विनाश कर लिया। साथ ही प्रतिपदा, अमावास्या, षष्ठी, नवमी, एकादशी तथा रविवारको काष्ठसे दन्तधावन करनेसे वह व्यक्ति अपनी सात पीढ़ियोंको जला डालता है ॥ 40-41 ॥
पाद-प्रक्षालन करके तीन बार शुद्ध जलसे आचमन करनेके पश्चात् दो बार मुख पोंछ लेना चाहिये। तदनन्तर जल लेकर तर्जनी तथा अँगूठेसे दोनों नासिकाछिद्रोंका, अँगूठे तथा अनामिकासे दोनों नेत्रों तथा दोनों कानोंका, कनिष्ठा तथा अँगूठेसे नाभिस्थलका, हाथके तलसे हृदयका और सभी अँगुलियोंसे सिरका स्पर्श करना चाहिये ॥ 42 ॥