नारदजी बोले - हे स्वामिन्! हे सम्पूर्ण जगत्के नाथ! हे प्रभो! हे चौंसठ कलाओंके ज्ञाता ! हे योगवेत्ताओंमें श्रेष्ठ! मनुष्य किस पुण्यकर्मसे पापमुक्त हो सकता है, किस प्रकार ब्रह्मरूपत्व प्राप्त कर सकता है और किस कर्मसे उसका देह देवतारूप तथा विशेषरूपसे मन्त्ररूप हो सकता है ? हे प्रभो ! उस कर्मके विषयमें साथ ही विधिपूर्वक न्यास, ऋषि, छन्द, अधिदेवता तथा ध्यानको विधिवत् सुनना चाहता हूँ ॥ 1-3॥
श्रीनारायण बोले- गायत्रीकवच नामक एक परम गोपनीय उपाय है, जिसके पाठ करने तथा धारण करनेसे मनुष्य समस्त पापोंसे मुक्त हो जाता है, उसके सभी मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं तथा वह स्वयं देवीरूप हो जाता है॥4- 1॥
हे नारद! इस गायत्रीकवचके ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश ऋषि हैं। ऋक्, यजुः, साम तथा अथर्व इसके छन्द हैं। परम कलाओंसे सम्पन्न ब्रह्मस्वरूपिणी 'गायत्री' इसकी देवता कही गयी हैं ॥ 5-6॥
भर्ग इसका बीज है, विद्वानोंने स्वयं इसीको | शक्ति कहा है, बुद्धिको इसका कीलक कहा गया है। और मोक्षके लिये इसके विनियोगका भी विधान बताया गया है ॥ 7 ॥चार वर्णोंसे इसका हृदय, तीन वर्णोंसे सिर, चार वर्णोंसे शिखा, तीन वर्णोंसे कवच, चार वर्णोंसे नेत्र तथा चार वर्णोंसे अस्त्र कहा गया है ॥ 83 ॥
[हे नारद!] अब मैं साधकोंको उनके अभीष्टकी प्राप्ति करानेवाले ध्यानका वर्णन करूँगा। मोती, मूंगा, स्वर्ण, नील और धवल आभावाले [पाँच] मुखों, तीन नेत्रों तथा चन्द्रकलायुक्त रत्नमुकुटको धारण करनेवाली, चौबीस अक्षरोंसे विभूषित और हाथोंमें वरद-अभयमुद्रा, अंकुश, चाबुक, शुभ्र कपाल, रज्जु, शंख, चक्र तथा दो कमलपुष्प धारण करनेवाली भगवती गायत्रीका में ध्यान करता हूँ ॥ 9-10 ll
[ इस प्रकार ध्यान करके कवचका पाठ करे] पूर्व दिशामें गायत्री मेरी रक्षा करें, दक्षिण दिशामें सावित्री रक्षा करें, पश्चिममें ब्रह्मसन्ध्या तथा उत्तरमें सरस्वती मेरी रक्षा करें। जलमें व्याप्त रहनेवाली भगवती पार्वती अग्निकोणमें मेरी रक्षा करें। राक्षसोंमें भय उत्पन्न करनेवाली भगवती यातुधानी नैर्ऋत्यकोणमें मेरी रक्षा करें। वायुमें विलासलीला करनेवाली भगवती पावमानी वायव्यकोणमें मेरी रक्षा करें। रुद्ररूप धारण करनेवाली भगवती रुद्राणी ईशानकोणमें मेरी रक्षा करें। ब्रह्माणी ऊपरकी ओर तथा वैष्णवी नीचेकी ओर मेरी रक्षा करें। इस प्रकार भगवती भुवनेश्वरी दसों दिशाओंमें मेरे सम्पूर्ण अंगोंकी रक्षा करें ॥ 11-14॥ 'तत्' पद मेरे दोनों पैरोंकी, 'सवितुः' पद मेरी दोनों जंघाओंकी, 'वरेण्यं' पद कटिदेशकी 'भर्गः पद नाभिकी, 'देवस्य' पद हृदयकी 'धीमहि' पद दोनों कपोलोंकी, 'धियः' पद दोनों नेत्रोंकी, 'यः' पद ललाटकी, 'नः' पद मस्तककी तथा 'प्रचोदयात्' पद मेरी शिखाकी रक्षा करे ।। 15-163 ॥
'तत्' पद मस्तककी रक्षा करे तथा 'स' कार ललाटकी रक्षा करे। इसी तरह 'वि' कार दोनों नेत्रोंकी, 'तु' कार दोनों कपोलोंकी, 'व' कार नासापुटकी, 'रे' कार मुखकी, 'णि' कार ऊपरी ओष्ठकी, 'व' कार नीचेके ओष्ठकी, 'भ' कार मुखके मध्यभागकी, रेफयुक्त 'गो' कार (ग ) ठुड्डीकी, 'दे' कार कण्ठकी, 'व' कार कन्धोंकी, 'स्य' कार दाहिने हाथकी, 'धी' कार बायें हाथकी, 'म' कार हृदयकी 'हि' कारउदरकी, 'धि' कार नाभिदेशकी, 'यो' कार कटिप्रदेशकी, पुनः 'यो' कार गुह्य अंगोंकी, 'नः' पद दोनों ऊरुओंकी, 'प्र' कार दोनों घुटनोंकी, 'चो' कार दोनों जंघाओंकी, 'द' कार गुल्फोंकी, 'या' कार दोनों पैरोंकी और 'त' कार व्यंजन (त्) सर्वदा मेरे सम्पूर्ण अंगोंकी रक्षा करे ॥ 17–23 ॥
[हे नारद!] भगवती गायत्रीका यह दिव्य कवच सैकड़ों विघ्नोंका विनाश करनेवाला, चौंसठ कलाओं तथा समस्त विद्याओं को देनेवाला और मोक्षकी प्राप्ति करानेवाला है। इस कवचके प्रभावसे व्यक्ति सभी पापोंसे मुक्त हो जाता है और परब्रह्मभावकी प्राप्ति कर लेता है। इसे पढ़ने अथवा सुननेसे भी मनुष्य एक | हजार गोदानका फल प्राप्त कर लेता है । ll 24-25 ।।