तेरह लाख योजन दूरीपर वह परम वैष्णवपद स्थित है ॥ 1 ॥
परम भागवत तथा लोकपूजित उत्तानपादपुत्र श्रीमान् ध्रुव यहींपर विराजमान हैं। इन्द्र, अग्नि, कश्यप, धर्म तथा सप्तर्षिगण – ये सब देखते हुए आदरपूर्वक जिनकी प्रदक्षिणा करते रहते हैं, वे ध्रुव कल्पपर्यन्त जीवित रहनेवाले प्राणियोंके जीवनाधार हैं और निरन्तर भगवान्के चरणोंकी उपासना करते रहते हैं ॥ 2-33 ॥
सर्वदा जाग्रत् रहनेवाले व्यक्तगति भगवान् कालने भ्रमण करनेवाले ग्रह, नक्षत्र, राशि आदि समस्त | ज्योतिर्गणोंके अचल स्तम्भके रूपमें ध्रुवको व्यवस्थित कर रखा है। वे देवपूज्य ध्रुव अपने तेजसे सबको आलोकित करते हुए सदा प्रकाशित होते रहते हैं ॥ 4-53 ॥
जिस प्रकार अनाजको पृथक् करनेवाले पशु छोटी-बड़ी रस्सियों में बँधकर निकट, दूर और मध्यमें | रहकर खलिहानमें गड़े खम्भेके चारों ओर मण्डलबनाकर घूमते रहते हैं, उसी प्रकार सभी नक्षत्रगण और ग्रह आदि भीतर-बाहरके क्रमसे कालचक्रमें नियुक्त होकर ध्रुवका ही आश्रय लेकर वायुकी प्रेरणासे कल्पपर्यन्त परिभ्रमण करते रहते हैं, जिस प्रकार बाज आदि पक्षी अपने कर्मोंकी सहायतासे वायुके अधीन रहकर आकाशमें घूमते रहते हैं, उसी प्रकार वे सभी ज्योतिर्गण भी पुरुष और प्रकृतिके संयोगसे अनुगृहीत होकर परिभ्रमण करते रहते हैं और भूमिपर नहीं गिरते ॥ 6-10 ॥
हे मुने। कुछ लोग भगवान् श्रीहरिकी योग मायाके आधारपर स्थित इस ज्योतिष्चक्रका वर्णन शिशुमारके रूपमें करते हैं, जो नीचेकी ओर सिर किये हुए कुण्डली मारकर स्थित है। उसकी पूँछके अग्रभागपर उत्तानपादपुत्र ध्रुव विराजमान कहे गये हैं। उसकी पूँछके मध्यभागमें देवताओंद्वारा पूजित पवित्रात्मा प्रजापति, अग्नि, इन्द्र और धर्म विराजमान हैं। पूँछकी जड़में धाता और विधाता तथा उसके कटिभागमें सप्तर्षिगण स्थित हैं। यह शिशुमार अपने शरीरको दाहिनी ओरसे कुण्डलाकार बनाकर स्थित है । 11 - 14 ॥
उत्तरायणके चौदह नक्षत्र इसके दाहिने भागमें हैं और दक्षिणायनके चौदह नक्षत्र इसके बायें भागमें हैं। हे ब्रह्मापुत्र नारद! लोकमें भी शिशुमार जब कुण्डलाकार होकर बैठता है तो उसके दोनों पार्श्वभागोंके अवयवोंकी संख्या समान होती है, उसी प्रकार यहाँ नक्षत्रसंख्यामें भी समानता है । 15-16 ॥
इसके पृष्ठभागमें अजवीथी (मूल, पूर्वाषाढ़, उत्तराषाढ़ नक्षत्रों का समूह) और उदरमें आकाशगंगा है। दायें तथा बायें कटिप्रदेशमें पुनर्वसु और पुष्य नक्षत्र स्थित हैं ॥ 17 ॥
पीछेके दाहिने और बायें चरणोंमें आर्द्रा तथा आश्लेषा नक्षत्र हैं। दाहिनी तथा बायीं नासिकाओंमें अभिजित् और उत्तराषाढ़ नक्षत्र विद्यमान हैं ॥ 18 ॥ हे देवर्षे! इसी प्रकार कल्पनाविदोंने दाहिने तथा बायें नेत्रोंमें क्रमशः श्रवण तथा पूर्वाषाढ़ और दाहिने तथा बायें कानोंमें क्रमशः धनिष्ठा और मूल नक्षत्रोंकीस्थिति बतायी है। हे मुने! दक्षिणायनके मघा आदि आठ नक्षत्र वाम पार्श्वकी पसलियोंमें स्थित हैं। उसी प्रकार विपरीत क्रमसे उत्तरायणके मृगशिरा आदि जो आठ नक्षत्र हैं, वे इसके दाहिने पार्श्वकी पसलियों में स्थित हैं। शतभिषा और ज्येष्ठा नक्षत्र दाहिने तथा बायें कन्धोंपर विराजमान हैं । 19-22 ॥
इसकी ऊपरकी ठोड़ीमें अगस्ति, नीचेकी ठोड़ी में यमराज, मुखमें मंगल और जननेन्द्रियमें शनि स्थित कहे गये हैं। इसके ककुदपर बृहस्पति, वक्षपर ग्रहपति सूर्य, हृदयमें नारायण और मनमें चन्द्रमा स्थित रहते हैं ॥ 23-24 ॥
दोनों स्तनोंमें दोनों अश्विनीकुमारों तथा नाभिमें शुक्रका स्थान कहा गया है। प्राण और अपानमें बुध, गले में राहु और केतु एवं सभी अंगों तथा रोमकूपोंमें तारागण कहे गये हैं। हे नारद! भगवान् विष्णुका यह | सर्वदेवमय विग्रह है। परम बुद्धिमान् साधकको चाहिये कि वह प्रतिदिन सायंकालके समय मौन धारण करके अपने हृदयमें भगवान्को स्थित देखते हुए उनके उस दिव्य स्वरूपका ध्यान करे और इस मन्त्रसे जप करते हुए स्तुति करे-सम्पूर्ण ज्योतिर्गणोंके आश्रय, कालचक्ररूपसे विराजमान तथा देवताओंके अधिपति परम पुरुषको मेरा नमस्कार है; मैं आपका ध्यान करता हूँ ॥ 25-28॥
ग्रहों, नक्षत्रों तथा ताराओंके रूपमें भासित होता हुआ भगवान्का आधिदैविकस्वरूप तीनों कालोंमें इस मन्त्रका जप करनेवाले पुरुषोंके पापोंका नाश कर देता है । तीनों कालोंमें भगवान्के इस रूपका वन्दन तथा ध्यान करनेवाले व्यक्तिका उस समयका किया हुआ पाप तत्काल नष्ट हो जाता है ॥ 29 ॥