नारदजी बोले - हे सुरेश्वर कलिके पाँच हजार वर्ष व्यतीत हो जानेपर वे गंगा कहाँ चली गयीं ? हे महाभाग मुझे वह प्रसंग बतानेकी कृपा कीजिये ॥ 1 ॥श्रीनारायण बोले- हे नारद! सरस्वतीके शापके | प्रभावसे वे गंगा भारतवर्षमें आर्यों और पुनः शापकी अवधि बीत जानेपर श्रीहरिको इच्छासे वैकुण्ठ चली गयीं। इसी प्रकार सरस्वती और पद्मावती नदी-स्वरूपियो वे लक्ष्मी भी शापके अन्तमें भारत छोड़कर उन विष्णुके लोकमें चली गयीं ॥ 2-3 ll
हे ब्रह्मन् गंगा, सरस्वती और लक्ष्मी- ये तीनों ही भगवान् श्रीहरिकी भार्याएँ हैं। साथ ही तुलसीसहित भगवान् श्रीहरिकी चार स्त्रियं वेदोंमें कही गयी हैं ॥ 4 ॥
नारदजी बोले - हे भगवन्! विष्णुके चरण कमलोंसे प्रकट होकर वे गंगाजी किस प्रकार ब्रह्माके कमण्डलुमें स्थित हुई और शिवकी प्रियाके रूपमें कैसे विख्यात हुई? हे मुनिश्रेष्ठ वे गंगा भगवान् नारायणकी भी प्रेयसी किस प्रकार हुई, वह सब मुझे बतानेकी कृपा कीजिये ।। 5-6 ।।
श्रीनारायण बोले- [हे नारद!] प्राचीन कालमें द्रवरूपिणी वे गंगा गोलोकमें विराजमान थीं। राधा और श्रीकृष्णके अंगसे आविर्भूत वे गंगा उन्होंके अंश तथा स्वरूपवाली हैं ॥ 7 ॥
जलमयी गंगाकी जो अधिष्ठात्री देवी हैं, वे अनुपम रूप धारणकर पृथ्वीलोकमें आयीं। उनका श्रीविग्रह नूतन यौवनसे सम्पन्न तथा सभी प्रकारके अलंकारोंसे विभूषित था ॥ 8 ॥
शरद् ऋतु मध्याह्नकालमें खिले हुए कमलके समान प्रतीत होनेवाला उनका मुखमण्डल मुसकानसे युक्त तथा अत्यन्त मनोहर था। उनके शरीरका वर्ण तप्त स्वर्णकी आभाके समान तथा कान्ति शरत्कालीन चन्द्रमाके समान थी ॥ 9 ll
वे स्निग्ध प्रभावाली देवी अत्यन्त दयालु मुद्रामें थीं। उनका स्वरूप शुद्ध तथा सात्त्विक था। उनके जयन स्कूल तथा कठोर थे। उनके नितम्बयुगल अत्यन्त सुन्दर थे ॥ 10 ॥
उनका वक्षःस्थल उन्नत, स्थूल, कठोर तथा गोल था। कटाक्षयुक्त तथा वक्राकार उनकी दोनों आँखें बड़ी सुन्दर थीं। मालतीके पुष्प हारसे सुसज्जित | उनके केशपाश घुंघराले थे। उनका ललाट चन्दनकेतिलकके साथ-साथ सिन्दूरकी बिन्दियोंसे सुशोभित हो रहा था। उनके दोनों गण्डस्थलोंपर कस्तूरीसे मनोहर पत्र - रचनाएँ की हुई थीं। उनका अधरोष्ठ बन्धूकके पुष्पके समान अत्यन्त सुन्दर था। उनके दाँतोंकी अति उज्ज्वल पंक्ति पके हुए अनारके दानोंकी भाँति चमक रही थी। वे अग्निके समान पवित्र तथा नीवीयुक्त दो वस्त्र धारण किये हुए थीं। कामभाववाली वे गंगाजी वस्त्रसे मुँह ढँककर लज्जित होती हुई श्रीकृष्णके पास विराजमान हो गयीं और प्रसन्न होकर अपलक नेत्रोंसे प्रभुके मुख-सौन्दर्यका निरन्तर पान करने लगीं। हर्षके कारण नवीन संगमकी लालसासे युक्त उन गंगाका मुखमण्डल प्रसन्नतासे खिल उठा और उनके शरीरका रोम-रोम पुलकित हो गया। प्रभु श्रीकृष्णके रूपसे वे चेतनारहित-सी हो गयी थीं । ll 11 - 163 ॥
इसी बीच राधिका वहाँ आकर विराजमान हो गर्यो। उनके साथ तीस करोड़ गोपियाँ भी थीं। उनके शरीरकी कान्ति करोड़ों चन्द्रमाओंकी प्रभाके समान थी; कोपके कारण उनके मुख तथा नेत्र लाल कमलके समान प्रतीत हो रहे थे; उनके श्रीविग्रहका वर्ण पीले चम्पक-पुष्पके समान आभावाला था; वे मत्त गजराजकी भाँति मन्द गतिवाली थीं; बहुमूल्य रत्नोंसे निर्मित अनेक प्रकारके आभूषणोंसे अलंकृत थीं; वे अपने शरीरपर अमूल्य रत्नोंसे जटित तथा अग्निके समान पवित्र दो नीवीयुक्त बहुमूल्य पीले वस्त्र धारण किये हुए थीं, वे स्थल-कमलकी कान्तिको तिरस्कृत करनेवाले, कोमल, सुरंजित तथा भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा प्रदत्त अर्घ्य से सुशोभित चरण-कमलोंको धीरे-धीरे रख रही थीं; वे देवी सर्वोत्तम रत्नोंसे बने हुए विमानसे उतरकर वहाँ उपस्थित हुई थीं; स्वच्छ चँवरकी वायुसे ऋषियोंके द्वारा उनकी सेवा की जा रही थी; कस्तूरीके बिन्दुओंसे युक्त, चन्दन-मिश्रित, प्रज्वलित दीपकके समान आकारवाला तथा बिन्दुरूपमें शोभायमान सिन्दूर उनके ललाटके मध्य भागमें सुशोभित हो रहा था, उनके सीमन्त (माँग) का निचला भाग परम स्वच्छ था, पारिजातके पुष्पोंकी मालासे सुशोभित अपनीघुंघराली तथा सुन्दर अलकावलीको कँपाती हुई ये स्वयं भी कम्पित हो रही थीं, ऐसी वे राधा रोषके कारण अपने सुन्दर तथा रागयुक्त ओष्ठ कैंपाती हुई भगवान् श्रीकृष्णके पास जाकर रत्नमय सुन्दर सिंहासनपर विराजमान हो गयीं। प्रभु श्रीकृष्णकी प्रिया उन राधाके साथ सखियोंका महान् समुदाय विद्यमान था ।। 17-26 ।।
उन्हें देखते ही भगवान् श्रीकृष्ण आदरपूर्वक उठ खड़े हुए और आश्चर्यपूर्ण मुद्रामें मुसकराते हुए उनसे मधुर बातें करने लगे ॥ 27 ॥
उस समय अत्यन्त भयभीत गोपोंने सिर झुकाकर भगवती राधिकाको प्रणाम किया और फिर वे भक्तिपूर्वक उनकी स्तुति करने लगे। साथ ही परमेश्वर श्रीकृष्णने भी राधिकाकी स्तुति की ॥ 28 ॥
तदनन्तर गंगाने भी तुरन्त उठकर राधिकाकी बहुत स्तुति की। भयभीत उन गंगाने अति विनम्रतापूर्वक राधासे कुशल पूछा ॥ 29 ॥
वे डरके मारे झुककर खड़ी थीं। उनके कण्ठ, ओष्ठ और तालु सूख गये थे। उन्होंने ध्यानपूर्वक भगवान् श्रीकृष्णके चरणकमलकी शरण ली ॥ 30 ॥ अपने हृदयकमलपर स्थित उन गंगाको देखकर भगवान् श्रीकृष्णने उन भयभीत देवीको अभय प्रदान किया सर्वेश्वर श्रीकृष्णसे वर पाकर देवी गंगाका चित्त शान्त हो गया ॥ 31 ॥
तदनन्तर गंगाने राधाको ऊँचे आसनपर विराजमान | देखा। उनका रूप परम मनोहर था, उन्हें देखनेमें सुख प्राप्त हो रहा था और वे ब्रह्मतेजसे देदीप्यमान हो रही थीं ॥ 32 ॥
वे सनातन देवी सृष्टिके आरम्भमें असंख्य ब्रह्माओंकी रचना करनेवाली हैं और नवीन यौवनसे युक्त कन्याके समान सदा बारह वर्षकी अवस्थामें रहती हैं ॥ 33 ॥
सम्पूर्ण विश्वमें रूप तथा गुणमें उनके समान कोई नहीं है। वे परम शान्त, कमनीय, अनन्त, आदि अन्तसे रहित, साध्वी, पवित्र, कल्याणमयी, सुन्दर भाग्यवाली तथा अपने स्वामीके सौभाग्यसे सम्पन्न | रहती हैं। वे सम्पूर्ण सुन्दरियोंमें श्रेष्ठ तथा सौन्दर्यसे सुशोभित हैं ॥ 34-35 ॥वे श्रीकृष्णकी अधौगिनी हैं। तेज, आयु और कान्तिमें वे श्रीकृष्णके ही सदृश है लक्ष्मीपति श्रीविष्णुके द्वारा लक्ष्मीसहित वे महालक्ष्मीस्वरूपा राधिका पूजित हैं॥ 36 ॥
वे राधिका परमात्मा श्रीकृष्णकी प्रभामयी सभाको अपनी कान्तिसे सदा आच्छादित किये रहती हैं। वे सखियोंके द्वारा प्रदत्त दुर्लभ ताम्बूलका सदा सेवन करती रहती हैं ॥ 37 ॥
वे स्वयं अजन्मा होती हुई भी सम्पूर्ण जगत्की जननी हैं। वे भगवान् श्रीकृष्णको प्राणोंसे भी अधिक प्रिय, उनके प्राणोंकी अधिष्ठातृदेवी, धन्य, मान्य तथा मानिनी और मनोरम हैं ॥ 38 ॥
[हे नारद!] उस समय उन रासेश्वरी राधिकाको देखकर सुरेश्वरी गंगा तृप्त नहीं हुई और वे अपलक नेत्रोंसे राधाकी सौन्दर्य पान करने लगीं ॥ 39 ॥ -सुधाका
हे मुने! इसी बीच शान्त तथा विनम्र स्वभाववाली राधा मुसकराकर मधुर वाणीमें जगदीश्वर श्रीकृष्णसे कहने लगीं ll 40 ll
राधा बोलीं- हे प्राणेश! पासमें बैठकर आपके | मुसकानयुक्त मुखकमलको मुसकराकर तिरछी दृष्टिसे देखती हुई यह कामनायुक्त सुन्दरी कौन है? अपना मुख वस्त्रसे ढँककर आपके रूपको बार-बार देखती हुई पुलकित शरीरवाली यह सुन्दरी चेतनारहित हो जाया करती है ॥ 41-42 ॥
आप भी कामनायुक्त होकर उसकी ओर देखकर हँस रहे हैं। मेरे जीवित रहते गोलोकमें ऐसी दुर्वृत्तिवाली स्त्री कैसे आयी ? और आप भी बार-बार दुश्चेष्टा करते जा रहे हैं। कोमल स्वभाववाली स्त्री जाति होनेके कारण प्रेमवश मैं आपको क्षमा कर दे रही हूँ ॥ 43-44 ॥
हे कामी व्रजेश्वर अपनी इस अभीष्ट प्रेयसीको लेकर आप अभी गोलोकसे चले जाइये, अन्यथा आपका कल्याण नहीं है ॥ 45 ll एक बार पूर्वमें मैंने आपको चन्दनवनमें विरजाके साथ देखा था। सखियोंका वचन मानकर मैंने उस समय क्षमा कर दिया था ll 46 llमेरी ध्वनि सुनते ही आप उस समय छिप गये थे। विरजाने वह शरीर त्याग दिया और उसने नदीका रूप धारण कर लिया था ॥ 47 ॥
वे देवी आज भी एक करोड़ योजन चौड़ाई तथा उससे भी चार गुनी लम्बाईवाली आपकी सत्कीर्तिस्वरूपिणी नदीके रूपमें विद्यमान हैं ॥ 48 ॥
मेरे घर चले जानेपर आप पुनः उसके पास जाकर विरजे! विरजे! ऐसा कहते हुए जोर-जोरसे रोने लगे थे ।। 49 ।।
तब उस सिद्धयोगिनीने योगबलके प्रभावसे जलसे बाहर निकलकर अलंकारयुक्त मूर्तिमती सुन्दरीके रूपमें आपको दर्शन दिया था ॥ 50 ॥
उस समय आपने उसमें अपने तेजका आधान किया था और समयानुसार उससे सात समुद्र उत्पन्न हुए ॥ 51 ॥
इसी प्रकार मैंने आपको शोभा नामक गोपीके साथ चम्पक वनमें देखा था। उस समय भी मेरी ध्वनि सुनते ही आप छिप गये थे और वह शोभा शरीर छोड़कर चन्द्रमण्डलमें चली गयी थी तब उसका शरीर परम सुन्दर तथा तेजोमय हो गया था ।। 52-53 ll
तत्पश्चात् आपने दुःखित हृदयसे उस तेजको विभक्त करके कुछ तेज रत्नको, कुछ स्वर्णको, कुछ श्रेष्ठ मणियोंको, कुछ स्त्रियोंके मुखकमलको, कुछ राजाको, कुछ नव पल्लवोंको, कुछ पुष्पोंको, कुछ पके फलोंको, कुछ फसलोंको, कुछ राजाओंके सुसज्जित महलोंको, कुछ नये पत्तोंको और कुछ तेज | दुग्धको प्रदान कर दिया ॥ 54 - 563 ॥
इसी प्रकार मैंने वृन्दावनमें आपको प्रभा नामक | गोपीके साथ देखा था। उस समय आप मेरा शब्द सुनते ही शीघ्रतापूर्वक छिप गये थे और प्रभा अपनी देह त्यागकर सूर्यमण्डलमें चली गयी थी॥ 57-58 ll
उस समय उसका शरीर अत्यन्त तेजोमय हो गया था और आपने रोते-रोते उस तेजको प्रेमपूर्वक विभाजित करके जगह-जगह स्थान प्रदान कर दिया था। हे कृष्ण ! लज्जा तथा मेरे भयके कारण आपकी आँखोंसे निकले हुए उस तेजको आपने कुछ अग्निको,कुछ यक्षोंको, कुछ राजाओंको, कुछ देवताओंको, कुछ विष्णुभक्तोंको, कुछ नागोंको, कुछ ब्राह्मण-मुनि तथा तपस्वियोंको और कुछ तेज सौभाग्यवती स्त्रियों तथा यशस्वी पुरुषोंको प्रदान कर दिया। इस प्रकार इन सबको वह तेज प्रदान करके पूर्व कालमें आपने बहुत रुदन किया था ॥ 59-623 ॥
इसी तरह एक बार मैंने आपको शान्ति नामक गोपीके साथ रासमण्डलमें देखा था । वसन्त ऋतु रत्नमय दीपकोंसे युक्त रत्ननिर्मित महलमें आप माला धारण किये तथा शरीरमें चन्दन लगाकर और विभिन्न प्रकारके आभूषण पहनकर अनेकविध रत्नाभूषणोंसे अलंकृत उसके साथ पुष्पकी शय्यापर विराजमान थे हे विभो। पूर्वकालमें उसने आपको ताम्बूल दिया और आपने उसे प्रेमपूर्वक ग्रहण कर लिया था । ll 63-65 ॥
हे प्रभो ! उस समय मेरा शब्द सुनकर आप तुरन्त छिप गये थे और वह शान्ति भयसे अपना देह त्यागकर आपमें समाविष्ट हो गयी थी ॥ 66 ॥
तब उसका शरीर उत्तम गुणोंके रूपमें परिणत हो गया। तदनन्तर रोते हुए आपने उसे विभाजित करके प्रेमपूर्वक विश्वमें बाँट दिया था। हे प्रभो! उसका कुछ अंश निकुंजमें, कुछ भाग ब्राह्मणोंमें और कुछ भाग मुझ राधामें समाहित हो गया। हे विभो ! फिर आपने उसका कुछ भाग शुद्धस्वरूपा लक्ष्मीको, कुछ भाग अपने मन्त्रके उपासकोंको, कुछ भाग शक्तिकी आराधना करनेवालोंको, कुछ भाग तपस्वियोंको, कुछ भाग धर्मको और कुछ भाग धर्मात्मा पुरुषोंको दे दिया ।। 67-69 ॥
इसी तरह पूर्वकालमें मैंने आपको क्षमा नामक गोपीके साथ देखा था। आप सुन्दर वेष धारण करके, | माला पहनकर तथा शरीरमें गन्ध और चन्दनका लेप करके रत्नोंके आभूषणोंसे अलंकृत और गन्ध चन्दनचर्चित उस क्षमाके साथ पुष्प तथा चन्दनसे सुरभित शय्यापर सुखपूर्वक अचेतावस्थामें विराजमान थे उस निद्राग्रस्त सुन्दरीके साथ आप सुखपूर्वक क्रीडामें संसक थे। उसी समय पहुँचकर मैंने उस क्षमाको तथा आपको जगाया था, इस बातको आप स्मरण कीजिये ॥ 70-72 ॥उस समय मैंने आपका पीताम्बर, मनोहर मुरली, वनमाला, कौस्तुभ और बहुमूल्य रत्नमय कुण्डल ले लिया था। किंतु बादमें सखियोंके प्रेमपूर्वक कहनेपर उसे आपको लौटा दिया था। हे प्रभो! उस समय आप लज्जा तथा पापसे कृष्णवर्णके हो गये थे । ll 73-74 ।।
तत्पश्चात् लज्जाके कारण क्षमा अपना शरीर त्यागकर पृथ्वीमें समा गयी और उसका शरीर उत्तम गुणोंके रूपमें परिणत हो गया। तब रोते हुए | आपने उस क्षमाका विभाजन करके उसे प्रेमपूर्वक अनेक लोगोंको दे दिया। उसका कुछ अंश विष्णुको, कुछ विष्णुभकोंको, कुछ धार्मिक पुरुषोंको, कुछ धर्मको, कुछ दुर्बलोंको, कुछ तपस्वियोंको, कुछ देवताओंको और कुछ भाग पण्डितोंको आपने दे दिया था ॥ 75–77 ॥
हे प्रभो! यह सब मैंने आपको बता दिया। अब आप और क्या सुनना चाहते हैं? आपके और भी बहुत से बड़े-बड़े गुण हैं, किंतु मैं सब नहीं जानती ॥ 78 ॥
श्रीकृष्णसे ऐसा कहकर लालकमलके समान नेत्रोंवाली उन राधाने नीचेकी ओर मुख की हुई | लज्जित साध्वी गंगासे कहना आरम्भ किया, तभी सिद्धयोगिनी वे गंगा योगके द्वारा सभी रहस्य समझकर सभाके मध्य अन्तर्धान होकर अपने जलमें प्रविष्ट हो गर्यो ।। 79-80 ॥
तब सिद्धयोगिनी राधा योगबलके प्रभावसे इस | रहस्यको जानकर सर्वत्र विद्यमान उन जलस्वरूपिणी गंगाको अंजलिसे उठाकर मुँहसे पान करने लगीं ॥ 81 ॥ तत्पश्चात् सिद्धयोगिनी गंगा योगबलसे इस रहस्यको जान लेनेके उपरान्त भगवान् श्रीकृष्णके चरणकमलमें प्रवेश कर गर्यो और उनके शरणागत हो गर्यो ॥ 82 ॥ तब राधाने गोलोक, वैकुण्ठ तथा ब्रह्मलोक आदि सभी स्थानोंमें गंगाको खोजा, किंतु उन्हें कहीं भी गंगा दिखायी नहीं दीं ॥ 83 ll
उस समय सर्वत्र जलका अभाव हो गया तथा सूखा कीचड़ और गोला दिखायी दे रहा था, जो जलचर जन्तुओंके मृत शरीरोंसे युक्त था ॥ 84 ॥ब्रह्मा, विष्णु, शिव, अनन्त, धर्म, इन्द्र, चन्द्रमा, सूर्य, मनु, मुनिवृन्द, देवता, सिद्ध और तपस्वी ये सभी गोलोक चले गये। उस समय उनके कण्ठ, ओष्ठ और तालु सूख गये थे। वहाँ पहुँचकर उन सबने प्रकृति से भी परे, सर्वेश्वर श्रेष्ठ, पूज्य, वरदायक, वरिष्ठ, वरके कारणस्वरूप, सभी गोपों तथा गोपिकाओंके समुदायमें सर्वश्रेष्ठ, कामनारहित, निराकार, आसक्तिहीन, निराश्रय, निर्गुण, निरुत्साह, निर्विकार, निर्दोष, अपनी इच्छासे साकार रूपमें प्रकट होनेवाले, भक्तोंपर कृपा करनेवाले, सत्त्वस्वरूप, सत्येश, सबके साक्षीस्वरूप तथा सनातन प्रभु श्रीकृष्णको प्रणाम किया। उन परम परमेश्वर परमात्मा सर्वेश्वर श्रीकृष्णको प्रणाम करके वे सब भक्तिके कारण अपने मस्तक झुकाकर उनकी स्तुति करने लगे। उस समय उनकी वाणी गद्गद हो गयी थी, उनकी आँखोंमें आँसू भर आये थे और उनके शरीरके रोम-रोम पुलकित हो गये थे ।। 85-90 3 ।।
इस प्रकार उन सबने सर्वेश्वर, परात्पर, ज्योतिर्मय विग्रहवाले, परब्रह्म तथा सभी कारणोंके भी कारण, बहुमूल्य रत्नोंसे निर्मित, विचित्र सिंहासनपर विराजमान, गोपालोंके द्वारा श्वेत चंवर डुलाकर सेवा किये जाते हुए, प्रसन्नतापूर्वक मुसकराते हुए गोपिकाओंका नृत्यसंगीत देखने में संलग्न, राधाके लिये प्राणोंसे भी अधिक प्रिय राधाके वक्षःस्थलमें स्थित तथा उन राधाके द्वारा दिये गये सुवासित ताम्बूलका सेवन करते हुए उन परिपूर्णतम सुरेश्वर भगवान्की स्तुति करके उन्हें रासमण्डलमें विराजमान देखा। सभी मुनि, स्वायम्भुव आदि मनु, सिद्ध और तपस्वी महात्मा प्रसन्नचित्त हो गये, उन्हें महान् आश्चर्य हुआ। एक-दूसरेको देखकर वे सभी लोग जगत्प्रभु चतुर्मुख ब्रह्मासे अपना वांछित अभिप्राय | कहने लगे । ll 91 - 963 ॥
उनका वचन सुनकर ब्रह्माजी भगवान् विष्णुको दाहिने और महादेवको बायें करके परम आनन्दसे परिपूर्ण श्रीकृष्ण तथा परमानन्दस्वरूपिणी राधाके पास पहुँचे ॥ 97-98 ॥उस समय ब्रह्माजीने रासमण्डलमै सब कुछ श्रीकृष्णमय देखा। सबकी वेष-भूषा एक समान श्री सभी लोग समान आसनपर विराजमान थे, सभी लोग ने दो भुजाओंवाले श्रीकृष्णके रूपमें हाथमें मुरली से रखी थी, सभी लोग वनमालासे सुशोभित थे, सबके मुकुटमें मोर के पंख लगे थे, सभी लोग कौस्तुभमणिसे शोभायमान हो रहे थे, गुण-भूषण-रूप-तेज-आयु और कान्तिसे सम्पन्न उन सबका विग्रह अत्यन्त कोमल, सुन्दर तथा शान्त था, सब-के-सब परिपूर्णतम और सम्पूर्ण ऐश्वयसे सम्पन्न थे, उन्हें देखकर कौन सेव्य है तथा सेवक है, यह बता सकनेमें वे ब्रह्मा असमर्थ थे, भगवान् श्रीकृष्ण क्षणभरमें तेजः स्वरूप हो जाते थे और क्षणभरमें ही विग्रहवान् होकर आसनपर विराजित हो जाते थे, इस प्रकार ब्रह्माजीने एक ही क्षणमें उनके साकार तथा निराकार दोनों प्रकारके रूपों को देखा ।। 99 - 103 ।।
तदनन्तर एक ही क्षणमें ब्रह्माजीने देखा कि वे परमेश्वर श्रीकृष्ण राधासे रहित हैं और फिर उसी क्षण वे राधिकाके साथ प्रत्येक आसनपर विराजमान दिखायी देने लगे। ब्रह्माजीने श्रीकृष्णको राधाका रूप धारण किये हुए तथा राधाको श्रीकृष्णका रूप धारण किये हुए देखा। इस प्रकार वहाँ कौन स्त्रीरूपमें तथा कौन पुरुषरूपमें है-इस रहस्यको जाननेमें वे ब्रह्मा भी अक्षम हो गये । 104-105 ।।
तत्पश्चात् ब्रह्माजीने अपने हृदयकमलपर विराजमान श्रीकृष्णका ध्यान करके ध्याननेत्रसे उनका दर्शन किया और स्त्री-पुंभावविषयक संशयका अनेक प्रकारसे निराकरण करते हुए भक्तिपूर्वक उनका स्तवन किया ॥ 106 ॥
इसके बाद भगवान्की आज्ञासे उन्होंने अपने नेत्र खोलकर देखा कि वे अद्वितीय श्रीकृष्ण राधिकाके वक्षःस्थलपर स्थित हैं, वे अपने पार्षदोंसे घिरे हुए | और गोपिकाओंके समुदायसे सुशोभित हो रहे हैं। | तदनन्तर उन ब्रह्मा आदि देवताओंने परमेश्वर श्रीकृष्णका | दर्शन करके उन्हें प्रणाम किया और फिर उनकी स्तुति हैं की ।। 107-108 ।।तदनन्तर सभी प्राणियोंके आत्मस्वरूप, सब कुछ जाननेवाले, सर्वेश्वर तथा सबका सृजन करनेवाले लक्ष्मीपति भगवान् श्रीकृष्ण उन देवताओंका अभिप्राय समझकर उनसे कहने लगे ॥ 109 ॥
श्रीभगवान् बोले- हे ब्रह्मन् ! आपका कुशल हो, आइये। हे कमलापते! आइये। हे महादेव ! यहाँ आइये। आप लोगोंका सदा कुशल हो। आप सभी महाभाग गंगाको ले जानेके लिये यहाँ आये हुए हैं, किंतु गंगाजी तो इस समय भयभीत होकर मेरे चरणकमलमें शरणागत हो गयी हैं। जब वे गंगा मेरे सांनिध्यमें थी, तब उन्हें देखकर पी जानेके लिये राधिका उद्यत हो गयी थीं, इसलिये वे मेरे सांनिध्यमें आ गयीं। मैं आपलोगोंको उन्हें अवश्य दे दूँगा, किंतु आपलोग पहले उन्हें भयमुक्त कीजिये ।। 110 - 112 ॥
[हे नारद!] श्रीकृष्णकी यह बात सुनकर कमलयोनि ब्रह्मा मुसकराने लगे और वे भक्तिके कारण अपना मस्तक झुकाकर चारों मुखोंसे सबकी आराध्या तथा श्रीकृष्णके द्वारा सुपूजित राधिकाकी स्तुति करने लगे। उनकी स्तुति करके चारों वेदोंको धारण करनेवाले चतुर्मुख ब्रह्मा राधासे इस प्रकार कहने लगे ॥ 113 - 114॥
चतुरानन बोले- भगवान् शंकरकी संगीत ध्वनिसे मुग्ध आपके तथा प्रभु श्रीकृष्णके द्रवरूपमें | परिणत हुए अंगसे वह गंगा रासमण्डलमें प्रकट हुई थीं ॥ 115 ॥
अतः आप तथा श्रीकृष्णके अंशस्वरूप होनेके कारण आपकी प्रिय पुत्रीके तुल्य ये गंगा आपका मन्त्र ग्रहण करके आपकी पूजा करें। [ इसके फलस्वरूप] वैकुण्ठके अधिपति चतुर्भुज भगवान् श्रीहरि इनको पतिके रूपमें प्राप्त होंगे और साथ ही अपनी एक कलासे जब ये भूमण्डलपर जायँगी, उस समय लवणसमुद्र भी इनके पति बनेंगे ।। 116-117॥
हे अम्बिके! ये गंगा जैसे गोलोकमें हैं, वैसे ही इन्हें सर्वत्र रहना चाहिये। आप देवेश्वरी इनकी माता हैं और वे सदा आपकी पुत्री हैं ॥ 118 ॥[हे नारद!] ब्रह्माका यह वचन सुनकर राधाने हँसते हुए सभी बातें स्वीकार कर लीं। तब वे गंगा श्रीकृष्ण के चरणके अँगूठेके नखके अग्रभागसे बाहर निकलीं। वहाँ सब लोगोंने उनका सत्कार किया और वे सबके मध्य शान्त होकर स्थित रहीं। तब जलस्वरूप गंगाकी अधिष्ठात्री देवी जलसे निकलकर वहीं पर विराजमान हो गयीं ।। 119-120 ॥
उस समय ब्रह्माजीने गंगाका कुछ जल अपने कमण्डलुमें रख लिया और कुछ जल चन्द्रशेखर भगवान् शिवने अपने मस्तकपर धारण कर लिया ॥ 121 ॥
तदनन्तर कमलयोनि ब्रह्माने गंगाको राधा-मन्त्र प्रदान किया और उन्हें राधाके स्तोत्र, कवच, ध्यान और पूजाकी विधि तथा पुरश्वर्याक्रम इन सभी सामवेद प्रतिपादित अनुष्ठानोंके विषयमें बतलाया। गंगाने इन नियमोंके द्वारा उन राधाकी विधिवत् पूजा करके नारायणके साथ वैकुण्ठके लिये प्रस्थान किया ।। 122-123 ॥
हे मुने! लक्ष्मी, सरस्वती, गंगा और विश्वपावनी तुलसी ये चारों देवियाँ भगवान् नारायणकी ही पत्नियाँ हैं ॥ 124 ॥
इसके बाद वे श्रीकृष्ण हंसकर उन ब्रह्माको दुर्बोध, सूक्ष्म तथा सामयिक वृत्तान्त बताने लगे ॥ 125 ॥
श्रीकृष्ण बोले- हे ब्रह्मन्! आप गंगाको ग्रहण कीजिये। हे विष्णो! हे महेश्वर! हे ब्रह्मन् ! आपलोग ध्यानपूर्वक कालका वृत्तान्त मुझसे सुनिये। ll 126 ।।
आपलोग तथा अन्य देवता, मुनि, मनुगण, सिद्ध तथा यशस्वीजन-जो-जो यहाँ आये हुए हैं-केवल ये लोग ही कालचक्र प्रभावसे रहित इस गोलोकमें जीवित हैं। इस समय कल्पक्षयके कारण सम्पूर्ण विश्व जलमें आप्लावित हो गया है। अन्य ब्रह्माण्डों में रहनेवाले जो ब्रह्मा आदि देवता है, वे मुझमें विलीन हो गये हैं। हे पद्मज! इस समय केवल वैकुण्ठको छोड़कर सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड जलमें डूबा हुआ है। आप जाकर ब्रह्मलोक आदि लोकोंकी पुनः सृष्टि कीजिये। आप अपने ब्रह्माण्डकी रचना कीजिये, इसके बाद गंगा वहाँ जायेंगी ॥ 127 - 130 ॥इसी प्रकार इस सृष्टिके अवसरपर मैं अन्य ब्रह्माण्डों में भी ब्रह्मा आदिकी रचनाका प्रयत्न कर रहा हूँ। अब आप देवताओंके साथ यहाँसे शीघ्र जाइये। आपका बहुत समय बीत चुका है, न जाने कितने ब्रह्मा समाप्त हो गये और न जाने कितने ब्रह्मा अभी होंगे ।। 131-132 ॥
हे मुने! ऐसा कहकर राधिकानाथ भगवान् श्रीकृष्ण अन्तःपुरमें चले गये और ब्रह्मा आदि देवता वहाँसे चलकर प्रयत्नपूर्वक सृष्टिकार्यमें संलग्न हो गये ॥ 133 ॥
तब गोलोक, वैकुण्ठ, शिवलोक और ब्रह्मलोक तथा अन्यत्र भी जिस-जिस स्थानपर गंगाको रहनेके लिये परमात्मा श्रीकृष्णने आज्ञा दी थी, उस-उसपर वे गंगा चली गयीं। वे गंगा भगवान् विष्णुके निकली हैं, इसलिये वे विष्णुपदी कही गयी हैं ।। 134 - 135 ॥
हे ब्रह्मन् ! इस प्रकार मैंने आपसे गंगाके इस सर्वोत्तम, सुखदायक, मोक्षप्रद तथा सारगर्भित उपाख्यानका वर्णन कर दिया। अब आप पुनः क्या सुनना चाहते हैं ? ॥ 136 ॥