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देवी भागवत महापुराण ( देवी भागवत)

Devi Bhagwat Purana (Devi Bhagwat Katha)

स्कन्ध 3, अध्याय 28 - Skand 3, Adhyay 28

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श्रीरामचरित्रवर्णन

जनमेजय बोले- श्रीरामने भगवती जगदम्बाके इस सुखप्रदायक व्रतका अनुष्ठान किस प्रकार किया, वे राज्यच्युत कैसे हुए और फिर सीता हरण किस प्रकार हुआ ? ॥ 1 ॥

व्यासजी बोले- पूर्वकालमें श्रीमान् महाराज दशरथ अयोध्यापुरीमें राज्य करते थे। वे सूर्यवंशमें श्रेष्ठ राजाके रूपमें प्रतिष्ठित थे और वे देवताओं तथा ब्राह्मणोंका पूजन किया करते थे ॥ 2 ॥

उनके चार पुत्र उत्पन्न हुए; जो लोकमें राम, लक्ष्मण, भरत तथा शत्रुघ्न नामसे विख्यात हुए। गुण तथा रूपमें पूर्ण समानता रखनेवाले वे सभी महाराज दशरथको अत्यन्त प्रिय थे उनमें राम महारानी कौसल्याके तथा भरत महारानी कैकेयीके पुत्र कहे गये। रानी सुमित्राके लक्ष्मण तथा शत्रुघ्न नामवाले जुड़वाँ पुत्र उत्पन्न हुए। वे चारों किशोरावस्थामें ही धनुष-बाणधारी हो गये ll 3-5 ll

महाराज दशरथने सुख बढ़ानेवाले अपने चारों पुत्रोंके संस्कार भी सम्पन्न कर दिये। तब एक समय महर्षि विश्वामित्र ने दशरथके यहाँ आकर उनसे रघुनन्दन रामको माँगा ॥ 6 ॥

महाराज दशरथने यज्ञकी रक्षाके लिये लक्ष्मण सहित सोलहवर्षीय पुत्र रामको विश्वामित्रको समर्पित कर दिया ॥ 7 ॥

प्रियदर्शन वे दोनों भाई मुनिके साथ मार्ग में चल दिये। रामचन्द्रजीने मुनियोंको सदा पीड़ित करनेवाली तथा अत्यन्त भयानक रूपवाली ताटकाकोरास्तेमें ही मात्र एक बाणसे मार डाला। उन्होंने दुष्ट सुबाहुका वध किया तथा मारीचको अपने बाणसे दूर फेंककर उसे मृतप्राय कर दिया और यज्ञ-रक्षा की। इस प्रकार यज्ञ- रक्षाका महान् कृत्य सम्पन्न करके राम, लक्ष्मण तथा विश्वामित्रने मिथिलापुरीके लिये प्रस्थान किया। जाते समय मार्गमें रामने अबला अहल्याको शापसे मुक्ति प्रदान करके उसे पापरहित कर दिया ॥ 8-11 ॥

इसके बाद वे दोनों भाई मुनि विश्वामित्रके साथ जनकपुर पहुँच गये और वहाँ श्रीरामने जनकजीद्वारा प्रतिज्ञाके रूपमें रखे शिव-धनुषको तोड़ दिया और लक्ष्मीके अंशसे उत्पन्न जनकनन्दिनी सीताके साथ विवाह किया। राजा जनकने दूसरी पुत्री उर्मिलाका विवाह लक्ष्मणके साथ कर दिया ॥ 12-13 ।।

शीलसम्पन्न तथा शुभलक्षणोंसे युक्त दोनों भाई भरत तथा शत्रुघ्नने कुशध्वजकी दो पुत्रियों [माण्डवी तथा श्रुतकीर्ति ] को पत्नीरूपमें प्राप्त किया ॥ 14 ॥ हे राजन् इस प्रकार उन चारों भाइयोंका विवाह मिथिलापुरीमें ही विधि-विधानसे सम्पन्न हुआ ।। 15 ।।

तत्पश्चात् महाराज दशरथने अपने बड़े पुत्र रामको राज्य करनेयोग्य देखकर उन्हें राज्य भार सौंपनेका मनमें निश्चय किया 16 ।। राजतिलक सम्बन्धी सामग्रियोंका प्रबन्ध हुआ देखकर रानी कैकेयीने अपने वशीभूत महाराज | दशरथसे पूर्वकल्पित दो वरदान माँगे ॥ 17 ॥

उसने पहले वरदानके रूपमें अपने पुत्र भरतके लिये राज्य तथा दूसरे वरदानके रूपमें महात्मा रामको चौदह वर्षोंका वनवास माँगा ॥ 18 ll

कैकेयीका वचन मानकर श्रीरामचन्द्रजी सीता तथा लक्ष्मणके साथ दण्डकवन चले गये, जहाँ राक्षस रहते थे ॥ 19 ॥

तदनन्तर पुत्रके वियोगजनित शोक सन्तप्त पुण्यात्मा दशरथने पूर्वकालमें एक ऋषिद्वारा प्रदत्त शापका स्मरण करते हुए अपने प्राण त्याग दिये ॥ 20 ॥माता कैकेयीके कृत्यके कारण पिताजीकी मृत्यु देखकर भरतजीने भाई श्रीरामका हित करनेकी इच्छासे अयोध्याका समृद्ध राज्य स्वीकार नहीं किया ॥ 21 ॥

उधर पंचवटीमें निवास करते हुए श्रीरामने रावणकी छोटी बहन अतिशय कामातुर शूर्पणखाको कुरूप बना दिया ॥ 22 ॥

तब खर-दूषण आदि राक्षसोंने उसे कटी हुई नासिकावाली देखकर अमित तेजस्वी रामके साथ घोर संग्राम किया ॥ 23 ॥

उस संग्राममें सत्यपराक्रमी श्रीरामने मुनियोंका कल्याण करनेकी इच्छासे अत्यन्त बलशाली खर आदि राक्षसोंका संहार कर दिया ॥ 24 ॥

तत्पश्चात् लंका जाकर उस दुष्ट शूर्पणखाने रामके द्वारा खर-दूषणके संहारका समाचार रावणसे बताया ॥ 25 ॥ वह दुष्ट रावण भी संहारके विषयमें सुनकर अत्यन्त क्रोधित हो उठा और तब रथपर सवार होकर वह मारीचके आश्रम में पहुँच गया ।। 26 ।। सीता हरणके उद्देश्यसे रावणने मायावी मारीचको असम्भव स्वर्ण-‍ -मृग बनाकर सीताको प्रलोभित करनेके लिये भेजा 27

तत्पश्चात् वह मायावी मारीच अत्यन्त अद्भुत अंगोंवाला स्वर्ण मृग बनकर चरते चरते सीताजीके सन्निकट पहुँच गया और उन्होंने उसे देख लिया ॥ 28 ॥

उसे देखकर दैवी प्रेरणासे स्वाधीनपतिका स्त्रीकी भाँति सीताने श्रीरामसे कहा- हे कान्त! आप इस मृगका धर्म ले आइये ॥ 29 ॥

राम भी बिना कुछ सोचे-समझे लक्ष्मणको सीताके रक्षार्थ वहीं छोड़कर धनुष तथा बाण लेकर उस मुगके पीछे-पीछे दौड़ पड़े ॥ 30 ॥

करोड़ों प्रकारकी माया रचनेका ज्ञान रखनेवाला मृगरूपधारी वह मारीच भी रामको अपने पीछे दौड़ता देखकर कभी दिखायी पड़ते हुए तथा कभी आँखों से ओझल होते हुए एक बनसे दूसरे वनमें बहुत दूर चला गया ॥ 31 ॥

रामने अब उसे हस्तगत समझकर क्रोधपूर्वक धनुष खींचकर अत्यन्त तीक्ष्ण बाणसे उस कृत्रिम मृगको मार डाला ॥ 32 ॥रामके प्रबल प्रहारसे आहत होकर वह मरणोन्मुख मायावी तथा नीच मृग चीख-चीखकर चिल्लाने लगा-हा लक्ष्मण ! अब मैं मारा गया ॥ 33 ॥ उसके गगन भेदी चीत्कारकी ध्वनिको सीताने

सुन लिया। यह तो रामकी पुकार है' ऐसा मानकर उन्होंने दुःखी होकर देवर लक्ष्मणसे कहा- हे लक्ष्मण! ऐसा प्रतीत होता है कि वे रघुनन्दन राम आहत हो गये हैं। अतः तुम शीघ्र जाओ। हे सुमित्रानन्दन! वे तुम्हें पुकार रहे हैं; वहाँ शीघ्र ही पहुँचकर उनकी सहायता करो ।। 34-35 ।।

तब लक्ष्मणजीने सीतासे कहा- हे माता! रामका वध ही क्यों न हो; मैं आपको इस आश्रम में इस समय असहाय छोड़कर वहाँ नहीं जा सकता है जनकनन्दिनि! मुझे रामकी आज्ञा है कि तुम इसी आश्रम में रहना। | उनकी आज्ञाका उल्लंघन करनेमें मैं डरता हूँ । अतः आपका सामीप्य नहीं छोड़ सकता। हे शुचिस्मिते! वह मायावी भगवान् श्रीरामको बहुत दूर दौड़ा ले गया है- यह जान करके मैं आपको छोड़कर यहाँसे एक पग भी नहीं जा सकता। आप धैर्य धारण कीजिये। मैं तो ऐसा मानता हूँ कि इस समय सम्पूर्ण पृथ्वीलोक में श्रीरामको मारनेमें कोई समर्थ नहीं है। रामके आदेशका उल्लंघन करके तथा आपको यहाँ छोड़कर मैं नहीं जाऊँगा ॥ 36-39 ॥

व्यासजी बोले- तत्पश्चात् सुन्दर दाँतोंवाली तथा सौम्य स्वभाववाली सीताने दैवसे प्रेरित होकर शुभ लक्षणसम्पन्न लक्ष्मणसे रोते हुए यह कठोर वचन कहा- ॥ 40 ॥

हे सुमित्रातनय! अब मैं जान गयी कि तुम मेरे प्रति अनुरागयुक्त हो और भरतकी प्रेरणासे मेरे प्रयोजनसे यहाँ आये हो ॥ 41 ॥

हे कुहकाधम। मैं उस तरहकी स्वच्छन्द स्त्री नहीं हूँ। मैं रामके मृत हो जानेपर भी सुखके लिये तुम्हें अपना पति कभी नहीं बना सकती ॥ 42 ॥ यदि राम नहीं लौटेंगे तो मैं अपना प्राण त्याग दूंगी क्योंकि उनके बिना में विधवा होकर अत्यधिक दुःखी जीवन नहीं जी सकती ॥ 43 ॥हे लक्ष्मण! तुम जाओ या रहो। मुझे तुम्हारीश्रीभागवत वास्तविक इच्छाका पता नहीं है। धर्मपरायण ज्येष्ठ भाईके प्रति आपका प्रेम अब कहाँ चला गया ? ॥। 44 ।। सीताका वह वचन सुनकर लक्ष्मणके मनमें अत्यधिक कष्ट हुआ। रुदनके कारण रुँधे कण्ठसे उन्होंने जनकनन्दिनी सीतासे कहा- ॥ 45 ॥

हे भूमिकन्ये! आप इस प्रकारके अति कठोर वचन मेरे लिये क्यों कह रही हैं? मेरा मन तो यह कह रहा है कि आपके समक्ष कोई अनिष्टकर परिस्थिति उत्पन्न होनेवाली है ॥ 46 ॥

[व्यासजीने कहा-] हे महाराज जनमेजय ! ऐसा कहकर अत्यधिक विलाप करते हुए वीर लक्ष्मण सीताको वहीं छोड़कर चल दिये और अत्यधिक शोकाकुल होकर बड़े भाई रामको चारों ओर देखते हुए आगेकी ओर बढ़ते गये ॥ 47 ॥

इस प्रकार लक्ष्मणके वहाँसे चले जानेपर कपट स्वभाववाले रावणने साधु-वेष धारणकर उस आश्रममें प्रवेश किया 48 ॥

जानकी उस दुष्टात्मा रावणको संन्यासी समझकर आदरपूर्वक वन्य सामग्रियोंका अर्घ्य प्रदान करके भिक्षा देने लगीं ॥ 49 ॥

तब उस दुरात्माने अत्यन्त विनम्र भावसे मधुर वाणीमें सीताजी से पूछा- हे पद्मपत्रके समान नेत्रोंवाली प्रिये! तुम कौन हो और इस वनमें अकेली क्यों रह रही हो ? ॥ 50 ॥ हे वामोरु ! तुम्हारे पिता कौन हैं और तुम्हारे

भाई तथा पति कौन हैं? हे सुन्दरि ! तुम एक मूढ़ स्त्रीकी भाँति यहाँ अकेली क्यों रह रही हो ? ॥ 51 ॥

हे प्रिये। इस निर्जन वनमें क्यों रह रही हो ? तुम तो महलोंमें निवास करनेयोग्य हो। देवकन्याके समान कान्तिवाली तुम एक मुनिपत्नीकी भाँति इस कुटिया में क्यों रह रही हो ? ॥ 52 ॥

व्यासजी बोले- [हे राजन्!] उसका यह वचन सुनकर विदेहतनया सीताजीने मन्दोदरीके पति रावणको दैववश एक दिव्य संन्यासी समझकर उत्तर दिया ॥ 53 ॥दशरथ नामक लक्ष्मीसम्पन्न एक राजा हैं, उनके चार पुत्र हैं। उनमें सबसे बड़े पुत्र जो 'राम' नामसे विख्यात हैं, वे ही मेरे पति हैं ॥ 54 ॥

कैकेयीने महाराज दशरथसे वरदान माँगकर रामको चौदह वर्षके लिये वनवास दिला दिया। वे अपने भाई लक्ष्मणके साथ अब यहाँपर रह रहे हैं ॥ 55 ॥

मैं राजा जनककी पुत्री हूँ तथा 'सीता' नामसे विख्यात हूँ। शिवजीका धनुष तोड़कर श्रीरामने मेरा पाणिग्रहण किया है ॥ 56

उन्हीं रामके बाहुबलका आश्रय लेकर मैं निर्भीक होकर इस वनमें रहती हूँ। एक स्वर्ण मृग देखकर उसे मारनेके लिये मेरे पति गये हुए हैं ॥ 57 ॥ अपने भाईका शब्द सुनकर लक्ष्मण भी इस समय उधर ही गये हुए हैं। उन्हीं दोनोंके बाहुबलसे मैं यहाँ निडर होकर रहती हूँ ॥ 58 ॥ मैंने आपको वनवास सम्बन्धी अपना सम्पूर्ण वृत्तान्त बता दिया। अब वे लोग यहाँ आकर आपका विधिपूर्वक सत्कार करेंगे ।। 59 ।।

संन्यासी विष्णुस्वरूप होता है, इसीलिये मैंने आपकी पूजा की है। राक्षसोंके समुदायद्वारा सेवित इस भयंकर जंगलमें यह आश्रम बना हुआ है। | इसलिये मैं आपसे यह पूछती हूँ कि त्रिदण्डीके रूपमें इस वनमें पधारे हुए आप कौन हैं? आप मेरे समक्ष सत्य कहिये ॥ 60-61 ॥

रावण बोला- हे हंसनयने! मैं मन्दोदरीका पति तथा लंकाका नरेश श्रीमान् रावण हूँ। हे सुन्दर आकृतिवाली! तुम्हारे लिये ही मैंने इस प्रकारका वेष बनाया है ॥ 62 ॥

हे सुन्दरि जनस्थानमें अपने भाई खर-दूषणके मारे जानेका समाचार सुनकर तथा अपनी बहन शूर्पणखाद्वारा प्रेरित किये जानेपर मैं यहाँ आया हूँ ॥ 63 ॥

अब तुम उस राज्यच्युत, लक्ष्मीहीन, निर्बल, वनवासी तथा मानवयोनिवाले पतिको छोड़कर मुझ राजाको स्वीकार कर लो ।। 64 ।।तुम मेरी बात मानकर मन्दोदरीसे भी बड़ी पटरानी बन जाओ, मैं सत्य कहता हूँ। हे तन्वंगि ! तुम्हारा दास हूँ। हे भामिनि ! तुम मेरी स्वामिनी हो जाओ ॥ 65 ॥

समस्त लोकपालोंपर विजय प्राप्त करनेवाला मैं तुम्हारे चरणोंपर पड़ता हूँ। हे जनकनन्दिनि ! तुम | इस समय मेरा हाथ पकड़ लो और मुझे सनाथ कर दो ॥ 66 ॥

हे अबले! मैंने पहले भी तुम्हारे पिता जनकसे तुम्हें प्राप्त करनेके लिये याचना की थी, किंतु उस समय उन्होंने मुझसे यह कहा था कि मैं [ धनुषभंगकी ] | शर्त रख चुका हूँ ॥ 67 ॥

शंकरजीके धनुषके भयके कारण मैं उस समय स्वयंवरमें सम्मिलित नहीं हुआ था। उसी समयसे विरह-वेदनासे पीड़ित मेरा मन तुममें ही लगा हुआ है ॥ 68 ॥

हे श्याम नयनोंवाली! तुम इस वनमें रह रही हो यह सुनकर तुम्हारे प्रति पूर्व प्रेमके अधीन हुआ मैं यहाँ आया हूँ; अब तुम मेरा परिश्रम सार्थक कर दो ।। 69 ।।

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देवी भागवत महापुराण
Index


  1. [अध्याय 1] राजा जनमेजयका ब्रह्माण्डोत्पत्तिविषयक प्रश्न तथा इसके उत्तरमें व्यासजीका पूर्वकालमें नारदजीके साथ हुआ संवाद सुनाना
  2. [अध्याय 2] भगवती आद्याशक्तिके प्रभावका वर्णन
  3. [अध्याय 3] ब्रह्मा, विष्णु और महेशका विभिन्न लोकोंमें जाना तथा अपने ही सदृश अन्य ब्रह्मा, विष्णु और महेशको देखकर आश्चर्यचकित होना, देवीलोकका दर्शन
  4. [अध्याय 4] भगवतीके चरणनखमें त्रिदेवोंको सम्पूर्ण ब्रह्माण्डका दर्शन होना, भगवान् विष्णुद्वारा देवीकी स्तुति करना
  5. [अध्याय 5] ब्रह्मा और शिवजीका भगवतीकी स्तुति करना
  6. [अध्याय 6] भगवती जगदम्बिकाद्वारा अपने स्वरूपका वर्णन तथा 'महासरस्वती', 'महालक्ष्मी' और 'महाकाली' नामक अपनी शक्तियोंको क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु और शिवको प्रदान करना
  7. [अध्याय 7] ब्रह्माजीके द्वारा परमात्माके स्थूल और सूक्ष्म स्वरूपका वर्णन; सात्त्विक, राजस और तामस शक्तिका वर्णन; पंचतन्मात्राओं, ज्ञानेन्द्रियों, कर्मेन्द्रियों तथा पंचीकरण क्रियाद्वारा सृष्टिकी उत्पत्तिका वर्णन
  8. [अध्याय 8] सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुणका वर्णन
  9. [अध्याय 9] गुणोंके परस्पर मिश्रीभावका वर्णन, देवीके बीजमन्त्रकी महिमा
  10. [अध्याय 10] देवीके बीजमन्त्रकी महिमाके प्रसंगमें सत्यव्रतका आख्यान
  11. [अध्याय 11] सत्यव्रतद्वारा बिन्दुरहित सारस्वत बीजमन्त्र 'ऐ-ऐ' का उच्चारण तथा उससे प्रसन्न होकर भगवतीका सत्यव्रतको समस्त विद्याएँ प्रदान करना
  12. [अध्याय 12] सात्त्विक, राजस और तामस यज्ञोंका वर्णन मानसयज्ञकी महिमा और व्यासजीद्वारा राजा जनमेजयको देवी यज्ञके लिये प्रेरित करना
  13. [अध्याय 13] देवीकी आधारशक्तिसे पृथ्वीका अचल होना तथा उसपर सुमेरु आदि पर्वतोंकी रचना, ब्रह्माजीद्वारा मरीचि आदिकी मानसी सृष्टि करना, काश्यपी सृष्टिका वर्णन, ब्रह्मलोक, वैकुण्ठ, कैलास और स्वर्ग आदिका निर्माण; भगवान् विष्णुद्वारा अम्बायज्ञ करना और प्रसन्न होकर भगवती आद्या शक्तिद्वारा आकाशवाणीके माध्यमसे उन्हें वरदान देना
  14. [अध्याय 14] देवीमाहात्म्यसे सम्बन्धित राजा ध्रुवसन्धिकी कथा, ध्रुवसन्धिकी मृत्युके बाद राजा युधाजित् और वीरसेनका अपने-अपने दौहित्रोंके पक्षमें विवाद
  15. [अध्याय 15] राजा युधाजित् और वीरसेनका युद्ध, वीरसेनकी मृत्यु, राजा ध्रुवसन्धिकी रानी मनोरमाका अपने पुत्र सुदर्शनको लेकर भारद्वाजमुनिके आश्रममें जाना तथा वहीं निवास करना
  16. [अध्याय 16] युधाजित्का भारद्वाजमुनिके आश्रमपर आना और उनसे मनोरमाको भेजनेका आग्रह करना, प्रत्युत्तरमें मुनिका 'शक्ति हो तो ले जाओ' ऐसा कहना
  17. [अध्याय 17] धाजित्का अपने प्रधान अमात्यसे परामर्श करना, प्रधान अमात्यका इस सन्दर्भमें वसिष्ठविश्वामित्र प्रसंग सुनाना और परामर्श मानकर युधाजित्‌का वापस लौट जाना, बालक सुदर्शनको दैवयोगसे कामराज नामक बीजमन्त्रकी प्राप्ति, भगवतीकी आराधनासे सुदर्शनको उनका प्रत्यक्ष दर्शन होना तथा काशिराजकी कन्या शशिकलाको स्वप्नमें भगवतीद्वारा सुदर्शनका वरण करनेका आदेश देना
  18. [अध्याय 18] राजकुमारी शशिकलाद्वारा मन-ही-मन सुदर्शनका वरण करना, काशिराजद्वारा स्वयंवरकी घोषणा, शशिकलाका सखीके माध्यमसे अपना निश्चय माताको बताना
  19. [अध्याय 19] माताका शशिकलाको समझाना, शशिकलाका अपने निश्चयपर दृढ़ रहना, सुदर्शन तथा अन्य राजाओंका स्वयंवरमें आगमन, युधाजित्द्वारा सुदर्शनको मार डालनेकी बात कहनेपर केरलनरेशका उन्हें समझाना
  20. [अध्याय 20] राजाओंका सुदर्शनसे स्वयंवरमें आनेका कारण पूछना और सुदर्शनका उन्हें स्वप्नमें भगवतीद्वारा दिया गया आदेश बताना, राजा सुबाहुका शशिकलाको समझाना, परंतु उसका अपने निश्चयपर दृढ़ रहना
  21. [अध्याय 21] राजा सुबाहुका राजाओंसे अपनी कन्याकी इच्छा बताना, युधाजित्‌का क्रोधित होकर सुबाहुको फटकारना तथा अपने दौहित्रसे शशिकलाका विवाह करनेको कहना, माताद्वारा शशिकलाको पुनः समझाना, किंतु शशिकलाका अपने निश्चयपर दृढ़ रहना
  22. [अध्याय 22] शशिकलाका गुप्त स्थानमें सुदर्शनके साथ विवाह, विवाहकी बात जानकर राजाओंका सुबाहुके प्रति क्रोध प्रकट करना तथा सुदर्शनका मार्ग रोकनेका निश्चय करना
  23. [अध्याय 23] सुदर्शनका शशिकलाके साथ भारद्वाज आश्रमके लिये प्रस्थान, युधाजित् तथा अन्य राजाओंसे सुदर्शनका घोर संग्राम, भगवती सिंहवाहिनी दुर्गाका प्राकट्य, भगवतीद्वारा युधाजित् और शत्रुजित्का वध, सुबाहुद्वारा भगवतीकी स्तुति
  24. [अध्याय 24] सुबाहुद्वारा भगवती दुर्गासे सदा काशीमें रहनेका वरदान माँगना तथा देवीका वरदान देना, सुदर्शनद्वारा देवीकी स्तुति तथा देवीका उसे अयोध्या जाकर राज्य करनेका आदेश देना, राजाओंका सुदर्शनसे अनुमति लेकर अपने-अपने राज्योंको प्रस्थान
  25. [अध्याय 25] सुदर्शनका शत्रुजित्की माताको सान्त्वना देना, सुदर्शनद्वारा अयोध्या में तथा राजा सुबाहुद्वारा काशीमें देवी दुर्गाकी स्थापना
  26. [अध्याय 26] नवरात्रव्रत विधान, कुमारीपूजामें प्रशस्त कन्याओंका वर्णन
  27. [अध्याय 27] कुमारीपूजामें निषिद्ध कन्याओंका वर्णन, नवरात्रव्रतके माहात्म्यके प्रसंग में सुशील नामक वणिक्की कथा
  28. [अध्याय 28] श्रीरामचरित्रवर्णन
  29. [अध्याय 29] सीताहरण, रामका शोक और लक्ष्मणद्वारा उन्हें सान्त्वना देना
  30. [अध्याय 30] श्रीराम और लक्ष्मणके पास नारदजीका आना और उन्हें नवरात्रव्रत करनेका परामर्श देना, श्रीरामके पूछनेपर नारदजीका उनसे देवीकी महिमा और नवरात्रव्रतकी विधि बतलाना, श्रीरामद्वारा देवीका पूजन और देवीद्वारा उन्हें विजयका वरदान देना