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देवी भागवत महापुराण ( देवी भागवत)

Devi Bhagwat Purana (Devi Bhagwat Katha)

स्कन्ध 10, अध्याय 11 - Skand 10, Adhyay 11

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समस्त देवताओंके तेजसे भगवती महिषमर्दिनीका प्राकट्य और उनके द्वारा महिषासुरका वध, शुम्भ निशुम्भका अत्याचार और देवीद्वारा चण्ड-मुण्डसहित शुम्भ निशुम्भका वध

मुनि बोले- [ एक बार] महिषीके गर्भसे उत्पन्न महान् बलशाली तथा पराक्रमी महिषासुर सभी | देवताओंको पराजित करके सम्पूर्ण जगत्‌का स्वामी हो गया ॥ 1 ॥

वह महान् असुर समस्त लोकपालोंके अधिकारोंको बलपूर्वक छीनकर तीनों लोकोंके अद्भुत ऐश्वर्यका भोग करने लगा ॥ 2 ॥

सभी देवता उससे पराजित होकर स्वर्गसे निष्कासित कर दिये गये। तत्पश्चात् वे ब्रह्माजीको आगे करके उस उत्तम लोकमें पहुँचे, जहाँ देवाधिदेव भगवान् विष्णु तथा शिव विराजमान थे। वे उस दुरात्मा महिषासुरका वृत्तान्त बताने लगे-॥ 3-4॥

हे देवेश्वरो ! बल, वीर्य तथा मदसे उन्मत्त वह महिषासुर नामक दुष्ट दैत्य सभी देवताओंके लोकोंको शीघ्र जीतकर उनपर स्वयं शासन कर रहा है। हे असुरोंका नाश करनेवाले आप दोनों शीघ्र ही उस महिषासुर वधका कोई उपाय सोचिये ॥ 5-6 ॥

तब देवताओंकी यह दुःखभरी वाणी सुनकर वे भगवान् विष्णु, शिव तथा पद्मयोनि ब्रह्मा अत्यधिक कुपित हो उठे ॥ 7 ॥

हे महीपते ! इस प्रकार कुपित उन भगवान् | विष्णुके मुखसे हजारों सूर्योकी कान्तिके समान दिव्य तेज उत्पन्न हुआ ॥ 8 ॥

इसके पश्चात् क्रमसे इन्द्र आदि सभी देवताओंके | शरीरसे उन देवाधिपोंको प्रसन्न करता हुआ तेज निकला ॥ 9 ॥ शिवके शरीरसे जो तेज निकला, उससे मुख बना, यमराजके तेजसे केश बने तथा विष्णुके तेजसे भुजाएँ बनीं ll 10 ॥

हे भूप! चन्द्रमाके तेजसे दोनों स्तन हुए। इन्द्रके तेजसे कटिप्रदेश, वरुणके तेजसे जंघा और ऊरु उत्पन्न हुए। पृथिवीके तेजसे दोनों नितम्ब, ब्रह्माके तेजसे दोनों चरण, सूर्यके तेजसे पैरोंकी अँगुलियाँ और वसुओंके तेजसे हाथोंकी अँगुलियाँ निर्मित हुई ॥ 11-12 ॥हे पृथ्वीपते। कुबेरके तेजसे नासिका और प्रजापतिके उत्कृष्ट तेजसे दाँत उत्पन्न हुए। अग्निके तेजसे शुभकारक तीनों नेत्र उत्पन्न हुए, सन्ध्याके तेजसे कान्तिकी निधिस्वरूपा दोनों भृकुटियाँ उत्पन्न हुईं और वायुके तेजसे दोनों कान उत्पन्न हुए। हैं नरेश! इस प्रकार सभी देवताओंके तेजसे भगवती महिषमर्दिनी प्रकट हुई ॥ 13 - 15 ॥ शिवजीने उन्हें अपना शूल, विष्णुने चक्र, वरुणने शंख, अग्निने शक्ति और वायुने धनुष-बाण प्रदान किये ॥ 16 ॥

इन्द्रने वज्र तथा ऐरावत हाथीका घण्टा, यमराजने कालदण्ड और ब्रह्माने अक्षमाला तथा कमण्डलु प्रदान किये ll 17 ॥

हे पृथ्वीपते सूर्यने देवीके रोमछिद्रोंमें अपनी रश्मिमालाओंका संचार किया। कालने देवीको तलवारे तथा स्वच्छ ढाल दी ॥ 18 ॥

हे राजन्! समुद्रने स्वच्छ हार, कभी जीर्ण न होनेवाले दो वस्त्र, चूड़ामणि, कुण्डल, कटक, बाजूबन्द, विमल अर्धचन्द्र, नूपुर तथा गलेमें धारण किया जानेवाला आभूषण अति प्रसन्न होकर उन भगवतीको प्रदान किये ॥ 19-20 ॥

हे धरणीपते! विश्वकमनि उन भगवतीको अंगूठियाँ दीं। हिमालयने उन्हें वाहनके रूपमें सिंह तथा विविध प्रकारके रत्न प्रदान किये। धनपति कुबेरने उन्हें सुरासे पूर्ण एक पानपात्र दिया तथा सर्वव्यापी भगवान् शेषनागने उन्हें नागहार प्रदान किया । ll 21-22 ॥

इसी प्रकार अन्य समस्त देवताओंने जगन्मयी भगवतीको सम्मानित किया। इसके बाद महिषासुरद्वारा | पीडित देवताओंने जगत्की उत्पत्तिकी कारणस्वरूपिणी | उन महेश्वरी महाभगवतीकी अनेक स्तोत्रोंसे स्तुति की ॥ 233 ॥

उन देवताओंकी स्तुति सुनकर देवपूजित सुरेश्वरी महिषासुर के वधके लिये उच्च स्वरसे गर्जना करने लगीं ॥ 243 ॥

हे भूपते महिषासुर उस नादसे चकित हो उठा और अपने सभी सैनिकोंको साथमें लेकर जगद्धात्री | भगवतीके पास पहुँचा 253 ।।तत्पश्चात् महिष नामक वह प्रबल दानव अपने द्वारा छोडे गये विविध शस्त्रास्त्रोंसे सम्पूर्ण आकाश मण्डलको आच्छादित करते हुए भगवतीके साथ युद्ध करने लगा ॥ 263 ॥

प्रधान सेनापति चिक्षुरके अतिरिक्त दुर्धर, दुर्मुख, बाष्कल, ताम्र तथा विडालवदन- इन सभीसे तथा संग्राममें यमराजकी भाँति भयंकर अन्य असंख्य योद्धाओं से वह दानवश्रेष्ठ पराक्रमी महिषासुर घिरा हुआ था ।। 27-283 ॥

तदनन्तर क्रोधसे लाल आँखोंवाली उन जगन्मोहिनी भगवतीने युद्धभूमिमें महिषासुरके अधीनस्थ मुख्य योद्धाओंको मार डाला ॥ 293 ॥

उन योद्धाओंके मारे जानेके अनन्तर परम मायावी वह महिषासुर क्रोधसे मूर्च्छित होकर देवीके समक्ष शीघ्रतासे आ खड़ा हुआ ॥ 303 ॥

वह दानवेन्द्र महिष अपनी मायाके प्रभावसे अनेक प्रकारके रूप धारण कर लेता था; किंतु वे देवी उसके उन सभी रूपोंको नष्ट कर डालती थीं ॥ 316 ॥

तब अन्तमें महिषका रूप धारण किये हुए | उस देवपीडक तथा देवगणोंके लिये यमराजतुल्य महिषासुरको पाशमें दृढ़तापूर्वक बाँधकर भगवतीने अपने खड्गसे उसका सिर काटकर [पृथ्वीपर] गिरा दिया ।। 32-33 ॥

इससे [दानवी सेनामें] हाहाकार मच गया और उसकी शेष सेना दसों दिशाओंमें भाग गयी। समस्त देवगण इससे अति प्रसन्न होकर देवदेवेश्वरी भगवतीकी स्तुति करने लगे ॥ 34 ॥

महिषासुर का वध करनेवाली देवी महालक्ष्मीका | इस प्रकार प्रादुर्भाव हुआ था। हे राजन्! जिस प्रकार | सरस्वतीका आविर्भाव हुआ; अब आप वह वृत्तान्त सुनिये ॥ 35 ॥

एक समयकी बात है-अपने मद तथा बलका अहंकार करनेवाला शुम्भ नामक दैत्य था। महान् बल तथा पराक्रमसे सम्पन्न निशुम्भ नामक उसका एक भाई भी था ॥ 36 ॥

हे नृप उस शुम्भसे सन्तापित सभी देवता राज्यविहीन होकर हिमालयपर्वतपर जाकर श्रद्धापूर्वक भगवतीका स्तवन करने लगे ॥ 37 ॥देवता बोले- हे भक्तोंका कष्ट दूर करनेमें परम दक्ष देवेश्वरि हे दानवोंके लिये यमराजस्वरूपिणि हे जरा मरणसे रहित हे अनधे! आपकी जय हो ॥ 38 ॥

हे देवेश्वरि! हे भक्तिसे प्राप्त होनेवाली ! हे महान् बल तथा पराक्रमवाली! हे ब्रह्मा विष्णु-महेशस्वरूपिणि! हे अनन्त शौर्यशालिनि ! हे सृजन तथा पालन करनेवाली! हे संहार करनेवाली ! हे कान्तिप्रदे! हे महाताण्डवमें प्रीति रखनेवाली! हे मोददायिके ! हे माधवि ! हे देवदेवेश्वरि! आप हमपर प्रसन्न होइये। हे करुणानिधे! प्रसन्न होइये हे शरणमें आये हुए प्राणियोंके दुःखका नाश करनेवाली ! शुम्भ तथा निशुम्भसे उत्पन्न महान् भयरूपी अपार समुद्रसे हम शरणागत देवताओंका उद्धार कीजिये ।। 39-416 ॥

हे महाराज सुरथ ! इस प्रकार उन देवताओंके स्तुति करनेपर हिमाद्रितनया पार्वती प्रसन्न हो गयीं और बोलीं- आपलोग इस स्तुतिका उद्देश्य बताइये ॥423॥

इसी बीच उनके शरीररूपी कोशसे जगद्वन्द्या कौशिकीदेवी प्रकट हुई और वे बड़ी प्रसन्नतापूर्वक देवताओंसे कहने लगीं ॥ 433 ॥

हे सुरश्रेष्ठ उत्तमस्वरूपिणी मैं आपलोगों की स्तुतिसे प्रसन्न हूँ, अतः आपलोग वर माँग लीजिये देवीके ऐसा कहनेपर देवताओंने इस प्रकार वर माँगा-शुम्भ नामक एक प्रसिद्ध दानव है तथा | निशुम्भ नामवाला उसका एक लघु भ्राता भी है। उस बलवान् दैल्पने अपने पराक्रमसे तीनों लोकोंको आतंकित कर रखा है। हे देवि ! उसके वधका कोई उपाय सोचिये; क्योंकि हे भगवति ! वह कुत्सित आत्मावाला दानवेन्द्र शुम्भ अपने बलसे हमें अपमानित करके सदा पीडित करता रहता है ।। 44 - 463 ॥

श्रीदेवी बोली- मैं देवताओंके शत्रु शुम्भ तथा निशुम्भको मार गिराऊँगी। आपलोग निश्चिन्त रहिये। आपलोगोंका कल्याण होगा। मैं आपलोगोंके कंटकरूप | दैत्यका विनाश अभी करती हूँ ॥ 476 ॥इन्द्रसहित सभी देवताओंसे ऐसा कहकर | करुणामयी देवदेवेश्वरी उन देवताओंके देखते-देखते शीघ्र ही अन्तर्धान हो गयीं ॥ 483 ॥

तत्पश्चात् सभी देवता हर्षित होकर सुमेरुपर्वतकी सुन्दर कन्दरामें चले गये। इधर, शुम्भ-निशुम्भके चण्ड-मुण्ड नामक दो सेवकोंने [उन देवीको] देख लिया ॥ 49 ॥

तब उन दोनों चण्ड-मुण्ड नामवाले दानव सेवकोंने सम्पूर्ण लोकको मोहित करनेवाली सर्वांगसुन्दरी भगवतीको देखकर अपने राजा शुम्भके पास आकर उससे कहा ॥ 50 ॥

हे देव ! हे समस्त असुरोंमें श्रेष्ठ! हे रत्नोंका भोग करनेयोग्य ! हे मान प्रदान करनेवाले ! हे शत्रुदलन! हम दोनोंने अभी-अभी एक अद्वितीय कामिनी देखी है। उसके साथ भोग करनेयोग्य एकमात्र आप ही हैं। अतएव इसी समय सुन्दर अंगोंवाली उस स्त्रीको ले आइये और सुखपूर्वक उसका भोग कीजिये। जैसी मनोहर वह स्त्री है, वैसी न कोई असुर-नारी है, न गन्धर्व-नारी, न दानव-नारी, न मानव-नारी और न तो कोई देवनारी ही है ॥ 51-533 ॥

इस प्रकार अपने सेवककी बात सुनकर शत्रुके बलका मर्दन करनेवाले शुम्भने सुग्रीव नामक दानवको दूतके रूपमें भेजा ll 543 ॥

उस दूतने तत्काल देवीके पास पहुँचकर शुम्भकी जो बात थी, उस वृत्तान्तको आदरपूर्वक यथाविधि देवीसे कह दिया ॥ 553 ॥

हे देवि! शुम्भ नामक असुर तीनों लोकोंके विजेता राजा हैं। सभी रत्न-सामग्रियोंका भोग करनेवाले उस शुम्भका सभी देवता भी सम्मान करते हैं ॥ 563 ॥

उन्होंने जो कहा है, उसे मुझसे सुनिये - हे देवि! मैं नित्य सभी रत्नोंका उपभोग करनेवाला हूँ, तुम भी रत्न-स्वरूपा हो, अतएव हे सुलोचने! मेरा वरण कर लो। समस्त देवताओं, असुरों तथा मनुष्योंके पास जो-जो रत्न थे, वे सब इस समय मेरे पास हैं। हे अतएव हे सुभगे ! कामजन्य रसोंके द्वारा तुम मेरे साथ भोग करो ।। 57-583 ॥देवी बोलीं- हे दूत तुम दैत्यराज शुम्भके लिये प्रियकर तथा सत्य बात कह रहे हो, किंतु मैंने पूर्वकालमें जो प्रतिज्ञा की है, वह भी मिथ्या कैसे हो सकती है? हे दूत ! मैंने जो प्रतिज्ञा की है, उसे तुम सुनो ।। 59-60 ।।

जो मेरा अभिमान चूर कर देगा, जो मेरे बलको निष्प्रभावी बना देगा तथा मेरे समान बलशाली होगा, वही मेरे साथ भोग करनेका अधिकारी हो सकता है ॥ 61 ॥

अतएव वह असुराधिपति मेरी इस प्रतिज्ञाको सत्य सिद्ध करके तत्काल मेरा पाणिग्रहण कर ले। इस लोकमें ऐसा क्या है, जिसे वह नहीं कर सकता ? ॥ 62 ॥

इसलिये हे महादूत। तुम जाओ और अपने स्वामीसे
आदरपूर्वक यह बात कहो। वह अत्यधिक बलवान् शुम्भ मेरी प्रतिज्ञाको अवश्य सत्य सिद्ध कर देगा ॥ 63 ॥ महादेवीका यह वचन सुनकर उस दानव दूतने आरम्भसे लेकर अन्ततक देवीका वृत्तान्त शुम्भसे कह दिया ll 64 ॥

तब दूतकी अप्रिय बात सुनकर महाबली दानवराज शुम्भ अत्यधिक कुपित हो उठा ॥ 65 ॥ तत्पश्चात् उस दानवपति बलशाली शुम्भने धूम्राक्ष नामक दैत्यको आदेश दिया- हे धूम्राक्ष ! सावधान होकर मेरी बात सुनो। तुम उस दुष्टाको उसके केशपाश पकड़कर मेरे पास शीघ्र ले आओ। अब तुम मेरे सामनेसे शीघ्र चले जाओ ॥ 66-67 ॥

ऐसा आदेश प्राप्तकर वह महाबली दैत्येश धूम्रलोचन साठ हजार असुरोंके साथ चल पड़ा और शीघ्र ही देवीके पास हिमालयपर्वतपर पहुँचकर उसने उच्च स्वरमें देवीसे कहा- हे कल्याणि ! तुम शीघ्र ही महान् पराक्रमी शुम्भ नामक दैत्यपतिका वरण कर लो और सभी प्रकारके सुखोपभोग प्राप्त करो अन्यथा तुम्हारे केश पकड़कर मैं तुम्हें दैत्यराजके पास ले चलूँगा ।। 68-70 ।।

देवशत्रु दैत्यके ऐसा कहनेपर उन भगवतीने कहा—हे महाबली दैत्य ! यह जो तुम बोल रहे हो, वह तो ठीक है, किंतु यह बताओ कि तुम्हारे राजा शुम्भासुर तथा तुम मेरा क्या कर लोगे ? ।। 713 ।।देवीके ऐसा कहनेपर वह दैत्य सेनापति धूम्राक्ष | शस्त्र लेकर बड़ी तेजीसे देवीकी ओर दौड़ा, किंतु | महेश्वरीने अपने हुंकारमात्रसे उसे तत्क्षण भस्म कर दिया ॥ 723 ॥

हे महीपते ! देवीका वाहन सिंह भी दैत्यसेनाको | नष्ट करने लगा। सम्पूर्ण सेना हाहाकार मचाती हुई बेसुध होकर दसों दिशाओं में तेजीसे तितर-बितर हो गयी ॥ 733 ॥

दैत्यराज पराक्रमी शुम्भ यह वृत्तान्त सुनकर बड़ा कुपित हुआ और अत्यन्त क्रोधपूर्वक उसकी भौंहें टेढ़ी हो गयीं। उस प्रतापी दैत्यराजने कोपाविष्ट होकर क्रमश: चण्ड मुण्ड तथा रक्तबीज [नामक दैत्यों] को भेजा। वे तीनों बलशाली और क्रूर दैत्य वहाँ जाकर बलपूर्वक देवीको पकड़नेका यत्न करने लगे। तब मदोन्मत्त होकर जगदम्बा शूल लेकर वेगपूर्वक उनकी ओर दौड़ीं और उन्होंने उन्हें धराशायी कर दिया ॥ 74-77 ॥

उन तीनों दैत्योंको सेनासहित मारा गया सुनकर दानवराज शुम्भ और निशुम्भ तेजीसे वहाँ आ पहुँचे। | देवीके साथ भयंकर युद्ध करनेके अनन्तर वे दोनों असुर उनके अधीन हो गये और अन्तमें उनके द्वारा मार डाले गये ।। 78-793 ॥

तत्पश्चात् दैत्यश्रेष्ठ शुम्भका वध करके वे | साक्षात् वागीश्वरी पराम्बा जगन्मयी सरस्वती भगवती महालक्ष्मीकी भाँति देवताओंके द्वारा स्तुत हुईं ॥ 80ई ॥

हे राजन् ! इस प्रकार मैंने आपसे क्रमशः काली, महालक्ष्मी तथा सरस्वतीके अत्यन्त सुन्दर प्रादुर्भावका वर्णन कर दिया ॥ 813 ॥

वे ही परमा परमेश्वरी भगवती समस्त जगत्की रचना करती हैं और वे ही देवी पालन तथा संहारकार्य भी सम्पादित करती हैं। [ हे राजन्!] आप सांसारिक मोहको दूर करनेवाली उन्हों पूज्यतमा महामाया | देवेश्वरीका आश्रय लीजिये; वे ही आपका कार्य | सिद्ध करेंगी ।। 82-833 ॥ श्रीनारायण बोले- मुनि (सुमेधा ) - की यह
परम सुन्दर बात सुनकर राजा सुरथ सभी वांछित फल
प्रदान करनेवाली भगवतीको शरणमें गये। निराहाररहते हुए एकाग्रचित्त होकर संयत आत्मावाले वे राजा सुरथ तन्मनस्क होकर देवीकी पार्थिव मूर्तिकी भक्तिपूर्वक पूजा करने लगे। पूजाकी समाप्तिपर उन्होंने देवीको अपने शरीरके रक्तसे बलि प्रदान किया ॥ 84-86 ॥

तब दयामयी जगन्माता देवेश्वरी प्रसन्न होकर उनके समक्ष प्रकट हो गयीं और कहने लगीं-वर माँगो इसपर उन राजा सुरथने महेश्वरीसे अपने मोहका नाश करनेवाले उत्तम ज्ञान तथा निष्कंटक राज्यकी याचना की ।। 87-88 ।।

देवी बोलीं- हे राजन्! मैं आपको वर प्रदान करती हूँ कि इसी जन्ममें आपको निष्कंटक राज्य तथा मोहका नाश करनेवाला ज्ञान प्राप्त होगा। हे भूपाल ! अब आप अपने दूसरे जन्मके विषयमें सुनिये। आप उस जन्ममें सूर्यके अंशसे जन्म लेकर सावर्णि मनु होंगे। मेरे वरदानसे आप उस जन्ममें भी मन्वन्तरका स्वामित्व, अत्यधिक पराक्रम तथा बहुत सी सन्तानें प्राप्त करेंगे ॥ 89-91 ॥

ऐसा वर देकर भगवती उसी समय अन्तर्धान हो गयीं। वे राजा सुरथ भी देवीके अनुग्रहसे मन्वन्तरके अधिपति हो गये ॥ 92 ॥

हे साधो ! इस प्रकार मैंने सावर्णि मनुके जन्म तथा कर्मका वर्णन कर दिया। इसको पढ़ने तथा सुननेवाला व्यक्ति भगवतीकी कृपा प्राप्त कर | लेता है ॥ 93 ॥

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देवी भागवत महापुराण
Index


  1. [अध्याय 1] स्वायम्भुव मनुकी उत्पत्ति, उनके द्वारा भगवतीकी आराधना
  2. [अध्याय 2] देवीद्वारा मनुको वरदान, नारदजीका विन्ध्यपर्वतसे सुमेरुपर्वतकी श्रेष्ठता कहना
  3. [अध्याय 3] विन्ध्यपर्वतका आकाशतक बढ़कर सूर्यके मार्गको अवरुद्ध कर लेना
  4. [अध्याय 4] देवताओंका भगवान् शंकरसे विव्यपर्वतकी वृद्धि रोकनेकी प्रार्थना करना और शिवजीका उन्हें भगवान् विष्णुके पास भेजना
  5. [अध्याय 5] देवताओंका वैकुण्ठलोकमें जाकर भगवान् विष्णुकी स्तुति करना
  6. [अध्याय 6] भगवान् विष्णुका देवताओंको काशीमें अगस्त्यजीके पास भेजना, देवताओंकी अगस्त्यजीसे प्रार्थना
  7. [अध्याय 7] अगस्त्यजीकी कृपासे सूर्यका मार्ग खुलना
  8. [अध्याय 8] चाक्षुष मनुकी कथा, उनके द्वारा देवीकी आराधनाका वर्णन
  9. [अध्याय 9] वैवस्वत मनुका भगवतीकी कृपासे मन्वन्तराधिप होना, सावर्णि मनुके पूर्वजन्मकी कथा
  10. [अध्याय 10] सावर्णि मनुके पूर्वजन्मकी कथाके प्रसंगमें मधु-कैटभकी उत्पत्ति और भगवान् विष्णुद्वारा उनके वधका वर्णन
  11. [अध्याय 11] समस्त देवताओंके तेजसे भगवती महिषमर्दिनीका प्राकट्य और उनके द्वारा महिषासुरका वध, शुम्भ निशुम्भका अत्याचार और देवीद्वारा चण्ड-मुण्डसहित शुम्भ निशुम्भका वध
  12. [अध्याय 12] मनुपुत्रोंकी तपस्या, भगवतीका उन्हें मन्वन्तराधिपति होनेका वरदान देना, दैत्यराज अरुणकी तपस्या और ब्रह्माजीका वरदान, देवताओंद्वारा भगवतीकी स्तुति और भगवतीका भ्रामरीके रूपमें अवतार लेकर अरुणका वध करना
  13. [अध्याय 13] स्वारोचिष, उत्तम, तामस और रैवत नामक मनुओंका वर्णन