परीक्षित् बोले - [ हे सचिववृन्द !] इस प्रकार कामासक्त होकर रुरुमुनि अपने आश्रममें सो गये, तब उनके पिताने उन्हें दुःखी देखकर पूछा- हे रुरु ! तुम इतने उदास क्यों हो ? ॥ 1 ॥
कामातुर रुरुने अपने पितासे कहा- महर्षि स्थूलकेशके आश्रम में प्रमद्वरा नामकी एक कन्या है; मैं चाहता हूँ कि वह मेरी पत्नी बन जाय ॥ 2 ॥
उन प्रमतिने महामुनि स्थूलकेशके पास शीघ्र जाकर उन्हें प्रसन्न तथा अपने अनुकूल करके उस सुन्दर कन्याकी याचना की ॥ 3 ॥
महामुनि स्थूलकेशने यह वचन दे दिया कि किसी अच्छे मुहूर्तमें कन्यादान दूँगा। अब उस वनमें वे दोनों विवाहकी सामग्रीका प्रबन्ध करने लगे। इस प्रकार उस तपोवनमें समीपमें ही रहकर प्रमति और स्थूलकेश दोनों महात्मा विवाहोत्सवकी तैयारी करने लगे । ll 4-5 ॥
उसी अवसरपर वह कन्या अपने घरके आँगनमें खेल रही थी, तभी एक सोये हुए सर्पसे उस सुनयनीका पैर छू गया। [स्पर्श होते ही] सर्पने उसे डँस लिया | और वह सुन्दरी कन्या मर गयी। तब मृत्युको प्राप्त हुई प्रमद्वराको देखकर वहाँ कोलाहल मच गया ॥ 6-7 ॥
सभी मुनि जुट गये और शोकसे ग्रस्त होकर रोने लगे। पृथ्वीपर प्राणहीन होकर पड़ी हुई अत्यन्त तेजसे देदीप्यमान उस कन्याको देखकर उसके पितास्थूलकेश अत्यन्त दुःखित होकर रुदन करने लगे। उस समय करुण क्रन्दन सुनकर रुरु भी उसे देखनेके लिये आये। उन्होंने उस मृत पड़ी सुन्दरीको सजीव जैसी देखा। स्थूलकेश तथा अन्य श्रेष्ठ मुनियोंको रुदन करते देखकर रुरुमुनि उस स्थानसे बाहर आ करके विरहाकुल होकर रोने लगे ॥ 8-103 ॥
[वे कहने लगे-] अहो प्रारब्धने ही मेरे सुखके विनाशके लिये ही यह अत्यन्त विचित्र सर्प भेजा था। यह निश्चित ही मेरे दुःखका कारण है। अब मैं क्या करूँ, कहाँ जाऊँ? मेरी प्राणप्रिया तो मर गयी। अब मैं अपनी इस प्रियासे विलग होकर जीना नहीं चाहता। अभीतक मैंने उस सुन्दरीका आलिंगन आदि कोई सांसारिक सुख भी नहीं प्राप्त किया था। मैं ऐसा अभागा हूँ कि उसका पाणिग्रहण नहीं कर सका और न तो उसके साथ अग्निमें लाजाहोम ही कर पाया। मेरे इस मनुष्य जीवनको धिक्कार है। अब तो मेरे प्राण निकल जायँ तो अच्छा है, जब दुःखित मनुष्यको चाहनेपर भी मृत्यु नहीं मिलती, तब इस संसारमें वांछित उत्तम सुख कैसे मिल सकता है ? अब मैं या तो कहीं किसी भयानक तालाब में डूब जाऊँ, अग्निमें कूद पडँ, विष खा लूँ अथवा गलेमें फाँसी लगाकर प्राण त्याग दूँ ॥ 11 - 163 ॥
इस प्रकार विलाप करके रुरु अपने मनमें विचारकर उस नदी के तटपर स्थित रहते हुए उपाय सोचने लगे। प्राण त्यागनेसे मुझे क्या लाभ होगा ? आत्महत्याका फल तो अत्यन्त दुर्निवार्य होता है। [मेरी मृत्यु सुनकर] पिताजी दुःखी होंगे, माताजीको भी महान् कष्ट होगा। हाँ, हो सकता है कि मुझे मरा हुआ देखकर प्रारब्ध सन्तुष्ट हो जाय ? मेरे मर जानेपर मेरे सभी शत्रु भी प्रसन्न होंगे, इसमें सन्देह नहीं है, किंतु इससे परलोकमें मेरी प्रियाका क्या उपकार होगा? इस प्रकार विरहसे सन्तप्त होकर आत्महत्या करके मेरे मर जानेपर भी परलोकमें मुझ आत्मघातीको मेरी वह प्रिया नहीं मिलेगी। इसलिये मेरे मरनेमें बहुत दोष है और न भरनेपर मुझे कोई दोष हैं नहीं होगा ll 17- 21 llऐसा सोचकर रुरु स्नान तथा आचमन करके पवित्र होकर वहीँपर बैठ गये। इसके बाद उन मुनिने हाथमें जल लेकर यह वचन कहा-यदि मेरे द्वारा देवाराधन आदि कुछ भी पुण्य कर्म सम्पादित किया गया हो, यदि मैंने श्रद्धापूर्वक गुरुओंकी पूजा की हो; हवन, जप एवं तप किया हो, समस्त वेदोंका अध्ययन किया हो, गायत्रीकी उपासना की हो और सूर्यको आराधना की हो तो उस पुण्यके प्रभावसे मेरी प्रिया जीवित हो जाय। यदि मेरी प्रिया जीवित नहीं होगी तो मैं प्राण त्याग दूंगा। ऐसा कहकर देवताओंका ध्यान करके उन्होंने वह जल जमीनपर छोड़ दिया | ll22 253 ॥
राजा बोले- तदनन्तर इस प्रकार अपनी भार्याके लिये विलाप कर रहे उन दुःखित रुरुके पास एक देवदूत आकर यह वाक्य बोला ॥ 263 ॥
देवदूत बोला- हे ब्रह्मन् ! ऐसा साहस मत कीजिये। आपकी मरी हुई प्रियतमा भला कैसे जीवित हो सकेगी ? गन्धर्व और अप्सराकी इस सुन्दर कन्याकी आयु समाप्त हो चुकी थी, जिससे यह अविवाहिता ही मर गयी; अतः अब आप किसी अन्य शुभ अंगोंवाली कन्याका वरण कर लीजिये। हे हतबुद्धि ! आप क्यों रो रहे हैं? इसके साथ आपका कैसा प्रेम है? ll27-283 ॥
रुरु बोले- हे देवदूत मैं किसी अन्य सुन्दरीका वरण नहीं करूँगा। यदि यह जीवित हो जाती है तो ठीक है, अन्यथा मैं इसी समय अपने प्राण त्याग दूँगा ॥ 293 ॥
राजा बोले- उन मुनिका यह हठ देखकर | देवदूतने प्रसन्न होकर तथ्यपूर्ण, सत्य तथा मनोहर वचन कहा- हे विप्रेन्द्र देवताओंके द्वारा इसका | पूर्वविहित उपाय मुझसे सुनिये। आप अपनी आयुका | आधा भाग देकर अपनी प्रमद्वराको शीघ्र ही जीवित कर लीजिये ॥ 30-31 ॥ रुरु बोले- मैं निःसन्देह अपनी आयुका आध भाग इस कन्याको दे रहा हूँ। अब मेरी प्रियतमाके प्राण वापस आ जायें और यह उठकर बैठ जाय। उसी समय विश्वावसु अपनी पुत्री प्रमद्वराकी मृत्युजान करके स्वर्गलोकसे विमानद्वारा शीघ्र ही वहाँ आ गये। तत्पश्चात् गन्धर्वराज विश्वावसु तथा उस श्रेष्ठ देवदूतने धर्मराजके पास पहुँचकर यह वचन कहा हे धर्मराज रुरुकी पत्नी तथा विश्वावसुकी पुत्री इस प्रमद्वरा नामक कन्याकी सर्पदंशके कारण इस समय मृत्यु हो गयी है। हे सूर्यतनय इसके वियोगमें मरणके लिये उद्यत मुनि रुरुकी आधी आयु तथा उनकी तपस्याके प्रभावसे यह कोमलांगी जीवित हो जाय ll 32-363 ॥
धर्मराजने कहा- हे देवदूत ! यदि तुम ऐसा चाहते हो तो उसकी आधी आयुसे विश्वावसुकी यह कन्या जीवित होकर उठ जाय और तुम जाकर इसे रुरुको समर्पित कर दो ॥ 373 ll
राजा बोले- धर्मराजके ऐसा कहनेपर देवदूतने जाकर प्रमद्वराको जीवित करके शीघ्र ही रुरुको समर्पित कर दिया और तत्पश्चात् रुरुने किसी शुभ दिन उसके साथ विधानपूर्वक विवाह कर लिया ll38-39 ॥
इस प्रकार उपायका आश्रय लेकर मृत प्रमद्वराको भी जीवित कर लिया गया था। अतः मणि, मन्त्र तथा औषधियोंके विधिवत् प्रयोगद्वारा प्राणरक्षाके लिये शास्त्र सम्मत उपाय अवश्य किया जाना चाहिये ॥ 403 ॥
मन्त्रियोंसे यह कहकर उत्तम रक्षकोंकी व्यवस्था करके एक सात तलवाला उत्तम राजभवन बनवाकर | उसी क्षण उत्तरापुत्र परीक्षित् अपने मन्त्रियोंके साथ उसपर चढ़ गये 41-42 ।।
उस भवनकी सम्यक सुरक्षाके लिये मणि मन्त्रधारी वीरोंको नियुक्त किया गया और इसके बाद राजाने गौरमुखमुनिको [गविजातके पास उन्हें] प्रसन्न करनेके उद्देश्यसे भेजा और कहलाया कि मुझ सेवकका अपराध वे बार-बार क्षमा करें। तत्पश्चात् राजाने मन्त्र-प्रयोगमें निपुण ब्राह्मणोंको रक्षा कार्यके निमित्त चारों ओर नियुक्त कर दिया ।। 43-44 ।।
एक मन्त्रिपुत्र वहाँ नियुक्त किया गया, जिसने महलके चारों ओर हाथियोंका घेरा स्थापित कराया ताकि विशेषरूपसे रक्षित उस महलपर कोई चढ़ न सके ।। 45 ।।महलके भीतर वायुका भी संचरण नहीं हो पाता था; क्योंकि उसका प्रवेश सर्वथा वर्जित था। राजा वहीं स्थित रहकर भोजनादि करने लगे। वहींपर रहते हुए स्नान एवं सन्ध्यादि कार्योंसे निवृत्त होकर राजा मन्त्रियोंसे मन्त्रणा करते तथा शापके दिन गिनते हुए समस्त राजकार्योंको संचालित करते थे । ll 46-473 ॥
इसी बीच किसी कश्यप नामक मन्त्र - विशेषज्ञ ब्राह्मणने सुना कि राजा परीक्षित्को [सर्पद्वारा काटे जानेका ] शाप प्राप्त हुआ है। उस धनाभिलाषी ब्राह्मण श्रेष्ठ कश्यपने विचार किया कि मुनिके द्वारा शापित राजा इस समय जहाँ रह रहे हैं, मैं वहीं पर जाऊँगा । ऐसा निश्चय करके मन्त्रज्ञ, विद्वान् तथा धनाभिलाषी वह कश्यप नामक मुनिश्रेष्ठ विप्र अपने घरसे निकलकर रास्तेपर चल पड़ा ॥ 48 - 51॥