राजा बोले- हे स्वामिन्! अब आप उन देवीके यज्ञकी विधिका पूर्णरूपसे सम्यक् वर्णन कीजिये। उसे सुनकर मैं यथाशक्ति प्रमादरहित होकर वह यज्ञ करूँगा ॥ 1 ॥
उस यज्ञकी पूजा-विधि, उसके मन्त्र, होमद्रव्य, उसमें कितने ब्राह्मण हों और दक्षिणा-इन सभीके बारेमें निःसंकोच बताइये ॥ 2 ॥
व्यासजी बोले- हे राजन्! सुनिये, अब मैं आपसे देवीके यज्ञका विधानपूर्वक वर्णन करूंगा। अनुष्ठानमें विहित कर्मके अनुसार यह यज्ञ सात्त्विक, राजस तथा तामस भेदसे सदा तीन प्रकारका समझा जाना चाहिये। मुनियोंके लिये सात्त्विक यज्ञ, राजाओंके लिये राजस यज्ञ, राक्षसोंके लिये तामस यज्ञ, ज्ञानियोंके लिये निर्गुण यज्ञ और वैराग्ययुक लोगोंके लिये ज्ञानमय यज्ञ कहा गया है; मैं आपसे विस्तारपूर्वक वर्णन कर रहा हूँ 35॥
जिस यज्ञमें देश, काल, द्रव्य, मन्त्र, ब्राह्मण तथा श्रद्धा- ये सब सात्त्विक हों; उसे सात्त्विक यज्ञ कहा गया है ॥ 6 हे भूतल यदि द्रव्यशुद्धि क्रियाशुद्धि और मन्त्रशुद्धिके साथ यज्ञ सम्पन्न होता है, तब पूर्ण फलकी प्राप्ति अवश्य होती है; अन्यथा नहीं होती ॥ 7 ॥
अन्यायके द्वारा उपार्जित किये गये धनसे यदि पुण्य कार्य किया जाता है तो इस लोकमें यशकी प्राप्ति नहीं होती और परलोकमें उसका कोई फल भी नहीं मिलता है, इसलिये न्यायपूर्वक उपार्जित धनसे ही सदा पुण्यकार्य करना चाहिये। ऐसा कार्य इस लोकमें कीर्ति तथा परलोकमें आनन्द के लिये होता है ॥ 8-9 ॥
हे राजेन्द्र आपके सामने इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। पाण्डवोंने यज्ञोंमें उत्तम राजसूय यज्ञ किया था, जिसकी समाप्तिपर उन्होंने श्रेष्ठ दक्षिणा भी दी थी,जिसमें महामनस्वी यादवेन्द्र साक्षात् भगवान् कृष्ण विद्यमान थे और भारद्वाज आदि पूर्णतः विद्यानिष्ट ब्राह्मणोंने जिस यज्ञका सम्पादन किया था, उस यहको विधिवत् सम्पन्न करनेके पश्चात् एक मासके भीतर ही पाण्डवोंको महान् कष्ट प्राप्त हुआ तथा कठोर वनवास भोगना पड़ा ।। 10-12 ॥
द्रौपदीका अपमान हुआ, युधिष्ठिरकी जुए में पराजय हुई, पाण्डवोंको वनवास हुआ और उन्हें तरह-तरहका घोर कष्ट मिला, तब यज्ञसे होनेवाला फल कहाँ चला गया ? ॥ 13 ॥
महामनस्वी पाण्डवोंको राजा विराटकी दासता करनी पड़ी और नारियोंमें श्रेष्ठ द्रौपदीको कीचकने प्रताड़ित किया। उस संकटकालमें विशुद्ध हृदयवाले ब्राह्मणोंके आशीर्वाद कहाँ चले गये थे और कृष्णको भक्ति कहाँ चली गयी थी ? ।। 14-15 ।।
जिस समय परम सुन्दरी पतिव्रता द्रौपदीको बाल पकड़कर घसीटा जा रहा था, उस समय उस वैचारीकी रक्षा किसीने भी नहीं की ॥ 16 ॥
जिस यज्ञमें देवाधीश भगवान् श्रीकृष्ण रहे हों और जिस यज्ञके कर्ता धर्मराज युधिष्ठिर हों, उस यज्ञका विपरीत फल मिलनेका कारण अवश्य हो धर्मानुष्ठानमें कोई कमी रही होगी ऐसा समझना चाहिये ॥ 17 ॥
यदि कहा जाय कि प्रारब्ध ही ऐसा था तो सभी शास्त्र निष्फल हो जायेंगे और वेद-मन्त्र तथा अन्य धर्मग्रन्थ निरर्थक सिद्ध होंगे; इसमें संशय नहीं है। प्रारब्ध तो अवश्यम्भावी है, इस कथनको यदि स्वीकार कर लिया जाय तो सभी साधन निष्फल और सभी उपाय व्यर्थ हो जायेंगे; सभी वेद-शास्त्र अर्थवाद के रूपमें परिणत हो जायेंगे सभी क्रियाएँ निरर्थक हो जायेंगी और स्वर्ग प्राप्ति के लिये तप तथा वर्ण-धर्म सब व्यर्थ हो जायेंगे। केवल प्रारब्धको ही हृदयमें धारण करनेसे सभी प्रमाण व्यर्थ हो जायेंगे। अतएव भाग्य तथा उपाय दोनोंको मानना चाहिये ॥ 18-21 ॥कर्म करनेपर भी यदि विपरीत परिणाम प्राप्त होता है तो पण्डितशिरोमणि विद्वानोंको सोचना चाहिये कि कार्य करनेमें कोई कमी अवश्य रह गयी थी ॥ 22 ॥
कर्मशील विद्वानोंने कर्तृभेद, मन्त्रभेद तथा द्रव्यभेदसे उस कर्मको अनेक प्रकारवाला बताया है ॥ 23 ॥
पूर्वकालमें इन्द्रने यज्ञमें आचार्यके रूपमें विश्वरूपका वरण किया था। उस विश्वरूपने अपने मातृपक्षके दानवोंके हितार्थ विपरीत कार्य किया। देवताओं तथा दानवों दोनोंका कल्याण हो ऐसा बार-बार कहकर उसने मातृपक्षके जो असुर थे, उनकी भी रक्षा की। तदनन्तर दानवोंको अत्यन्त हृष्ट-पुष्ट देखकर इन्द्र कुपित हो उठे और उन्होंने वज्रसे तत्काल उस विश्वरूपके सिर काट दिये ।। 24-26 ॥
इससे यह निस्सन्देह सिद्ध हो जाता है कि कतक भेदसे विपरीत फल हो जाता है। यदि इसे न मानें तो ठीक नहीं; क्योंकि पञ्चालनरेश द्रुपदने रोषपूर्वक द्रोणाचार्यके नाशके निमित्त एक पुत्र उत्पन्न होनेके लिये यज्ञ किया था। [इसके परिणामस्वरूप] यज्ञवेदीके मध्यभागसे धृष्टद्युम्न तथा द्रौपदी ये दोनों उत्पन्न हुए ।। 27-28 ।।
पूर्वकालमें जब महाराज दशरथने पुत्रेष्टि यज्ञ किया तो उन पुत्रहीन राजा दशरथके भी चार पुत्र उत्पन्न हुए ।। 29 ।।
अतः हे नृपश्रेष्ठ युक्तिपूर्वक किया गया कोई भी कार्य हर प्रकारसे सिद्धि प्रदान करनेवाला होता है और युक्तिपूर्वक न किया गया कार्य सर्वथा विपरीत फल प्रदान करनेवाला होता है ॥ 30 ॥
जैसे पाण्डवों के यज्ञमें किसी दोषके कारण हो उन्हें विपरीत फल मिला और जुएमें वे हार गये। हे राजन्। युधिष्ठिर सत्यवादी तथा धर्मपुत्र थे, द्रौपदी भी एक पतिव्रता स्त्री थी एवं युधिष्ठिरके अन्य छोटे भाई भी पुण्यात्मा थे, किंतु अन्यायोपार्जित द्रव्योंके प्रयोगके कारण उस यज्ञमें वैगुण्य उत्पन्न हुआ अथवा उन्होंने अभिमानपूर्वक यज्ञ किया था, जिससे दोष उत्पन्न हुआ ।। 31-33 ॥हे महाराज! सात्त्विक यज्ञ तो अत्यन्त दुर्लभ
माना गया है। वह महायज्ञ केवल वानप्रस्थ मुनियों के लिये ही विहित है ॥ 34 ॥ हे राजन् ! तपमें तत्पर जो लोग नित्य न्यायपूर्वक अर्जित किये गये द्रव्य-पदार्थ, वन्य फल-मूल तथा ऋषियोंका सुसंस्कृत सात्त्विक आहार ग्रहण करते हैं-ऐसे तपस्वियोंद्वारा नित्य अतिश्रद्धाके साथ पुरोडाशसे सम्पादित किये जानेवाले समन्त्रक तथा यूपविहीन यज्ञ परम सात्त्विक यज्ञ कहे गये हैं ।। 35-36 ॥
जिस यज्ञमें अधिक धन व्यय किया जाता है, जिसमें पशु बलिके लिये सुन्दर यूप गाड़े जाते हैं तथा जो अभिमानके साथ किये जाते हैं-क्षत्रियों तथा वैश्योंद्वारा सम्पादित किये जानेवाले वे यज्ञ राजस यज्ञ कहे गये हैं ॥ 37 ॥
महात्माओंने दानवोंद्वारा किये जानेवाले यज्ञोंको तामस यज्ञ कहा है। ऐसे यज्ञ क्रोधभावनाके साथ किये जाते हैं, अहंकारको बढ़ानेवाले होते हैं, |ईर्ष्यापूर्वक किये जाते हैं और बड़ी साज-सज्जा तथा क्रूरताके साथ सम्पन्न किये जाते हैं ॥ 38 ॥
मोक्षकी कामना करनेवाले विरक्त मुनि-महात्माओं लिये सर्वसाधनसम्पन्न मानस-यज्ञ बताया गया है ॥ 39 ॥
अन्य सभी यज्ञोंमें कुछ कमी हो भी सकती है; क्योंकि वे द्रव्य, श्रद्धा, कर्म, ब्राह्मण, देश, काल तथा अन्य द्रव्यसाधनोंसे सम्पन्न किये जाते हैं। अतः अन्य यज्ञ वैसा पूर्ण नहीं होता, जैसा मानस-यज्ञ सदैव पूर्ण हो जाता है ।। 40-41 ।।
[ इस यज्ञके लिये ] सर्वप्रथम मनको परिशुद्ध तथा गुणसे रहित बनाना चाहिये। मनके शुद्ध | जानेपर शरीरकी शुद्धि स्वतः हो जाती है, इसमें संशय नहीं है ॥ 42 ॥ हो
जब मनुष्यका मन इन्द्रियोंके विषयोंका परित्याग करके पवित्र हो जाता है, तभी वह उस मानस यज्ञको करनेका अधिकारी होता है ॥ 43 ॥
तत्पश्चात् वह अपने मनमें पवित्र यज्ञीय वृक्षों से निर्मित, अनेक सुन्दर सुन्दर स्तम्भोंसे अलंकृत तथा | अनेक योजन विस्तारवाले यज्ञमण्डपकी रचना करकेउसमें मन ही मन एक विशाल यज्ञवेदीकी कल्पना करे और उसपर मानसिक अग्निकी विधिपूर्वक स्थापना करे ।। 44-45 ।।
उसी प्रकार [मनमें] ब्राह्मणोंका वरण करके ब्रह्मा, अध्वर्यु, होता, प्रस्तोता, उद्गाता, प्रतिहर्ता तथा अन्य | सभासदोंको नियुक्त करके यथोचित रूपसे प्रयत्नपूर्वक मनसे उनकी पूजा करनी चाहिये ।। 46-47 प्राण, अपान, व्यान, समान तथा उदान- इन पाँचों अग्नियोंको यज्ञवेदीपर विधानपूर्वक स्थापित करना चाहिये 48 ॥
उनमें प्राणको गार्हपत्य अग्नि, अपानको आहवनीय अग्नि, व्यानको दक्षिणाग्नि, समानको आवसथ्य अग्नि तथा उदानको सभ्य अग्नि कहा गया है। ये पाँचों परम तेजस्वी हैं। इस यज्ञमें मानसिक रूपसे ही दोषरहित तथा परम पवित्र सामग्रियोंकी भी कल्पना करनी चाहिये ।। 49-50
इस यज्ञमें होता तथा यजमान दोनोंके रूपमें मन ही होता है। निर्गुण तथा अविनाशी ब्रह्म इस यज्ञमें अधिदेवता होते हैं ॥ 51 ॥
निर्गुणा पराशक्ति सभी फलोंको प्रदान करनेवाली हैं उन वैराग्यदायिनी कल्याणकारिणी, ब्रह्मविद्या, समस्त जगत्की आधारस्वरूपा तथा जगत्को व्याप्त करके सर्वत्र विराजमान रहनेवाली आदिशक्ति स्वरूपा भगवतीको प्रसन्न करनेके उद्देश्यसे द्विजको मनः कल्पित हवन सामग्रियोंकी आहुति अपने प्राणरूपी अग्निमें देनी चाहिये 523 ॥
हे प्रभो! मानस हवनके पश्चात् अपने मनको आलम्बनरहित करके कुण्डलिनीके मुखमार्गसे अर्थात् सुषुम्ना रन्ध्रद्वारा शाश्वत ब्रह्ममें अपने प्राणोंकी भी आहुति दे देनी चाहिये ॥ 533 ॥
अपनी अनुभूतिसे स्वयंका साक्षात्कार करके तथा महेश्वरीको अपनी आत्मस्वरूपा जानकर समाधियोगसे शान्तचित्त होकर ध्यान करना चाहिये ll 543 ll
इस प्रकार जब वह साधक सभी प्राणियों में अपने-आपको तथा अपनेमें सभी प्राणियोंको देखने
लगता है, तब वह भूतात्मा उन कल्याणस्वरूपाभगवतीका दर्शन प्राप्त कर लेता है और उन सच्चिदानन्दस्वरूपिणीका दर्शन करके ब्रह्मज्ञानी हो जाता है। हे भूपाल ! तब उसका सब मायाजनित प्रपंच जलकर भस्म हो जाता है और केवल प्रारब्धकर्मका भोग करनेके लिये ही शरीर रहता है ॥ 55-57॥
हे तात! तब वह जीवन्मुक्त हो जाता है और मृत्युके उपरान्त मोक्ष प्राप्त करता है। जो भगवतीको भजता है, वह सब प्रकारसे कृतकृत्य हो जाता है। इसलिये गुरुके वचनोंके अनुसार सम्पूर्ण प्रयत्नके साथ श्रीभुवनेश्वरी भगवतीका ध्यान, उनके चरित्रका श्रवण तथा मनन करना चाहिये ।। 58-59 ।।
हे राजन्! इस प्रकार किया हुआ यज्ञ मोक्षप्रद होता है; इसमें सन्देह नहीं। इसके अतिरिक्त अन्य सकाम यज्ञ विनाशोन्मुख होते हैं ॥ 60 ॥
मनीषी विद्वान् यह वेदानुशासन बताते हैं कि स्वर्गकी इच्छावालेको विधिपूर्वक अग्निष्टोम यज्ञ करना चाहिये। मेरी समझसे पुण्य क्षीण होनेपर पुनः उन्हें मृत्युलोकमें आना ही पड़ता है, अतः अक्षय फलवाला वह मानस-यज्ञ ही श्रेष्ठ है ॥ 61-62 ॥
विजयकी इच्छा रखनेवाला राजा इस मानस यज्ञको सम्पन्न नहीं कर सकता। हे राजन्! अभी कुछ ही समय पूर्व आपने तामस सर्पयज्ञ किया था, जिसमें आपने दुरात्मा तक्षकसे वैरका बदला चुकाया था और उसमें आपने करोड़ों सर्पोको अग्निमें जलाकर मार डाला था ॥ 63-64॥
हे नृपश्रेष्ठ! अब आप विधिपूर्वक विस्तृत | देवीयज्ञ कीजिये, जिसे पूर्वकालमें सृष्टिके आरम्भमें भगवान् विष्णुने किया था ॥ 65 ॥
हे राजेन्द्र ! मैं आपको उसकी विधि बता रहा हूँ, आप वैसा कीजिये। हे राजेन्द्र ! आपके यहाँ वेदोंके पूर्ण ज्ञाता, विधिको जाननेवाले, देवीके बीजमन्त्र के विधानके जानकार तथा मन्त्रमार्गके विद्वान् अनेक ब्राह्मण हैं, वे ही उस यज्ञमें आपके याजक होंगे और आप यजमान बनेंगे ॥ 66-67 ।।
हे महाराज ! इस प्रकार आप विधिवत् देवीयज्ञ करके उस यज्ञसे मिले हुए पुण्यको अर्पित करके अपने दुर्गतिप्राप्त पिताका उद्धार कीजिये ॥ 68 ॥ब्राह्मणके अपमानसे होनेवाला पाप बड़ा भयंकर और नरकदायक होता है। हे अनघ! आपके पिता वैसे ही शापजनित दोषसे ग्रस्त हो चुके हैं, साथ ही सौपके काटने से महाराजकी अकालमृत्यु हुई है और भूमिपर बिछे कुशासनपर नहीं अपितु आकाशमें उनका मरण हुआ है, उनकी मृत्यु न रणस्थलमें हुई है और न गंगातटपर ही अपितु हे कुरुश्रेष्ठ! आपके पिता बिना स्नान-दान आदि किये ही महलमें मर गये ॥ 69-71 ॥
हे नृपश्रेष्ठ! ये सब कुत्सित साधन नरकके हेतु हैं। राजाके लिये नरकसे बचनेका एक उपाय था; किंतु वह अत्यन्त दुर्लभ उपाय भी उनसे न बन सका ॥ 72 ॥
जहाँ कहीं भी प्राणी स्थित रहे, कालको समीप आया जानकर साधनोंके अभावमें भी अत्यन्त कष्टके कारण विवश हुआ वह जब हृदयमें वैराग्य भाव आ जाय, तब निर्मल मनसे यह सोचने लगे कि यह शरीर तो पृथ्वी, जल, आकाश, अग्नि और वायु-इन पंचभूतोंसे निर्मित है, तब फिर यह मेरे लिये क्या दुःखदायी हो सकता है ! 73-74। यह देह अभी नष्ट हो जाय; मैं तो मुक्त, निर्गुण
तथा अविनाशी हूँ ये पंचतत्व तो विनाशशील हैं, तब इनके लिये मुझे चिन्ता ही क्या! मैं तो सदा मुक्त और सनातन ब्रह्म हूँ; संसारी जीव नहीं हूँ। इस देहसे मेरा सम्बन्ध केवल कर्मभोगके कारण ही है। शरीरद्वारा किये गये उन सभी शुभाशुभ कर्मोंका मेरा बन्धन तो छूट चुका है; क्योंकि मनुष्यशरीरसे मैंने दुःख तथा सुख भोग लिया है और इस अत्यन्त भयानक, घोर तथा भीषण सांसारिक कष्टसे मैं सर्वथा विमुक्त हैं, इस प्रकारका चिन्तन करता हुआ पुरुष यदि स्नान दानरहित भी मृत्यु प्राप्त करता है तो भी वह पुनः जन्म लेनेके दुःखसे छूट जाता है। यह सर्वोत्कृष्ट साधन कहा गया है, जो योगियोंके लिये भी दुर्लभ है ।। 7579 ।।
हे नृपसत्तम। आपके पिताने ब्राह्मणके द्वारा दिये गये उस शापको सुनकर भी अपने शरीरके प्रति मोह रखा और वैराग्यका आश्रय नहीं लिया ॥ 80 ॥उनकी यह प्रबल इच्छा थी कि मेरा यह शरीर सदा निरोग रहे, मैं निष्कंटक राज्य करता रहूँ और चिरकालतक कैसे जीता रहूँ, [-इस भावनासे उन्होंने सचिवोंको आज्ञा दी कि सर्पविष उतारनेका] मन्त्र जाननेवालोंको बुलाओ ॥ 81 ॥
राजाने औषध, मणि, मन्त्र तथा उत्तमोत्तम यन्त्रोंका संग्रह किया और वे एक ऊँचे महलपर आरूढ़ हो । उस समय उन्होंने न स्नान किया, न दान दिया और न भगवतीका स्मरण ही किया। दैवको प्रधान मानकर वे भूमिपर भी नहीं सोये ।। 82-83 ।।
कलिके प्रभावके कारण एक तपस्वीके प्रति अपमानजन्य पाप करके घोर मोहरूपी सागरमें डूबकर महलके ऊपर सर्पके डँसनेसे वे मर गये। ऐसे आचरणोंसे अवश्य ही नरक होता है। इसलिये हे नृपश्रेष्ठ! अपने उन पिताका पापसे उद्धार कीजिये ।। 84-85 ॥
सूतजी बोले- [ हे ऋषिगण!] अमित तेजस्वी व्यासजीका यह वचन सुनकर महाराज जनमेजय बड़े दुःखी हुए और अश्रुप्रवाहके कारण उनका कण्ठ रुँध गया। [मनमें पश्चात्ताप करते हुए वे कहने लगे-] आज मेरे इस जीवनको धिक्कार है जो कि मेरे पिता नरकमें पड़े हैं। इसलिये अब मैं ऐसा उपाय करता हूँ, जिससे उत्तरातनय राजा परीक्षित् स्वर्ग चले जायँ ।। 86-87 ।।