राजा बोले- हे कालज्ञान रखनेवालोंमें श्रेष्ठ ! आपने जिन देवीका वर्णन किया है, वे कौन हैं, वे प्राणियोंको क्यों मोहित करती हैं और हे द्विज ! इसमें क्या कारण है? वे देवी किसलिये आविर्भूत होती हैं, | उनका स्वरूप क्या है तथा उनका स्वभाव कैसा है ? हे भूदेव! इन सभी बातोंको कृपा करके सम्यक् प्रकारसे मुझे बताइये ll 1-2
मुनि बोले- हे राजन् वे जगन्मयी भगवती जिस प्रकार उत्पन्न हुई, जिनसे उत्पन्न हुईं तथा उन | देवीका जैसा स्वरूप है-इन सबका मैं आपसे वर्णन कर रहा हूँ; ध्यानसे सुनिये ॥ 3 ॥[ कल्पके अन्तमें] जब योगराट् भगवान् नारायण विश्वका संहार करके समुद्रके भीतर शेषनागकी शय्यापर योगनिद्रामें सोये हुए थे तब उन देवदेव भगवान् जनार्दनके निद्राके वशीभूत हो जानेपर उनके कानोंके मैलसे मधु तथा कैटभ नामक दो दानव उत्पन्न हुए। भयंकर आकृतिवाले वे दोनों दानव ब्रह्माजीको मारनेको उद्यत हो गये । ll 4-53 ll
पद्मयोनि ब्रह्मदेव उन मधु-कैटभ दानवोंको तथा देवदेव नारायणको निद्रित देखकर घोर चिन्तामें पड़ गये ॥ 66 ॥
भगवान् विष्णु तो निद्राको अवस्थामें हैं और ये दोनों दानव दुर्जेय हैं। ऐसी स्थितिमें मैं क्या करूँ, कहाँ जाऊँ तथा किस प्रकार शान्ति प्राप्त करूँ ? हे तात! इस प्रकार चिन्तन कर रहे कमलयोनि महात्मा ब्रह्माके मनमें कार्य सिद्ध करनेवाली यह बुद्धि उत्पन्न हुई कि निद्रित अवस्थावाले वे भगवान् विष्णुदेव इस समय जिनकी अधीनताको प्राप्त हैं, सबको उत्पन्न करनेवाली उन्हीं निद्रा देवीकी शरण में भी चला जाऊँ ll 7–93 ll
ब्रह्माजी बोले- हे देवि ! हे जगत्का पालन करनेवाली देवि! हे भक्तोंको अभीष्ट फल प्रदान करनेवाली! हे जगन्माये! हे महामाये! हे समुद्रमें शयन करनेवाली! हे शिवे! आपकी आज्ञाके अधीन होकर ही सभी अपना-अपना कार्य सम्पादित करते हैं ।। 10-11 ॥
आप ही कालरात्रि हैं, आप ही महारात्रि हैं तथा आप ही भयंकर मोहरात्रि हैं आप सर्वव्यापिनी, भक्तोंके वशीभूत, सम्माननीया तथा महान् आनन्दकी एकमात्र सीमा हैं। आप ही महनीया, महाराध्या, माया, मधुमती, मही तथा पर- अपर सभीमें श्रेष्ठतम कही गयी हैं ।। 12-13 ॥
आप लज्जा, पुष्टि, क्षमा, कीर्ति, कान्ति, करुणाकी प्रतिमूर्ति, कमनीया, विश्ववन्द्या तथा जाग्रत् स्वन सुषुप्तिके स्वरूपवाली हैं ॥ 14 ll
आप ही परमा, परमेशानी तथा परमानन्दपरायणा हैं। आप ही एका (अद्वितीया) हैं, अतएव आप प्रथमा हैं। आप ही सद्वितीया (मायासहित) होनेके कारण द्वितीया भी हैं। आप ही धर्म-अर्थ-काम-इनतीनोंका धाम होनेसे त्रयी अर्थात् तृतीया हैं। आप तुर्या अर्थात् सबसे परे होने के कारण चतुर्थी भी हैं। आप पंचमहाभूतों (पृथ्वी, तेज, जल, वायु, आकाश) की ईश्वरी होनेके कारण पंचमी और काम-क्रोध-लोभ मोह-मद-मत्सर- इन छ: की अधिष्ठात्री होनेके कारण षष्ठी हैं ।। 15-16 ॥
आप रवि आदि सातों वारोंकी ईश्वरी होने के कारण तथा सात-सात वर प्रदान करनेके कारण सप्तमी हैं तथा आठ वसुओंकी स्वामिनी होनेके कारण अष्टमी हैं। आप ही नवग्रहमयी ईश्वरी, रम्य नौ रागोंकी कला तथा नवेश्वरी होनेके कारण नवमी हैं। आप दसों दिशाओंमें व्याप्त रमारूपिणी हैं तथा दसों दिशाओंमें पूजित होती हैं, अतएव दशमी कही जाती हैं ।। 17-18 ll
आप एकादश रुद्रद्वारा आराधित हैं, एकादशी तिथिके प्रति आपकी प्रीति है तथा आप ग्यारह गणोंकी अधीश्वरी हैं; अतः आप एकादशी हैं ॥ 19 ॥
आप बारह भुजाओंवाली हैं तथा बारह आदित्योंको जन्म देनेवाली हैं, अतः द्वादशी हैं। आप मलमास सहित तेरह मासस्वरूपा हैं, तेरह गणोंकी प्रिया हैं और विश्वेदेवोंकी अधिष्ठात्री देवी हैं, अतः आप त्रयोदशी नामसे प्रसिद्ध हैं। आप चौदह इन्द्रोंको वर प्रदान करनेवाली तथा चौदह मनुओंको उत्पन्न करनेवाली हैं, अतएव चतुर्दशी हैं ॥ 20-21 ॥
आप पंचदशी अर्थात् कामराज विद्यारूपा त्रिपुर सुन्दरीरूपसे जानी जाती हैं तथा आप पंचदशी तिथि रूपिणी हैं। सोलह भुजाओंवाली, चन्द्रमाकी सोलहवीं कलासे विभूषित तथा चन्द्रमाकी षोडश कलारूपी किरणोंसे व्याप्त दिव्य विग्रहवाली होनेके कारण आप षोडशी हैं। हे तमोगुणसे युक्त होकर प्रकट होनेवाली! हे निर्गुणे। हे देवेशि। आप इस प्रकारके विविध रूपवाली हैं ॥ 22-23 ॥
देवाधिदेव लक्ष्मीकान्त भगवान् विष्णुको आपने निद्राके वशवर्ती कर रखा है और ये दोनों मधु कैटभ दानव अत्यन्त पराक्रमी तथा दुर्जेय हैं; अतएव आप इन दोनोंका संहार करनेके लिये देवेश्वर | विष्णुको जगाइये ॥ 243 ॥मुनि बोले - [ ब्रह्माजीके] इस प्रकार स्तुति करनेपर भगवान्को प्रिय तमोगुणमयी भगवतीने देवदेव विष्णुके शरीरको छोड़कर उन दोनों दानवोंको मोहित कर दिया।॥ 253 ॥
उसी समय जगन्नाथ, परमात्मा, परमेश्वर भगवान् विष्णु जग गये और उन्होंने दानवोंमें श्रेष्ठ उन दोनों | मधु-कैटभको देखा ॥ 263 ॥
तभी उन दोनों भयंकर दानवोंने मधुसूदन विष्णुको | देखकर युद्ध करनेका निश्चय किया और वे भगवान्के पास पहुँच गये॥ 273 ॥
तब सर्वव्यापी भगवान् मधुसूदन उन दोनोंके साथ पाँच हजार वर्षोंतक बाहुयुद्ध करते रहे ॥ 283 ॥ तत्पश्चात् जगन्मायाके द्वारा
विमोहित किये गये वे दोनों अत्यधिक बलसे उन्मत्त दानव परमेश्वर विष्णुसे कहने लगे-आप [हम दोनोंसे] वरदान माँग लीजिये ॥ 293 ॥
उन दोनोंकी यह बात सुनकर आदिपुरुष भगवान् विष्णुने यह वर माँगा - तुम दोनों मेरे द्वारा आज ही | मार दिये जाओ ॥ 303 ॥
इसके बाद अत्यन्त बलशाली उन दोनों दानवोंने भगवान् श्रीहरिसे पुनः कहा-जिस स्थानपर पृथ्वी जलमें डूबी हुई न हो, वहींपर आप हमारा वध कीजिये ॥ 313 ॥
हे राजन्! 'वैसा ही होगा- यह कहकर गदा तथा शंख धारण करनेवाले भगवान् विष्णुने उनके मस्तकोंको अपनी जोधपर रखकर चक्रसे काट |दिया ॥ 323 ॥
हे नृप हे महाराज! इस प्रकार ब्रह्माजीके स्तवन करनेपर सभी योगेश्वरोंको ईश्वरी महाकाली भगवती प्रकट हुई थीं। हे महीपते। अब आप | महालक्ष्मीकी उत्पत्तिके विषयमें सुनिये ॥ 33-34 ॥