श्रीनारायण बोले [हे नारद!] सावित्रीकी बात सुनकर यमराज आश्चर्यमें पड़ गये और हँसकर उन्होंने प्राणियों के कर्मफलके विषयमें बताना आरम्भ किया ॥ 1 ॥
धर्म बोले- हे वत्से ! इस समय तुम्हारी अवस्था तो मात्र बारह वर्षकी है, किंतु तुम्हारा ज्ञान बड़े-बड़े विद्वानों, ज्ञानियों और योगियोंसे भी बढ़कर है ॥ 2 ॥
हे पुत्रि तुम भगवती सावित्रीके वरदान उन्हींकी कलासे जन्म लेकर सती सावित्री नामसे विख्यात हो प्राचीन कालमें राजा अश्वपतिने अपनी की गयी तपस्याके द्वारा उन्हीं सावित्रीके सदृश तुम्हें | कन्यारूपमें प्राप्त किया है ॥ 3 ॥
जिस प्रकार लक्ष्मी विष्णुकी गोदमें तथा भवानी भगवान् शिवके वक्षःस्थलपर विराजमान रहती हैं एवं जैसे अदिति कश्यपके, अहल्या गौतमके, शची महेन्द्रके, रोहिणी चन्द्रमाके, रति कामदेवके, स्वाहा अग्निके, स्वधा पितरोंके, सन्ध्या सूर्यके, वरुणानी वरुणके, दक्षिणा यज्ञके, पृथ्वी वाराहके और देवसेना कार्तिकेयके पास उनकी सौभाग्यवती प्रिया बनकर सुशोभित होती हैं, उसी प्रकार हे प्रिये तुम भी सत्यवान्की सौभाग्यवती प्रियाके रूपमें सुशोभित होओ। यह वर मैंने तुम्हें प्रदान कर दिया। हे देवि ! हे महाभागे इसके अतिरिक्त और भी जो दूसरा वर तुम्हें अभीष्ट हो, उसे माँग लो; मैं तुम्हें सभी अभिलषित वर प्रदान करूंगा ll 4-8 ll
सावित्री बोली- हे महाभाग सत्यवान् से मुझे सौ औरस पुत्र प्राप्त हों, यह मेरा अभीष्ट वर है। मेरे पिताके भी सौ पुत्र हों, मेरे श्वसुरको नेत्र ज्योति मिल जाय और उन्हें राज्य भी प्राप्त हो जाय-यह मेरा अभिलषित वर है। हे जगत्प्रभो! अन्तमें एक लाख वर्ष बीतने के पश्चात् मैं सत्यवान् के साथ भगवान् श्रीहरिके धाम चली जाऊँ– यह वर भी आप मुझे दीजिये ।। 9-11 ॥जीवके कमका फल तथा संसारसे उसके उद्धारका उपाय सुननेके लिये मुझे बहुत कौतूहल हो रहा है, अतः वह सब मुझे बतानेकी आप कृपा कीजिये ॥ 12 ॥
धर्मराज बोले- हे महासाध्वि तुम्हारे सभी मनोरथ पूर्ण होंगे। अब मैं जीवोंके कर्मफलके विषयमें बता रहा हूँ, तुम ध्यानपूर्वक सुनो ll 13 ll
पुण्यभूमि भारतवर्षमें ही शुभ और अशुभ कमकी उत्पत्ति होती है, अन्यत्र नहीं दूसरी जगह लोग केवल कमौका फल भोगते हैं। हे पतिव्रते। देवता, दैत्य, दानव, गन्धर्व और राक्षसादि ये ही शुभाशुभ कर्म करनेवाले हैं, दूसरे पशु आदि प्राणी नहीं। देवादि विशिष्ट प्राणी ही सभी योनियोंका फल भोगते हैं, सभी योनियोंमें भटकते हैं और शुभाशुभ कर्मोंका फल स्वर्ग तथा नरकमें भोगते हैं ll 14 - 16 ll
वे विशिष्ट प्राणी समस्त योनियोंमें भ्रमण करते रहते हैं और पूर्वजन्ममें अर्जित किये गये शुभ तथा अशुभ कर्मोंका फल भोगते रहते हैं। शुभ कर्मके प्रभावसे प्राणी स्वर्गादि लोकोंमें जाते हैं तथा अशुभ कर्मके कारण वे विभिन्न नरकोंमें पड़ते हैं । ll 17-18 ॥
कर्मके निःशेष हो जानेपर भक्ति उत्पन्न होती है। हे साध्वि वह भक्ति दो प्रकारकी बतलायी गयी है। एक निर्वाणस्वरूपा भक्ति है और दूसरी ब्रह्मरूपिणी भगवती प्रकृतिके लिये की जानेवाली भक्ति है। ll 19 ll
प्राणी पूर्वजन्ममें किये गये कुकर्मके कारण रोगी और शुभ कर्मके कारण रोगरहित होता है। इस प्रकार अपने कर्मसे ही जीव दीर्घजीवी, अल्प आयुवाला, सुखी तथा दुःखी होता है। प्राणी अपने कुत्सित कर्मके प्रभावसे नेत्रहीन तथा अंगहीन होता है। | सर्वोत्कृष्ट कर्मके द्वारा प्राणी अपने दूसरे जन्ममें | सिद्धि आदि भी प्राप्त कर लेता है । ll20-21 ॥
हे देवि साधारण बात कह चुका, अब विशेष बात सुनो। हे सुन्दरि । यह अत्यन्त दुर्लभ विषय पुराणों और स्मृतियोंमें वर्णित है। इसे पूर्णरूपसे गुप्त रखना चाहिये ॥ 22 ॥भारतवर्ष में समस्त योनियों में मानवयोनि परम दुर्लभ है। सभी मनुष्योंमें ब्राह्मण श्रेष्ठ होता है। वह सम्पूर्ण कर्मोंमें प्रशस्त माना गया है। हे साध्वि ! उनमें ब्रह्मनिष्ठ ब्राह्मण भारतवर्षमें अधिक गरिमामय माना जाता है। हे साध्वि! सकाम तथा निष्काम भेदसे ब्राह्मण दो प्रकारके होते हैं। सकाम होनेसे वह कर्मप्रधान होता है। निष्काम केवल भक्त होता है। सकाम कर्मफल भोगता है और निष्काम समस्त सुखासुख भोगोंके उपद्रवोंसे रहित रहता है। हे साध्वि! वह शरीर त्यागकर भगवान्का जो निरामय धाम उसे प्राप्त करता है और हे साध्वि ! उन निष्काम जनोंको पुनः इस लोकमें नहीं आना पड़ता। वे द्विभुज परमात्मा श्रीकृष्णकी उपासना करते हैं और अन्तमें वे भक्त दिव्यरूप धारणकर गोलोकको प्राप्त होते हैं ॥ 23-27 ॥
सकाम वैष्णव वैकुण्ठधाममें जाकर समयानुसार पुनः भारतवर्ष में लौट आते हैं और यहाँपर द्विजातियोंके कुलमें उनका जन्म होता है। वे सभी कुछ समय बीतनेपर क्रमशः निष्काम भक्त बन जाते हैं और मैं उन्हें अपनी निर्मल भक्ति प्रदान कर देता हूँ; यह सर्वथा निश्चित है। जो सकाम ब्राह्मण तथा वैष्णवजन हैं, अनेक जन्मोंमें भी विष्णुभक्तिसे रहित होनेके कारण उनकी बुद्धि निर्मल नहीं हो पाती ॥ 28-30 ॥
हे साध्वि ! जो द्विज तीर्थोंमें रहकर सदा तपस्यामें संलग्न रहते हैं, वे ब्रह्मलोक जाते हैं और समयानुसार पुनः भारतवर्षमें आते हैं ॥ 31 ॥
जो तीर्थोंमें अथवा कहीं अन्यत्र रहकर सदा अपने ही धर्म-कर्ममें लगे रहते हैं, वे सत्यलोक पहुँचते हैं और पुनः भारतवर्ष में जन्म लेते हैं ॥ 32 ॥ जो ब्राह्मण अपने धर्ममें संलग्न रहकर भारतवर्षमें सूर्यकी उपासना करते हैं, वे सूर्यलोक जाते हैं और समयानुसार लौटकर पुनः भारतवर्ष में जन्म लेते हैं ॥ 33 ॥
जो धर्मपरायण तथा निष्काम मानव मूलप्रकृति भगवती जगदम्बाकी भक्ति करते हैं, वे मणिद्वीप लोकमें जाते हैं और फिर वहाँसे लौटकर नहीं आते ॥ 34 ॥जो अपने धर्मोंमें संलग्न रहते हुए शिव, शक्ति और गणपतिकी उपासना करते हैं वे शिवलोक जाते हैं और कुछ समय पश्चात् वहाँसे पुनः भारतवर्ष में लौट आते हैं॥ 35 ॥
हे साध्वि! जो ब्राह्मण अपने धर्ममें निरत रहकर अन्य देवताओंकी उपासना करते हैं, वे विभिन्न लोकोंमें जाते हैं और समयानुसार पुनः भारतवर्षमें जन्म लेते हैं ॥ 36 ॥
जो द्विज अपने धर्ममें संलग्न रहते हुए निष्काम भावसे भगवान् श्रीहरिकी भक्ति करते हैं, वे उस भक्तिके प्रभावसे क्रमसे श्रीहरिके लोकको प्राप्त होते हैं ॥ 37 ॥ जो विप्र सदा अपने धर्मसे विमुख, आचारहीन, कामलोलुप तथा देवाराधनसे रहित हैं, वे अवश्य ही नरकमें पड़ते हैं ॥ 38 ll
चारों वर्णोंके लोग अपने-अपने धर्ममें संलग्न रहकर ही शुभ कर्मका फल भोगनेके अधिकारी होते हैं ॥ 39 ॥
जो अपने कर्तव्यसे विमुख हैं, वे अवश्य ही नरकमें जाते हैं और अपने कर्मका फल भोगते हैं। वे भारतवर्ष में नहीं आ सकते। अतः चारों वर्णोंके लोगोंको अपने-अपने धर्मका पालन करना चाहिये ll 40 ॥ हे साध्वि! अपने धर्ममें तत्पर रहनेवाले जो ब्राह्मण अपने धर्ममें संलग्न ब्राह्मणको अपनी कन्या प्रदान करते हैं, वे चन्द्रलोकमें जाते हैं और वहाँपर चौदह इन्द्रोंकी स्थितिपर्यन्त निवास करते हैं। कन्याको अलंकारोंसे विभूषित करके दान करनेसे दुगुना फल कहा जाता है। सकाम भावसे दान करनेवाले उसी चन्द्रलोकमें जाते हैं, किंतु निष्काम भावसे दान करनेवाले साधुपुरुष वहाँ नहीं जाते, फलकी इच्छासे रहित वे विष्णुलोकको प्राप्त होते | हैं ॥ 41-433 ॥
जो लोग ब्राह्मणोंको गव्य, चांदी, सोना, वस्त्र, घृत, फल और जल प्रदान करते हैं; वे चन्द्रलोकमें जाते हैं और हे साध्वि! वे उस लोकमें एक मन्वन्तरतक निवास करते हैं। उस दानके प्रभावसे ही वे लोग वहाँ इतने दीर्घकालतक सुखपूर्वक निवास करते हैं ।। 44-453 ॥हे साध्वि! जो लोग पवित्र ब्राह्मणको सुवर्ण, | गौ और ताम्र आदि देते हैं, वे सूर्यलोकमें जाते हैं। और हे साध्वि! वे वहाँ उस लोकमें दस हजार वर्षोंतक निवास करते हैं। वे उस विस्तृत लोकमें निर्विकार होकर दीर्घकालतक निवास करते हैं ।। 46-473 ॥
जो मनुष्य ब्राह्मणोंको भूमि तथा प्रचुर धन प्रदान करता है, वह भगवान् विष्णुके श्वेतद्वीप नामक मनोहर लोकमें पहुँच जाता है और वहाँपर चन्द्र सूर्यकी स्थितिपर्यन्त निवास करता है। हे मुने! वह पुण्यवान् मनुष्य उस महान् लोकमें विपुल कालतक वास करता है ॥ 48-493 ॥
जो लोग विप्रको भक्तिपूर्वक गृहका दान करते हैं, वे चिरकालतक स्थिर रहनेवाले सुखदायी विष्णुलोकको प्राप्त होते हैं। हे साध्वि ! वे मनुष्य दानमें दिये गये उस गृहके रजकणकी संख्याके बराबर वर्षोंतक उस अत्यन्त श्रेष्ठ तथा विशाल विष्णुलोकमें निवास करते हैं। जो मनुष्य जिस किसी भी देवताके उद्देश्यसे मन्दिरका दान करता है, वह उस देवताके लोकमें जाता है और उस लोकमें उतने ही वर्षोंतक वास करता है, जितने उस मन्दिरमें रजकण होते हैं। अपने घरपर दान करनेसे चार गुना, किसी पवित्र तीर्थमें दान करनेसे सौ गुना और किसी श्रेष्ठ स्थानमें दान करने से दुगुना पुण्यफल प्राप्त होता है-ऐसा ब्रह्माजीने कहा है ॥ 50 - 533 ॥
जो व्यक्ति समस्त पापोंसे मुक्त होनेके लिये तड़ागका दान करता है, वह जनलोक जाता है और उस तड़ागमें विद्यमान रेणु-संख्याके बराबर वर्षोंतक उस लोकमें रहता है। वापीका दान करनेसे मनुष्य | उससे भी दस गुना फल प्राप्त कर लेता है। वापीके दानसे तड़ाग-दानका फल स्वतः प्राप्त हो जाता है। चार हजार धनुषके बराबर लम्बा तथा उतना ही | अथवा उससे कुछ कम चौड़ा जिसका प्रमाण हो, उसे वापी कहा गया है ॥ 54-563 ॥
यदि कन्या किसी योग्य वरको प्रदान की जाती है, तो वह दान दस वापीके दानके समान होता है और यदि कन्या अलंकारोंसे सम्पन्न करके दी जातीहै, तो उससे भी दुगुना फल प्राप्त होता है। जो फल तड़ागके दानसे मिलता है, वही फल उस तड़ागके जीर्णोद्धारसे भी प्राप्त हो जाता है। किसी वापीका कीचड़ दूर कराकर उसका उद्धार करनेसे वापी दानके समान पुण्य प्राप्त हो जाता है ।। 57-583 ।।
हे साध्वि ! जो मनुष्य पीपलका वृक्ष लगाकर उसकी प्रतिष्ठा करता है, वह तपोलोक पहुँचता है और वहाँपर दस हजार वर्षोंतक निवास करता है। हे सावित्रि जो व्यक्ति समस्त प्राणियोंके लिये पुष्पोद्यानका दान करता है, वह दस हजार वर्षोंतक ध्रुवलोकमें निश्चितरूपसे निवास करता है ।। 59-60 ॥
हे साध्वि ! जो मनुष्य विष्णुके उद्देश्यसे भारतमें विमानका दान करता है, वह पूरे एक मन्वन्तरतक विष्णुलोक में निवास करता है। चित्रयुक्त तथा विशाल विमानका दान करनेपर उसके दानका चौगुना फल होता है। शिविकाका दान करनेसे मनुष्य उसका आधा फल प्राप्त करता है—यह निश्चित है। जो व्यक्ति भगवान् श्रीहरिके उद्देश्यसे भक्तिपूर्वक दोला मन्दिरका दान करता है, वह भी विष्णुलोकमें सौ | मन्वन्तरतक निवास करता है ।। 61-633 ॥
हे पतिव्रते ! जो मनुष्य आरामगृहोंसे युक्त राजमार्गका निर्माण कराता है, वह दस हजार वर्षोंतक इन्द्रलोकमें प्रतिष्ठित होता है ॥ 64 ॥
ब्राह्मणों अथवा देवताओंको दिया हुआ दान समान फल प्रदान करता है जो पूर्वजन्ममें दिया गया है, जन्मान्तरमें उसीका फल प्राप्त होता है और जो नहीं दिया गया है, उसका फल नहीं मिलता। पुण्यवान् मनुष्य स्वर्ग आदि लोकोंके सुख भोगकर भारतवर्ष में क्रमशः उत्तमसे उत्तम ब्राह्मणकुलोंमें | जन्म ग्रहण करता है। इस प्रकार वह पुण्यवान् विप्र भी पुनः स्वर्गमें अपने कर्मफलका भोग करके भारतवर्षमें ब्राह्मण होकर जन्म प्राप्त करता है। क्षत्रिय आदिके लिये भी ऐसा ही है। क्षत्रिय हो अथवा वैश्य - कोई करोड़ों कल्पके तपस्याके प्रभावसे भी ब्राह्मणत्व नहीं प्राप्त कर सकता- ऐसा श्रुतियोंमें सुना गया है ।। 65- 683 ।।करोड़ों कल्प बीत जानेपर भी बिना भोग प्राप्त किये कर्मका क्षय नहीं होता। अपने द्वारा किये गये शुभ अथवा अशुभ कर्मका फल मनुष्यको भोगना ही पड़ता है। देवता और तीर्थकी सहायतासे तथा कायव्यूह ( तप) - से प्राणी शुद्ध हो जाता है। हे साध्वि! ये कुछ बातें मैंने तुम्हें बतला दीं; अब आगे | क्या सुनना चाहती हो ? ।। 69-70 ।।