श्रीनारायण बोले - [ हे मुने!] यमराजकी बात सुनकर पतिव्रता तथा दृढ़ निश्चयवाली सावित्रीने परम भक्तिके साथ उनकी स्तुति की और वह उनसे कहने लगी ॥ 1 ॥
सावित्री बोली -कर्म क्या है, वह किससे होता है और उसका हेतु कौन है ? देही कौन है, देह कौन है और इस लोकमें प्राणियोंसे कौन कर्म कराता है? ज्ञान क्या है, बुद्धि क्या है और शरीरधारियोंका प्राण क्या है ? इन्द्रियाँ क्या हैं तथा उनके कौन-कौन-से लक्षण हैं और देवता कौन हैं, भोग करनेवाला कौन है, भोग करानेवाला कौन है, भोग क्या है, निष्कृति क्या है, जीव कौन है तथा परमात्मा कौन हैं ? – यह सब आप मुझे कृपा करके बताइये ll 2-4 ॥
धर्म बोले- वेदमें जो भी प्रतिपादित है, वह धर्म है, और वही कर्म परम मंगलकारी कर्म है। इसके विपरीत जो कर्म अवैदिक होता है, वह निश्चितरूपसे अशुभ होता है ॥ 5 ॥
देवताओंकी संकल्परहित तथा अहैतुकी सेवा कर्म-निर्मूलरूपा कही जाती है। यही सेवा पराभक्ति प्रदान करनेवाली होती है ॥ 6 ॥कर्मफलका भोक्ता कौन है और कौन निर्लिप्त है ? इसके उत्तरमें श्रुतिका वचन है कि जो ब्रह्मकी भक्ति करता है, वही मुक्त है और वह जन्म मृत्यु, जरा, व्याधि, शोक तथा भय-इन सबसे रहित हो जाता है ॥ 73 ॥
हे साध्वि । श्रुतिमें दो प्रकारकी सर्वमान्य भक्ति बतायी गयी है। पहली भक्ति निर्वाण पद प्रदान करती है और दूसरे प्रकारकी भक्ति मनुष्योंको साक्षात् श्रीहरिका रूप प्रदान करती है। वैष्णवजन श्रीहरिका सारूप्य प्रदान करनेवाली भक्तिकी कामना करते हैं और अन्य ब्रह्मवेत्ता योगी निर्वाणपद देनेवाली भक्ति चाहते हैं ॥ 8-93 ॥
कर्मका जो बीजरूप है, वह उसका सदा फल प्रदान करनेवाला है। कर्म परमात्मा भगवान् श्रीहरि तथा परा प्रकृतिका ही रूप है। वे परमात्मा ही कर्मके कारणरूप हैं, यह शरीर तो सदासे नश्वर है ।। 10-11 ॥
पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश-ये सूत्ररूप पंच महाभूत हैं, जो परमात्माके सृष्टिप्रकरणमें प्रयुक्त होते हैं ॥ 12 ॥
कर्म करनेवाला जीव देही है और वही अन्तर्यामी रूपसे भोजयिता भी है। सुख और दुःखके साक्षात् स्वरूप वैभवको ही भोग कहते हैं और इससे छूटनेको ही 'निष्कृति' (मोक्ष) कहा गया है ॥ 13 ॥
सत् तथा असत्यें भेद करनेका जो प्रधान बीजरूप हेतु है, वही ज्ञान है और वह ज्ञान अनेक भेदोंवाला होता है। वह ज्ञान घट-पट आदि विषयोंके भेदका कारण कहा गया है ॥ 14 ॥
विवेचनमयी शक्ति ही बुद्धि है। वह श्रुतिमें ज्ञानबीज नामसे विख्यात है। वायुके विभिन्न रूप प्राण हैं। ये देहधारियोंके लिये बलस्वरूप हैं ॥ 15 ॥
जो इन्द्रियोंमें प्रमुख, ईश्वरका अंशरूप, अतर्क्य, कर्मोंका प्रेरक, देहधारियोंके लिये दुर्निवार्य, अनिरूप्य, अदृश्य तथा बुद्धिका भेदक है; उसीको | मन कहा गया है ॥ 163 ॥आँख, कान, नाक, त्वचा और जिड़ाये
कर्मेन्द्रिय प्राणियोंके अंगरूप, सभी कर्मोकी प्रेरक, शत्रुरूप, मित्ररूप, [सत्कार्यमें प्रवृत्त होनेपर ] सुख
देनेवाली तथा [बुरे कार्यमें प्रवृत्त होनेपर ] दुःख
देनेवाली हैं। सूर्य, वायु, पृथ्वी, ब्रह्मा आदि इन्द्रियोंके
देवता कहे गये हैं ll 17-183 ।।
जो प्राण तथा देहको धारण करता है, उसे जीव कहा गया है। प्रकृतिसे परे तथा कारणका भी कारण जो सर्वव्यापी निर्गुण ब्रह्म है, वही परमात्मा कहा जाता है। [हे सावित्रि!] इस प्रकार तुमने जो कुछ पूछा था, वह सब मैंने तुम्हें शास्त्रानुसार बतला दिया। यह प्रसंग ज्ञानियोंके लिये ज्ञानरूप है। हे वत्से ! अब तुम सुखपूर्वक चली जाओ ॥ 19-21 ॥
सावित्री बोली- [हे प्रभो!] मैं अपने इन प्राणनाथ तथा ज्ञानके सागरस्वरूप आपको छोड़कर कहाँ जाऊँ? इस समय मैं आपसे जो-जो प्रश्न कर रही हूँ, उन्हें आप मुझे बताइये ॥ 22 ॥
हे पितः! किस-किस कर्मके प्रभावसे जीव किस-किस योनिमें जाता है, वह किस कर्मसे स्वर्ग तथा किस कर्मसे नरकमें जाता है ? ॥ 23 ॥
हे ब्रहान्। किस कर्मसे मुक्ति होती है तथा किस कर्मसे गुरुके प्रति भक्ति होती है? उसी तरह किन किन कर्मोंके प्रभावसे प्राणी योगी, रोगी, दीर्घजीवी, अल्पायु, दुःखी, सुखी, अंगहीन, काना, बहरा, अन्धा, पंगु, उन्मादी, पागल, अत्यन्त लोभी अथवा चोर हो जाता है ? किस कर्मके द्वारा मनुष्य सिद्धि, सालोक्य आदि चारों प्रकारको मुक्तियाँ, ब्राह्मणत्व, तपस्विता, स्वर्गके भोग आदि, वैकुण्ठ और सर्वोत्तम तथा विशुद्ध गोलोक प्राप्त करता है? ॥ 24-283 ll
कितने प्रकारके नरक हैं, उनकी संख्या कितनी है, उनके नाम क्या-क्या हैं? कौन प्राणी किस नरकमें जाता है और वहाँ कितने समयतक निवास करता है? किस कर्मके प्रभावसे पापी मनुष्योंको कौन-सी व्याधि होती है ? [हे प्रभो!] मैंने अपनी जो-जो प्रिय बात आपसे पूछी है, उसे कृपा करके मुझे बताइये ॥ 29-30 ॥