View All Puran & Books

देवी भागवत महापुराण ( देवी भागवत)

Devi Bhagwat Purana (Devi Bhagwat Katha)

स्कन्ध 9, अध्याय 28 - Skand 9, Adhyay 28

Previous Page 250 of 326 Next

सावित्री यमराज-संवाद

श्रीनारायण बोले - [ हे मुने!] यमराजकी बात सुनकर पतिव्रता तथा दृढ़ निश्चयवाली सावित्रीने परम भक्तिके साथ उनकी स्तुति की और वह उनसे कहने लगी ॥ 1 ॥

सावित्री बोली -कर्म क्या है, वह किससे होता है और उसका हेतु कौन है ? देही कौन है, देह कौन है और इस लोकमें प्राणियोंसे कौन कर्म कराता है? ज्ञान क्या है, बुद्धि क्या है और शरीरधारियोंका प्राण क्या है ? इन्द्रियाँ क्या हैं तथा उनके कौन-कौन-से लक्षण हैं और देवता कौन हैं, भोग करनेवाला कौन है, भोग करानेवाला कौन है, भोग क्या है, निष्कृति क्या है, जीव कौन है तथा परमात्मा कौन हैं ? – यह सब आप मुझे कृपा करके बताइये ll 2-4 ॥

धर्म बोले- वेदमें जो भी प्रतिपादित है, वह धर्म है, और वही कर्म परम मंगलकारी कर्म है। इसके विपरीत जो कर्म अवैदिक होता है, वह निश्चितरूपसे अशुभ होता है ॥ 5 ॥

देवताओंकी संकल्परहित तथा अहैतुकी सेवा कर्म-निर्मूलरूपा कही जाती है। यही सेवा पराभक्ति प्रदान करनेवाली होती है ॥ 6 ॥कर्मफलका भोक्ता कौन है और कौन निर्लिप्त है ? इसके उत्तरमें श्रुतिका वचन है कि जो ब्रह्मकी भक्ति करता है, वही मुक्त है और वह जन्म मृत्यु, जरा, व्याधि, शोक तथा भय-इन सबसे रहित हो जाता है ॥ 73 ॥

हे साध्वि । श्रुतिमें दो प्रकारकी सर्वमान्य भक्ति बतायी गयी है। पहली भक्ति निर्वाण पद प्रदान करती है और दूसरे प्रकारकी भक्ति मनुष्योंको साक्षात् श्रीहरिका रूप प्रदान करती है। वैष्णवजन श्रीहरिका सारूप्य प्रदान करनेवाली भक्तिकी कामना करते हैं और अन्य ब्रह्मवेत्ता योगी निर्वाणपद देनेवाली भक्ति चाहते हैं ॥ 8-93 ॥

कर्मका जो बीजरूप है, वह उसका सदा फल प्रदान करनेवाला है। कर्म परमात्मा भगवान् श्रीहरि तथा परा प्रकृतिका ही रूप है। वे परमात्मा ही कर्मके कारणरूप हैं, यह शरीर तो सदासे नश्वर है ।। 10-11 ॥

पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश-ये सूत्ररूप पंच महाभूत हैं, जो परमात्माके सृष्टिप्रकरणमें प्रयुक्त होते हैं ॥ 12 ॥

कर्म करनेवाला जीव देही है और वही अन्तर्यामी रूपसे भोजयिता भी है। सुख और दुःखके साक्षात् स्वरूप वैभवको ही भोग कहते हैं और इससे छूटनेको ही 'निष्कृति' (मोक्ष) कहा गया है ॥ 13 ॥

सत् तथा असत्यें भेद करनेका जो प्रधान बीजरूप हेतु है, वही ज्ञान है और वह ज्ञान अनेक भेदोंवाला होता है। वह ज्ञान घट-पट आदि विषयोंके भेदका कारण कहा गया है ॥ 14 ॥

विवेचनमयी शक्ति ही बुद्धि है। वह श्रुतिमें ज्ञानबीज नामसे विख्यात है। वायुके विभिन्न रूप प्राण हैं। ये देहधारियोंके लिये बलस्वरूप हैं ॥ 15 ॥

जो इन्द्रियोंमें प्रमुख, ईश्वरका अंशरूप, अतर्क्य, कर्मोंका प्रेरक, देहधारियोंके लिये दुर्निवार्य, अनिरूप्य, अदृश्य तथा बुद्धिका भेदक है; उसीको | मन कहा गया है ॥ 163 ॥आँख, कान, नाक, त्वचा और जिड़ाये
कर्मेन्द्रिय प्राणियोंके अंगरूप, सभी कर्मोकी प्रेरक, शत्रुरूप, मित्ररूप, [सत्कार्यमें प्रवृत्त होनेपर ] सुख
देनेवाली तथा [बुरे कार्यमें प्रवृत्त होनेपर ] दुःख
देनेवाली हैं। सूर्य, वायु, पृथ्वी, ब्रह्मा आदि इन्द्रियोंके
देवता कहे गये हैं ll 17-183 ।।

जो प्राण तथा देहको धारण करता है, उसे जीव कहा गया है। प्रकृतिसे परे तथा कारणका भी कारण जो सर्वव्यापी निर्गुण ब्रह्म है, वही परमात्मा कहा जाता है। [हे सावित्रि!] इस प्रकार तुमने जो कुछ पूछा था, वह सब मैंने तुम्हें शास्त्रानुसार बतला दिया। यह प्रसंग ज्ञानियोंके लिये ज्ञानरूप है। हे वत्से ! अब तुम सुखपूर्वक चली जाओ ॥ 19-21 ॥

सावित्री बोली- [हे प्रभो!] मैं अपने इन प्राणनाथ तथा ज्ञानके सागरस्वरूप आपको छोड़कर कहाँ जाऊँ? इस समय मैं आपसे जो-जो प्रश्न कर रही हूँ, उन्हें आप मुझे बताइये ॥ 22 ॥

हे पितः! किस-किस कर्मके प्रभावसे जीव किस-किस योनिमें जाता है, वह किस कर्मसे स्वर्ग तथा किस कर्मसे नरकमें जाता है ? ॥ 23 ॥

हे ब्रहान्। किस कर्मसे मुक्ति होती है तथा किस कर्मसे गुरुके प्रति भक्ति होती है? उसी तरह किन किन कर्मोंके प्रभावसे प्राणी योगी, रोगी, दीर्घजीवी, अल्पायु, दुःखी, सुखी, अंगहीन, काना, बहरा, अन्धा, पंगु, उन्मादी, पागल, अत्यन्त लोभी अथवा चोर हो जाता है ? किस कर्मके द्वारा मनुष्य सिद्धि, सालोक्य आदि चारों प्रकारको मुक्तियाँ, ब्राह्मणत्व, तपस्विता, स्वर्गके भोग आदि, वैकुण्ठ और सर्वोत्तम तथा विशुद्ध गोलोक प्राप्त करता है? ॥ 24-283 ll

कितने प्रकारके नरक हैं, उनकी संख्या कितनी है, उनके नाम क्या-क्या हैं? कौन प्राणी किस नरकमें जाता है और वहाँ कितने समयतक निवास करता है? किस कर्मके प्रभावसे पापी मनुष्योंको कौन-सी व्याधि होती है ? [हे प्रभो!] मैंने अपनी जो-जो प्रिय बात आपसे पूछी है, उसे कृपा करके मुझे बताइये ॥ 29-30 ॥

Previous Page 250 of 326 Next

देवी भागवत महापुराण
Index


  1. [अध्याय 1] प्रकृतितत्त्वविमर्श प्रकृतिके अंश, कला एवं कलांशसे उत्पन्न देवियोंका वर्णन
  2. [अध्याय 2] परब्रह्म श्रीकृष्ण और श्रीराधासे प्रकट चिन्मय देवताओं एवं देवियोंका वर्णन
  3. [अध्याय 3] परिपूर्णतम श्रीकृष्ण और चिन्मयी राधासे प्रकट विराट्रूप बालकका वर्णन
  4. [अध्याय 4] सरस्वतीकी पूजाका विधान तथा कवच
  5. [अध्याय 5] याज्ञवल्क्यद्वारा भगवती सरस्वतीकी स्तुति
  6. [अध्याय 6] लक्ष्मी, सरस्वती तथा गंगाका परस्पर शापवश भारतवर्षमें पधारना
  7. [अध्याय 7] भगवान् नारायणका गंगा, लक्ष्मी और सरस्वतीसे उनके शापकी अवधि बताना तथा अपने भक्तोंके महत्त्वका वर्णन करना
  8. [अध्याय 8] कलियुगका वर्णन, परब्रह्म परमात्मा एवं शक्तिस्वरूपा मूलप्रकृतिकी कृपासे त्रिदेवों तथा देवियोंके प्रभावका वर्णन और गोलोकमें राधा-कृष्णका दर्शन
  9. [अध्याय 9] पृथ्वीकी उत्पत्तिका प्रसंग, ध्यान और पूजनका प्रकार तथा उनकी स्तुति
  10. [अध्याय 10] पृथ्वीके प्रति शास्त्र - विपरीत व्यवहार करनेपर नरकोंकी प्राप्तिका वर्णन
  11. [अध्याय 11] गंगाकी उत्पत्ति एवं उनका माहात्म्य
  12. [अध्याय 12] गंगाके ध्यान एवं स्तवनका वर्णन, गोलोकमें श्रीराधा-कृष्णके अंशसे गंगाके प्रादुर्भावकी कथा
  13. [अध्याय 13] श्रीराधाजीके रोषसे भयभीत गंगाका श्रीकृष्णके चरणकमलोंकी शरण लेना, श्रीकृष्णके प्रति राधाका उपालम्भ, ब्रह्माजीकी स्तुतिसे राधाका प्रसन्न होना तथा गंगाका प्रकट होना
  14. [अध्याय 14] गंगाके विष्णुपत्नी होनेका प्रसंग
  15. [अध्याय 15] तुलसीके कथा-प्रसंगमें राजा वृषध्वजका चरित्र- वर्णन
  16. [अध्याय 16] वेदवतीकी कथा, इसी प्रसंगमें भगवान् श्रीरामके चरित्रके एक अंशका कथन, भगवती सीता तथा द्रौपदी के पूर्वजन्मका वृत्तान्त
  17. [अध्याय 17] भगवती तुलसीके प्रादुर्भावका प्रसंग
  18. [अध्याय 18] तुलसीको स्वप्न में शंखचूड़का दर्शन, ब्रह्माजीका शंखचूड़ तथा तुलसीको विवाहके लिये आदेश देना
  19. [अध्याय 19] तुलसीके साथ शंखचूड़का गान्धर्वविवाह, शंखचूड़से पराजित और निर्वासित देवताओंका ब्रह्मा तथा शंकरजीके साथ वैकुण्ठधाम जाना, श्रीहरिका शंखचूड़के पूर्वजन्मका वृत्तान्त बताना
  20. [अध्याय 20] पुष्पदन्तका शंखचूड़के पास जाकर भगवान् शंकरका सन्देश सुनाना, युद्धकी बात सुनकर तुलसीका सन्तप्त होना और शंखचूड़का उसे ज्ञानोपदेश देना
  21. [अध्याय 21] शंखचूड़ और भगवान् शंकरका विशद वार्तालाप
  22. [अध्याय 22] कुमार कार्तिकेय और भगवती भद्रकालीसे शंखचूड़का भयंकर बुद्ध और आकाशवाणीका पाशुपतास्त्रसे शंखचूड़की अवध्यताका कारण बताना
  23. [अध्याय 23] भगवान् शंकर और शंखचूड़का युद्ध, भगवान् श्रीहरिका वृद्ध ब्राह्मणके वेशमें शंखचूड़से कवच माँग लेना तथा शंखचूड़का रूप धारणकर तुलसीसे हास-विलास करना, शंखचूड़का भस्म होना और सुदामागोपके रूपमें गोलोक पहुँचना
  24. [अध्याय 24] शंखचूड़रूपधारी श्रीहरिका तुलसीके भवनमें जाना, तुलसीका श्रीहरिको पाषाण होनेका शाप देना, तुलसी-महिमा, शालग्रामके विभिन्न लक्षण एवं माहात्म्यका वर्णन
  25. [अध्याय 25] तुलसी पूजन, ध्यान, नामाष्टक तथा तुलसीस्तवनका वर्णन
  26. [अध्याय 26] सावित्रीदेवीकी पूजा-स्तुतिका विधान
  27. [अध्याय 27] भगवती सावित्रीकी उपासनासे राजा अश्वपतिको सावित्री नामक कन्याकी प्राप्ति, सत्यवान् के साथ सावित्रीका विवाह, सत्यवान्की मृत्यु, सावित्री और यमराजका संवाद
  28. [अध्याय 28] सावित्री यमराज-संवाद
  29. [अध्याय 29] सावित्री धर्मराजके प्रश्नोत्तर और धर्मराजद्वारा सावित्रीको वरदान
  30. [अध्याय 30] दिव्य लोकोंकी प्राप्ति करानेवाले पुण्यकर्मोंका वर्णन
  31. [अध्याय 31] सावित्रीका यमाष्टकद्वारा धर्मराजका स्तवन
  32. [अध्याय 32] धर्मराजका सावित्रीको अशुभ कर्मोंके फल बताना
  33. [अध्याय 33] विभिन्न नरककुण्डों में जानेवाले पापियों तथा उनके पापोंका वर्णन
  34. [अध्याय 34] विभिन्न पापकर्म तथा उनके कारण प्राप्त होनेवाले नरकका वर्णन
  35. [अध्याय 35] विभिन्न पापकर्मोंसे प्राप्त होनेवाली विभिन्न योनियोंका वर्णन
  36. [अध्याय 36] धर्मराजद्वारा सावित्रीसे देवोपासनासे प्राप्त होनेवाले पुण्यफलोंको कहना
  37. [अध्याय 37] विभिन्न नरककुण्ड तथा वहाँ दी जानेवाली यातनाका वर्णन
  38. [अध्याय 38] धर्मराजका सावित्री से भगवतीकी महिमाका वर्णन करना और उसके पतिको जीवनदान देना
  39. [अध्याय 39] भगवती लक्ष्मीका प्राकट्य, समस्त देवताओंद्वारा उनका पूजन
  40. [अध्याय 40] दुर्वासाके शापसे इन्द्रका श्रीहीन हो जाना
  41. [अध्याय 41] ब्रह्माजीका इन्द्र तथा देवताओंको साथ लेकर श्रीहरिके पास जाना, श्रीहरिका उनसे लक्ष्मीके रुष्ट होनेके कारणोंको बताना, समुद्रमन्थन तथा उससे लक्ष्मीजीका प्रादुर्भाव
  42. [अध्याय 42] इन्द्रद्वारा भगवती लक्ष्मीका षोडशोपचार पूजन एवं स्तवन
  43. [अध्याय 43] भगवती स्वाहाका उपाख्यान
  44. [अध्याय 44] भगवती स्वधाका उपाख्यान
  45. [अध्याय 45] भगवती दक्षिणाका उपाख्यान
  46. [अध्याय 46] भगवती षष्ठीकी महिमाके प्रसंगमें राजा प्रियव्रतकी कथा
  47. [अध्याय 47] भगवती मंगलचण्डी तथा भगवती मनसाका आख्यान
  48. [अध्याय 48] भगवती मनसाका पूजन- विधान, मनसा-पुत्र आस्तीकका जनमेजयके सर्पसत्रमें नागोंकी रक्षा करना, इन्द्रद्वारा मनसादेवीका स्तवन करना
  49. [अध्याय 49] आदि गौ सुरभिदेवीका आख्यान
  50. [अध्याय 50] भगवती श्रीराधा तथा श्रीदुर्गाके मन्त्र, ध्यान, पूजा-विधान तथा स्तवनका वर्णन