नारदजी बोले -तुलसीकी यह अमृततुल्य कथा
तो मैंने सुन ली, अब आप सावित्रीकी कथा कहनेकी कृपा कीजिये। ऐसा सुना गया है कि वे सावित्री वेदोंकी जननी हैं। वे सर्वप्रथम किससे उत्पन्न हुई. जगत् में सर्वप्रथम इनकी पूजा किसने की और बादमें किन लोगोंने इनकी पूजा की ? ॥ 1-2 ॥
श्रीनारायण बोले हे मुने सर्वप्रथम मुने! ब्रह्माजीने वेदमाता सावित्रीको पूजा की, इसके बाद वेदोंने और तदनन्तर विद्वद्गणोंने इनका पूजन किया। तत्पश्चात् भारतवर्षमें राजा अश्वपतिने इनका पूजन किया और इसके बाद चारों वर्णके लोग इनकी पूजा करने लगे ॥ 3-4 ॥
नारद बोले- हे ब्रह्मन्! वे अश्वपति कौन थे, सर्वप्रथम उन्होंने सर्वपूज्या उन देवीकी पूजा किस कामनासे की तथा बादमें किन लोगोंने उनका पूजन किया ? ॥ 5 ॥
श्रीनारायण बोले हे मुने मद्रदेशमें अश्वपति | नामक एक महान् राजा हुए। वे अपने शत्रुओंके बलका नाश करनेवाले तथा मित्रोंका दुःख दूर करनेवाले थे ll 6 llउनकी महारानी मालती नामसे विख्यात थीं। वे रानी धर्मनिष्ठ थीं। वे उनके लिये उसी प्रकार थीं, जैसे गदाधारी विष्णुके लिये लक्ष्मी ॥ 7 ॥
हे नारद ! वे रानी मालती निःसन्तान थीं। अतः उन्होंने वसिष्ठके उपदेशानुसार भगवती सावित्रीकी भक्तिपूर्वक | आराधना की। किंतु रानीको देवीसे न तो कोई संकेत | मिला और न उनके दर्शन ही हुए, अतः कष्टसे व्याकुल होकर दुःखित मनसे वे घर चली गयीं ॥ 8-9 ॥
राजा अश्वपतिने उन्हें दुःखित देखकर नीतिपूर्ण वचनोंसे समझाया। इसके बाद भक्तिपूर्वक सावित्रीकी तपस्याके लिये वे पुष्करक्षेत्रमें चले गये । वहाँपर उन्होंने इन्द्रियोंको वशमें करके सौ वर्षतक तपस्या की। उन्हें सावित्रीके दर्शन तो नहीं हुए, किंतु प्रत्यादेश प्राप्त हुआ । हे नारद! उन नृपेन्द्रने यह अशरीरी आकाशवाणी सुनी - [हे राजेन्द्र !] तुम गायत्रीका दस लाख जप करो ॥ 10-12 ॥
इसी बीच वहाँ मुनि पराशर आ गये। राजाने उन्हें प्रणाम किया। तदनन्तर मुनि राजासे कहने लगे ॥ 13 ॥
मुनि बोले - एक बारका गायत्री जप दिनभरके पापका नाश कर देता है। दस बार गायत्री जप करनेसे दिन और रातका पाप नष्ट हो जाता है। गायत्रीका सौ बारका जप महीनेभरके संचित पापको हर लेता है और एक हजार बारका जप वर्षभरके संचित पापका नाश कर देता है। गायत्रीका एक लाख जप इस जन्मके किये गये पापों तथा दस लाख जप अन्य जन्मोंमें किये गये पापोंको नष्ट कर देता है। गायत्रीके एक करोड़ जपसे सभी जन्मोंमें किये गये पाप भस्म हो जाते हैं और इससे भी दस गुना जप विप्रोंकी मुक्ति कर देता है । ll 14 - 163 ॥
द्विजको चाहिये कि हाथको सर्पके फणके आकारका बनाकर अँगुलियोंको परस्पर पूर्णरूपसे सटाकर छिद्ररहित कर ले फिर हाथको नाभिस्थानसे ऊपरकी ओर हृदयदेशतक लाकर कुछ नीचेकी ओर झुकाये हुए उसे स्थिर करके स्वयं पूरबकी ओर मुख करके जप करे। अनामिकाके मध्य भागसे नीचेकी ओर होते हुए प्रदक्षिण क्रमसे तर्जनीके मूलतक जाना चाहिये, करमालाके जपका यही नियम है ।। 17-183 ॥हे राजन् श्वेतकमलके बीजों अथवा स्फटिक मणिकी पवित्र माला बनाकर तीर्थमें या किसी देवालयमें जप करना चाहिये। पीपलके पत्र अथवा कमलपर संयमपूर्वक मालाको रखकर गोरोचनसे अनुलिप्त करे, फिर गायत्री मन्त्रका उच्चारण करके विद्वान् पुरुष मालाको स्नान कराये। तत्पश्चात् उसी मालासे विधिपूर्वक गायत्री मन्त्रका सौ बार जप करना चाहिये अथवा पंचगव्य या गंगाजलसे स्नान कराकर शुद्ध की हुई मालासे भी जप किया जा सकता है । ll 19 - 22 ॥
हे राजर्षे! इस क्रमसे आप दस लाख गायत्रीका जप कीजिये। इससे आपके तीन जन्मोंके पापोंका नाश हो जायगा और आप भगवती सावित्रीका साक्षात् दर्शन प्राप्त करेंगे ll 23 ॥
हे राजन् ! आप पवित्र होकर प्रतिदिन प्रातः, मध्याह्न एवं सायंकालकी सन्ध्या सदा कीजिये। सन्ध्या न करनेवाला व्यक्ति अपवित्र रहता है और वह समस्त कर्मोंके लिये अयोग्य हो जाता है। वह दिनमें जो भी सत्कर्म करता है, उसके फलका अधिकारी नहीं रह जाता है ll 24-25 ll
जो ब्राह्मण प्रातः एवं सायंकालकी सन्ध्या नहीं करता, वह शुद्रके समान है और समस्त ब्राह्मणोचित कमसे बहिष्कृत कर देनेयोग्य है ll 26 ll
जो विप्र जीवनपर्यन्त सदा त्रिकालसन्ध्या करता है, वह तपस्या तथा तेजके कारण सूर्यके समान हो जाता है। उसके चरण कमलकी धूलसे पृथ्वी शीघ्र पवित्र हो जाती है। जो द्विज सन्ध्या करनेके कारण पवित्र हो चुका है, वह तेजसे सम्पन्न तथा जीवन्मुक्त ही है। उसके स्पर्शमात्रसे सभी तीर्थ पवित्र हो जाते हैं और उसके पाससे पाप उसी प्रकार भाग जाते हैं, जैसे गरुडको देखते ही सर्प ॥ 27- 29 ॥
जो दिन त्रिकालसन्ध्या नहीं करता, उसके द्वारा सम्पादित पूजाको देवगण तथा पिण्ड-तर्पणको पितृगण स्वेच्छापूर्वक स्वीकार नहीं करते हैं॥ 30 ॥ जो व्यक्ति मूलप्रकृतिकी भक्ति नहीं करता, उनके मन्त्रकी आराधना नहीं करता और उनका उत्सव नहीं मनाता; वह विषहीन सर्पकी तरह तेजरहित होता है ॥ 31 ॥जो द्विज विष्णुके मन्त्रसे विहीन है, त्रिकालसन्ध्यासे रहित है और एकादशी व्रतसे वंचित है; वह विषहोन सर्पको भाँति निस्तेज होता है ॥ 32 ॥
जो ब्राह्मण भगवान् श्रीहरिको अर्पण किया गया नैवेद्य प्रसादरूपमें ग्रहण नहीं करता, धोबीका काम करता है, बैलपर बोझा ढोनेका काम करता है, शूद्रोंका अन्न खाता है; वह विषहीन सर्पके समान है ॥ 33 ॥
जो ब्राह्मण शूद्रोंका शव जलाता है, शुद्र स्वीका शूद्र |पति बनता है और शूद्रोंके लिये भोजन तैयार करता है; वह विषहीन सर्पकी भाँति निस्तेज होता है ॥ 34 ॥
जो द्विज शूद्रोंसे दान लेता है, शूद्रोंका यह कराता है, मुनीमीका काम करता है और तलवार लेकर पहरेदारी करके जीविकोपार्जन करता है; वह विषहीन सर्पकी भाँति तेजशून्य होता है ॥ 35 ॥
जो ब्राह्मण कन्या- विक्रय करता है, भगवान्का नाम बेचता है, पति तथा पुत्रसे हीन और ऋतुस्नाता स्त्रीके यहाँ भोजन करता है, स्त्रियोंके व्यभिचारसे अपनी आजीविका चलाता है और सूदखोर होता है; वह विषहीन सर्पके समान तेजरहित होता है। जो द्विज विद्याका विक्रय करता है, वह भी विषहीन सर्पके सदृश होता है। जो ब्राह्मण सूर्योदय हो जानेके बाद सोता रहता है, भोजनमें मछली ग्रहण करता है और भगवतीको पूजासे वंचित है; वह विषहीन सर्पर्क समान निस्तेज है ॥ 36-38 ॥
हे मुने! ऐसा कहकर मुनिश्रेष्ठ पराशरने राजा अश्वपतिको सावित्रीको पूजाके सम्पूर्ण विधान तथा ध्यान आदि आवश्यक प्रयोग बतला दिये। महाराज अश्वपतिको सम्पूर्ण उपदेश देकर मुनि अपने आश्रम | चले गये। तत्पश्चात् राजाने भगवती सावित्रीकी विधिवत् उपासना करके उनके दर्शन प्राप्त किये तथा उन्हें अभीष्ट वर भी प्राप्त हो गया ।। 39-40 ॥
नारदजी बोले – उन मुनि पराशरने राजा अश्वपतिको सावित्रीके किस ध्यान, पूजा-विधान, स्तोत्र तथा मन्त्रका उपदेश देकर प्रस्थान किया था? साथ ही राजाने किस विधानसे वेदमाता सावित्रीकी | भलीभांति पूजा की और इस प्रकार उनकी विधिवत्पूजा करके उन्होंने कौन-सा वर प्राप्त किया ? [हे प्रभो!] सावित्रीका वह परम महिमामय, अत्यन्त रहस्ययुक्त और वेदप्रमाणित सम्पूर्ण प्रसंग संक्षेपमें सुनना चाहता हूँ ॥ 41-43 ॥
श्रीनारायण बोले- [ हे नारद!] ज्येष्ठमासके कृष्णपक्षकी त्रयोदशी तिथिको संयमपूर्वक रहकर व्रतीको चतुर्दशीतिथिमें व्रत करके शुद्ध समयमें भक्तिपूर्वक सावित्रीकी पूजा करनी चाहिये ॥ 44 ॥
यह व्रत चौदह वर्षका है। इसमें चौदह फलसहित चौदह प्रकारके नैवेद्य अर्पण किये जाते हैं। पुष्प, धूप, वस्त्र तथा यज्ञोपवीत आदिसे विधिपूर्वक पूजन करके नैवद्य अर्पण करना चाहिये। एक मंगल कलश स्थापित करके उसपर पल्लव रख दे। तत्पश्चात् गणेश, सूर्य, अग्नि, विष्णु, शिव तथा पार्वतीकी सम्यक् पूजा करके द्विजको आवाहित कलशपर अपनी इष्टदेवी सावित्रीका ध्यान करना चाहिये ॥ 45 - 47 ॥
माध्यन्दिनी शाखामें भगवती सावित्रीका जो ध्यान, स्तोत्र, पूजा-विधान तथा सर्वकामप्रद मन्त्र प्रतिपादित किया गया है, उसे आप सुनिये ॥ 48 ॥
ध्यान इस प्रकार है-'भगवती सावित्रीका वर्ण तप्त सुवर्णकी प्रभाके समान है, ये ब्रह्मतेजसे देदीप्यमान हैं, ये ग्रीष्म ऋतुके मध्याह्नकालीन हजारों सूर्योंकी सम्मिलित प्रभासे सम्पन्न हैं, इनका मुखमण्डल प्रसन्नता तथा मुसकानसे युक्त है, ये रत्नमय आभूषणोंसे अलंकृत हैं, अग्निके समान विशुद्ध वस्त्र इन्होंने धारण कर रखा है, भक्तोंपर कृपा करनेके लिये ही इन्होंने यह विग्रह धारण किया है, ये सुख प्रदान करनेवाली हैं, मुक्ति देनेवाली हैं, ये शान्त स्वभाववाली हैं, जगत्की रचना करनेवाले ब्रह्माजीकी प्रिया हैं, ये सर्वसम्पत्तिस्वरूपिणी हैं, सभी प्रकारकी सम्पदाएँ प्रदान करनेवाली हैं, वेदकी अधिष्ठात्री देवी हैं तथा समस्त वेद-शास्त्र इन्हींके स्वरूप हैं-ऐसी उन | वेदबीजस्वरूपा वेदमाता सावित्रीकी मैं उपासना करता हूँ।' इस ध्यानके द्वारा देवी सावित्रीका ध्यान करके नैवेद्य अर्पण करना चाहिये, तदनन्तर हाथोंको सिरसे लगाकर पुनः ध्यान करके भक्तिपूर्वक व्रतीको कलशपर देवी सावित्रीका आवाहन करना चाहिये ॥ 49-53॥तदनन्तर वेदोक्त मन्त्रोंका उच्चारण करते | सोलह प्रकारके पूजनोपचार अर्पण करके विधिपूर्वक महादेवी सावित्रीकी पूजा तथा स्तुति करके उन्हें प्रणाम करना चाहिये। आसन, पाद्य, अर्घ्य, स्नान, अनुलेपन, धूप, दीप, नैवेद्य, ताम्बूल, शीतल जल, वस्त्र, भूषण, माला, चन्दन, आचमन और मनोहर शव्या ये ही देनेयोग्य सोलह उपचार हैं (इनके निम्न मन्त्र हैं) । 54-56 ॥
[आसन - ] हे देवि ! श्रेष्ठ काष्ठसे निर्मित अथवा स्वर्णनिर्मित यह देवताओंका आधारस्वरूप पुण्यप्रद आसन मैंने आपको श्रद्धापूर्वक निवेदित किया है ॥ 57 ॥
[पाद्य - ] परम प्रीति उत्पन्न करनेवाला, पुण्यप्रद तथा पूजाका अंगभूत यह पवित्र तीर्थजल मेरे द्वारा आपको पाद्यरूपमें अर्पित किया गया है ॥ 58 ॥
[ अर्घ्य - ] दूर्वा, पुष्प, तुलसी तथा शंखजलसे समन्वित यह पवित्र तथा पुण्यदायक अर्ध्य मैंने आपको अर्पण किया है ॥ 59 ॥
[स्नान - ] चन्दन मिलाकर सुगन्धित किया गया जल तथा सुगन्ध फैलानेवाला यह तैल आपको स्नानहेतु भक्तिपूर्वक निवेदित किया है, आप इसे स्वीकार करें ॥ 60 ॥
[ अनुलेपन - ] हे अम्बिके। सुगन्धित द्रव्योंसे निर्मित, दिव्य गन्ध प्रदान करनेवाला तथा चन्दनजलसे मिश्रित यह पवित्र तथा प्रीतिदायक अनुलेपन मैंने आपको भक्तिपूर्वक अर्पण किया है ॥ 61 ॥
[भूप] हे परमेश्वरि समस्त मंगल प्रदान करनेवाला, पुण्यदायक, सुगन्धयुक्त, सुखदायक तथा सर्वमंगलरूप यह उत्तम धूप मैंने आपको अर्पण किया है, आप ग्रहण करें ।। 623 ॥
[दीप-] अन्धकारके नाशके बीजस्वरूप, | प्रकाश फैलानेवाला यह दीपक मैंने आपको जगत्के | दर्शनार्थ अर्पित किया है ॥ 633 ॥
नैवेद्य-] सन्तुष्टि, पुष्टि, प्रीति तथा पुण्य प्रदान करनेवाले एवं भूख शान्त करनेवाले इस | स्वादिष्ट नैवेद्यको आप स्वीकार करें। ll 6 ll[ ताम्बूल - ] कर्पूर आदिसे सुवासित, तुष्टिदायक, पुष्टिप्रद तथा रम्य यह उत्तम ताम्बूल मैंने आपको निवेदित किया है ॥ 65 ॥
[ शीतल जल - ] प्यासका शमन करनेवाले, जगत्के जीवन तथा प्राणरूप इस परम शीतल जलको आप स्वीकार करें ॥ 663 ॥ [ वस्त्र - ] कपास तथा रेशमसे निर्मित, देहके शोभास्वरूप तथा सभाओंमें सौन्दर्यकी वृद्धि करनेवाले इस वस्त्रको आप स्वीकार करें ॥ 673 ॥
[ आभूषण - ] सुवर्ण आदिसे निर्मित, प्रभायुक्त, सदा शोभा बढ़ानेवाले, सुखदायक तथा पुण्यप्रद इस रत्नमय आभूषणको आप स्वीकार करें ॥ 683 ॥
[ फल- ] अनेक वृक्षोंसे उत्पन्न, विविध रूपोंवाले, फलस्वरूप तथा फल प्रदान करनेवाले इस फलको आप स्वीकार करें ॥ 693 ॥
[ पुष्पमाला - ] सभी मंगलोंका मंगल करनेवाली, सर्वमंगलरूपा, अनेक प्रकारके पुष्पोंसे विनिर्मित, परम शोभासे सम्पन्न, प्रीतिदायिनी तथा पुण्यमयी इस मालाको आप स्वीकार करें ।। 70-71 ॥
[ सिन्दूर - ] हे देवि ! पुण्यप्रद तथा सुगन्धपूर्ण इस गन्धको आप स्वीकार करें। ललाटकी शोभा बढ़ानेवाले, भूषणोंमें परम श्रेष्ठ तथा अत्यन्त मनोहर इस सिन्दूरको आप स्वीकार करें ॥ 723 ॥
[ यज्ञोपवीत- ] पवित्र सूत्रोंसे निर्मित, विशुद्ध, ग्रन्थि (गाँठ) - से युक्त तथा वैदिक मन्त्रोंसे शुद्ध किये गये इस यज्ञोपवीतको आप स्वीकार करें ॥ 73 ॥ [ हे नारद!] विद्वान् पुरुष मूलमन्त्रोंका उच्चारण करते हुए इन द्रव्योंको भगवती सावित्रीके लिये अर्पण करके स्तोत्र पाठ करे और इसके बाद व्रती ब्राह्मणको भक्तिपूर्वक दक्षिणा प्रदान करे। 'सावित्री'- इस शब्दमें चतुर्थी विभक्ति लगाकर उसके अन्तमें स्वाहा तथा उसके पूर्वमें लक्ष्मी, माया और कामबीजोंको लगानेसे 'श्रीं ह्रीं क्लीं सावित्र्यै स्वाहा' - यह अष्टाक्षर मन्त्र कहा गया है। माध्यन्दिनीशाखामें वर्णित, सभी कामनाओंका फल प्रदान करनेवाले तथा विप्रोंके जीवनस्वरूप सावित्री स्तोत्रको आपके सामने व्यक्त करता हूँ-इसे ध्यानपूर्वक सुनिये ॥ 74-766 ॥हे नारद! प्राचीन कालकी बात है-गोलोकमें विराजमान श्रीकृष्णने सावित्रीको ब्रह्माके पास जाने की आज्ञा दी, किंतु वे सावित्री उनके साथ ब्रह्मलोक जानेको तैयार नहीं हुईं। तब कृष्णके कहने पर ब्रह्माजी भक्तिपूर्वक वेदमाता सावित्रीका स्तवन करने लगे। तदनन्तर उन सावित्रीने परम प्रसन्न होकर ब्रह्माको पति बनाना स्वीकार कर लिया ।। 77-783 ॥
ब्रह्माजी बोले- सच्चिदानन्द विग्रहवाली, मूलप्रकृति-स्वरूपिणी तथा हिरण्यगर्भरूपवाली हे सुन्दरि ! आप मुझपर प्रसन्न हों। परम तेजमय विग्रहवाली, परमानन्दस्वरूपिणी तथा द्विजातियोंके लिये जातिस्वरूपा हे सुन्दरि ! आप मुझपर प्रसन्न हों । नित्या, नित्यप्रिया, नित्यानन्दस्वरूपिणी तथा सर्वमंगलमयी हे देवि हे सुन्दरि ! आप मुझपर प्रसन्न हों । ब्राह्मणोंकी सर्वस्वरूपिणी, मन्त्रोंकी सारभूता, परात्परा, सुख प्रदान करनेवाली तथा मोक्षदायिनी हे देवि हे सुन्दरि आप मुझपर प्रसन्न हों। विप्रोंके पापरूपी ईंधनको दग्ध करनेके लिये प्रज्वलित अग्निकी शिखाके समान तथा ब्रह्मतेज प्रदान करनेवाली हे देवि ! हे सुन्दरि आप मुझपर प्रसन्न हों। मनुष्य मन, वाणी अथवा शरीरसे जो भी पाप करता है, वह सब आपके स्मरणमात्रसे जलकर भस्म हो जायगा ।। 79-843 ॥
इस प्रकार स्तुति करके जगत्की रचना करनेवाले ब्रह्माजी वहीं पर सभा भवनमें विराजमान हो गये। तब वे सावित्री ब्रह्माजीके साथ ब्रह्मलोकके लिये प्रस्थित हो गयीं ॥ 856 ॥
[हे मुने!] इसी स्तोत्रराजसे राजा अश्वपतिने भगवती सावित्रीकी स्तुति करके उनका दर्शन किया और उनसे मनोभिलषित वर भी प्राप्त किया। जो मनुष्य सन्ध्या करके इस स्तोत्रराजका पाठ करता है, वह उस फलको प्राप्त कर लेता है, जो चारों वेदोंका पाठ करनेसे मिलता है । 86-87 ।।