व्यासजी बोले- हे राजन् ! इस घटनासे अत्यन्त चिन्तित राजा शर्यातिने उन सबसे पूछनेके पश्चात् शान्ति तथा उग्रतापूर्वक भी अपने बन्धुजनोंसे पूछा ॥ 1 ॥
समस्त प्रजाजन और अपने पिताको अत्यन्त दुःखी देखकर तथा अपने द्वारा उन छिद्रोंमें काँटा चुभानेकी बातको सोचकर उस सुकन्याने यह कहा- हे पिताजी! वनमें खेलती हुई मैंने लताओंसे घिरा हुआ दो छिद्रोंवाला एक विशाल वल्मीक देखा ॥ 2-3 ॥
उन छिद्रोंमेंसे जुगनूकी भाँति तीव्र प्रकाशमान दो ज्योतियाँ मैंने देखीं। तब हे महाराज ! जुगनूकी शंका करके मैंने उन छिद्रोंमें सूई चुभो दी ॥ 4 ॥ हे पिताजी! उस समय मैंने देखा कि वह सूई जलसे भींग गयी थी और उस वल्मीकमेंसे 'हा-हा' की मन्द मन्द ध्वनि मुझे सुनायी पड़ी ॥ 5 ॥ हे राजन्! तब मैं आश्चर्यमें पड़ गयी कि यह क्या हो गया। मैं इस शंकासे ग्रस्त हो गयी कि न जाने मेरे द्वारा उस वल्मीकके मध्य में कौन-सी वस्तु बिँध गयी ॥ 6 ॥ सुकन्याका यह मधुर वचन सुनकर राजा शर्याति | इस कृत्यको मुनिका अपमान समझकर शीघ्रतापूर्वक | उस वल्मीकके पास जा पहुँचे ॥ 7 ॥वहाँ उन्होंने महान् कष्टमें पड़े हुए परम तपस्वी च्यवनमुनिको देखा। तत्पश्चात् उन्होंने मुनिके शरीरपर जमी हुई विशाल वल्मीक (बाँबी) - को हटाया ॥ 8 ॥
इसके बाद राजा शर्यातिने दण्डकी भाँति पृथ्वीपर पड़कर मुनि भार्गवको प्रणाम करके उनकी की और पुनः वे हाथ जोड़कर विनम्रतापूर्वक उनसे कहने लगे - हे महाभाग ! मेरी पुत्री खेल रही थी, उसीने यह दुष्कर्म कर दिया है। हे ब्रह्मन् ! उस बालिकाके द्वारा अनजानमें किये गये इस अपराधको आप क्षमा कर दें। मुनिगण क्रोधशून्य होते हैं-ऐसा मैंने सुना है; अतएव आप इस समय बालिकाका अपराध क्षमा कर दीजिये ॥ 9 - 11 ॥
व्यासजी बोले- उनकी बात सुनकर च्यवनमुनि नम्रतापूर्वक खड़े उन राजाको अत्यन्त दुःखित जानकर उनसे कहने लगे ॥ 12 ॥
च्यवन बोले- हे राजन्! मैं कभी भी लेशमात्र क्रोध नहीं करता। आपकी पुत्रीके द्वारा मुझे पीड़ा पहुँचाये जानेपर भी मैंने अभीतक आपको शाप नहीं | दिया है ॥ 13 ॥
हे महीपते ! इस समय मुझ निरपराधके नेत्रोंमें पीड़ा उत्पन्न हो रही है। मैं जानता हूँ कि इसी पापकर्मके कारण आप कष्टमें पड़ गये हैं ॥ 14 ॥ भगवतीके भक्तके प्रति घोर अपराध करके कौन-सा व्यक्ति सुख पा सकता है, चाहे साक्षात् शंकर ही उसके रक्षक क्यों न हों ॥ 15 ॥
हे महीपाल ! मैं क्या करूँ? मैं अन्धा हो गया हूँ और बुढ़ापेने मुझे घेर रखा है। हे राजन् ! अब मुझ अन्धेकी सेवा कौन करेगा ? ॥ 16 ॥
राजा बोले- हे मुनिश्रेष्ठ ! मेरे बहुत-से सेवक दिन-रात आपकी सेवा करेंगे। आप अपराध क्षमा करें; क्योंकि तपस्वीलोग अत्यन्त अल्प क्रोधवाले होते हैं ।॥ 17 ॥
च्यवन बोले- हे राजन्! मैं अन्धा हूँ, अतः अकेले रहकर मैं तप करनेमें कैसे समर्थ हो सकता हूँ? क्या आपके वे सेवक सम्यक् रूपसे मेरा प्रिय कार्य कर सकेंगे ? ॥ 18 ॥हे राजन्! यदि आप क्षमा करनेके लिये मुझसे कहते हैं तो मेरी एक बात मान लीजिये। मेरी सेवाके लिये कमलके समान नेत्रोंवाली अपनी कन्या मुझे सौंप दीजिये ॥ 19 ॥
हे महाराज! मैं आपकी इस कन्यापर प्रसन्न हे महामते ! मैं तपस्या करूँगा और वह मेरी सेवा करेगी ॥ 20 ॥
हे राजन् ! ऐसा करनेपर मुझे सुख मिलेगा और आपका भी कल्याण होगा। मेरे प्रसन्न हो जानेपर आपके सैनिकोंको भी सुख प्राप्त होगा, इसमें सन्देह नहीं है॥ 21 ॥
हे भूप ! मनमें यह विचार करके आप कन्यादान कर दीजिये। इसमें आपको कुछ भी दोष नहीं लगेगा; क्योंकि मैं एक संयमशील तपस्वी हूँ ॥ 22 ॥
व्यासजी बोले- हे भारत! मुनिकी बात सुनकर राजा शर्याति घोर चिन्तामें पड़ गये। 'दूँगा' या 'नहीं दूँगा'- कुछ भी उन्होंने नहीं कहा ॥ 23 ॥
वे सोचने लगे कि देवकन्याके तुल्य अपनी यह पुत्री इस अन्धे, कुरूप तथा बूढ़े मुनिको देकर मैं कैसे सुखी रह सकता हूँ ! ॥ 24 ॥
ऐसा अल्पबुद्धि तथा पापी कौन होगा, जो शुभ तथा अशुभका ज्ञान रखते हुए भी अपने सुखके लिये अपनी ही कन्याके सांसारिक सुखको नष्ट कर देगा ! ॥ 25 ॥
अन्धे तथा वृद्ध च्यवनमुनिको पतिरूपमें प्राप्त करके सुन्दर भौंहोंवाली तथा कामबाणसे व्यथित वह कन्या उनके साथ किस प्रकार अपना जीवन व्यतीत करेगी ! ॥ 26 ॥
अपने अनुकूल पति पाकर भी यौवनावस्था में [किसी स्त्रीके द्वारा ] और वह भी विशेष रूपसे रूपसम्पन्न स्त्रीके द्वारा कामको जीतना अत्यन्त कठिन है तो फिर इस वृद्ध तथा नेत्रहीन पतिको पाकर उसकी क्या स्थिति होगी ? ॥ 27 ॥
तपस्वी गौतमऋषिको पतिरूपमें प्राप्त करके रूप तथा यौवनसे युक्त सुन्दरी अहल्या इन्द्रके द्वारा शीघ्र ही ठग ली गयी थी और बादमें इसे धर्मविरुद्ध जानकर उसके पति गौतमने शाप दे दिया था। अतएव मुझे कष्ट भले ही मिले, किंतु मैं मुनिको अपनी पुत्री सुकन्या नहीं दूंगा 28-29 ।।ऐसा विचार करके राजा शर्याति सन्तप्त मनसे अपने घर चले गये और अत्यन्त विषादग्रस्त होकर उन्होंने मन्त्रियोंको बुलाकर उनसे मन्त्रणा की हे मन्त्रियो! आपलोग बताइये कि मैं इस समय क्या करूँ? अपनी पुत्री मुनिको सौंप दूँ अथवा स्वयं दुःख भोगूँ? अब आपलोग मिलकर इसपर सम्यक विचार कीजिये कि मेरा हित किस प्रकार होगा ? ।। 30-313 ॥
मन्त्रिगण बोले- हे महाराज ! इस विषम संकटकी स्थितिमें हम आपसे क्या कहें? यह अत्यन्त लावण्यमयी सुकन्या इस अभागेको देना कैसे उचित होगा ? ॥ 323 ॥
व्यासजी बोले- [हे राजन्!] तब अपने पिता तथा मन्त्रियोंको चिन्तासे आकुल देखकर सुकन्या उनका अभिप्राय समझ गयी और मुसकराकर बोली- हे पिताजी! आज आप चिन्तासे व्याकुल इन्द्रियोंवाले किसलिये हैं? निश्चित ही आप मेरे लिये ही अत्यन्त दुःखार्त तथा म्लानमुख हैं। अतएव हे पिताजी! मैं अभी भयाक्रान्त मुनि च्यवनके पास जाकर और उन्हें आश्वस्त करके अपनेको अर्पितकर | प्रसन्न करूँगी ॥ 33-353 ॥
इस प्रकार सुकन्याने जो बात कही, उसे सुनकर प्रसन्न मनवाले राजा शर्यातिने सचिवोंके समक्ष उससे कहा- हे पुत्रि ! तुम अबला हो, अतएव वृद्धतासे ग्रस्त उस अन्धे तथा विशेष रूपसे क्रोधी मुनिकी सेवा उस वनमें कैसे कर पाओगी ? ॥ 36-373 ॥
मैं इस प्रकारके रूपसे युक्त तथा रतिके तुल्य सुन्दरी कन्याको वार्धक्यसे ग्रस्त शरीरवाले अन्धे मुनिको अपने सुखके लिये भला कैसे दे दूँ? पिताको चाहिये कि वह अपनी पुत्री समान अवस्था, जाति तथा सामर्थ्यवाले और धन-धान्यसे सम्पन्न व्यक्तिको सौंपे, किंतु धनहीनको कभी भी नहीं सौंपे ॥ 38-396 ॥
हे विशाल नयनोंवाली पुत्रि कहाँ तो तुम ऐसी रूपवती और कहाँ वनमें रहनेवाला वह वृद्ध मुनि ! | ऐसी स्थितिमें मैं अपनी पुत्रीको उस अयोग्यको भला कैसे अर्पित करूँ ? ।। 40 ।।हे मनोहरे! हे कमलपत्रके समान नेत्रोंवाली! छोटी-सी पर्णकुटीमें जो सदा निवास करता है, ऐसे वरके साथ तुम्हारे विवाहकी कल्पना भी मैं कैसे कर सकता हूँ ! ॥ 413 ॥ मेरी तथा मेरे सैनिकोंकी मृत्यु हो जाय यह तो मेरे लिये उत्तम है, किंतु हे पिकभाषिणि! तुम्हें एक अन्धेको सौंप देना मुझे अच्छा नहीं लग रहा है ॥ 423 ॥ होनहार तो होकर ही रहता है, किंतु मैं अपने धैर्यका त्याग नहीं करूँगा और हे सुश्रोणि! तुम निश्चिन्त रहो; मैं तुम्हें उस अन्धे मुनिको कभी भी नहीं सौंप सकता ॥ 43 ॥
हे पुत्रि ! मेरा राज्य और यहाँतक कि मेरा शरीर भी रहे अथवा चला जाय, किंतु मैं उस नेत्रहीन मुनिको तुम्हें किसी भी स्थितिमें नहीं दूँगा ॥ 443 ॥
तत्पश्चात् पिताका वह वचन सुनकर अत्यन्त प्रसन्न मुखवाली सुकन्याने उनसे यह स्नेहयुक्त वचन कहा- ॥ 453 ॥
सुकन्या बोली- हे पिताजी! मेरे लिये आप चिन्ता न करें और अब मुझे मुनिको साँप दीजिये; क्योंकि मेरे लिये ऐसा कर देनेसे सम्पूर्ण प्रजाको सुख प्राप्त होगा। मैं हर प्रकारसे सन्तुष्ट होकर उस निर्जन वनमें अपने परम पवित्र वृद्ध पतिकी अगाध श्रद्धासे सेवा करूँगी और शास्त्रसम्मत सती-धर्मका पूर्ण तत्परताके साथ पालन करूँगी। हे निष्पाप पिताजी! भोग-विलासमें मेरी अभिरुचि नहीं है। आप अपने चित्तमें स्थिरता रखिये ॥ 46 - 486 ॥
व्यासजी बोले- उस सुकन्याकी बातें सुनकर सभी मन्त्री आश्चर्यमें पड़ गये और राजा भी परम प्रसन्न होकर मुनिके पास गये ॥ 493 ॥
वहाँ पहुँचकर उन तपोनिधिको सिर झुकाकर प्रणाम करके राजाने कहा- हे स्वामिन्! हे प्रभो मेरी इस पुत्रीको आप अपनी सेवाके लिये विधिपूर्वक स्वीकार कीजिये ।। 50 ।।
ऐसा कहकर उन राजाने विधि-विधानसे विवाह सम्पन्न करके अपनी पुत्री मुनिको सौंप दी और उस कन्याको ग्रहण करके च्यवनऋषि भी प्रसन्नहो गये। मुनिने राजाके द्वारा प्रदत्त उपहार ग्रहण नहीं किया। अपनी सेवाके लिये उन्होंने केवल राजकुमारीको ही स्वीकार किया ॥ 51-523 ॥
उन मुनिके प्रसन्न हो जानेपर सैनिकोंको सुख प्राप्त हो गया। उसी समयसे राजा भी परम आह्लादित रहने लगे ॥ 533 ॥ जब राजा शर्यातिने मुनिको पुत्री सौंपकर घर चलनेका विचार किया, तब कोमल अंगोंवाली राजकुमारी सुकन्या राजासे कहने लगी- ॥ 543 ॥
सुकन्या बोली - हे पिताजी! आप मेरे वस्त्र तथा आभूषण ले लीजिये और पहननेके लिये मुझे वल्कल एवं उत्तम मृगचर्म प्रदान कीजिये। मैं मुनिपत्नियोंका वेष बनाकर तपमें निरत रहती हुई पतिसेवा करूँगी; जिससे पृथ्वीतल, रसातल और स्वर्गलोकमें भी आपकी कीर्ति अक्षुण्ण रहेगी; परलोकके सुखके लिये मैं दिन-रात मुनिकी सेवा करती रहूँगी ॥ 55-573 ॥
सुन्दर तथा यौवनसम्पन्न अपनी पुत्री मुझ सुकन्याको एक अन्धे तथा वृद्ध मुनिको सौंपकर मेरे आचरणच्युत हो जानेकी शंका करके आप तनिक भी चिन्ता न कीजियेगा ॥ 583 ॥
जिस प्रकार पृथ्वीलोकमें वसिष्ठकी धर्मपत्नी अरुन्धती थी, उसी प्रकार मैं भी होऊँगी और जिस प्रकार अत्रिकी साध्वी भार्या अनसूया प्रसिद्ध हुईं, उसी प्रकार आपकी पुत्री मैं सुकन्या भी [ अपने पातिव्रत्यके प्रभावसे] कीर्ति बढ़ानेवाली होऊँगी, इसमें आपको सन्देह नहीं करना चाहिये ।। 59-603 ॥
सुकन्याकी बात सुनकर महान् धर्मज्ञ राजा शर्याति वस्त्रके रूपमें उसे मृगचर्म प्रदान करके रोने लगे। उस सुन्दर मुसकानवाली अपनी पुत्रीको शीघ्र ही आभूषण तथा वस्त्र त्यागकर मुनिवेष धारण किये देखकर राजा म्लानमुख होकर वहींपर ठहरे रहे ।। 61-623 ।।
अपनी पुत्रीको वल्कल तथा मृगचर्म धारण की हुई देखकर सभी रानियाँ भी रो पड़ीं। वे परम | शोकाकुल हो उठीं और काँपने लगीं ॥ 633 ॥[ व्यासजी बोले- ] हे राजन् ! तत्पश्चात् अपनी उस समर्पित पुत्री सुकन्यासे विदा लेकर तथा उसे वहीं छोड़कर चिन्तित राजा मन्त्रियोंके साथ अपने नगरको चले गये ॥ 64 ॥