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देवी भागवत महापुराण ( देवी भागवत)

Devi Bhagwat Purana (Devi Bhagwat Katha)

स्कन्ध 7, अध्याय 4 - Skand 7, Adhyay 4

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सुकन्याकी पतिसेवा तथा वनमें अश्विनीकुमारोंसे भेंटका वर्णन

व्यासजी बोले- [हे जनमेजय!] राजा | शर्यातिके चले जानेपर सुकन्या अपने पति च्यवन मुनिकी सेवामें संलग्न हो गयी। धर्मपरायण वह उस आश्रम में अग्नियोंकी सेवामें सदा निरत रहने लगी ॥ 1 ॥

सर्वदा पतिसेवामें संलग्न रहनेवाली वह बाला विविध प्रकारके स्वादिष्ट फल तथा कन्द-मूल लाकर मुनिको अर्पण करती थी ॥ 2 ॥

वह [शीतकालमें ] ऊष्ण जलसे उन्हें शीघ्रता पूर्वक स्नान करानेके पश्चात् मृगचर्म पहनाकर पवित्र आसनपर विराजमान कर देती थी। पुनः उनके आगे तिल, जौ, कुशा और कमण्डलु रखकर उनसे कहती थी-मुनिश्रेष्ठ! अब आप अपना नित्यकर्म करें ॥ 3-4 ॥

मुनिका नित्यकर्म समाप्त हो जानेपर वह सुकन्या पतिका हाथ पकड़कर उठाती और पुनः किसी आसन अथवा कोमल शय्यापर उन्हें बिठा देती थी ॥ 5 ॥

तत्पश्चात् वह राजकुमारी पके हुए फल तथा भली-भाँति सिद्ध किये गये नीवारान्न (धान्यविशेष) च्यवन मुनिको भोजन कराती थी॥ 6 ॥

वह सुकन्या भोजन करके तृप्त हुए पतिको आदरपूर्वक आचमन करानेके पश्चात् बड़े प्रेमके साथ उन्हें ताम्बूल तथा पूगीफल प्रदान करती थी॥7॥ च्यवनमुनिके मुखशुद्धि कर लेनेपर सुकन्या उन्हें सुन्दर आसनपर बिठा देती थी। तत्पश्चात् उनसे आज्ञा लेकर वह अपने शरीर-सम्बन्धी कृत्य सम्पन्न | करती थी ॥ 8 ॥तत्पश्चात् स्वयं फलाहार करके वह पुनः मुनिके पास जाकर नम्रतापूर्वक उनसे कहती थी- 'हे प्रभो ! मुझे क्या आज्ञा दे रहे हैं? यदि आपकी सम्मति हो तो मैं अब आपके चरण दबाऊँ।' इस प्रकार पतिपरायणा वह सुकन्या उनकी सेवामें सदा संलग्न रहती थी । ll 9-10 ॥

सायंकालीन हवन समाप्त हो जानेपर वह सुन्दरी स्वादिष्ट तथा मधुर फल लाकर मुनिको अर्पित करती थी । पुनः उनकी आज्ञासे भोजनसे बचे हुए आहारको बड़े प्रेमके साथ स्वयं ग्रहण करती थी । इसके बाद अत्यन्त कोमल तथा सुन्दर आसन बिछाकर उन्हें प्रेमपूर्वक उसपर लिटा देती थी ॥ 11-12 ॥

अपने प्रिय पतिके सुखपूर्वक शयन करनेपर वह सुन्दरी उनके पैर दबाने लगती थी। उस समय क्षीण कटि प्रदेशवाली वह सुकन्या कुलीन स्त्रियोंके धर्मके विषयमें उनसे पूछा करती थी ॥ 13 ॥

चरण दबा करके रातमें वह भक्तिपरायणा सुकन्या जब यह जान जाती थी कि च्यवनमुनि सो गये हैं, तब वह भी उनके चरणोंके पास ही सो जाती थी ॥ 14 ॥

ग्रीष्मकालमें अपने पति च्यवनमुनिको बैठा देखकर वह सुन्दरी सुकन्या ताड़के पंखेसे शीतल वायु करती हुई उनकी सेवामें तत्पर रहती थी। शीतकालमें सूखी लकड़ियाँ एकत्रकर उनके सम्मुख प्रज्वलित अग्नि रख करके वह उनसे बार-बार पूछा करती थी कि आप सुखपूर्वक तो हैं ? ॥ 15-16 ॥

ब्राह्ममुहूर्त में उठकर वह सुकन्या जल, पात्र तथा मिट्टी पतिके पास रखकर उन्हें शौचके लिये उठाती थी। इसके बाद उन्हें आश्रमसे कुछ दूर ले जाकर -बैठा देनेके बाद वहाँसे स्वयं कुछ दूर हटकर बैठी रहती थी। 'मेरे पतिदेव शौच कर चुके होंगे'- ऐसा जानकर वह उनके पास जा करके उन्हें उठाती थी और आश्रममें ले आकर अत्यन्त सावधानीपूर्वक एक सुन्दर आसनपर बिठा देती थी। तत्पश्चात् मिट्टी और जलसे विधिवत् उनके दोनों चरण धोकर फिर आचमनपात्र दे करके दन्तधावन (दातौन) ले आती थी। शास्त्रोक्त दातौन मुनिको देनेके बाद वह राजकुमारी मुनिके स्नानके लिये लाये गये शुद्ध तथा परम पवित्रजलको गरम करने लगती थी। तत्पश्चात् उस जलको ले आकर प्रेमपूर्वक उनसे पूछती थी- 'हे ब्रह्मन् ! आप क्या आज्ञा दे रहे हैं? आपने दन्तधावन तो कर लिया? उष्ण जल तैयार है, अतः अब आप मन्त्रोच्चारपूर्वक स्नान कर लीजिये। हवन और प्रातः कालीन संध्याका समय उपस्थित है; आप विधिपूर्वक अग्निहोत्र करके देवताओंका पूजन कीजिये ' ॥ 17 - 23 ॥

इस प्रकार वह श्रेष्ठ सुकन्या तपस्वी पति प्राप्तकर तप तथा नियमके साथ प्रेमपूर्वक प्रतिदिन उनकी सेवा करती रहती थी ॥ 24 ॥

सुन्दर मुखवाली वह सुकन्या अग्नि तथा अतिथियोंकी सेवा करती हुई प्रसन्नतापूर्वक सदा च्यवनमुनिकी सेवामें तल्लीन रहती थी ॥ 25 ॥

किसी समय सूर्यके पुत्र दोनों अश्विनीकुमार क्रीड़ा करते हुए च्यवनमुनिके आश्रमके पास आ पहुँचे ॥ 26 ॥ उन अश्विनीकुमारोंने जलमें स्नान करके निवृत्त हुई तथा अपने आश्रमकी ओर जाती हुई उस सर्वांगसुन्दरी सुकन्याको देख लिया ॥ 27 ॥

देवकन्याके समान कान्तिवाली उस सुकन्याको | देखकर दोनों अश्विनीकुमार अत्यधिक मुग्ध हो गये | और शीघ्र ही उसके पास पहुँचकर आदरपूर्वक कहने लगे- ॥ 28 ॥

हे वरारोहे! थोड़ी देर ठहरो। हे गजगामिनि ! हम | दोनों सूर्यदेवके पुत्र अश्विनीकुमार तुमसे कुछ पूछने के लिये यहाँ आये हैं। हे शुचिस्मिते! सच-सच बताओ कि तुम किसकी पुत्री हो, तुम्हारे पति कौन हैं ? हे चारुलोचने! इस सरोवरमें स्नान करनेके लिये तुम अकेली ही उद्यानमें क्यों आयी हुई हो ? ॥ 29-30 ॥

हे कमललोचने! तुम तो सौन्दर्यमें दूसरी लक्ष्मीकी भाँति प्रतीत हो रही हो। हे शोभने! हम यह रहस्य जानना चाहते हैं, तुम बताओ ॥ 31 ॥

हे कान्ते! हे चंचल नयनोंवाली! जब तुम्हारे ये कोमल तथा नग्न चरण कठोर भूमिपर पड़ते हैं तथा आगेकी ओर बढ़ते हैं, तब ये हमारे हृदयमें व्यथा उत्पन्न करते हैं। हे तन्वंगि! तुम विमानपर चलनेयोग्य हो; तब तुम नंगे पाँव पैदल ही क्यों चल रही हो? इस वनमें तुम्हारा भ्रमण क्यों हो रहा है ? ।। 32-33 ।।तुम सैकड़ों दासियोंको साथ लेकर घरसे क्यों नहीं निकली ? हे वरानने! तुम राजपुत्री हो अथवा अप्सरा हो, यह सच-सच बता दो ॥ 34 ॥

तुम्हारी माता धन्य हैं, जिनसे तुम उत्पन्न हुई हो। तुम्हारे वे पिता भी धन्य हैं। हे अनघे! तुम्हारे पतिके भाग्यके विषयमें तो हम तुमसे कह ही नहीं सकते ॥ 35 ॥

हे सुलोचने! यहाँकी भूमि देवलोकसे भी बढ़कर है। पृथ्वीतलपर पड़ता हुआ तुम्हारा चरण इसे पवित्र बना रहा है ॥ 36 ॥

इस वनमें रहनेवाले सभी मृग तथा दूसरे पक्षी जो तुम्हें देख रहे हैं, वे परम भाग्यशाली हैं। यह भूमि भी परम पवित्र हो गयी है ॥ 37 ॥

हे सुलोचने! तुम्हारी अधिक प्रशंसा क्या करें ? अब तुम सत्य बता दो कि तुम्हारे पिता कौन हैं और तुम्हारे पतिदेव कहाँ रहते हैं? उन्हें आदरपूर्वक देखनेकी हमारी इच्छा है ॥ 38 ॥

व्यासजी बोले- अश्विनीकुमारोंकी यह बात सुनकर परम सुन्दरी राजकुमारी सुकन्या अत्यन्त लज्जित हो गयी देवकन्याके सदृश वह राजपुत्री उनसे कहने लगी- ॥ 39 ॥

आपलोग मुझे राजा शर्यातिकी पुत्री तथा च्यवन मुनिकी भार्या समझें। मैं एक पतिव्रता स्त्री हूँ। मेरे पिताजीने स्वेच्छासे मुझे इन्हें सौंप दिया है ॥ 40 ॥

हे देवताओ! मेरे पतिदेव वृद्ध तथा नेत्रहीन हैं। वे परम तपस्वी हैं। मैं प्रसन्न मनसे दिन-रात उनकी सेवा करती रहती हूँ ॥ 41 ॥

आप दोनों कौन हैं और यहाँ क्यों पधारे हुए हैं? मेरे पतिदेव इस समय आश्रममें विराजमान हैं। आपलोग वहाँ चलकर आश्रमको पवित्र कीजिये ॥ 42 ॥

हे राजन् ! अश्विनीकुमारोंने सुकन्याकी बात सुनकर उससे कहा- हे कल्याणि तुम्हारे पिताने तुम्हें उन तपस्वीको कैसे सौंप दिया ? ॥ 43 ॥

तुम तो बादलमें चमकनेवाली विद्युत्की भाँति इस वन- प्रदेशमें सुशोभित हो रही हो। हे भामिनि ! तुम्हारे सदृश स्त्री तो देवताओंके यहाँ भी नहीं देखी गयी है ॥ 44 ॥काले केशपाशवाली तुम दिव्य वस्त्र तथा सर्वविध आभूषण धारण करनेके योग्य हो। इन वल्कल वस्त्रोंको धारण करके तुम शोभा नहीं पा रही हो ॥ 45 ॥

हे रम्भोरु ! हे विशालनेत्रे ! हे प्रिये! विधाताने यह कैसा मूर्खतापूर्ण कृत्य किया है, जो कि तुम वार्धक्यसे पीड़ित इस नेत्रहीन मुनिको पतिरूपमें प्राप्त करके इस वनमें महान् कष्ट भोग रही हो ! ॥ 46 ॥ हे नृत्यविशारदे ! तुमने इन्हें व्यर्थ ही वरण

किया। नवीन अवस्था प्राप्त करके तुम उनके साथ शोभा नहीं पा रही हो। भलीभाँति लक्ष्य साध करके कामदेवके द्वारा वेगपूर्वक छोड़े गये बाण किसपर गिरेंगे; तुम्हारे पति तो इस प्रकारके [ असमर्थ ] हैं ।। 47 ।।

विधाता निश्चय ही मन्द बुद्धिवाले हैं, जो उन्होंने नवयौवनसे सम्पन्न तुम्हें नेत्रहीनकी पत्नी बना दिया । हे विशाललोचने! तुम इनके योग्य नहीं हो। अतः हे चारुलोचने! तुम किसी दूसरेको अपना पति बना लो ॥ 48 ॥

हे कमललोचने! ऐसे नेत्रहीन मुनिको पतिरूपमें | पाकर तुम्हारा जीवन व्यर्थ हो गया है। हमलोग इस तरहसे वनमें तुम्हारे निवास करने तथा वल्कलवस्त्र धारण करनेको उचित नहीं मानते हैं ॥ 49 ॥

अतः हे प्रशस्त अंगोंवाली ! तुम सम्यक् विचार करके हम दोनोंमेंसे किसी एकको अपना पति बना लो। हे सुलोचने! हे मानिनि ! हे सुन्दरि ! तुम इस [अन्धे तथा बूढ़े] मुनिकी सेवा करती हुई अपने यौवनको व्यर्थ क्यों कर रही हो ? ॥ 50 ॥

भाग्यसे हीन तथा पोषण-भरण और रक्षाके सामर्थ्यसे रहित उस मुनिकी सेवा तुम क्यों कर रही हो? हे निर्दोष अंगोंवाली! सभी प्रकारके सुखोपभोगों से वंचित इस मुनिको छोड़कर तुम हम दोनोंमेंसे किसी एकको स्वीकार कर लो ॥ 51 ॥

हे कान्ते । हमें वरण करके तुम इन्द्रके नन्दनवनमें तथा कुबेरके चैत्ररथवनमें स्वेच्छापूर्वक विहार करो। हे मानिनि । तुम इस अन्धे तथा वृद्धके साथ अपमानित होकर अपना जीवन कैसे | बिताओगी ? ॥ 52 ॥तुम समस्त शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न एक राजकुमारी हो तथा सांसारिक हाव-भावोंको भलीभाँति जानती हो । अतः तुम भाग्यहीन स्त्रीकी भाँति इस निर्जन वनमें अपना समय व्यर्थ क्यों बिता रही हो ? ॥ 53 ॥ अतः हे पिकभाषिणि! हे सुमुखि ! हे विशालनेत्रे ! तुम अपने सुखके लिये हम दोनोंमेंसे किसी एकको स्वीकार कर लो। कृश कटि प्रदेशवाली हे राजकुमारी! तुम इस वृद्ध मुनिको शीघ्र छोड़कर हमारे साथ देवभवनोंमें चलकर नानाविध सुखोंका भोग करो ॥ 54 ॥

हे सुन्दर केशोंवाली ! हे मृगनयनी ! इस निर्जन वनमें एक वृद्धके साथ रहते हुए तुम्हें कौन-सा सुख है? एक तो तुम्हारी यह नयी युवावस्था और उसपर भी एक अन्धेकी सेवा तुम्हें करनी पड़ रही है । हे राजकुमारी ! क्या दुःख भोगना ही तुम्हारा अभीष्ट है ? ॥ 55 ॥

हे चन्द्रमुखी! तुम अत्यन्त कोमल हो, अतः [वनसे] तुम्हारा इस प्रकार फल तथा जल ले आना कदापि उचित नहीं है ॥ 56 ॥

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देवी भागवत महापुराण
Index


  1. [अध्याय 1] पितामह ब्रह्माकी मानसी सृष्टिका वर्णन, नारदजीका दक्षके पुत्रोंको सन्तानोत्पत्तिसे विरत करना और दक्षका उन्हें शाप देना, दक्षकन्याओंसे देवताओं और दानवोंकी उत्पत्ति
  2. [अध्याय 2] सूर्यवंशके वर्णनके प्रसंगमें सुकन्याकी कथा
  3. [अध्याय 3] सुकन्याका च्यवनमुनिके साथ विवाह
  4. [अध्याय 4] सुकन्याकी पतिसेवा तथा वनमें अश्विनीकुमारोंसे भेंटका वर्णन
  5. [अध्याय 5] अश्विनीकुमारोंका च्यवनमुनिको नेत्र तथा नवयौवनसे सम्पन्न बनाना
  6. [अध्याय 6] राजा शर्यातिके यज्ञमें च्यवनमुनिका अश्विनीकुमारोंको सोमरस देना
  7. [अध्याय 7] क्रुद्ध इन्द्रका विरोध करना; परंतु च्यवनके प्रभावको देखकर शान्त हो जाना, शर्यातिके बादके सूर्यवंशी राजाओंका विवरण
  8. [अध्याय 8] राजा रेवतकी कथा
  9. [अध्याय 9] सूर्यवंशी राजाओंके वर्णनके क्रममें राजा ककुत्स्थ, युवनाश्व और मान्धाताकी कथा
  10. [अध्याय 10] सूर्यवंशी राजा अरुणद्वारा राजकुमार सत्यव्रतका त्याग, सत्यव्रतका वनमें भगवती जगदम्बाके मन्त्र जपमें रत होना
  11. [अध्याय 11] भगवती जगदम्बाकी कृपासे सत्यव्रतका राज्याभिषेक और राजा अरुणद्वारा उन्हें नीतिशास्त्रकी शिक्षा देना
  12. [अध्याय 12] राजा सत्यव्रतको महर्षि वसिष्ठका शाप तथा युवराज हरिश्चन्द्रका राजा बनना
  13. [अध्याय 13] राजर्षि विश्वामित्रका अपने आश्रममें आना और सत्यव्रतद्वारा किये गये उपकारको जानना
  14. [अध्याय 14] विश्वामित्रका सत्यव्रत (त्रिशंकु ) - को सशरीर स्वर्ग भेजना, वरुणदेवकी आराधनासे राजा हरिश्चन्द्रको पुत्रकी प्राप्ति
  15. [अध्याय 15] प्रतिज्ञा पूर्ण न करनेसे वरुणका क्रुद्ध होना और राजा हरिश्चन्द्रको जलोदरग्रस्त होनेका शाप देना
  16. [अध्याय 16] राजा हरिश्चन्द्रका शुनःशेषको स्तम्भमें बाँधकर यज्ञ प्रारम्भ करना
  17. [अध्याय 17] विश्वामित्रका शुनःशेपको वरुणमन्त्र देना और उसके जपसे वरुणका प्रकट होकर उसे बन्धनमुक्त तथा राजाको रोगमुक्त करना, राजा हरिश्चन्द्रकी प्रशंसासे विश्वामित्रका वसिष्ठपर क्रोधित होना
  18. [अध्याय 18] विश्वामित्रका मायाशूकरके द्वारा हरिश्चन्द्रके उद्यानको नष्ट कराना
  19. [अध्याय 19] विश्वामित्रकी कपटपूर्ण बातोंमें आकर राजा हरिश्चन्द्रका राज्यदान करना
  20. [अध्याय 20] हरिश्चन्द्रका दक्षिणा देनेहेतु स्वयं, रानी और पुत्रको बेचनेके लिये काशी जाना
  21. [अध्याय 21] विश्वामित्रका राजा हरिश्चन्द्रसे दक्षिणा माँगना और रानीका अपनेको विक्रयहेतु प्रस्तुत करना
  22. [अध्याय 22] राजा हरिश्चन्द्रका रानी और राजकुमारका विक्रय करना और विश्वामित्रको ग्यारह करोड़ स्वर्णमुद्राएँ देना तथा विश्वामित्रका और अधिक धनके लिये आग्रह करना
  23. [अध्याय 23] विश्वामित्रका राजा हरिश्चन्द्रको चाण्डालके हाथ बेचकर ऋणमुक्त करना
  24. [अध्याय 24] चाण्डालका राजा हरिश्चन्द्रको श्मशानघाटमें नियुक्त करना
  25. [अध्याय 25] सर्पदंशसे रोहितकी मृत्यु, रानीका करुण विलाप, पहरेदारोंका रानीको राक्षसी समझकर चाण्डालको सौंपना और चाण्डालका हरिश्चन्द्रको उसके वधकी आज्ञा देना
  26. [अध्याय 26] रानीका चाण्डालवेशधारी राजा हरिश्चन्द्रसे अनुमति लेकर पुत्रके शवको लाना और करुण विलाप करना, राजाका पत्नी और पुत्रको पहचानकर मूर्च्छित होना और विलाप करना
  27. [अध्याय 27] चिता बनाकर राजाका रोहितको उसपर लिटाना और राजा-रानीका भगवतीका ध्यानकर स्वयं भी पुत्रकी चितामें जल जानेको उद्यत होना, ब्रह्माजीसहित समस्त देवताओंका राजाके पास आना, इन्द्रका अमृत वर्षा करके रोहितको जीवित करना और राजा-रानीसे स्वर्ग चलनेके लिये आग्रह करना, राजाका सम्पूर्ण अयोध्यावासियोंके साथ स्वर्ग जानेका निश्चय
  28. [अध्याय 28] दुर्गम दैत्यकी तपस्या; वर-प्राप्ति तथा अत्याचार, देवताओंका भगवतीकी प्रार्थना करना, भगवतीका शताक्षी और शाकम्भरीरूपमें प्राकट्य, दुर्गमका वध और देवगणोंद्वारा भगवतीकी स्तुति
  29. [अध्याय 29] व्यासजीका राजा जनमेजयसे भगवतीकी महिमाका वर्णन करना और उनसे उन्हींकी आराधना करनेको कहना, भगवान् शंकर और विष्णुके अभिमानको देखकर गौरी तथा लक्ष्मीका अन्तर्धान होना और शिव तथा विष्णुका शक्तिहीन होना
  30. [अध्याय 30] शक्तिपीठोंकी उत्पत्तिकी कथा तथा उनके नाम एवं उनका माहात्म्य
  31. [अध्याय 31] तारकासुरसे पीड़ित देवताओंद्वारा भगवतीकी स्तुति तथा भगवतीका हिमालयकी पुत्रीके रूपमें प्रकट होनेका आश्वासन देना
  32. [अध्याय 32] देवीगीताके प्रसंगमें भगवतीका हिमालयसे माया तथा अपने स्वरूपका वर्णन
  33. [अध्याय 33] भगवतीका अपनी सर्वव्यापकता बताते हुए विराट्रूप प्रकट करना, भयभीत देवताओंकी स्तुतिसे प्रसन्न भगवतीका पुनः सौम्यरूप धारण करना
  34. [अध्याय 34] भगवतीका हिमालय तथा देवताओंसे परमपदकी प्राप्तिका उपाय बताना
  35. [अध्याय 35] भगवतीद्वारा यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा तथा कुण्डलीजागरणकी विधि बताना
  36. [अध्याय 36] भगवतीके द्वारा हिमालयको ज्ञानोपदेश - ब्रह्मस्वरूपका वर्णन
  37. [अध्याय 37] भगवतीद्वारा अपनी श्रेष्ठ भक्तिका वर्णन
  38. [अध्याय 38] भगवतीके द्वारा देवीतीर्थों, व्रतों तथा उत्सवोंका वर्णन
  39. [अध्याय 39] देवी- पूजनके विविध प्रकारोंका वर्णन
  40. [अध्याय 40] देवीकी पूजा विधि तथा फलश्रुति