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देवी भागवत महापुराण ( देवी भागवत)

Devi Bhagwat Purana (Devi Bhagwat Katha)

स्कन्ध 3, अध्याय 23 - Skand 3, Adhyay 23

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सुदर्शनका शशिकलाके साथ भारद्वाज आश्रमके लिये प्रस्थान, युधाजित् तथा अन्य राजाओंसे सुदर्शनका घोर संग्राम, भगवती सिंहवाहिनी दुर्गाका प्राकट्य, भगवतीद्वारा युधाजित् और शत्रुजित्का वध, सुबाहुद्वारा भगवतीकी स्तुति

व्यासजी बोले - [ हे राजन्!] उस समय राजा सुबाहुने छः दिनोंतक विविध प्रकारके भोजन बनवाकर सुदर्शनको प्रेमपूर्वक खिलाया ॥ 1 ॥

इस प्रकार विवाहके सभी कृत्य करके राजा सुबाहु सुदर्शनको उपहार प्रदान करके सचिवोंके साथ मन्त्रणा कर रहे थे, उसी समय अपने दूतोंका यह कथन सुनकर कि विरोधी राजाओंने मार्ग रोक रखा है, वे अमित तेजवाले राजा सुबाहु खिन्नमनस्क हो गये ॥ 2-3 ॥तब व्रतपरायण सुदर्शनने अपने श्वसुरसे कहा- आप हमें शीघ्र विदा कर दीजिये, हम निःशंक होकर चले जायँगे ॥ 4 ॥

हे राजन् ! भारद्वाजमुनिके पवित्र आश्रम में पहुँचनेपर वहीं सावधानी के साथ आगे रहनेके लिये विचार कर लिया जायगा ॥ 5 ॥

अतः हे पुण्यात्मन्! उन राजाओंसे आप कुछ भी भय न करें; क्योंकि जगज्जननी भगवती मेरी सहायता अवश्य करेंगी ॥ 6 ॥

व्यासजी बोले- अपने जामाता सुदर्शनका ऐसा विचार जानकर नृपश्रेष्ठ सुबाहुने उन्हें धन | देकर विदा कर दिया और वे सुदर्शन भी तत्काल चल पड़े। नृपश्रेष्ठ सुबाहु भी एक विशाल सेना लेकर उनके पीछे-पीछे चले। इस प्रकार उन सैनिकोंसे आवृत सुदर्शन निर्भय होकर मार्गमें चले जा रहे थे ।। 7-8 ।।

रथोंसे घिरे हुए एक रथपर अपनी पत्नीके साथ बैठकर जाते हुए रघुनन्दन सुदर्शनने मार्गमें उन राजाओंके सैनिकोंको देखा ॥ 9 ॥

राजा सुबाहु भी उन सैनिकोंको देखकर चिन्तित हुए। तब सुदर्शनने विधिपूर्वक अपने मनमें भगवती जगदम्बाका ध्यान किया और प्रसन्नतापूर्वक उनकी शरण ली। उस समय सुदर्शन एकाक्षर कामराज नामक सर्वोत्तम मन्त्रका जप कर रहे थे, उसके प्रभावसे वे अपनी नवविवाहिता पत्नीके साथ निर्भय तथा चिन्तामुक्त थे ॥ 10-11 ॥

इसी बीच सभी राजा एक साथ कोलाहल करके कन्याका हरण करनेकी इच्छासे अपनी-अपनी सेनाके साथ उनकी ओर बढ़े ॥ 12 ॥

उन्हें ऐसा करते देखकर काशीनरेश सुबाहुने उनको मारनेका विचार किया, किंतु विजयकी इच्छावाले रघुवंशी सुदर्शनने उन्हें मना कर दिया ॥ 13 ॥

उस समय एक दूसरेको मार डालनेकी अभिलाषावाले महाराज सुबाहु तथा अन्य राजाओंकी सेनाओंमें शंख भेरी, नगाड़े और दुन्दुभि बजने लगे ॥ 14 ॥

सुदर्शनको मार डालने की इच्छासे शत्रुजित् सैन्य बलसे युक्त होकर बड़ी तत्परतासे तैयार खड़ा था और राजा युधाजित भी उसकी सहायताके लियेसन्नद्ध थे। उनमें कुछ राजागण अपनी सेनाके साथ दर्शकके रूपमें खड़े थे। तभी युधाजित् आगे बढ़कर सुदर्शनके समक्ष जा डटा। उसके साथ शत्रुजित् भी अपने भाईका वध करनेके लिये आ गया तब क्रोधके वशीभूत होकर वे सब परस्पर एक-दूसरेपर बाणोंसे प्रहार करने लगे। इस प्रकार वहाँ वाणोंद्वारा बड़ा भारी संग्राम छिड़ गया। तब काशीनरेश सुबाहु एक विशाल सेना लेकर अपने सुप्रशंसित जामाताकी सहायताके लिये जा पहुँचे ।। 15- 183

इस प्रकार भयानक लोमहर्षक संग्राम छिड़ जानेपर सहसा भगवती प्रकट हो गयीं। वे सिंहपर सवार थीं, विविध प्रकारके शस्त्रास्त्र धारण किये थीं, अत्यन्त मनोहर थीं तथा उत्तम आभूषणोंसे अलंकृत थीं, दिव्य वस्त्र पहने थीं और मन्दारकी मालासे सुशोभित थीं ॥ 19-203 ॥

उन्हें देखकर वे राजागण अत्यन्त चकित हो गये। वे कहने लगे कि सिंहपर सवार यह स्त्री कौन है और कहाँसे प्रकट हो गयी है? उन्हें देखकर सुदर्शनने सुबाहुसे कहा- हे राजन्! यहाँ प्रादुर्भूत हुई इन दिव्य दर्शनवाली महादेवीको आप देखें ये दयामयी भगवती निश्चय ही मुझपर अनुग्रह करनेके लिये प्रकट हुई हैं। हे महाराज! मैं निर्भय तो पहले ही था, किंतु अब और भी अधिक निर्भय हो गया 21 - 233

सुदर्शन और सुबाहुने उन सुमुखी भगवतीको देखकर उन्हें प्रणाम किया। उनके दर्शनसे वे दोनों प्रसन्न हो गये। उसी समय भगवतीके सिंहने भीषण गर्जन किया, जिससे उस रणभूमिमें विद्यमान सभी हाथी भयसे काँपने लगे। उस समय महाभीषण आँधी चलने लगी और सभी दिशाएँ अत्यन्त भयानक हो गर्यो ।। 24-256

तब सुदर्शनने अपने सेनापतिसे कहा कि जहाँ ये राजागण [मार्ग रोककर] खड़े हैं, उधर ही तुम वेगसे आगे बढ़ो। ये दुष्ट तथा कुपित राजालोग हमारा क्या कर लेंगे? अब हमें शरण देनेके लिये स्वयं भगवती जगदम्बा आ गयी हैं। अतएव हमें निर्भय होकर राजाओंसे भरे इस मार्गपर आगे बढ़नाचाहिये। मेरे स्मरण करते ही मेरी रक्षाके लिये थे भगवती आ गयी हैं। सुदर्शनका वचन सुनकर सेनापति उसी मार्गसे आगे बढ़ा ॥ 26-29 ॥

अतिशय कुपित होकर युधाजित्ने उन राजाओंसे कहा- तुमलोग भयभीत होकर खड़े क्यों हो; कन्यासहित इस सुदर्शनको मार डालो ॥ 30 ॥ हम सभी बलवानोंका तिरस्कार करके यह बलहीन बालक कन्याको लेकर निर्भीकतापूर्वक बड़े वेगसे चला जा रहा है ॥ 31 ॥

सिंहपर विराजमान उस स्त्रीको देखकर तुमलोग क्यों डरते हो? हे महाभाग राजाओ! इस समय सुदर्शनकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिये और अत्यन्त सावधान होकर इसका वध कर देना चाहिये ॥ 32 ॥

इसे मारकर हम सुन्दर आभूषण धारण करनेवाली कन्याको छीन लेंगे। हम सिंहसदृश वीरोंके भागको यह सियार नहीं ले जा सकता ।। 33 ।।

ऐसा कहकर वह युधाजित् अत्यन्त कुपित हो [अपने दौहित्र] शत्रुजित् तथा विशाल सेनाको साथ लिये हुए युद्धकी इच्छासे आ डटा ॥ ॥ 34 ॥

अब वह कानतक धनुष खींचकर लोहकारके द्वारा सानपर चढ़ाकर तीक्ष्ण किये हुए, शिलापर घिसकर तेज किये गये तथा समान पुच्छयुक्त बाणोंको शीघ्रतापूर्वक छोड़ने लगा ॥ 35 ॥

इस प्रकार उसके ऊपर प्रहार करके वह दुर्बुद्धि युधाजित् सुदर्शनको मार डालना चाहता था, किंतु सुदर्शनने उसके बाणोंको छूटते ही अपने बाणोंसे क्षणभरमें काट डाला ॥ 36 ॥

वह भीषण युद्ध छिड़ जानेपर भगवती चण्डिका अत्यन्त क्रुद्ध हो उठीं और युधाजित्पर बाण बरसाने लग ॥ 37 ॥

उस समय कल्याणमयी जगदम्बिका विविध रूप धारण कर लेती थीं। वे नाना प्रकारके शस्त्रास्त्र लेकर घमासान युद्ध कर रही थीं ॥ 38 ॥

कुछ ही क्षणोंमें शत्रुजित् और राजा युधाजि दोनों मार डाले गये और अपने-अपने रथोंसे गिर पड़े। उस समय जयजयकारकी ध्वनि होने लगी ॥ 39 ॥

उस युद्धमें भगवतीको तथा मामा और भांजेकी (नाना-नातीकी) मृत्यु देखकर सभी राजा बहुत विस्मयमें पड़ गये ॥ 40 ॥महाराज सुबाहु भी रणभूमिमें उन दोनोंका मरण | देखकर बहुत प्रसन्न हुए और दुर्गतिनाशिनी भगवती दुर्गाकी स्तुति करने लगे ॥ 41

सुबाहु बोले- जगत्को धारण करनेवाली देवीको नमस्कार है। भगवती शिवाको निरन्तर नमस्कार है। मनोरथ पूर्ण करनेवाली आप भगवती दुर्गाको बार बार नमस्कार है ॥ 42 ॥

आप शिवा और शान्तिदेवीको नमस्कार है। हे मोक्षदायिनि। आप विद्यास्वरूपिणीको नमस्कार है। हे जगन्माता ! हे शिवे ! आप विश्वव्यापिनी तथा जगज्जननीको नमस्कार है ।। 43 ।।

हे देवि! मैं सगुण प्राणी अपनी बुद्धिसे बहुत प्रकारसे चिन्तन करके भी आप निर्गुणा भगवतीकी गतिको नहीं जान पाता। हे विश्वजननि! प्रत्यक्ष प्रभाववाली, भक्तोंकी पीड़ा दूर करनेमें तत्पर तथा परम शक्तिस्वरूपा आपकी स्तुति मैं कैसे करूँ ? 44

आप ही देवी सरस्वती हैं, आप ही बुद्धिरूपसे सबके भीतर विराजमान हैं, आप ही सब प्राणियोंकी विद्या, मति और गति हैं और आप ही सबके मनका नियन्त्रण करती हैं, तब मैं आपकी स्तुति कैसे करूँ? सर्वव्यापी आत्माके रूपकी भी स्तुति भला कभी की जा सकती है ? ॥ 45 ॥

देवताओंमें श्रेष्ठ ब्रह्मा, विष्णु और शिव निरन्तर आपकी स्तुति करते हुए भी आपके गुणोंके पार नहीं जा सके। तब हे अम्ब! भेदबुद्धिवाला, सत्व आदि गुणोंसे आबद्ध तथा अप्रसिद्ध एक तुच्छ जीव मैं आपके चरित्रका वर्णन करनेमें कैसे समर्थ हो सकता हूँ? ॥ 46 ॥

अहो! सत्संग कौन-सा मनोरथ पूर्ण नहीं कर देता? आपके इस प्रासंगिक संगसे ही मेरा चित्त शुद्ध हो गया। [ आपके भक्त ] अपने इस जामाता सुदर्शनके संगके प्रभावसे मैंने अनायास आपका यह अद्भुत दर्शन पा लिया ॥ 47 ॥

हे ! ब्रह्मा, शिव, भगवान् विष्णु, इन्द्र सहित सभी देवता तथा तत्त्वज्ञानी मुनिलोग भी आपके जिस दर्शनको चाहते हैं, वह आपका दुर्लभ दर्शन मुझे बिना शम, दम तथा समाधि आदिके ही प्राप्त हो गया ।। 48 ।।हे भवानि कहाँ अतिशय मन्दमति मैं और कहाँ भवरूपी रोगके लिये औषधिस्वरूप आपका यह शीघ्र | अद्वितीय दर्शन! हे देवि! मुझे ज्ञात हो गया कि आप सदा भावनायुक्त रहती हैं। देवसमूहद्वारा पूजी जानेवाली आप अपने भक्तोंपर अनुकम्पा करती हैं ॥ 49 ॥

हे देवि! आपने इस भीषण संकटके समय जिस प्रकार इस सुदर्शनकी रक्षा की है, आपके इस चरित्रका में किस तरह वर्णन करूँ? आपने आज इसके दो बलवान् शत्रुओंको तत्काल मार डाला। | भक्तोंपर अनुकम्पा करनेवाला आपका यह चरित्र परम पवित्र है ॥ 50 ॥

हे देवि विशेष विचार करनेपर ज्ञात होता है कि आपका ऐसा करना कोई आश्चर्यकी बात नहीं है क्योंकि आप अखिल स्थावर-जंगम जगत्की रक्षा करती हैं। आपने शत्रुको मारकर दयालुतावश ध्रुवसन्धिके पुत्र इस सुदर्शनकी इस समय रक्षा की ॥ 51 ॥

हे भवानि ! अपने सेवापरायण भक्तके यशको अत्यन्त उज्ज्वल बनानेके लिये ही आपने इस चरित्रकी रचना की है, नहीं तो मेरी कन्याका पाणिग्रहण करके यह असमर्थ सुदर्शन युद्धमें सकुशल जीवित कैसे बच सकता था ? ॥ 52 ॥

जब आप अपने भक्तोंके जन्म-मरण आदि भयको नष्ट करनेमें समर्थ हैं, तब उसकी लौकिक अभिलाषा पूर्ण कर देना कौन बड़ी बात है ? हे जननि! आप पाप-पुण्यसे रहित, सगुणा तथा निर्गुणा हैं; इसी कारण भक्तजन सदा आपके गुण गाते रहते हैं ॥ 53 ॥

हे देवि! हे भुवनेश्वरि! आज आपके दर्शनसे मैं पवित्र, कृतार्थ और धन्य जन्मवाला हो गया। हे माता! मैं न आपका भजन जानता और न तो बीजमन्त्र जानता हूँ। मैं आपकी प्रत्यक्ष प्रभाववाली महिमाको आज जान गया ॥ 54 ॥

व्यासजी बोले- महाराज सुबाहुके इस प्रकार स्तुति करनेपर भगवती शिवाका मुखमण्डल प्रसन्नता भर गया। तब भगवतीने उन राजासे कहा- हे सुव्रत । तुम वर माँगो ॥ 55 ॥

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देवी भागवत महापुराण
Index


  1. [अध्याय 1] राजा जनमेजयका ब्रह्माण्डोत्पत्तिविषयक प्रश्न तथा इसके उत्तरमें व्यासजीका पूर्वकालमें नारदजीके साथ हुआ संवाद सुनाना
  2. [अध्याय 2] भगवती आद्याशक्तिके प्रभावका वर्णन
  3. [अध्याय 3] ब्रह्मा, विष्णु और महेशका विभिन्न लोकोंमें जाना तथा अपने ही सदृश अन्य ब्रह्मा, विष्णु और महेशको देखकर आश्चर्यचकित होना, देवीलोकका दर्शन
  4. [अध्याय 4] भगवतीके चरणनखमें त्रिदेवोंको सम्पूर्ण ब्रह्माण्डका दर्शन होना, भगवान् विष्णुद्वारा देवीकी स्तुति करना
  5. [अध्याय 5] ब्रह्मा और शिवजीका भगवतीकी स्तुति करना
  6. [अध्याय 6] भगवती जगदम्बिकाद्वारा अपने स्वरूपका वर्णन तथा 'महासरस्वती', 'महालक्ष्मी' और 'महाकाली' नामक अपनी शक्तियोंको क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु और शिवको प्रदान करना
  7. [अध्याय 7] ब्रह्माजीके द्वारा परमात्माके स्थूल और सूक्ष्म स्वरूपका वर्णन; सात्त्विक, राजस और तामस शक्तिका वर्णन; पंचतन्मात्राओं, ज्ञानेन्द्रियों, कर्मेन्द्रियों तथा पंचीकरण क्रियाद्वारा सृष्टिकी उत्पत्तिका वर्णन
  8. [अध्याय 8] सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुणका वर्णन
  9. [अध्याय 9] गुणोंके परस्पर मिश्रीभावका वर्णन, देवीके बीजमन्त्रकी महिमा
  10. [अध्याय 10] देवीके बीजमन्त्रकी महिमाके प्रसंगमें सत्यव्रतका आख्यान
  11. [अध्याय 11] सत्यव्रतद्वारा बिन्दुरहित सारस्वत बीजमन्त्र 'ऐ-ऐ' का उच्चारण तथा उससे प्रसन्न होकर भगवतीका सत्यव्रतको समस्त विद्याएँ प्रदान करना
  12. [अध्याय 12] सात्त्विक, राजस और तामस यज्ञोंका वर्णन मानसयज्ञकी महिमा और व्यासजीद्वारा राजा जनमेजयको देवी यज्ञके लिये प्रेरित करना
  13. [अध्याय 13] देवीकी आधारशक्तिसे पृथ्वीका अचल होना तथा उसपर सुमेरु आदि पर्वतोंकी रचना, ब्रह्माजीद्वारा मरीचि आदिकी मानसी सृष्टि करना, काश्यपी सृष्टिका वर्णन, ब्रह्मलोक, वैकुण्ठ, कैलास और स्वर्ग आदिका निर्माण; भगवान् विष्णुद्वारा अम्बायज्ञ करना और प्रसन्न होकर भगवती आद्या शक्तिद्वारा आकाशवाणीके माध्यमसे उन्हें वरदान देना
  14. [अध्याय 14] देवीमाहात्म्यसे सम्बन्धित राजा ध्रुवसन्धिकी कथा, ध्रुवसन्धिकी मृत्युके बाद राजा युधाजित् और वीरसेनका अपने-अपने दौहित्रोंके पक्षमें विवाद
  15. [अध्याय 15] राजा युधाजित् और वीरसेनका युद्ध, वीरसेनकी मृत्यु, राजा ध्रुवसन्धिकी रानी मनोरमाका अपने पुत्र सुदर्शनको लेकर भारद्वाजमुनिके आश्रममें जाना तथा वहीं निवास करना
  16. [अध्याय 16] युधाजित्का भारद्वाजमुनिके आश्रमपर आना और उनसे मनोरमाको भेजनेका आग्रह करना, प्रत्युत्तरमें मुनिका 'शक्ति हो तो ले जाओ' ऐसा कहना
  17. [अध्याय 17] धाजित्का अपने प्रधान अमात्यसे परामर्श करना, प्रधान अमात्यका इस सन्दर्भमें वसिष्ठविश्वामित्र प्रसंग सुनाना और परामर्श मानकर युधाजित्‌का वापस लौट जाना, बालक सुदर्शनको दैवयोगसे कामराज नामक बीजमन्त्रकी प्राप्ति, भगवतीकी आराधनासे सुदर्शनको उनका प्रत्यक्ष दर्शन होना तथा काशिराजकी कन्या शशिकलाको स्वप्नमें भगवतीद्वारा सुदर्शनका वरण करनेका आदेश देना
  18. [अध्याय 18] राजकुमारी शशिकलाद्वारा मन-ही-मन सुदर्शनका वरण करना, काशिराजद्वारा स्वयंवरकी घोषणा, शशिकलाका सखीके माध्यमसे अपना निश्चय माताको बताना
  19. [अध्याय 19] माताका शशिकलाको समझाना, शशिकलाका अपने निश्चयपर दृढ़ रहना, सुदर्शन तथा अन्य राजाओंका स्वयंवरमें आगमन, युधाजित्द्वारा सुदर्शनको मार डालनेकी बात कहनेपर केरलनरेशका उन्हें समझाना
  20. [अध्याय 20] राजाओंका सुदर्शनसे स्वयंवरमें आनेका कारण पूछना और सुदर्शनका उन्हें स्वप्नमें भगवतीद्वारा दिया गया आदेश बताना, राजा सुबाहुका शशिकलाको समझाना, परंतु उसका अपने निश्चयपर दृढ़ रहना
  21. [अध्याय 21] राजा सुबाहुका राजाओंसे अपनी कन्याकी इच्छा बताना, युधाजित्‌का क्रोधित होकर सुबाहुको फटकारना तथा अपने दौहित्रसे शशिकलाका विवाह करनेको कहना, माताद्वारा शशिकलाको पुनः समझाना, किंतु शशिकलाका अपने निश्चयपर दृढ़ रहना
  22. [अध्याय 22] शशिकलाका गुप्त स्थानमें सुदर्शनके साथ विवाह, विवाहकी बात जानकर राजाओंका सुबाहुके प्रति क्रोध प्रकट करना तथा सुदर्शनका मार्ग रोकनेका निश्चय करना
  23. [अध्याय 23] सुदर्शनका शशिकलाके साथ भारद्वाज आश्रमके लिये प्रस्थान, युधाजित् तथा अन्य राजाओंसे सुदर्शनका घोर संग्राम, भगवती सिंहवाहिनी दुर्गाका प्राकट्य, भगवतीद्वारा युधाजित् और शत्रुजित्का वध, सुबाहुद्वारा भगवतीकी स्तुति
  24. [अध्याय 24] सुबाहुद्वारा भगवती दुर्गासे सदा काशीमें रहनेका वरदान माँगना तथा देवीका वरदान देना, सुदर्शनद्वारा देवीकी स्तुति तथा देवीका उसे अयोध्या जाकर राज्य करनेका आदेश देना, राजाओंका सुदर्शनसे अनुमति लेकर अपने-अपने राज्योंको प्रस्थान
  25. [अध्याय 25] सुदर्शनका शत्रुजित्की माताको सान्त्वना देना, सुदर्शनद्वारा अयोध्या में तथा राजा सुबाहुद्वारा काशीमें देवी दुर्गाकी स्थापना
  26. [अध्याय 26] नवरात्रव्रत विधान, कुमारीपूजामें प्रशस्त कन्याओंका वर्णन
  27. [अध्याय 27] कुमारीपूजामें निषिद्ध कन्याओंका वर्णन, नवरात्रव्रतके माहात्म्यके प्रसंग में सुशील नामक वणिक्की कथा
  28. [अध्याय 28] श्रीरामचरित्रवर्णन
  29. [अध्याय 29] सीताहरण, रामका शोक और लक्ष्मणद्वारा उन्हें सान्त्वना देना
  30. [अध्याय 30] श्रीराम और लक्ष्मणके पास नारदजीका आना और उन्हें नवरात्रव्रत करनेका परामर्श देना, श्रीरामके पूछनेपर नारदजीका उनसे देवीकी महिमा और नवरात्रव्रतकी विधि बतलाना, श्रीरामद्वारा देवीका पूजन और देवीद्वारा उन्हें विजयका वरदान देना