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देवी भागवत महापुराण ( देवी भागवत)

Devi Bhagwat Purana (Devi Bhagwat Katha)

स्कन्ध 8, अध्याय 7 - Skand 8, Adhyay 7

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सुमेरुपर्वतका वर्णन तथा गंगावतरणका आख्यान

श्रीनारायण बोले- हे नारद! सुमेरुगिरिके पूर्वमें अठारह हजार योजन लम्बाई तथा दो हजार योजन चौड़ाई तथा ऊँचाईवाले दो पर्वत हैं। वे दोनों श्रेष्ठ पर्वत जठर और देवकूट है। सुमेरुके पश्चिममें भी दो पर्वत हैं उनमें पहला पवमान और दूसरा पारियात्र नामसे विख्यात है। वे दोनों पर्वत जठर तथा देवकूटके ही समान ऊँचाई तथा विस्तारवाले कहे गये हैं। सुमेरुके दक्षिणमें कैलास और करवीर नामसे विख्यात दो पर्वत हैं ये दोनों विशाल पर्वतराज पहलेके ही समान लम्बाई तथा चौड़ाईवाले हैं। इसी प्रकार सुमेरुके उत्तरमें त्रिभृंग और मकर नामक दो पर्वत स्थित हैं। सूर्यकी भाँति सदा प्रकाश करता हुआ यह सुवर्णमय सुमेरुपर्वत इन्हीं आठों पर्वतश्रेष्ठोंसे चारों तरफसे घिरा हुआ है ॥15॥ इस सुमेरुपर्वतके शिखरपर ठीक मध्य में पद्मयोनि ब्रह्माजीकी पुरी है। यह दस हजार योजनके विस्तारमें विराजमान है ॥ 6 ॥तत्त्वज्ञानी विद्वान् महात्मागण समचौकोर इस स्वर्णमयी पुरीके विषयमें कहते हैं कि उस पुरीके चारों ओर आठ लोकपालोंकी श्रेष्ठ पुरियाँ प्रसिद्ध हैं। सुवर्णमयी वे पुरियाँ दिशा तथा रूपके अनुसार स्थापित हैं। ढाई हजार योजनके विस्तारमें इनकी रचना की गयी है ॥ 7-83 ।।

इस प्रकार सुमेरुपर्वतपर ब्रह्मा तथा इन्द्र, अग्नि आदि लोकपालोंकी क्रमशः मनोवती, अमरावती, तेजोवती, संयमनी, कृष्णांगना, श्रद्धावती, गन्धवती, महोदया और यशोवती - ये नौ पुरियाँ प्रतिष्ठित हैं ॥ 9-103 ॥

हे नारद! यज्ञमूर्ति सर्वव्यापी भगवान् विष्णुके बायें पैर के अँगूठेके नखसे आघातके कारण ब्रह्माण्डके ऊपरी भागमें हुए छिद्रके मध्यसे गंगा प्रकट हुईं और हे विभो ! वे स्वर्गके शिखरपर आकर रुक गयीं। सम्पूर्ण प्राणियोंके पापोंका नाश करनेवाले जलसे परिपूर्ण ये गंगा संसारमें साक्षात् विष्णुपदीके नामसे प्रसिद्ध हैं । ll 11 - 133 ॥

हजार युगका अत्यन्त दीर्घ समय बीतनेपर सम्पूर्ण देवनदियोंकी स्वामिनी वे भगवती गंगा स्वर्गके शिखरपर जहाँ आयी थीं, वह स्थान तीनों लोकमें 'विष्णुपद' नामसे विख्यात है। यह वही स्थान है, जहाँ उत्तानपादके पुत्र परम पवित्र ध्रुव रहते हैं। भगवान्के दोनों चरणकमलोंके पवित्र पराग धारण किये हुए वे परम पुण्यात्मा राजर्षि ध्रुव अचल पदवीका आश्रय लेकर आज भी वहींपर विराजमान हैँ ॥ 14–163 ॥

गंगाके प्रवाहको जाननेवाले तथा सभी प्राणियोंके हितकी कामना करनेवाले उदारहृदय सप्तर्षि भी वहीं रहते हैं और उनकी प्रदक्षिणा किया करते हैं ॥ 176 ॥

आत्यन्तिकी सिद्धि (मोक्ष)-स्वरूपिणी ये गंगा तपस्या करनेवाले पुरुषोंको सिद्धि देनेवाली हैं- ऐसा समझकर सिरपर जटाजूट धारण करनेवाले वे सिद्धगण उनमें निरन्तर स्नान करते रहते हैं ॥ 183 ॥

तत्पश्चात् वे गंगा विष्णुपदसे चलकर हजारों करोड़ों विमानोंसे व्याप्त देवमार्गपर अवतरित होतीहुई चन्द्रमण्डलको आप्लावित करके ब्रह्मलोकमें पहुँचीं हे नारद। वहीं ब्रह्मलोकमें वे देवी गंगा चार भागों में विभक्त होकर चार नामोंसे चारों दिशाओंमें प्रवाहित हुई और अन्तमें वे नद तथा नदियोंके स्वामी समुद्र में मिल गयीं ॥ 19 - 216 ॥

सीता, चतुः (चक्षु), अलकनन्दा और भद्रा इन चार नामोंसे वे प्रसिद्ध हैं। उनमेंसे सभी पापोंका शमन करनेवाली सीता नामसे विख्यात गंगा ब्रह्मलोकसे उतरकर केसर नामक पर्वतोंके शिखरसे गिरती हुई गन्धमादनपर्वतके शिखरपर गिरीं और वहाँसे भद्राश्ववर्षके बीचसे होती हुई पूर्व दिशामें चली गयीं। इसके बाद देवताओंसे पूजित वे देवनदी गंगा क्षारोदधिमें जाकर मिल गर्यो । ll 22 - 243 ॥

तदनन्तर चक्षु नामवाली दूसरी गंगा माल्यवानृपर्वतके शिखरसे निकलीं और अत्यन्त वेगके साथ बहती हुई केतुमालवर्षमें आ गयीं। पुनः देववन्द्या वे देवनदी | गंगा पश्चिम दिशामें आ गयीं और अन्तमें सागरमें समाविष्ट हो गयीं ॥ 25-263 ॥

हे नारद! तीसरी वह पुण्यमयी धारा अलकनन्दा नामसे विख्यात है। वह ब्रह्मलोकके दक्षिणसे होकर बहुत से वनों और पर्वत शिखरोंको पार करके पर्वतश्रेष्ठ हेमकूटपर पहुँची। यहाँसे भी निकलकर वह अत्यन्त वेगके साथ बहती हुई भारतवर्षमें आ गयी। इसके बाद नदियोंमें श्रेष्ठ अलकनन्दा नामक वह तीसरी नदी दक्षिण समुद्रमें मिल गयी, जिसमें स्नानके लिये प्रस्थान करनेवाले मनुष्योंको पग-पगपर राजसूय तथा अश्वमेध आदिका फल भी दुर्लभ नहीं है ।। 27 - 303 ॥

तदनन्तर भद्रा नामक चौथी धारा भृंगवान्पर्वतसे निकली। तीनों लोकोंको पवित्र करनेवाली यह गंगा | उत्तर कुरुप्रदेशोंको भलीभाँति तृप्त करती हुई अन्तमें समुद्रमें मिल गयी ॥ 31-32 ॥

हे नारद। अन्य बहुतसे नद और नदियाँ प्रत्येक वर्षमें हैं। प्रायः ये सभी मेरु और मन्दारपर्वतसे ही निकले हुए हैं ॥ 33 ॥उन नौ वर्षोंमें भारतवर्ष कर्मक्षेत्र कहा गया है। अन्य आठ वर्ष पृथ्वीपर रहते हुए भी स्वर्ग-भोग प्रदान करनेवाले हैं। हे नारद! ये वर्ष स्वर्गमें रहनेवाले पुरुषोंके शेष पुण्योंको भोगनेके स्थान हैं। देवताओंके | समान स्वरूप तथा वज्रतुल्य अंगोंवाले उन पुरुषोंकी आयु दस हजार वर्ष होती है। दस हजार हाथियोंके बलसे सम्पन्न वे पुरुष स्त्रियोंसे समन्वित, यथेच्छ कामक्रीडासे सन्तुष्ट तथा सुखी रहते हैं । वहाँकी स्त्रियाँ अपनी आयु समाप्त होनेके एक वर्ष पूर्वतक गर्भ धारण करती हैं। वहाँपर सदा त्रेतायुगके समान समय विद्यमान रहता है । 34-37 ॥

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देवी भागवत महापुराण
Index


  1. [अध्याय 1] प्रजाकी सृष्टिके लिये ब्रह्माजीकी प्रेरणासे मनुका देवीकी आराधना करना तथा देवीका उन्हें वरदान देना
  2. [अध्याय 2] ब्रह्माजीकी नासिकासे वराहके रूपमें भगवान् श्रीहरिका प्रकट होना और पृथ्वीका उद्धार करना, ब्रह्माजीका उनकी स्तुति करना
  3. [अध्याय 3] महाराज मनुकी वंश-परम्पराका वर्णन
  4. [अध्याय 4] महाराज प्रियव्रतका आख्यान तथा समुद्र और द्वीपोंकी उत्पत्तिका प्रसंग
  5. [अध्याय 5] भूमण्डलपर स्थित विभिन्न द्वीपों और वर्षोंका संक्षिप्त परिचय
  6. [अध्याय 6] भूमण्डलके विभिन्न पर्वतोंसे निकलनेवाली विभिन्न नदियोंका वर्णन
  7. [अध्याय 7] सुमेरुपर्वतका वर्णन तथा गंगावतरणका आख्यान
  8. [अध्याय 8] इलावृतवर्षमें भगवान् शंकरद्वारा भगवान् श्रीहरिके संकर्षणरूपकी आराधना तथा भद्राश्ववर्षमें भद्रश्रवाद्वारा हयग्रीवरूपकी उपासना
  9. [अध्याय 9] हरिवर्षमें प्रह्लादके द्वारा नृसिंहरूपकी आराधना, केतुमालवर्षमें श्रीलक्ष्मीजीके द्वारा कामदेवरूपकी तथा रम्यकवर्षमें मनुजीके द्वारा मत्स्यरूपकी स्तुति-उपासना
  10. [अध्याय 10] हिरण्मयवर्षमें अर्यमाके द्वारा कच्छपरूपकी आराधना, उत्तरकुरुवर्षमें पृथ्वीद्वारा वाराहरूपकी एवं किम्पुरुषवर्षमें श्रीहनुमान्जीके द्वारा श्रीरामचन्द्ररूपकी स्तुति-उपासना
  11. [अध्याय 11] जम्बूद्वीपस्थित भारतवर्षमें श्रीनारदजीके द्वारा नारायणरूपकी स्तुति उपासना तथा भारतवर्षकी महिमाका कथन
  12. [अध्याय 12] प्लक्ष, शाल्मलि और कुशद्वीपका वर्णन
  13. [अध्याय 13] क्रौंच, शाक और पुष्करद्वीपका वर्णन
  14. [अध्याय 14] लोकालोकपर्वतका वर्णन
  15. [अध्याय 15] सूर्यकी गतिका वर्णन
  16. [अध्याय 16] चन्द्रमा तथा ग्रहों की गतिका वर्णन
  17. [अध्याय 17] श्रीनारायण बोले- इस सप्तर्षिमण्डलसे
  18. [अध्याय 18] राहुमण्डलका वर्णन
  19. [अध्याय 19] अतल, वितल तथा सुतललोकका वर्णन
  20. [अध्याय 20] तलातल, महातल, रसातल और पाताल तथा भगवान् अनन्तका वर्णन
  21. [अध्याय 21] देवर्षि नारदद्वारा भगवान् अनन्तकी महिमाका गान तथा नरकोंकी नामावली
  22. [अध्याय 22] विभिन्न नरकोंका वर्णन
  23. [अध्याय 23] नरक प्रदान करनेवाले विभिन्न पापोंका वर्णन
  24. [अध्याय 24] देवीकी उपासनाके विविध प्रसंगोंका वर्णन